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श्री दसम ग्रन्थ साहिब 2

जोधसिंह

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :685
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2813
आईएसबीएन :81-7951-006-9

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इसमें श्री दसम ग्रन्थ साहिब की द्वितीय सैंची का वर्णन है...

Shri Dasam Granth Sahib (2)-A Hindi Book by Jodh Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय प्रस्तावना
नवीन संशोधित संस्करण


विषय -प्रवेश

भुवन वाणी ट्रस्ट के ‘देवनागरी अक्षयवट’ की देशी-विदेशी प्रकाण्ड शाखाओं में संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू, हिन्दी, कश्मीरी, गुरुमुखी, राजस्थानी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, कोंकणी मलयाळम, तमिल, कन्नड़ तेलुगु, ओड़िया, बँगला असमिया, मैथिली, नेपाली, अंग्रेजी, हिब्रू, ग्रीक, अरामी आदि के वाङ्मय के अनेक  अनुपम ग्रन्थ-प्रसून और किसलय खिल चुके हैं, अथवा खिल रहे हैं। इस नगरी अक्षयवट की गुरमुखी शाखा में प्रस्तुत यह ‘दसम ग्रन्थ साहिब’ ग्रन्थ तीसरा पल्लव-रत्न है।

गुरुमुखी लिपि की अलौकिकता

विश्व की प्रायः सभी लिपियाँ अपने निजी क्षेत्र के नाम पर प्रसिद्ध हैं। कितु संस्कृत, देवनागरी और गुरुमुखी इसका अपवाद हैं। ये संस्कृति और धर्म का प्रतीक हैं। बल्कि गुरुमुखी का तो नाम ध्यान में आते हैं सन्तों और गुरुजनों का स्मरण हो आता है। रोम-रोम में एक पवित्रता छा जाती है। वैसे तो गुरुमुखी में सभी प्रकार का साहित्य मौजूद है, परन्तु गुरुमुखी का नाम लेते ही ‘श्री आदि गुरुग्रन्थ साहिब’ का पवित्र स्मरण मूर्तमान हो जाता है।

श्री दसम गुरुग्रन्थ की तीसरी सैंची का नागरी में अवतरण

लोकप्रख्यात धर्मग्रन्थ ‘श्री गुरूग्रन्थ साहिब’ का पावन ग्रन्थ 3764 पृष्ठों और चार सैंचियों में पहले ही प्रकाशित होकर हिन्दी जगत के सम्मुख अवतीर्ण हुआ और जनता ने बड़ी उत्कण्ठा और भावावेश में उसका स्वागत किया। इस सोल्लास प्रतिक्रिया से प्रोत्साहित होकर हमने तत्काल श्री दसमग्रन्थ साहिब के नागरी रूपान्तर की योजना बनायी और उसी के फलस्वरूप श्री दसमग्रन्थ साहिब की यह प्रथम सैंची पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। शेष तीन सैंचियाँ मुद्रित हो रही हैं।


प्रथम सैची में दी प्रकाशकीय प्रस्तावना

ट्रस्ट का भाषाई उद्देश्य, लिप्यन्तरण की महिमा अब तक का कार्यकलाप, पवित्र गुरुवाणी की भाषा, श्रीआदि गुरुग्रन्थ साहिब का अति विशुद्ध नागरी लिप्यान्तरण तथा सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद का अवतरण, हिन्दी-जगत में उनका स्वागत, राष्ट्रीय एकता और विश्वबन्धुत्व की भावना, गुरुवाणी की अमृतवर्षा, दशगुरु—अवतार, क्रमषः शान्त-रस से वीर और वीर से रौद्र-रस के प्राकट्य, गुरुमुख मनमुख ज्योति से ज्योति का समावेश आदि पर एक विशद प्राक्कथन, श्री दशम ग्रंथ साहिब की प्रथम सैंची में दिया जा चुका है। अब प्रकाशकीय प्रस्तावना का परिशिष्टांश चौथी सैंची में प्रस्तुत किया जाएगा।

श्री दसम गुरुग्रंथ साहिब नगरी लिप्यान्तरण


दसम ग्रन्थ की भाषा ‘‘आदि गन्थ’’ की भाषा से पृथक् है। इसमें प्राचीन ब्रजभाषा में कवित्तो की रचना है। मूल पाठ गुरुमुखी लिपि से पृथक् न हो और काव्य के पढ़ने के धारा-प्रवाह में विघ्न् न हो इसके लिए नागरी लिप्यान्तरण में विशेष सतर्कता रखी गई है। ग्रन्थ का नागरी लिप्यान्तरण ट्रस्ट के कुशल विद्वानों ने बड़े श्रम और अनन्य निष्ठा से किया है।

गुरुमुखी एवं नागरी गन्थों के पीछे के मिलान की सुविधा

गुरुमुखी और हिन्दी संस्करण में कौन पाठ एक-दूसरे में कहाँ है, यह जानने के लिए प्रथम सैंची के अनुसार इस दूसरी सैंची में भी हिन्दी मूलपाठ के बीच में छोटे आकार में पृष्ठ संख्या दी गयी है।

आभार-प्रदर्शन

सर्वप्रथम हम सरदार डॉ. जोधसिंह जी के कृतज्ञ हैं, जिन्होंने निस्पृह भाव से ट्रस्ट के आग्रह पर अनुवाद जैसे जटिल और गहन कार्य को राष्ट्रहित में अति श्रम एवं तत्परता से किया। सर्वाधिक श्रेय उनको है।


विश्ववाङ्मय से निःसृत अगणित भाषाई धारा।
पहन नागरी पट, सबने अब भूतल-भ्रमण विचारा।।
अमर भारती सलिला की ‘गुरुमुखी’ सुपावन धारा।
पहन नागरी पट, ‘सुदेवि’ ने भूतल-भ्रमण विचारा।।

नन्दकुमार अवस्थी

अनुवादकीय


प्रस्तुत द्वितीय सैंची (जिल्द) में कृष्णावतार प्रसंग को ही रखा जा सका है। कृष्णावतार गुरु गोविन्दसिंह जी की अनुपम कृति है, जिसके बारे में प्रथम सैंची की भूमिका में थोड़ा सा संकेत दिया जा चुका है कि किस प्रकार यह रचना सिक्ख-समुदाय में, जहाँ एक ओर भ्रम एवं पाखण्डपूर्ण जीवन व्यतीत करने वालों को झकझोरती है, वहाँ साथ ही साथ स्वाभिमानपूर्ण जीवन-यापन का भी संदेश देती है। कृष्णावतार ने सभी चौबीस अवतारों में से शायद गुरुजी का ध्यान अधिक आकृष्ट किया है। तभी इस रचना की छन्द-रचना सर्वाधिक है। इस रचना में गुरुजी ने यह स्थापित किया है कि सच्ची  आध्यात्मिकता नैतिकता को व्यवहारिक जीवन में कार्यान्वित करने में ही है। यदि हमारा ज्ञान जीवन को एक दिव्य अर्थ, दिव्य दिशा प्रदान नहीं कर पाता है तो ऐसा ज्ञान व्यर्थ है। भक्ति जीवन में एक नई रचनात्मक उर्जा उत्पन्न नहीं करती तो ऐसी भक्ति भी मात्र अंधानुकरण और पाखण्ड है। कृष्णावतार में ही वे कहते हैं:—

धन्य जीउ ताको जग में मुख ते हरि चित्त में जुद्ध बिचारे।
देह अनित्त न नित्त रहे जस नाव चड़े भवसागर तारे।।
धीरज धाम बनाइ रहे तन बुद्धि सो दीपक ज्यों उजियारे।
ज्ञानहि को बढ़नी मनो हाथ लै कातरता कुतवार बुहारे।।

(कृष्णावतार पद 2492 पृष्ठ 405-406)

उनके उपर्युक्त सवैये में हम जहाँ भक्ति-शक्ति, संसार की नश्वरता और शुभ कर्मों की प्रेरणा तथा धैर्य आदि गुणों को मानव के आभूषणों के रूप में चित्रित पाते हैं वहीं साथ ही साथ अन्तिम पंक्ति में ज्ञान के वास्तविक कार्य की समीक्षा भी पाते हैं। ज्ञान का अर्थ शास्त्रार्थों के माध्यम से दूसरों को भयभीत करना मात्र ही नहीं अपितु ज्ञान रूपी झाड़ू से तो मानवता में व्याप्त संत्रास को समाप्त करना है, उसे साफ करके संशय-विमुक्त्त जीवन प्रदान करना है।

दसम ग्रंथ के कृतित्व के बारे में अभी सिक्ख विद्वानों में पूर्ण एकमत नहीं हैं, परन्तु इतना तो निस्संकोच कहा जा सकता है सम्पूर्ण दसमग्रंथ में अन्य प्रबन्धों की भाँति कुछ तो पाए जा सकते हैं परन्तु इस सम्पूर्ण रचना को गुरुकृति न मानना इस महान् ग्रंथ के रचयिता के प्रति अन्याय ही होगा। दूसरी सैंची इतनी शीघ्र प्रकाशित कर सकने के लिए मैं भुवन वाणी ट्रस्ट के प्रमुख न्यासी श्री नन्दकुमार अवस्थी का आभारी हूँ, क्योंकि यह सारा कार्य उनकी सतत प्रेरणा का ही फल है।

जोधसिंह


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