धर्म एवं दर्शन >> राष्ट्रीय धर्म राष्ट्रीय धर्मप्रबोध कुमार मजुमदार
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इसमें स्वामी रामतीर्थ के भाषणों का संकलन है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
आज भौतिक उन्नति के चरमोत्कर्ष से प्रलुब्ध किन्तु सच्चे सुख और शान्ति की
क्षुधा से पीड़ित विश्व की आँखें, भारतीय अध्यात्म एवं वेदान्तदर्शन के
व्यावहारिक स्वरूप की ओर आशा के साथ निहार रही हैं।
प्रस्तुत ‘रामतीर्थ वचनामृत’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य, मनुष्य के लिए नित्यप्रति के जीवन में वेदान्त के सूत्रों को ढालने के संबंध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त अमृत-वचनों को संगृहीत करना और विश्व के समक्ष, नयी समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।
यत्किञ्चित सफलता यदि हमें इस प्रयोजन में प्राप्त हुई, तो निस्संदेह हमारा साहस हमें आगे बढ़ने को उत्साहित करता रहेगा।
प्रस्तुत ‘रामतीर्थ वचनामृत’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य, मनुष्य के लिए नित्यप्रति के जीवन में वेदान्त के सूत्रों को ढालने के संबंध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त अमृत-वचनों को संगृहीत करना और विश्व के समक्ष, नयी समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।
यत्किञ्चित सफलता यदि हमें इस प्रयोजन में प्राप्त हुई, तो निस्संदेह हमारा साहस हमें आगे बढ़ने को उत्साहित करता रहेगा।
प्रकाशक
राष्ट्रीय धर्म
कितने सम्प्रदाय हैं और कितने ही मत
चक्कर और घुमावदार कितने ही पथ;
जब कि जरूरत है इस दुखियारे जग को
सदय बनने की कला के मग की।
चक्कर और घुमावदार कितने ही पथ;
जब कि जरूरत है इस दुखियारे जग को
सदय बनने की कला के मग की।
सूर्य अस्त हो रहा है। गहरी साँसों से
निम्नलिखित गीत गाया जा रहा है और
बहते हुए आँसुओं से लिखा जा रहा है-
एकदा देखा हुआ यह दृश्य मेरा पुनः आविर्भूत होता
जानता नहीं वास्तव था वह किंवा मैं ही अस्वस्थ था
सूरज के अस्त पर लेकिन ये आँखें भर आती हैं अक्सर ही
तभी वह झाँकी भी आती है, मेरे ही अपने भारत की झाँकी।
**** *** *** *** ***
दिन ढल रहा था मन्द गति से, था समीर भी हो गया निश्चल
पश्चिम से आ रहा था उमड़ता धीरे-धीरे उछ्वल जल आकाश,
मेघ और सागर-तरंग घुलमिल एक लालित्य से भरे
सेंदुर से प्रोज्वल हो उठे, लाल सूरज की आभा से गहरे।
**** *** *** *** ***
और स्तब्ध मैं रहा देखता सम्मुख था चिर गौरव मेरे
बीते हुए दिनों की स्मृतियाँ दुखमय जाग उठीं मन मेरे
शैशव-यौवन की याद जगाती निशि दिन चारों ओर उदासी
रक्त-रंजिता सूर्याभा को अपलक देखें आँखें प्यासी
भूत-भावना झपटी मुझ पर मृत सबके सब हुए खड़े
कफन लपेटे दूर हुए सब, प्राण लालिमा से गाल लाल पड़े।
**** *** *** *** ***
उनके स्वर शहनाई-जैसे उस समय कानों में अटके
उनके नयन भी संग-संग मेरे लाल सूर्य की ओर लगे
बहुतेरे दिन गुजरे तबसे सालों दुख-सुख गये भरे
दूर-दूर हम रहे घूमते डर से तन-मन-रोम भरे
सूरज के अस्त पर किन्तु ये आंखें भर आती हैं अक्सर ही
और तभी झाँकी भी आती है मेरे ही अपने भारत की झाँकी।
**** *** *** *** ***
जानता नहीं वास्तव था वह किंवा मैं ही अस्वस्थ था
सूरज के अस्त पर लेकिन ये आँखें भर आती हैं अक्सर ही
तभी वह झाँकी भी आती है, मेरे ही अपने भारत की झाँकी।
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दिन ढल रहा था मन्द गति से, था समीर भी हो गया निश्चल
पश्चिम से आ रहा था उमड़ता धीरे-धीरे उछ्वल जल आकाश,
मेघ और सागर-तरंग घुलमिल एक लालित्य से भरे
सेंदुर से प्रोज्वल हो उठे, लाल सूरज की आभा से गहरे।
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और स्तब्ध मैं रहा देखता सम्मुख था चिर गौरव मेरे
बीते हुए दिनों की स्मृतियाँ दुखमय जाग उठीं मन मेरे
शैशव-यौवन की याद जगाती निशि दिन चारों ओर उदासी
रक्त-रंजिता सूर्याभा को अपलक देखें आँखें प्यासी
भूत-भावना झपटी मुझ पर मृत सबके सब हुए खड़े
कफन लपेटे दूर हुए सब, प्राण लालिमा से गाल लाल पड़े।
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उनके स्वर शहनाई-जैसे उस समय कानों में अटके
उनके नयन भी संग-संग मेरे लाल सूर्य की ओर लगे
बहुतेरे दिन गुजरे तबसे सालों दुख-सुख गये भरे
दूर-दूर हम रहे घूमते डर से तन-मन-रोम भरे
सूरज के अस्त पर किन्तु ये आंखें भर आती हैं अक्सर ही
और तभी झाँकी भी आती है मेरे ही अपने भारत की झाँकी।
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ऐ अस्तगामी सूर्य ! तू भारत में उदित होने जा रहा है। क्या तू कृपया उस
कीर्तिमयी भूमि को राम का यह संदेशा ले जायगा ? क्या ये प्रेम के
अश्रुविन्दु भारत के खेतों में ओस की बूँदें बन जायेंगे ? जिस प्रकार एक
शैव शिव की पूजा करता है, वैष्णव विष्णु की बौद्ध बुद्ध की, ईसाई ईसा की
और मुसलमान मुहम्मद की, वैसे ही मैं प्रेमाग्नि से रक्ताभ हृदय लिये शैव,
वैष्णव, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, पारसी, सिख, संन्यासी, अछूत आदि अथवा उसके
किसी भी बच्चे के रूप में उस भारत-माता को देखता और पूजता हूँ।
हे भारत माता ! मैं तेरे प्रत्येक रूप में तेरी पूजा करता हूं। तू मेरी गंगा है, कालीमाता है, तू ही मेरी इष्टदेवी है और तू ही मेरा शालिग्राम है। पूजा या उपासना के बारे में कहते हुए वह भगवान जो भारत-भूमि की मिट्टी खाना ही पसन्द करते थे कहते हैं, ‘‘जिनका मन अप्रत्यक्ष की ओर लगा हुआ है उनके लिए अधिक कठिनाइयाँ हैं क्योंकि शरीरधारी के लिए अप्रयत्क्ष का मार्ग दुर्गम है।’’ अच्छी बात, मेरे प्यारे कृष्ण ! मुझे उस प्रत्यक्ष देवता की उपासना के मार्ग पर जाने दे जिनके बारे में कहा जाता है कि ‘‘जिनकी सारी घरेलू सम्पत्ति एक थका-माँदा साँड़, एक टूटी चारपाई, एक पुरानी कुल्हाड़ी, राख, साँप और एक खाली खोपड़ी है।’’ क्या यह महिम्नस्तोत्र के महादेव हैं ? नहीं, नहीं। मेरा तात्पर्य तो सजीव नारायण भारत के भूखे उपवासी हिन्दुस्तानी हिन्दू से है। यही मेरा धर्म है। और किसी भी भारतवासी के लिए यही धर्म, सार्वजनिक मार्ग, व्यावहारिक वेदान्त और ईश्वर-भक्ति होना चाहिए। केवल निरुत्साह अनुमोदन या सहनशीलता से काम नहीं चलेगा। भारत के प्रत्येक बच्चे से मैं सक्रिय सहयोग चाहता हूं जिससे वह राष्ट्रीयता का गतिशील भाव प्रसारित कर सके। एक बच्चा लड़कपन में ही बिना गुजरे जवानी में नहीं पहुँच सकता। एक व्यक्ति भी तब तक ईश्वर या सर्वात्मा से अभिन्नता की उपलब्धि नहीं कर सकता जब तक उसके शरीर के रेशे में समग्र राष्ट्र के साथ उसकी अभिन्नता स्पन्दित न हो उठे।
हर भारत माता के पुत्र को समग्र की सेवा के लिए एक दृष्टि से सर्वदा प्रस्तुत रहना चाहिए कि हर पुत्र में समग्र भारत समाया समाया हुआ है। भारत में प्रायः प्रत्येक नगर, नदी, वृक्ष प्रस्तर या प्राणी पर मनुष्यत्व आरोपित होता है और वे पवित्र माने जाते हैं।
क्या उचित समय नहीं है कि समग्र मातृभूमि को देवी मान लें और उसका प्रत्येक आंशिक प्रकट रूप हमें समग्र के प्रति भक्ति से प्रेरित करे ? दुर्गा की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा कर हिन्दू उसे रक्त मांस की देवी मान लेता है। क्या यह उचित नहीं होगा कि हम भारतमाता रूपी अधिक-वास्तव दुर्गा में प्राण और तेज की प्रतिष्ठा करें और उसकी स्वाभाविक महिमा की पुनः स्थापना करें ? आइए हम अपने हृदयों को एक करें, हमारे सिर और हाथ अपने आप ही मिल जायँगे।
संसार के योद्धा-उपदेशक श्रीकृष्ण कहते हैं-मनुष्य अपनी श्रद्धा और निष्ठा के द्वारा बना हुआ होता है, जैसी जिसकी आस्था होती है वह भी वैसा ही होता है।
ऐ भारत के प्यारे कट्टरपंथी लोग ! आप शास्त्रों को सटीक रूप से सक्रिय बनाइए। देश का आपत्ति-धर्म आपसे यह माँग करता है कि जाति-पाँति के अनुलंघनीय नियमों को कुछ शिथिल कर दें और उग्र श्रेणी विभेद को राष्ट्रीय बन्धुता के अधीन कर दें। क्या आप नहीं देखते कि भारत, जिसने संसार भर के पलातकों और साहसिकों को अपने यहाँ शरण दी, जिसने कितनी ही जातियों और देशों की सहायता की, आज अपने ही बच्चों को रोटी नहीं दे सकता ?
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उचित स्थिति प्राप्त करने में समान स्वतंत्रता मिले। सिर कितना ही ऊँचा क्यों न आप उठा लें पर पैर एक ही भूमि पर होने चाहिए, किसी के कन्धे या गर्दन पर नहीं, चाहे वह कमजोर और आपके चरणों का स्वागत करने को राजी क्यों न हो।
ऐ नवयुवक भावी सुधारकों ! भारत के प्राचीन रीति-रिवाज और आध्यात्मिकता की उपेक्षा मत करो। फूट का एक नया तत्त्व डालने से भारतवासियों में एकता नहीं आ सकती। भारत के भौतिक पतन के लिए भारत के धर्म और आध्यात्त्मिकता दोषी नहीं हैं। यह बगीचा इसलिए लुट गया कि उसके चारों ओर कटीले बाड़े और चुभनेवाली झाड़ियाँ नहीं थीं। उसका प्रबन्ध कीजिए और सुधार व उन्नति के नाम पर बीच से गुलाब और फल के पेड़ उखाड़ मत फेंकिए। ऐ प्यारे काँटे और झाड़ियों, तुम ही रक्षा करने वाले आदर्श हो, भारत में तुम्हारी आवश्यकता है।
जब राम शूद्रों के परिश्रम की महानता का गुणगान करता है तब वह रजोगुण और सतोगुण से तमोगुण को अच्छा नहीं समझता है। राम केवल यह कहता है कि तमोगुण की निन्दा भारत में इतनी होती रही है कि इस घृणा और विरोध की क्रिया से वह हम में बुरी तरह से व्याप गया है। तमोगुण का उपयोग करना हमें सीखना चाहिए और हम उसे गौरवपूर्ण बना डालें।
भला बाग बगीचे कैसे पनप सकते हैं यदि हम गन्दे खाद को फेंक दें और उसका सदुपयोग न करें।
तमोगुण कोयले के समान है और उसके बिना रजोगुण रूपी अग्नि और सतोगुण रूपी आलोक नहीं हो सकता। एक देश में जहाँ आन्दोलन ही उसे उन्नत कर सकता हो, जितना अधिक तमोगुण रूपी कोयला होगा उधिक रजोगुण रूपी आग और सतोगुण रूपी आलोक होगा। यह विचार आधुनिक कपाल-लक्षण-शास्त्र के सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल है कि वीरोचित महानता और चरित्र शक्ति के लिए अति अनुकूल होते हुए भी केवल नैतिक और बौद्धिक प्रत्यंगों का विकास ही पर्याप्त नहीं, बल्कि मनुष्य में तमोगुण या पशुशक्ति का भी शक्तिशाली आधार होना चाहिए।
यही कारण है कि हिन्दू देवाधिदेव महादेव को तमोगुण का प्रभु या शासक के रूप में चित्रित करते हैं।
यदि हमने भारत के इतिहास के इस विषम युग में जन्म लिया है, तो हमें इसके लिए अधिक आभारी रहना चाहिए कि हमें सेवा करने के लिए अधिक अवसर मिला है। हमारे लिए कार्य अधिक अपूर्व, अधिक काव्यमय और गतिशील है। कहावत है कि जो उत्तम नींद सोता है वह उत्तम रूप से जागता भी है। भारतवर्ष काफी लम्बी और गहरी नींद में सोता रहा है और इसी कारण उसकी जाग्रतावस्था भी विलक्षण होगी। अब हमें भारतवासियों में एक गुण-ग्रहण का भाव (समाचोलना का नहीं) भ्रातृत्व का भाव, सहयोग की अन्तःप्रेरणा, परिश्रम का अभिजात्य और कार्यपद्धति का समीकरण उत्पन्न करना होगा।
हाय ! इस देश की कितनी शक्ति विभिन्न सम्प्रदायों के परस्पर विवाद और समालोचना में नष्ट हो रही है। हमें निकट सम्पर्क के सिद्धान्तों का पता लगाना चाहिए और हमारे बीच उन्हीं पर जोर देना चाहिए। कुछ लोग ऐसे हैं जिन पर आर्य समाज का प्रभाव है सनातन धर्म का नहीं, कुछ लोग ऐसे हैं जो ब्राह्म समाज से ही प्रभावित हैं और कोई वैष्णव धर्म से। हमें क्या अधिकार है कि हम उन लोगों का दोष निकालें जो हमारे उस आनन्द और शक्ति की परवाह नहीं करते जो हमारे धर्मतम से हमें मिल रही है ?
हे भारत माता ! मैं तेरे प्रत्येक रूप में तेरी पूजा करता हूं। तू मेरी गंगा है, कालीमाता है, तू ही मेरी इष्टदेवी है और तू ही मेरा शालिग्राम है। पूजा या उपासना के बारे में कहते हुए वह भगवान जो भारत-भूमि की मिट्टी खाना ही पसन्द करते थे कहते हैं, ‘‘जिनका मन अप्रत्यक्ष की ओर लगा हुआ है उनके लिए अधिक कठिनाइयाँ हैं क्योंकि शरीरधारी के लिए अप्रयत्क्ष का मार्ग दुर्गम है।’’ अच्छी बात, मेरे प्यारे कृष्ण ! मुझे उस प्रत्यक्ष देवता की उपासना के मार्ग पर जाने दे जिनके बारे में कहा जाता है कि ‘‘जिनकी सारी घरेलू सम्पत्ति एक थका-माँदा साँड़, एक टूटी चारपाई, एक पुरानी कुल्हाड़ी, राख, साँप और एक खाली खोपड़ी है।’’ क्या यह महिम्नस्तोत्र के महादेव हैं ? नहीं, नहीं। मेरा तात्पर्य तो सजीव नारायण भारत के भूखे उपवासी हिन्दुस्तानी हिन्दू से है। यही मेरा धर्म है। और किसी भी भारतवासी के लिए यही धर्म, सार्वजनिक मार्ग, व्यावहारिक वेदान्त और ईश्वर-भक्ति होना चाहिए। केवल निरुत्साह अनुमोदन या सहनशीलता से काम नहीं चलेगा। भारत के प्रत्येक बच्चे से मैं सक्रिय सहयोग चाहता हूं जिससे वह राष्ट्रीयता का गतिशील भाव प्रसारित कर सके। एक बच्चा लड़कपन में ही बिना गुजरे जवानी में नहीं पहुँच सकता। एक व्यक्ति भी तब तक ईश्वर या सर्वात्मा से अभिन्नता की उपलब्धि नहीं कर सकता जब तक उसके शरीर के रेशे में समग्र राष्ट्र के साथ उसकी अभिन्नता स्पन्दित न हो उठे।
हर भारत माता के पुत्र को समग्र की सेवा के लिए एक दृष्टि से सर्वदा प्रस्तुत रहना चाहिए कि हर पुत्र में समग्र भारत समाया समाया हुआ है। भारत में प्रायः प्रत्येक नगर, नदी, वृक्ष प्रस्तर या प्राणी पर मनुष्यत्व आरोपित होता है और वे पवित्र माने जाते हैं।
क्या उचित समय नहीं है कि समग्र मातृभूमि को देवी मान लें और उसका प्रत्येक आंशिक प्रकट रूप हमें समग्र के प्रति भक्ति से प्रेरित करे ? दुर्गा की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा कर हिन्दू उसे रक्त मांस की देवी मान लेता है। क्या यह उचित नहीं होगा कि हम भारतमाता रूपी अधिक-वास्तव दुर्गा में प्राण और तेज की प्रतिष्ठा करें और उसकी स्वाभाविक महिमा की पुनः स्थापना करें ? आइए हम अपने हृदयों को एक करें, हमारे सिर और हाथ अपने आप ही मिल जायँगे।
संसार के योद्धा-उपदेशक श्रीकृष्ण कहते हैं-मनुष्य अपनी श्रद्धा और निष्ठा के द्वारा बना हुआ होता है, जैसी जिसकी आस्था होती है वह भी वैसा ही होता है।
ऐ भारत के प्यारे कट्टरपंथी लोग ! आप शास्त्रों को सटीक रूप से सक्रिय बनाइए। देश का आपत्ति-धर्म आपसे यह माँग करता है कि जाति-पाँति के अनुलंघनीय नियमों को कुछ शिथिल कर दें और उग्र श्रेणी विभेद को राष्ट्रीय बन्धुता के अधीन कर दें। क्या आप नहीं देखते कि भारत, जिसने संसार भर के पलातकों और साहसिकों को अपने यहाँ शरण दी, जिसने कितनी ही जातियों और देशों की सहायता की, आज अपने ही बच्चों को रोटी नहीं दे सकता ?
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उचित स्थिति प्राप्त करने में समान स्वतंत्रता मिले। सिर कितना ही ऊँचा क्यों न आप उठा लें पर पैर एक ही भूमि पर होने चाहिए, किसी के कन्धे या गर्दन पर नहीं, चाहे वह कमजोर और आपके चरणों का स्वागत करने को राजी क्यों न हो।
ऐ नवयुवक भावी सुधारकों ! भारत के प्राचीन रीति-रिवाज और आध्यात्मिकता की उपेक्षा मत करो। फूट का एक नया तत्त्व डालने से भारतवासियों में एकता नहीं आ सकती। भारत के भौतिक पतन के लिए भारत के धर्म और आध्यात्त्मिकता दोषी नहीं हैं। यह बगीचा इसलिए लुट गया कि उसके चारों ओर कटीले बाड़े और चुभनेवाली झाड़ियाँ नहीं थीं। उसका प्रबन्ध कीजिए और सुधार व उन्नति के नाम पर बीच से गुलाब और फल के पेड़ उखाड़ मत फेंकिए। ऐ प्यारे काँटे और झाड़ियों, तुम ही रक्षा करने वाले आदर्श हो, भारत में तुम्हारी आवश्यकता है।
जब राम शूद्रों के परिश्रम की महानता का गुणगान करता है तब वह रजोगुण और सतोगुण से तमोगुण को अच्छा नहीं समझता है। राम केवल यह कहता है कि तमोगुण की निन्दा भारत में इतनी होती रही है कि इस घृणा और विरोध की क्रिया से वह हम में बुरी तरह से व्याप गया है। तमोगुण का उपयोग करना हमें सीखना चाहिए और हम उसे गौरवपूर्ण बना डालें।
भला बाग बगीचे कैसे पनप सकते हैं यदि हम गन्दे खाद को फेंक दें और उसका सदुपयोग न करें।
तमोगुण कोयले के समान है और उसके बिना रजोगुण रूपी अग्नि और सतोगुण रूपी आलोक नहीं हो सकता। एक देश में जहाँ आन्दोलन ही उसे उन्नत कर सकता हो, जितना अधिक तमोगुण रूपी कोयला होगा उधिक रजोगुण रूपी आग और सतोगुण रूपी आलोक होगा। यह विचार आधुनिक कपाल-लक्षण-शास्त्र के सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल है कि वीरोचित महानता और चरित्र शक्ति के लिए अति अनुकूल होते हुए भी केवल नैतिक और बौद्धिक प्रत्यंगों का विकास ही पर्याप्त नहीं, बल्कि मनुष्य में तमोगुण या पशुशक्ति का भी शक्तिशाली आधार होना चाहिए।
यही कारण है कि हिन्दू देवाधिदेव महादेव को तमोगुण का प्रभु या शासक के रूप में चित्रित करते हैं।
यदि हमने भारत के इतिहास के इस विषम युग में जन्म लिया है, तो हमें इसके लिए अधिक आभारी रहना चाहिए कि हमें सेवा करने के लिए अधिक अवसर मिला है। हमारे लिए कार्य अधिक अपूर्व, अधिक काव्यमय और गतिशील है। कहावत है कि जो उत्तम नींद सोता है वह उत्तम रूप से जागता भी है। भारतवर्ष काफी लम्बी और गहरी नींद में सोता रहा है और इसी कारण उसकी जाग्रतावस्था भी विलक्षण होगी। अब हमें भारतवासियों में एक गुण-ग्रहण का भाव (समाचोलना का नहीं) भ्रातृत्व का भाव, सहयोग की अन्तःप्रेरणा, परिश्रम का अभिजात्य और कार्यपद्धति का समीकरण उत्पन्न करना होगा।
हाय ! इस देश की कितनी शक्ति विभिन्न सम्प्रदायों के परस्पर विवाद और समालोचना में नष्ट हो रही है। हमें निकट सम्पर्क के सिद्धान्तों का पता लगाना चाहिए और हमारे बीच उन्हीं पर जोर देना चाहिए। कुछ लोग ऐसे हैं जिन पर आर्य समाज का प्रभाव है सनातन धर्म का नहीं, कुछ लोग ऐसे हैं जो ब्राह्म समाज से ही प्रभावित हैं और कोई वैष्णव धर्म से। हमें क्या अधिकार है कि हम उन लोगों का दोष निकालें जो हमारे उस आनन्द और शक्ति की परवाह नहीं करते जो हमारे धर्मतम से हमें मिल रही है ?
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