धर्म एवं दर्शन >> योगवासिष्ठ - 1 योगवासिष्ठ - 1सुधाकर मालवीय
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प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिनिधि ग्रन्थ... भरद्वाज उपशम प्रकरण।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
विगत 32 वर्षों से अनवरत भुवन वाणी ट्रस्ट लिपि एवं भाषा के माध्यम से
सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषाई एकता को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु सचेष्ट है,
यह अपने आप में अब एक सुखद सत्य-स्वरूप तथ्य बन चुका है। भारत में व्यवहृत
तमाम विदेशी भाषाओं सहित अपने राष्ट्र की समस्त क्षेत्रीय भाषाओं में
उपलब्ध विभिन्न आर्ष ग्रन्थों में से लगभग सवा सौ ग्रन्थों का मूलपाठ
नागरी लिपि में हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत करते हुए एक साथ अनेक
उद्देश्यों की सिद्धि प्राप्त हुई। एक ओर सम्पूर्ण राष्ट्र को
‘एक
राष्ट्रभाषा’ से पूर्ण अत्यावश्यक ‘एक
राष्ट्रलिपि’
अर्थात जोड़लिपि देवनागरी जैसे महत्वपूर्ण कार्य, को आगे बढ़ाकर राष्ट्र
की भावनात्मक एवं भाषाई एकता के मार्ग को प्रशस्त किया वहीं, अनजाने ही
सही चारित्रिक उन्नयन हेतु आज के लिये अत्यावश्यक धार्मिक एवं सांस्कृतिक
आदान-प्रदान में सहायक वेद-पुराण रामायण गीता कुरआन-गुरुवाणी
जैसा
अद्भुत साहित्य देवनागरी कलेवर में एक मंच पर राष्ट्र के सम्मुख प्रस्तुत
कर दिया। यह सारा कार्य भुवन वाणी ट्रस्ट ने अपने एकाकी परिश्रम से
राष्ट्र को समर्पित समर्पित किया। इसकी दूसरी मिसाल दुर्लभ है। इसी यात्रा
में चलते चलते इतना विशाल राम-साहित्य जनता जनार्धन के सम्मुख आ गया कि आज
दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों द्वारा प्रसारित हो रहे अनेकों आध्यात्मिक
धारावाहिकों में ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित साहित्य की सहायता के बिना
पूर्णता नहीं आ पाती।
राम साहित्य चाहे जितना पढ़ा जाय, चाहे जितना शोध हो, फिर भी ज्ञान की पिपासा अधूरी ही रहेगी। जबतक असली ज्ञानस्रोत ‘‘योगवासिष्ठ’’ से हमारा सामन्जस्य न जुड़े। योगवासिष्ठ भारतीय चिन्तन का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। महर्षि वसिष्ठ ने अपने पिता श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी से प्राप्त ज्ञान विश्व कल्याण हेतु भगवान राम को दिया।
भगवान राम ने विष्णुस्परूप होते हुए भी मनुष्य रूप में यह ज्ञान प्राप्त कर उसका अनुशीलन किया, और जीवन्मुक्त होकर रहे। इसलिये भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये। मुनि वसिष्ठ और राम के मध्य प्रश्नोत्तर रूप में उपजे इस ज्ञान को महर्षि वाल्मीकी ने जगत् कल्याण हेतु योगवासिष्ठ में हमें दिया। धार्मिक संकीर्णता से परे ‘‘सर्व धर्म समभाव’’ को प्रतिष्ठापित करते हुए जीवन काल में ही मोक्ष प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शक है यह ग्रन्थ योगवासिष्ठ।
ग्रन्थ की इसी विशिष्टता के कारण इसका प्रकाशन गत कई वर्षों से विचाराधीन था। सुयोग्य विद्वान भी सुयोग्य से ही मिलता है। इधर-उधर कई प्रयासों के बाद अचानक एक दिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्वान डा० सुधाकर मालवीय से अन्यान्य विषयों पर चर्चा में इस ग्रन्थ पर भी बात अनायास ही आ गई। ज्ञातव्य है कि भुवन वाणी ट्रस्ट के वाणीयज्ञ में लगभग 15-20 वर्षों से श्री मालवीय जी संलग्न हैं।
इनका परिचय इनके गुरुभाई काशी के ही धुरन्धर संस्कृत विद्वान स्व० डा० जनार्धन गंगाधर रटाटे के माध्यम से प्राप्त हुआ। श्री जनार्धन गंगाधर रटाटे जी उन दिनों ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित रामचरित मानस के संस्कृत छन्दोबद्ध अनुवाद मानस भारती से अवमुक्त, होकर ट्रस्ट की ही अन्य योजना ‘वेद भाष्य’ में रत थे। कार्य विशाल एवं जटिल था अतः उन्होंने डॉ० सुधाकर मालवीय को भी उसके दायित्व-निर्वहन में अपना सहयोगी बना लिया। धीरे-धीरे श्री मालवीय जी की कृपा ट्रस्ट पर बढ़ती ही गई। कार्याधिक्य के बावजूद ऋग्वेद के भाष्य सम्पादन के साथ ही उन्होंने योगवासिष्ठ के इस जटिल कार्य को भी स्वीकार कर लिया। हमें प्रसन्नता है उनका आभार प्रकट करने में, कि यह ग्रन्थ बड़े श्रम से उन्होंने निर्दिष्ट समय में पूरा किया।
पाठकों की सुविधा हेतु ग्रन्थ के आरम्भ में ‘योगवासिष्ठ सार भी 10 अध्यायों के अन्तर्गत 12 पृष्ठों में दिया गया है। वास्तव में समग्र ग्रन्थ तैयार हो जाने पर इतने विशाल ग्रंथ का सारांश रूप में भी देना श्रेयस्कर समझा गया। इस कार्य में भी श्री जयनारायण सिंह के भी हम आभारी हैं। जिनके सहयोग से ‘‘योगिवासिष्ठ सार’’ को हम प्रस्तुत कर सके।
अब आगे पाठकगण स्वयं निर्णय करेंगे कि हम इस कार्य में कहाँ तक सफल हैं। शीघ्र ही हम ‘‘रामचरितमानस’’ का एक शुद्ध वैज्ञानिक पारायण-पाठ विस्तृत टीका सहित जनता जनार्दन के सम्मुख प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अब तक प्रकाशित रामचरितमानस के सभी संस्करणों में उच्चारण की शुद्धता वैज्ञानिक रूप से लिपिबद्ध करने वाला यह सर्वप्रथम ग्रन्थ होगा। इस कार्य में मेरा हाथ बँटाने वाला मेरा पुत्र चि० प्रदीप कुमार अवस्थी मात्र आशीर्वाद अथवा शुभकामना का पात्र ही नहीं, वरन एक ऐसा अंग बना है, जिसकी लगन एवं श्रम की प्रशंसा करनी ही पड़ेगी। साथ ही कम्प्यूटर कम्पोज में उसका सहयोगी श्री सुनील कुमार पाण्डेय भी शुभकामनाओं का पात्र है जिसकी कड़ी मेहनत ने इतने कम समय में ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की।
राम साहित्य चाहे जितना पढ़ा जाय, चाहे जितना शोध हो, फिर भी ज्ञान की पिपासा अधूरी ही रहेगी। जबतक असली ज्ञानस्रोत ‘‘योगवासिष्ठ’’ से हमारा सामन्जस्य न जुड़े। योगवासिष्ठ भारतीय चिन्तन का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। महर्षि वसिष्ठ ने अपने पिता श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी से प्राप्त ज्ञान विश्व कल्याण हेतु भगवान राम को दिया।
भगवान राम ने विष्णुस्परूप होते हुए भी मनुष्य रूप में यह ज्ञान प्राप्त कर उसका अनुशीलन किया, और जीवन्मुक्त होकर रहे। इसलिये भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये। मुनि वसिष्ठ और राम के मध्य प्रश्नोत्तर रूप में उपजे इस ज्ञान को महर्षि वाल्मीकी ने जगत् कल्याण हेतु योगवासिष्ठ में हमें दिया। धार्मिक संकीर्णता से परे ‘‘सर्व धर्म समभाव’’ को प्रतिष्ठापित करते हुए जीवन काल में ही मोक्ष प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शक है यह ग्रन्थ योगवासिष्ठ।
ग्रन्थ की इसी विशिष्टता के कारण इसका प्रकाशन गत कई वर्षों से विचाराधीन था। सुयोग्य विद्वान भी सुयोग्य से ही मिलता है। इधर-उधर कई प्रयासों के बाद अचानक एक दिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्वान डा० सुधाकर मालवीय से अन्यान्य विषयों पर चर्चा में इस ग्रन्थ पर भी बात अनायास ही आ गई। ज्ञातव्य है कि भुवन वाणी ट्रस्ट के वाणीयज्ञ में लगभग 15-20 वर्षों से श्री मालवीय जी संलग्न हैं।
इनका परिचय इनके गुरुभाई काशी के ही धुरन्धर संस्कृत विद्वान स्व० डा० जनार्धन गंगाधर रटाटे के माध्यम से प्राप्त हुआ। श्री जनार्धन गंगाधर रटाटे जी उन दिनों ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित रामचरित मानस के संस्कृत छन्दोबद्ध अनुवाद मानस भारती से अवमुक्त, होकर ट्रस्ट की ही अन्य योजना ‘वेद भाष्य’ में रत थे। कार्य विशाल एवं जटिल था अतः उन्होंने डॉ० सुधाकर मालवीय को भी उसके दायित्व-निर्वहन में अपना सहयोगी बना लिया। धीरे-धीरे श्री मालवीय जी की कृपा ट्रस्ट पर बढ़ती ही गई। कार्याधिक्य के बावजूद ऋग्वेद के भाष्य सम्पादन के साथ ही उन्होंने योगवासिष्ठ के इस जटिल कार्य को भी स्वीकार कर लिया। हमें प्रसन्नता है उनका आभार प्रकट करने में, कि यह ग्रन्थ बड़े श्रम से उन्होंने निर्दिष्ट समय में पूरा किया।
पाठकों की सुविधा हेतु ग्रन्थ के आरम्भ में ‘योगवासिष्ठ सार भी 10 अध्यायों के अन्तर्गत 12 पृष्ठों में दिया गया है। वास्तव में समग्र ग्रन्थ तैयार हो जाने पर इतने विशाल ग्रंथ का सारांश रूप में भी देना श्रेयस्कर समझा गया। इस कार्य में भी श्री जयनारायण सिंह के भी हम आभारी हैं। जिनके सहयोग से ‘‘योगिवासिष्ठ सार’’ को हम प्रस्तुत कर सके।
अब आगे पाठकगण स्वयं निर्णय करेंगे कि हम इस कार्य में कहाँ तक सफल हैं। शीघ्र ही हम ‘‘रामचरितमानस’’ का एक शुद्ध वैज्ञानिक पारायण-पाठ विस्तृत टीका सहित जनता जनार्दन के सम्मुख प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अब तक प्रकाशित रामचरितमानस के सभी संस्करणों में उच्चारण की शुद्धता वैज्ञानिक रूप से लिपिबद्ध करने वाला यह सर्वप्रथम ग्रन्थ होगा। इस कार्य में मेरा हाथ बँटाने वाला मेरा पुत्र चि० प्रदीप कुमार अवस्थी मात्र आशीर्वाद अथवा शुभकामना का पात्र ही नहीं, वरन एक ऐसा अंग बना है, जिसकी लगन एवं श्रम की प्रशंसा करनी ही पड़ेगी। साथ ही कम्प्यूटर कम्पोज में उसका सहयोगी श्री सुनील कुमार पाण्डेय भी शुभकामनाओं का पात्र है जिसकी कड़ी मेहनत ने इतने कम समय में ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की।
विनय कुमार अवस्थी
मुख्य न्यासी सभापति
मुख्य न्यासी सभापति
भूमिका
आदिकवि वाल्मीकि परम्परानुसार योगवासिष्ठ के रचयिता माने जाते हैं। परन्तु
इसमें बौद्धों के विज्ञानवादी, शून्यवादी, माध्यमिक इत्यादि मतों का तथा
काश्मीरी शैव, त्रिक प्रत्यभिज्ञा तथा स्पन्द इत्यादि तत्वज्ञानो का
निर्देश होने के कारण इसके रचयिता उसी (वाल्मीकि) नाम के अन्य कवि माने
जाते हैं। अतः इस ग्रन्थ के रचियता के संबंध में मतभेद है। यह आर्षरामायण,
महारामायण, वसिष्ठरामायण, ज्ञानवासिष्ठ और केवल वासिष्ठ के अभियान से
प्रसिद्ध है। योगवासिष्ठ की श्लोक संख्या 32 हजार है। विद्वानों के
मतानुसार महाभारत के समान इसका भी तीन अवस्थाओं में विकास हुआ—
(1)
वसिष्ठकवच, (2) मोक्षोपाय (अथवा वसिष्ठ-रामसंवाद) (3)
वसिष्ठरामयण
(या बृह्द्योगवासिष्ठ)। यह तीसरी पूर्णावस्था ई.11-12वीं शती में पूर्ण
मानी जाती है। गौड अभिनन्द नामक काशमीर के पंडित द्वारा ई. 9वीं शती में
किया हुआ इसका ‘‘लघुयोगवासिष्ठ’’
नामक संक्षेप
4829 श्लोकों का है। योगवासिष्ठसार नामक दूसरा संक्षेप 225 श्लोकों का है।
योगवासिष्ठ ग्रन्थ छः प्रकरणों में पूर्ण है। वैराग्यप्रकरण (33 सर्ग),
मुमुक्षु व्यव्हार प्रकरण (20 सर्ग), उत्पत्ति प्रकरण (122 सर्ग), स्थिति
प्रकरण (62 सर्ग), उपशम प्रकरण (93 सर्ग) तथा निर्वाण प्रकरण (पूर्वार्ध
128 सर्ग और उत्तरार्ध 216 सर्ग), श्लोकों की संख्या 27687 है। वाल्मीकि
रामायण से लगभग चार हजार अधिक श्लोक होने के कारण इसका
‘महारामायण’ अभिधान सर्वथा सार्थक है। इसमें
रामचन्द्रजी की
जीवनी न होकर महर्षि वसिष्ठ द्वारा दिए गए आध्यात्मिक उपदेश हैं।
प्रथम वैराग्य प्रकरण में उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचन्द्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए। अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचन्द्रजी विरक्त हुए। महाराज दशरथ की सभा में वे कहते हैं—
प्रथम वैराग्य प्रकरण में उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचन्द्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए। अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचन्द्रजी विरक्त हुए। महाराज दशरथ की सभा में वे कहते हैं—
किं श्रिया, किं च राज्येन कि कायेन, किमीहया।
दिनैः कातिपयैरेव कालः सर्व निकृन्तति।।
दिनैः कातिपयैरेव कालः सर्व निकृन्तति।।
अर्थात वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में
काल इन सब का नाश करने वाला है। अपनी मनोव्यथा का निरावण करने की
प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र से की। दूसरे
मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वशिष्ठ ऋषि ने
उपदेश दिया है। 3-4 और 5 वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और
लय की उत्पत्ति वार्णित है। इन प्रकारणों में अनेक दृष्टान्तात्मक आख्यान
और उपाख्यान निवेदन किये गए हैं। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध
में विभाजन किया गया है। इसमें संसारचक्र में फँसे हुए जीवात्मा को
निर्वाण अर्थात निरतिशय आनन्द की प्राप्ति का उपाय प्रतिपादित किया गया
है। इस महान ग्रन्थ में विषयों एवं विचारों की पुनरुक्ति के
कारण
रोचकता कम हुई है। परन्तु अध्यात्मज्ञान सुबोध तथा काव्यात्मक शैली में
सर्वत्र प्रतिपादन किया है।
योगवासिष्ठ में वैदिक सिद्धान्तों की व्याख्या
वैदिक संहिता के समान ही प्रश्न और उत्तर राम और वसिष्ठ के संचित वाल्मीकि
की झलमल दीप्ति यह, वाणी का अलौकिक चमत्कार लोकपावन योगवासिष्ठ है। किससे
प्रेरित मेरा मन गतिशील है ? किसकी इच्छा से मेरे वाक्यों का स्फुरण है ?
कौन देवता मेरे कान और नेत्र को अपने कार्य में नियुक्त करता है। उत्तर
अद्वैत है वह मेरे श्रोत्र का श्रोत्र है, मन का मन है, नेत्र का नेत्र
है। चक्षु की जहाँ गति नहीं है, वाक्य जिसे प्रकाशित नहीं कर
सकता,
मन का जहाँ प्रवेश सम्भव नहीं है, स्थूल वस्तु के समान जिसे देख या जान
नहीं सकते हैं—
केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथम प्रैतियुक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।
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