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दराजों में बंद दस्तावेज

से. रा. यात्री

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2831
आईएसबीएन :81-8143-399-8

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जीवन की जटिल गुत्थियों और असंगतियों पर आधारित उपन्यास....

Darajon Main Band Dastavej

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘दराजों में बंद दस्तावेज’ से रा. यात्री का थोथी भावुकता और आदर्शों से ग्रस्त एक युवक की प्रेम कहानी नहीं है जिसका अंत दुःखांत में होता है, बल्कि जीवन की जटिल गुत्थियों और असंगतियों की अनेक विध-आकृति यह सिद्ध कर देती है कि यह उपन्यास एक अन्तर्यात्रा है।

लेखक ने हमारी सामाजिक विकृतियों को आकर्षक मुलम्मे में दबाकर रखी स्थितियों का अनावरण करके यह उद्घाटित किया है कि अचूक प्रेम की निष्ठा हमारी पारम्परिक रूढ़िबद्धता की मुखापेक्षी नहीं है।

दर्द और माधुर्य का आरोह-अवरोह पाठक को एक ऐसी मीठी उदासी दे जाता है कि उपन्यास समाप्त हो जाने पर भी पाठक की तलाश जारी रहती है।

आत्मकथात्मक शैली में रचित इस कृति की भाषा काव्य की अनुगूँज की समानधर्मी है जो अलाक्षित मौन में गहरे अर्थों को रेखांखित करती है।

प्रकाशकीय

‘दराजों में बन्द दस्तावेज़’ मात्र एक दुखान्त प्रेम कहानी नहीं है जिसमें कि थोथी भावुकता और आदर्शों से ग्रस्त एक युवक किसी अनाम और मानसिक दृष्टि से असन्तुलित युवती को प्रेम करता है बल्कि तथ्य यह है कि उपन्यास में वर्णित स्थितियों और जीवन की जटिल गुत्थियों में अनोखा साम्य है। विसंगतियों की अनेकाविध आवृत्ति यह सिद्ध कर देती है कि ‘दराजों में बन्द दस्तावेज़’ एक अन्तर्यात्रा है।

यह उपन्यास सहज रूप से उन स्थितियों का अनावरण करता है, जो हमारी सामाजिक विकृतियों को एक आकर्षक मुलम्मे में दब-ढांककर रखती हैं। लेखक ने आरोपित स्थितियों को आग्रहपूर्वक नकारा है और केवल उन प्रसंगों की उद्भावना की है जो पाठक के लिए एकदम प्रामाणिक तथा विश्वसनीय हैं। भावुकता, प्रेम और द्रवणशीलता पूरे उपन्यास में प्रवाहित होती है, किन्तु उसे गलदश्रु कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। मानसिक उथल-पुथल के अनेक सन्दर्भ इस उपन्यास में रूपायित होते हैं और पाठक की मानसिक भावभूमि उन्हें स्वतः ग्रहण कर लेती है। अधिक स्पष्ट रूप में यह कहा जा सकता है कि उपन्यास में उन अंशों का अभाव नहीं है, जिनका साक्ष्य पाठक के हृदय में पहले से मौजूद है।

‘दराजों में बन्द दस्तावेज़’ में भावनाओं और विचारों का द्वन्द्व अपनी तीव्रता के कारण अत्यन्त सशक्त है और पाठक को एक क्षण के लिए भी अपने से विलग नहीं होने देता। लेखक ने खरी और प्रामाणिक अनुभूति का सहारा लेकर अभिव्यक्ति को इतना संवेदनशील और सम्प्रेषणीय बना दिया है कि कथ्य सार्वजनीन लगने लगता है। उपन्यास की आन्तरिक प्रक्रिया केन्द्रीय भाव को प्रत्येक कोण से ‘जेनुइन’ घोषित करती है। लेखक के उन निष्कर्षों को सहज ही प्राथमिकता देनी पड़ती है, जिनमें वह पाठक को सहभोक्ता की स्थिति में रखता है।

‘दराजों में बन्द दस्तावेज़’ में एक करुण्-मधुर अनुगूंज व्याप्त है जिसके कारण पाठक लेखक की सम्मोहनग्रस्त अभिव्यक्ति में बंधकर खिंचा चला आता है। दर्द और माधुर्य का आरोह-अवरोह पाठक को ऐसी मीठी उदासी दे जाता है कि उपन्यास समाप्त हो जाने पर भी पाठक की तलाश बाकी रह जाती है।

पूर्वाभास


इस साल मसूरी में बहुत भीड़ थी। मेरा गत वर्षों का अनुभव है कि जैसे ही सवारियां टैक्सी या बस से बाहर निकलती हैं, होटलों के एजेन्ट उन्हें घेरकर बीसियों खूबसूरत कार्ड उनके हाथों में ठूंस देते हैं और अपने होटलों की तारीफ़ से सवारियों को थका डालते हैं, मगर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। सामान एक तरफ़ रखवा कर मैं किसी एजेन्ट की प्रतीक्षा करता रहा। जब मैं कुली से सामान उठवा कर किसी होटल में जाने की सोच रहा था तो एक कुलीनुमा आदमी मेरे पास आया। उसकी मुचड़ी हुई खाकी पैंट, कुहनियों पर फटा हुआ काला कोट और काली टोपी उसके होटल की साफ तस्वीर मेरे सामने रख रही थी। वह सीज़न में शुरू होने वाले किसी ‘नये होटल’ का एजेन्ट था। उसने हर वाक्य में तीन बार ‘श’ बोल कर मुझे बताया कि वह लायब्रेरी के पास अपनी निजी ‘जनता होटल’ शुरू किया है और किसी सुविधा की वहां कमी नहीं है।

आखिर मैं उस ‘जनता होटल’ के मालिक के साथ चल दिया। लकड़ी के चार-छह चौखटों को एक जगह खड़ा करके एक होटल तैयार किया गया था। हर खोखे में एक ढीला-ढाला पलँग, सर्दियों की ऐंठी हुई टाँगों वाली लोहे की कुर्सी और एक डगमग करती तिपाई पड़ी हुई थी। दीवारों के नाम पर लकड़ी का पार्टीशन था। खाने-पीने की स्थिति भी होटल के अनुरूप ही थी। चाय का ऑर्डर देने पर शायद भट्टी सुलगायी जाती थी और चाय का प्याला तैयार होने तक मजे में एक घंटा बाहर घूमकर लौटा जा सकता था। असली मनहूसियत रात को शुरू होती थी। होटल के दरवाजों और खिड़कियों के ढीले किवाड़ रात को घाटी में चलने वाली हवाओं से टकरा कर चूं-चूं करके धमाधम बजते रहते थे और हू-हू करती हवाएं सारे कमरे में चक्कर काटती घूमती थीं। संयोग से मेरे इधर-उधर कुछ परिवार वाले लोग डटे हुए थे। उन लोगों की बातें सुन लेने से ही मुझे उनकी मुद्राओं का आभास मिल जाता था। ज्यादा देर तक बत्ती जलाना भी उचित नहीं था, क्योंकि बेचारे गृहस्थ लोगों को इससे हार्दिक कष्ट होता था। किसी रात भूल से बत्ती जली रह जाती तो सबेरे बाथरूम के बाहर मिलते ही पड़ोसी घूर-घूर कर देखते।

जैसे-तैसे चार दिन मैंने उस ‘जनता होटल’ में काटे। तंग आकर मैंने कोई ‘कॉटेज’ लेने की सोची और कई ‘प्रॉपर्टी डीलर्स’ से मुलाकात की। आखिर एक दलाल ने ‘कैमिल्स बैक रोड’ पर एक कॉटेज दिलाने का वायदा कर लिया। मैं उसके साथ कॉटेज देखने गया। जहाँ तक कॉटेज का प्रश्न है वह अच्छी-खासी जगह स्थित थी, मगर उस समय उसकी हालत इतनी खस्ता थी कि जल्दी ही खण्डहर में बदलनेवाली लगती थी। शायद उस कॉटेज का मालिक कहीं दूर रहता था और बरसों से खाली पड़े रहने की वजह से कॉटेज की मरम्मत सम्भव नहीं हो पा रही थी। मैंने सीढ़ियां चढ़ते हुए महसूस किया बरसों से आदमी के पाँव उस जगह नहीं पड़े हैं। पूछने पर दलाल ने बतलाया कि लोग इन मकानों को लेना पसन्द नहीं करते, क्योंकि मसूरी आने वाले प्रायः महीना-बीस दिन के लिए आते हैं और होटलों में तीन-चार सौ रुपया किराया देने से काम चल जाता है, जबकि इन बंगलों का किराया सात-आठ सौ रुपये से कभी कम नहीं बैठता। या तो इन्हें कोई बड़े परिवार वाला व्यक्ति लेता है या फिर पूरे सीजन डटने वाला सैलानी। जो भी हो मैंने कॉटेज खुलवायी। अच्छी बड़ी जगह थी उसमें। गैलरी देकर दो अलग-अलग सूट बनवाये गये थे। मुझे ‘डबल सूट’ की जरूरत भी नहीं थी। एक बड़े कमरे से काम चल सकता था। मैंने सड़क की ओर खुलने वाला कमरा लेना बेहतर समझा। इस कमरे की खिड़की ‘कैमिल्स बैक रोड’ पर खुलती थी। पर कमरे की हालत इतनी खराब थी कि कमरे में एक मिनट रुकना मेरे लिए कठिन हो गया। फर्श पर जमी बेशुमार धूल की मोटी तह में मेरे जूते के सोल पूरे धंस गए। मकड़ियों के जालों से सारी छत और दीवारों के कोने-अँतरे भरे हुए थे। कमरे में घुसते ही तड़ातड़ दस-बारह छींकें आयीं और मैं बाहर सेहन में निकल कर खड़ा हो गया। दलाल ने कमरे की खिड़की खोली तो कुछ अंधेरा दूर हुआ और एक ठण्डी हवा का झोंका अंदर आया। कमरे में आबनूस की लकड़ी का एक पलंग पड़ा हुआ था, जिसकी निवाड़ जमीन तक लटक कर धूल में लिथड़ रही थी। जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक आराम-कुर्सी और दो ऊंची कुर्सियां बेतरतीब ढंग से पड़ी थीं। एक बड़ी-सी मेज भी दीवार के सहारे खड़ी थी, जिसे कीड़ों ने हर तरफ से चाट डाला था।

हालांकि कमरे की मनहूसियत देखकर मेरा दिल कॉटेज लेने के लिए पक्का नहीं हो रहा था, मगर ‘जनता होटल’ में तीन-चर महीने काटना सम्भव नहीं था। बहुत मरे मन से मैंने दलाल के सामने उसकी सफाई का प्रस्ताव रखा। उसने मुझे दिलासा देते हुए कहा, ‘साहब जरा, सफाई-पुताई होने पर इसकी हालत देखिएगा, इतना अच्छा ‘व्यू’ देने वाली कॉटेज आपको इस सड़क पर दूसरी कहीं नहीं मिलेगी।’ उसकी बात से मुझे कोई खास राहत नहीं मिली, लेकिन मैंने उसकी बात को नहीं काटा और तीसरे दिन वहां पहुंचने का वायदा कर के अपने होटल लौट आया।

तीसरे दिन जब में वहां पहुँचा, तो कॉटेज की सफाई हो चुकी थी। दीवारों पर भी नयी सफेदी अभी सूखी नहीं थी, कमरे का पुराना फर्नीचर बाहर सेहन में निकालकर डाल दिया गया था, केवल पुरानी मेज कमरे के अन्दर थी। शायद मजदूरों ने सफाई करने का काम उसी से लिया था—दीवारों की ऊंचाई इतनी नहीं थी कि सीढ़ी की जरूरत पड़ती। मेरे वहां रहते ही नया फर्नीचर आ गया और मेज को कमरे से बाहर निकाला जाने लगा। मेज दरवाज़े में अटकती थी और आसानी से नहीं निकल पा रही थी। मजदूरों में उसके प्रति सावधानी का भाव कतई नहीं था, इसलिए वे उसे आड़ी-तिरछी करके झटकों के साथ खींच रहे थे। इसी पटका-पटकी में उसका एक पाया टूट गया। मजदूर ही-ही करके हंसने लगे, गोया उन्होंने किसी दुश्मन की टांग तोड़ डाली हो। कई मिनट की कशमकश के बाद मेज दरवाजे से निकल गयी और उसका एक ड्रायर भी निकलकर बाहर आ गया। एक मजदूर ने लपक कर ड्रायर से कागजों का एक पुलिन्दा उठा लिया। सब मजदूरों ने बारी-बारी से पुराने कागजों की फाइल हाथ में लेकर देखी, किन्तु उनकी दिलचस्पी उन कागजों में ज्यादा देर कायम नहीं रह सकी और उन्होंने कागजों के मुड़े-तुडे बण्डल को बाहर सेहन की तरफ उछाल दिया। इसके बाद उन्होंने सेहन में पड़े नये फर्नीचर को कमरे में लगा दिया और मुझसे बख्शीस ले सलाम ठोंक कर चले गये।

उसी शाम मेरा सामान जनता होटल से उस कॉटेज में पहुंच गया। मैंने अपना सामान उस कमरे से सेट कर लिया और आवास की समस्या से निश्चिन्त होकर खाने-पाने के लिए बाहर निकल गया। रात को दस-ग्यारह बजे के करीब जब मैं अपने कमरे में लौटा तो मैंने देखा कि मजदूरों द्वारा फेंके गये कागज मेरे दरवाजे पर इधर-उधर उड़ रहे हैं। कमरे में खिड़की के पास बैठकर मैंने घाटी का दृश्य देखा तो मुझे इस स्थान को पा जाने की पहली बार सच्ची खुशी हुई। कुछ पढ़ने-लिखने की इच्छा नहीं हो रही थी और नींद भी नहीं आ रही थी। मैं सेहन में जाकर घूमने लगा। पैरों से कुचले जाते कागजों को मैंने यों-ही बिना किसी उत्सुकता के उठा लिया और पलंग पर बैठकर देखने लगा। धूल से अंटे हुए उन कागजों को पढ़ना मुश्किल था—मैंने स्टूल पर पटक कर उनकी धूल झाड़ी और लेटकर पढ़ने लगा। शुरू में मैंने दो-चार पंक्तियां इधर-उधर से पढ़ी किन्तु बाद में मेरा कौतूहल इतना बढ़ गया कि मैं उठकर सेहन में आ गया और सारे कागज बटोर लाया। यह एक सुविधाजनक बात थी कि उन कागजों पर नम्बर पड़े हुए थे। मैंने तरतीब से सारी फाइल को एकत्र किया और पढ़ने लगा। उन पृष्ठों को पढ़ते हुए मुझे सही अनुमान नहीं हो सका कि वह पृष्ठ कितने पुराने थे। हां, एक स्थान पर 18-5 अवश्य लिखा था, किन्तु इससे भी निश्चित समय का कोई पता नहीं चलता था।

गहरी उत्सुकता से मैं उन पृष्ठों को पढ़ता चला गया। ये पन्ने शायद इसी छत के नीचे बैठकर लिखे गये थे। मैं किसी तरह भी यह अनुमान लगाने में असमर्थ था कि इन्हें लिखने वाले व्यक्ति का वास्तविक उद्देश्य क्या रहा होगा। इन्हें लिखने वाला कोई उपन्यासकार था जिसने केवल कल्पना के बल पर एक कथा बुनी थी या यह उसकी डायरी थी, जिसे उसने अपने आत्मिक संतोष के लिए लिखा था। उन पृष्ठों की हालत इतनी खराब थी कि पीले होकर जहां-तहां से फट गये थे और उन पर कई स्थानों पर काले धब्बे पड़ गये थे। सारी फाइल में केवल एक ही अच्छाई थी—उनका क्रम बहुत स्पष्ट था जिसकी वजह से मुझे पढ़ने में कोई विशेष असुविधा नहीं हुई। उन जीर्ण पृष्ठों में लिखी हुई सामग्री ज्यों-की-त्यों आपके सामने रख रहा हूँ—अपनी ओर से भावों और भाषा में मैंने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया है। केवल न पढ़े जा सकने वाले शब्दों को अनुमान से बदल दिया है।

एक


दूर-दूर जहाँ तक भी नजर जाती है, पहाड़ों का सिलसिला चला गया है। सांझ पहाड़ पर कितनी जल्दी उतर आती है ! मैं खिड़की के पास आराम-कुर्सी डाले बैठा बाहर के बदलते हुए दृश्यों को देख रहा हूँ। ज्यादातर सैलानी जा चुके हैं—होटल खाली हैं। अब सिर्फ उन चन्देक कॉटेजों में जिन्दगी बची है, जहां पूरे सीजन-भर रुकेन वाले लोग ठहरे हैं !

मेरी कॉटेज के पिछले भाग पर जो सड़क पड़ती है अब सन्नाटे में डूबी है। एक-डेढ़ महीना पहले इस पर शाम के वक्त खासी चहल-पहल रहती थी। छोटे-छोटे बच्चे तक घोड़ों पर सवार होकर किलकारियां मारते हुए निकल जाते थे, मगर अब तो मौसम बीत चुका है, कोई इक्का-दुक्का आदमी ही उधर से गुजरता है। मुझे विश्वास नहीं होता कि कभी इस सड़क पर...।

शायद सांझ का अंधेरा अभी पूरी तरह फैला भी नहीं है, पर मेरी आंखों के सामने सियाही तैरने लगी है। इतनी लम्बी बीमारी के बाद यह सहज ही है। मेरे कमरे के दूसरी ओर किचन है—करछुल की आवाज और बर्तनों के खनकने से लगता है, रात के खाने की तैयारियां शुरू हो गयी हैं। बाहर बांज और देवदार की शाखें धीरे-धीरे हिल रही हैं। हालांकि अब बाहर के दृश्य बहुत स्पष्ट दिखायी नहीं पड़ते, किन्तु सामने सड़क पर सीमेंट की सोफ़ानुमा बेंच साफ दिखाई दे रही है। इस बेंच पर अब कोई नहीं बैठता। आज शायद मैं अधिक देर बैठा रहा हूँ। सिर में एक अजीब सी झनझनाहट फैल रही है—मैं समझता हूं, मुझे जाकर लेट जाना चाहिए।

मैं जब पहाड़ पर आया था तो इसी खिड़की से बाहर की चहल-पहल और घाटी के दृश्य देखता रहता था। उन दिनों की रौनक का क्या कहना, हमेशा सड़क पर मेला-सा लगा रहता था और सामने की बैंच तो दिन में किसी वक्त भी खाली नजर नहीं आती थी। जिस शाम मैं पहली बार इस खिड़की के पास आकर बैठा था, इस बेंच पर एक वृद्धा और एक युवती बैठी हुई थीं। उसके बाद तो मैंने प्रायः सांझ के समय उन दोनों को यहीं बैठे पाया। मैं उन्हें देखकर अन्दाज लगाता था कि वे मां-बेटी होंगी या फिर शायद दादी-पोती हों। बुढ़िया का चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था, पर लड़की सुन्दर और शांत थी। पहाड़ पर आते समय रास्ते में सोचता था कि खूब घाटियों पर घूमूँगा, पर अब बिल्कुल इच्छा नहीं होती थी। मैं शाम को खिड़की के पास बैठा रहता था और सड़क पर गुजरते लोगों को देखकर अपना घूमने का शौक पूरा कर लेता था। अजीब बात है कि कभी-कभी हमारे फैसले किसी अनाम-सी भाव-मुद्रा से बदल जाते हैं और असली चीजें उपलक्ष्य बन जाती हैं। उस लड़की में कुछ ऐसा आकर्षण था कि सामने की ओर उठी उसकी निगाहों को मैं अपलक देखता रहता था।

उस लड़की को देखकर मैंने कई बार सोचा कि मैं भी थोड़ी देर के लिए उनके पास जाकर बैठ जाऊं, मगर उधर जाने का फैसला करते ही मेरा दिल धड़कने लगता—कुर्सी से उठने पर पांवों में शिथिलता आ जाती और दिमाग खाली-खाली-सा लगने लगता। मेरी कॉटेज में ही गैलरी के उस तरफ जौहरी साहब की दो जवान लड़कियां रहती थीं—कई बार ये लोग इधर भी आती थीं, लेकिन उन दोनों के संपर्क में आने पर ऐसा कुछ नहीं होता था। पहनावे की विचित्रता आदमी को खींचती जरूर है, मगर कोई गहरी भावना पैदा नहीं करती—यह मुझे उन सैकड़ों लड़कियों को देखकर लगता था जो सड़क पर अजीब-से कपड़े पहने हंसते-बोलते गुजर जाती थीं; यह लड़की शायद बहुत लोगों को बिल्कुल पसंद न आती, क्योंकि इसके दुबले-पतले शरीर और लम्बूतरे गोरे चेहरे में तस्वीर की मानिन्द जकड़ लेने के लिए कुछ भी नहीं था। शायद उसकी आंखों की स्थिरता और खोयापन ही वह चीज थी जो मुझे उसके विषय में सोचने को मजबूर करती थी। उसका लिबास बिलकुल साधारण लड़कियों जैसा था। क्रीम कलर की एक रेशमी साड़ी और कन्धों पर ऊनी शाल—यही शायद उसकी पोशाक थी। वह बुढ़िया के पास देर तक चुपचाप बैठी रहती थी। उन दोनों की अचल मुद्राओं से यह भी नहीं लगता था कि वे बातें कर रही हैं। जब अंधेरा बढ़ने लगता और सड़क निर्जन हो जाती तो लड़की पहले स्वयं उठती, बाद में वृद्धा को सहारा देकर उठाती। शायद बुढ़ापे के कारण उसमें स्वयं उठ सकने की सामर्थ्य नहीं थी। यही वजह हो सकती है कि बुढ़िया घूमने-फिरने की बजाय एक स्थान पर ही जमकर बैठ जाती थी और बेचारी लड़की को भी उसके साथ बैठने के लिए विवश होना पड़ता था।       

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