कहानी संग्रह >> जहाँ लक्ष्मी कैद है जहाँ लक्ष्मी कैद हैराजेन्द्र यादव
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रोचक कथा-संग्रह
jahan lakshmi kaid hai
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
साहित्य की धारा जहाँ मोड़ लेकर सारे परिदृश्य को नया कर देती है, निश्चय ही वहाँ कुछ रचनाएँ होती है। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ ऐसी ही एक कहानी है। ‘नई कहानी’ आन्दोलन की एक आधार कथा रचना के रूप में ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ का उल्लेख किए बिना स्वतन्त्रता के बाद की हिन्दी कहानी को नहीं समझा जा सकता ।
स्वतन्त्रता ने जिन सपनों को रचा था, उन्हें आपसी सम्बन्धों मे तिलमिस कर टूटते देखना, महसूस करना और लिखना हिन्दी कहानी का नया स्वरूप दे रहा था। सम्बन्धों, मानसिकताओं और भाषा में उतरती द्वन्द्वात्मकता में अकेला अनसमझा व्यक्ति मोहभंग की त्रासदी का साक्षात् प्रतीक है।
हाँलाकि ‘नई कहानी’ का प्रारम्भ प्रतीक (संपादक अज्ञेय) के अगस्त 1951 के अंक में प्रकाशित राजेन्द्र यादव की कहानी खेल खिलौने से माना जाता है, मगर ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ नई कहानी आन्दोलन का अनिवार्य कथा-संग्रह है।
इसी संग्रह में है एक कमजोर नाम की लड़की बेहद चर्चित कहानी। लंच टाइम और रोशनी कहाँ है जैसी कहानियाँ सिर्फ ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, वे आज भी प्रासंगिक हैं।
‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ संग्रह को पढ़ना एक पीढ़ी के मानसिक इतिहास से होकर गुजरना है।
स्कूल में भी सुनते हैं, बड़ी तारीफ भी थी; लेकिन अबकी साल ने रेट कर दी। उसे यह विश्वास हो गया कि लड़की सचमुच लक्ष्मी है और जब यह दूसरे की हो जाएगी तो इसका भी एक दम सत्यानाश हो जाएगा। इसी डर से न तो कुर्सी को आने-जाने देता है और न उसकी शादी करता है उसकी हर बात पर पुलिस के सिपाही की तरह नजर रखता है। उसकी हर बात मानता है बुरी तरह उसकी इज्जत करता है; उसकी हर जिद पूरी करता है, लेकिन निकलने नहीं देता। लक्ष्मी सोलह की हुई, सत्रह की हुई, अठारह, उन्नीस साल बीत गए। पहले तो वह सबसे लड़ती थी। बड़ी चिड़चिड़ी और जिद्दी हो गयी थी। कभी-कभी सबको गाली देती और मार बैठती थी, फिर तो मालूम नहीं हुआ कि घण्टों रात-रात भर भर पड़ी जोर जोर से रोती रहती,त फिर धीरे-धीरे उसको दौरा पड़ने लगा....
स्वतन्त्रता ने जिन सपनों को रचा था, उन्हें आपसी सम्बन्धों मे तिलमिस कर टूटते देखना, महसूस करना और लिखना हिन्दी कहानी का नया स्वरूप दे रहा था। सम्बन्धों, मानसिकताओं और भाषा में उतरती द्वन्द्वात्मकता में अकेला अनसमझा व्यक्ति मोहभंग की त्रासदी का साक्षात् प्रतीक है।
हाँलाकि ‘नई कहानी’ का प्रारम्भ प्रतीक (संपादक अज्ञेय) के अगस्त 1951 के अंक में प्रकाशित राजेन्द्र यादव की कहानी खेल खिलौने से माना जाता है, मगर ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ नई कहानी आन्दोलन का अनिवार्य कथा-संग्रह है।
इसी संग्रह में है एक कमजोर नाम की लड़की बेहद चर्चित कहानी। लंच टाइम और रोशनी कहाँ है जैसी कहानियाँ सिर्फ ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, वे आज भी प्रासंगिक हैं।
‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ संग्रह को पढ़ना एक पीढ़ी के मानसिक इतिहास से होकर गुजरना है।
स्कूल में भी सुनते हैं, बड़ी तारीफ भी थी; लेकिन अबकी साल ने रेट कर दी। उसे यह विश्वास हो गया कि लड़की सचमुच लक्ष्मी है और जब यह दूसरे की हो जाएगी तो इसका भी एक दम सत्यानाश हो जाएगा। इसी डर से न तो कुर्सी को आने-जाने देता है और न उसकी शादी करता है उसकी हर बात पर पुलिस के सिपाही की तरह नजर रखता है। उसकी हर बात मानता है बुरी तरह उसकी इज्जत करता है; उसकी हर जिद पूरी करता है, लेकिन निकलने नहीं देता। लक्ष्मी सोलह की हुई, सत्रह की हुई, अठारह, उन्नीस साल बीत गए। पहले तो वह सबसे लड़ती थी। बड़ी चिड़चिड़ी और जिद्दी हो गयी थी। कभी-कभी सबको गाली देती और मार बैठती थी, फिर तो मालूम नहीं हुआ कि घण्टों रात-रात भर भर पड़ी जोर जोर से रोती रहती,त फिर धीरे-धीरे उसको दौरा पड़ने लगा....
ओवर-हीयरिंग
-हैलोऽऽ, राजेन्द्र यादव हैं न ?
-जो बोल रहा हूँ, आप कौन...? अरे, तुम हो-
-हाँ, हैं तो हम ही। तुम्हारी एक नई किताब ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’ हमारे हाथ में है। सोचा, पढ़ने से पहले कुछ पूछ ही डालें...
-देख लो, तुम्हें हमेशा यही शिकायत रहती है कि मैं कुछ लिखता नहीं। कितनी जल्दी लिखी है किताब !
-सच ?-झूठेऽऽ ! नई लिखी है ? ये कब लिख डाली ? कोई कहता था : कहानियाँ सब इधर-उधर छपी हुई हैं।
-तो क्या हो गया ? कहानियाँ तो इधर-उधर छपती ही हैं। कुछ राय दो न इन पर। -हूँऽ, तो आप हमें पुरानी चीज़ों से बहका रहे हैं ! तुम बस नया कुछ लिखोगे ही नहीं, और झूठ पर झूठ बोलते जाओगे। तुम भी बस, हो गए खत्म।
-हिश्श्, क्या बकती हो ? अभी तो देखना ऐसी-ऐसी चीज़ें दूँगा कि चेतना के सारे स्तर और आयाम खुले रह जाएँगे।
-बस, बस, बस। लगे न अपनी तारीफ़ खुद करने ! तुम यही अपने मुँह से मत किया करो। कुछ लिखो न नया...
-क्या करें भाई, तुमने लाकर ऐसी जगह फँसाया है कि लिखने-सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। ये बंगाली लेखक कैसे लिखते होंगे यहाँ...?
-हम कहते हैं, तुमसे कुछ नहीं होगा। अपने घर जाओ, आगरे...और कुछ अच्छी चीज़ें लिखो।
-आख़िर अच्छी चीज़ों की तुम्हारी परिभाषा क्या है ?
ट-अरे ऐसी कहानियाँ जो मन पर छाई रहें-जैसे कृष्णा सोबती की ‘बादलों के घेरे’ है।
-अच्छा, तुम्हें अमरकान्त की ‘ज़िन्दगी और जोंक’ नहीं पसन्द आई ?
-नहीं भाई, ऐसी कहानियाँ नहीं। हमें तो पहले जैसी कहानियाँ पसन्द हैं।
-तो सुनो, तुम्हारी इस विकृत रुचि को हालाँकि ‘उखड़े हुए लोग’ में पद्मा और जया शरद की साहित्यिक बहस में काफ़ी कण्डेम कर चुका हूँ, अब फिर बताए देता हूँ कि मुझसे वे कहानियाँ नहीं लिखी जातीं, जिनमें लोग अपने-आपको निश्चेष्ट और निरुपाय होकर मरने-घुलने को छोड़ ही नहीं देते, उसमें एक शहीदाना आनन्द भी लेते हैं, और लेखक है कि उसे अतिरिक्त घुटन देकरचित्रित कर डालता है।
-क्यों, ऐसा होना क्या बिल्कुल अस्वाभाविक है ?
-देखो, मेरे पिता डॉक्टर थे और ज़िन्दगी के आठ-दससाल मैंने उन्हीं के साथ अस्पतालों में काटे हैं। हज़ारों लोगों को अलग-अलग बीमारियों से मरते-जीते देखा है। कैसे कैसे केस मैंने देखे हैं कि तुम सोच भी नहीं सकतीं। लेकिन मुझे अभी तक एक भी उदाहरण ऐसा याद नहीं है जिसमें किसी ने सचमुच दिल से मरने की कामना की हो। मौत से एक-एकपल खुरच-खुरत कर जीने की इच्छा ही वहाँ देखने को मिलती है। उन्हें देखकर मालूम पड़ता है कि शरीर को जीर्ण वसन कहकर सुख पाने वाली ये दार्शनिक कल्पनाएँ कितनी झूठी हैं, और ज़िन्दगी कितनी प्यारी चीज़ है : भीषणतम यातनाओं में मैंने ज़िन्दा रहने की आकांक्षा देखी है। जहाँ मुँह से मरने की इच्छाएँ प्रगट की जाती हैं, वहाँ भी जल्दी-से-जल्दी इन यातनाओं से मुक्ति पाना ही प्रमुख है, मृत्यु-प्रेम नहीं। इसलिए इन शौक़िया मरने वालों की बातें मेरे गले नहीं उतरतीं। ‘ज़िन्दगी और जोक’ में जीवन और मृत्यु की जो ‘नैक-टु-नैक फ़ाइट’ है उसने मुझे झंझोड़ डाला है।
-लगे न फिर लैक्चर पिलाने ! तुमने अपनी कहानियों में यही तो थीम ली होगी ?
-जी हाँ, आप कोई कहानी देख लीजिए। जड़ता, मौत और जहालत की प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ और उनसे ज़द्दोजहद करता जीवन।
-बकवास ! तुम्हारी ‘खेल-खिलौने’ में यह है ! ‘सारा आकाश’ में है यह ?
-देखो,इतनी ऊपरी निगाह से मत देखो।लोग सच्चा सुखी-शान्त जीवन पाने की अभिलाषा में संघर्ष करते-करते हार जाएँ, यह आज हमारी मजबूरी और सीमा है।जोश में आकर इससे आगे अक्सर ही हम लोग काल्पनिक आदर्शवादी और हवाई हो जाते हैं। जब उफनता और बलबलाता ही हम लोग काल्पनिक आदर्शवादी और हवाई हो जाते हैं। जब उफनता और बलबलाता जीवन हारकर दम तोड़ देता है, तो क्या सचमुच हमारे मन में यह बात ज़ोर से नीहं उठती कि ‘इसको बचाने का क्या कोई रास्ता है ही नहीं ?क्या ऐसा अमूल्य जीवन बच नहीं सकता ?’ और यही प्रश्न हमें सुन्दरतक जीवन-निर्माण होता-उस समय उसके प्रति अनुरक्ति औऱ सहानुभूति; उन मारनेवाली परिस्थितियों और शक्तियों के प्रति एक उदात्त क्रोध और सात्त्विक घृणा जगाकर हमारी कार्य-शक्ति को उद्वेलित करती है।
-बड़ी ऊँची-ऊँची बातें रट ली हैं। अपने इस कथन को ‘कमज़ोर लड़की की कहानी’ पर तो घटना ज़रा।
-मान गए भाई, तुम्हारीनिगाह तेज़ है। सच पूछो तो ‘कमज़ोर लड़की’ वाली कहानी को लोगों ने प्रायः गलत समझा है। यों भी कहलो कि उसमें मैं असफल रहा हूँ। अधिकांश उसकी ऊपरी तड़क-भड़क-शब्द-जाल में ही फँसे रह गए।यों मेरी निगाह में कहानी का कथ्य कमज़ोर नहीं है, लेकिन शायद उसे मैं शक्तिशाली रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाया। यह ठीक है कि उसमें आज के बहुत बड़े नेता की जीवन-घटना को ज्यों का त्यों उठाकर रख दिया गया है; क्योंकि उसमें आज की लड़की के जीवन की भयंकर ट्रेजेडी व्यक्ति होती है। वह खुद किस प्रकाप अपने को धोखा दिए चली जा रही है। वह प्रेमिका औरपत्नी दोनों की भूमिकाएँ एक ही साथ ईमानदारी से निबाहने का ढोंग करती है-जबकि वह वास्तव में न जो सच्ची प्रेयसी है और न निष्ठामयी पत्नी। वजह यह है कि आज उसके लिए दोनों जीवन के दो अलग ध्रुव हैं। ट्रेजेडी यह नहीं है कि वह दोनों केप्रति सच्ची क्यों नहीं है, ट्रेजेडी यह है कि वह दोनों में से किसी को अपने जीवन से झटककर नहीं निकाल पाती। परिणाम में दोनों अपनी तलख़ी में उस पर कमज़ोर होने का आक्षेप करते हैं-और इस तलख़ीं का भी कारण वह स्वयं ही बनती है। कोई सह लेता है, कोई नहीं सह पाता। आज की लड़की...
-छोड़ो भी, लड़की...लड़की...लड़की, तुम्हारे दिमाग़ पर सिर्फ लड़की छाई है। और कुछ लिखने को नहीं रह गया ?
-इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा...अच्छा, तुम्हीं बताओ, आज की लड़की के जीवन का यह द्वैत, आज के नारी-पुरुष के बीच, अर्थात् स्वस्थ सामाजिक सम्बन्धों की खाई नहीं है ? पुरुष अपने-आप में यह खाली प्रेम कहानियों वाली समस्या नहीं, एक भयंकर सामाजिक प्रश्न है कि इस सामूहिक निर्माण की बेला में कब तक वे आख़िर अपने-आपसे अलग अलग लड़ते रहेंगे ? यह रोटी की समस्या, जीवित रहने की समस्या, युद्ध और शान्ति की समस्या...ये सब अकेले-अकेले ही निपटने की चीजें हैं ? आदमी की जीवनी-शक्ति को सबसे अधिक तोडती है ये धर्म और धन की दीवारें, रूढ़ियाँ संस्कार झूठे नैतिक ढकोसले जिनके पीछे एक ममती हुई आर्थिक व्यवस्था है। उन सबका शिकार क्या पुरुष की अपेक्षा नारी ही अधिक नहीं है ? उसे ही इन सबके बीच में रहते, इन्हीं से ‘गुड कण्डक्ट’ का सर्टिफिकेट लेते हुए सबसे अधिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती ? और अपनी इन कमज़ोरियों और नाजुक पक्षों के कारण परिस्थितियों को बदलने में पुरुष का साथ देने की अपेक्षा उसके लिए वह एक समस्या नहीं बन जाती ? प्राकृतिक और मानवीय, किसी भी दृष्टि से छोड़ा उसे जा नहीं सकता। तो फिर कब तक उसे बाधा और समस्या का रूप दिए रखें ? सत्याग्रह के युग में पुरुष ने नारी के साथ प्रकृति विरोधी प्रयोग करते जो व्यापक और घातक फ्रस्ट्रेशन पाया था उसके अभिशप्त प्रेत क्या तुम्हें हर जगह आजहमारे समाज के कर्णधार बने नहीं दिखाई देते...?
-अच्छा, बस-बस। जनाब, आप टेलीफ़ोन पर बात कर रहे हैं, रामलीला के मैदान में मंच पर नहीं खड़े हैं। कहाँ से बात शुरू की और कहाँ पहुँचा दी। कहाँ प्रेम-कहानियाँ और कहाँ ये गम्भीर मसले ! हमें शब्दों में मत बहलाओ।
-तब ठीक है। जब तुम्हारे लिए प्रेम और समाज-निर्माण के गम्भीर प्रश्न दो विरोधी बातें हैं तब मैं कह ही क्या सकता हूँ ! लेकिन याद रखो, जिस समाज में धर्म और धन के कारण पत्नी और प्रेयसी; पति और प्रेमी-ये दो व्यक्ति न रहकर तीन होने को बाध्य हैं-वह समाजका स्वस्थ रूप नहीं है। तुम्हें इन त्रिकोणात्मक प्रेम-कहानियों के पीछे आजका कोई भयंकर मसला नहीं दिखाई देता ? प्रेम की समस्या को सिर्फ़ मध्यवर्गीय मानसिकता का विकृत और कुंठित प्रतिबिम्म बताकर एक तरफ गलती को दुहराना है जो संकीर्णतावादी उतावले आलोचक कर चुके हैं। वे लोग आर्थिक रूप में आने वाली तीन व्यवस्थाओं की बातें सोचते थे और हर सामन्तवादी चिह्न को उखाड़ फेंकने के नारे लगाते थे; लेकिन नैतकिता अर्थात् नारी-पुरुष केसम्बन्धों और परिवार के नए रूपगठन के बारे में घोर सामन्तवादी ज़हनियत रखते थे।उसके लिए नारी और सेक्स उतना ही हेय है, जितना पुराने योगियों और ब्रह्मचारियों के लिए। भाई, प्रेम कोई हवाई चीज़ तो हैं नहीं-मूलतः व्यक्तियों के पारिवारिक गठबन्धन की प्राकृतिक स्फुरणा है जो समाज की सबसे स्वस्थ इकाई है। इसे मध्यवर्ग की...
-देखो, देखो, एख बात कहते-कहते अपने को दूसरे आरोप से मत बचाओ। तुम्हें दुनिया में मध्य-वर्ग के सिवा कुछ और लिखने को ही नहीं दीखता।
-आरोप से नहीं बच रहा। मैं तो खुलकर कहता हूँ कि मैं निम्नमध्यवर्ग को जानता हूँ और प्रायः उसी के बारे में लिखता हूँ। और यह भी कहता हूँ कि कुछ वर्गों पर ही लिखने को जो प्रगतिशीलता मानते हैं, उन्हें अभी इस शब्द तक का अर्थ समझने में समय लगेगा। प्रगतिशीलता आदेश नहीं, एक दृष्टि है और उस दृष्टि से समाज के हर वर्ग पर लिखा जा सकता है। उत्तर-प्रदेश में शहरी-मध्यवर्गीय लोगों की कहानियों को मैं तेलंगाना और केरल के गाँव के बारे में लिखना आज फ़ैशन है, यह ठीक है। लेकिन यह तो हमेशा ही हुआ है कि कुछ लोगों के लिए जो जीवन और मरण के प्रश्न रहे हैं, वे बहुतों के लिए फ़ैंशन हैं। बढ़िया शानदार ड्राइंगरूमों में आज लोक-कला और चित्र फ़ैशन ही तो हैं। आज लोक-कला है, कल देशी-विदेशी कोई और कला आ जाएगी तो वे सब सज्जा और साज-सामान, पर्दें और फ़र्नीचर उठकर पीछे चले जाएँगे...
-अरे जाओ ! ये मध्यवर्गीय लोग ही सबसे ज़्यादा फ़ैशन परस्त होते हैं...
-तो संसार में जो जैसा है उसे जैसे का तैसा ही स्वीकार करने का प्रण मैंने कब किया ?
-अच्छा छोड़ो, अब हमें किताब पढ़ने दो ये दुनिया भर की बकवास अब बन्द ! कहानियाँ अच्छी लगीं तो तुम्हारी बातों पर भी सोच देखेंगे, नहीं तो कहते तो सभी एक से एक अच्छी बातें हैं। तुम लोगों के पास शब्द बहुत सस्ते हो गए हैं न आजकल।
-हाँ, यह शर्त तो सबसे पहले होनी चाहिए। लेकिन कुछ बातें बताना चाहता था। कहानियाँ पढ़ने से पहले उन्हें ध्यान में रख लेतीं तो बहुत अच्छा होता...
-नहीं, नहीं, यह सह बाद में। अब और बात मत करो। पढ़ने दो। इतनी ही शामत क्या कम है कि किताब हाथ में लेकर लैक्चर निगलना पड़ा। पढ़कर बताएँगे। तभी तुम्हारी बातें सुनेंगे...
-बताना ज़रूर। वह राय अच्छी कहानियाँ लिखने में मदद देगी। देखलो, यह भी ट्रेजेडी है कि लेखक से घृणा और लेखन से प्रेम...पढ़ने की जल्दी में उसकी इतनी-सी बात भी न सुनी जाए...कि इन कहानियों को इस रूप में लाने में भाई कमलेश्वर की मदद कितनी उल्लेखनीय रही है, और तुम तो दी’..
-अच्छा, बस !
-जो बोल रहा हूँ, आप कौन...? अरे, तुम हो-
-हाँ, हैं तो हम ही। तुम्हारी एक नई किताब ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’ हमारे हाथ में है। सोचा, पढ़ने से पहले कुछ पूछ ही डालें...
-देख लो, तुम्हें हमेशा यही शिकायत रहती है कि मैं कुछ लिखता नहीं। कितनी जल्दी लिखी है किताब !
-सच ?-झूठेऽऽ ! नई लिखी है ? ये कब लिख डाली ? कोई कहता था : कहानियाँ सब इधर-उधर छपी हुई हैं।
-तो क्या हो गया ? कहानियाँ तो इधर-उधर छपती ही हैं। कुछ राय दो न इन पर। -हूँऽ, तो आप हमें पुरानी चीज़ों से बहका रहे हैं ! तुम बस नया कुछ लिखोगे ही नहीं, और झूठ पर झूठ बोलते जाओगे। तुम भी बस, हो गए खत्म।
-हिश्श्, क्या बकती हो ? अभी तो देखना ऐसी-ऐसी चीज़ें दूँगा कि चेतना के सारे स्तर और आयाम खुले रह जाएँगे।
-बस, बस, बस। लगे न अपनी तारीफ़ खुद करने ! तुम यही अपने मुँह से मत किया करो। कुछ लिखो न नया...
-क्या करें भाई, तुमने लाकर ऐसी जगह फँसाया है कि लिखने-सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। ये बंगाली लेखक कैसे लिखते होंगे यहाँ...?
-हम कहते हैं, तुमसे कुछ नहीं होगा। अपने घर जाओ, आगरे...और कुछ अच्छी चीज़ें लिखो।
-आख़िर अच्छी चीज़ों की तुम्हारी परिभाषा क्या है ?
ट-अरे ऐसी कहानियाँ जो मन पर छाई रहें-जैसे कृष्णा सोबती की ‘बादलों के घेरे’ है।
-अच्छा, तुम्हें अमरकान्त की ‘ज़िन्दगी और जोंक’ नहीं पसन्द आई ?
-नहीं भाई, ऐसी कहानियाँ नहीं। हमें तो पहले जैसी कहानियाँ पसन्द हैं।
-तो सुनो, तुम्हारी इस विकृत रुचि को हालाँकि ‘उखड़े हुए लोग’ में पद्मा और जया शरद की साहित्यिक बहस में काफ़ी कण्डेम कर चुका हूँ, अब फिर बताए देता हूँ कि मुझसे वे कहानियाँ नहीं लिखी जातीं, जिनमें लोग अपने-आपको निश्चेष्ट और निरुपाय होकर मरने-घुलने को छोड़ ही नहीं देते, उसमें एक शहीदाना आनन्द भी लेते हैं, और लेखक है कि उसे अतिरिक्त घुटन देकरचित्रित कर डालता है।
-क्यों, ऐसा होना क्या बिल्कुल अस्वाभाविक है ?
-देखो, मेरे पिता डॉक्टर थे और ज़िन्दगी के आठ-दससाल मैंने उन्हीं के साथ अस्पतालों में काटे हैं। हज़ारों लोगों को अलग-अलग बीमारियों से मरते-जीते देखा है। कैसे कैसे केस मैंने देखे हैं कि तुम सोच भी नहीं सकतीं। लेकिन मुझे अभी तक एक भी उदाहरण ऐसा याद नहीं है जिसमें किसी ने सचमुच दिल से मरने की कामना की हो। मौत से एक-एकपल खुरच-खुरत कर जीने की इच्छा ही वहाँ देखने को मिलती है। उन्हें देखकर मालूम पड़ता है कि शरीर को जीर्ण वसन कहकर सुख पाने वाली ये दार्शनिक कल्पनाएँ कितनी झूठी हैं, और ज़िन्दगी कितनी प्यारी चीज़ है : भीषणतम यातनाओं में मैंने ज़िन्दा रहने की आकांक्षा देखी है। जहाँ मुँह से मरने की इच्छाएँ प्रगट की जाती हैं, वहाँ भी जल्दी-से-जल्दी इन यातनाओं से मुक्ति पाना ही प्रमुख है, मृत्यु-प्रेम नहीं। इसलिए इन शौक़िया मरने वालों की बातें मेरे गले नहीं उतरतीं। ‘ज़िन्दगी और जोक’ में जीवन और मृत्यु की जो ‘नैक-टु-नैक फ़ाइट’ है उसने मुझे झंझोड़ डाला है।
-लगे न फिर लैक्चर पिलाने ! तुमने अपनी कहानियों में यही तो थीम ली होगी ?
-जी हाँ, आप कोई कहानी देख लीजिए। जड़ता, मौत और जहालत की प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ और उनसे ज़द्दोजहद करता जीवन।
-बकवास ! तुम्हारी ‘खेल-खिलौने’ में यह है ! ‘सारा आकाश’ में है यह ?
-देखो,इतनी ऊपरी निगाह से मत देखो।लोग सच्चा सुखी-शान्त जीवन पाने की अभिलाषा में संघर्ष करते-करते हार जाएँ, यह आज हमारी मजबूरी और सीमा है।जोश में आकर इससे आगे अक्सर ही हम लोग काल्पनिक आदर्शवादी और हवाई हो जाते हैं। जब उफनता और बलबलाता ही हम लोग काल्पनिक आदर्शवादी और हवाई हो जाते हैं। जब उफनता और बलबलाता जीवन हारकर दम तोड़ देता है, तो क्या सचमुच हमारे मन में यह बात ज़ोर से नीहं उठती कि ‘इसको बचाने का क्या कोई रास्ता है ही नहीं ?क्या ऐसा अमूल्य जीवन बच नहीं सकता ?’ और यही प्रश्न हमें सुन्दरतक जीवन-निर्माण होता-उस समय उसके प्रति अनुरक्ति औऱ सहानुभूति; उन मारनेवाली परिस्थितियों और शक्तियों के प्रति एक उदात्त क्रोध और सात्त्विक घृणा जगाकर हमारी कार्य-शक्ति को उद्वेलित करती है।
-बड़ी ऊँची-ऊँची बातें रट ली हैं। अपने इस कथन को ‘कमज़ोर लड़की की कहानी’ पर तो घटना ज़रा।
-मान गए भाई, तुम्हारीनिगाह तेज़ है। सच पूछो तो ‘कमज़ोर लड़की’ वाली कहानी को लोगों ने प्रायः गलत समझा है। यों भी कहलो कि उसमें मैं असफल रहा हूँ। अधिकांश उसकी ऊपरी तड़क-भड़क-शब्द-जाल में ही फँसे रह गए।यों मेरी निगाह में कहानी का कथ्य कमज़ोर नहीं है, लेकिन शायद उसे मैं शक्तिशाली रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाया। यह ठीक है कि उसमें आज के बहुत बड़े नेता की जीवन-घटना को ज्यों का त्यों उठाकर रख दिया गया है; क्योंकि उसमें आज की लड़की के जीवन की भयंकर ट्रेजेडी व्यक्ति होती है। वह खुद किस प्रकाप अपने को धोखा दिए चली जा रही है। वह प्रेमिका औरपत्नी दोनों की भूमिकाएँ एक ही साथ ईमानदारी से निबाहने का ढोंग करती है-जबकि वह वास्तव में न जो सच्ची प्रेयसी है और न निष्ठामयी पत्नी। वजह यह है कि आज उसके लिए दोनों जीवन के दो अलग ध्रुव हैं। ट्रेजेडी यह नहीं है कि वह दोनों केप्रति सच्ची क्यों नहीं है, ट्रेजेडी यह है कि वह दोनों में से किसी को अपने जीवन से झटककर नहीं निकाल पाती। परिणाम में दोनों अपनी तलख़ी में उस पर कमज़ोर होने का आक्षेप करते हैं-और इस तलख़ीं का भी कारण वह स्वयं ही बनती है। कोई सह लेता है, कोई नहीं सह पाता। आज की लड़की...
-छोड़ो भी, लड़की...लड़की...लड़की, तुम्हारे दिमाग़ पर सिर्फ लड़की छाई है। और कुछ लिखने को नहीं रह गया ?
-इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा...अच्छा, तुम्हीं बताओ, आज की लड़की के जीवन का यह द्वैत, आज के नारी-पुरुष के बीच, अर्थात् स्वस्थ सामाजिक सम्बन्धों की खाई नहीं है ? पुरुष अपने-आप में यह खाली प्रेम कहानियों वाली समस्या नहीं, एक भयंकर सामाजिक प्रश्न है कि इस सामूहिक निर्माण की बेला में कब तक वे आख़िर अपने-आपसे अलग अलग लड़ते रहेंगे ? यह रोटी की समस्या, जीवित रहने की समस्या, युद्ध और शान्ति की समस्या...ये सब अकेले-अकेले ही निपटने की चीजें हैं ? आदमी की जीवनी-शक्ति को सबसे अधिक तोडती है ये धर्म और धन की दीवारें, रूढ़ियाँ संस्कार झूठे नैतिक ढकोसले जिनके पीछे एक ममती हुई आर्थिक व्यवस्था है। उन सबका शिकार क्या पुरुष की अपेक्षा नारी ही अधिक नहीं है ? उसे ही इन सबके बीच में रहते, इन्हीं से ‘गुड कण्डक्ट’ का सर्टिफिकेट लेते हुए सबसे अधिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती ? और अपनी इन कमज़ोरियों और नाजुक पक्षों के कारण परिस्थितियों को बदलने में पुरुष का साथ देने की अपेक्षा उसके लिए वह एक समस्या नहीं बन जाती ? प्राकृतिक और मानवीय, किसी भी दृष्टि से छोड़ा उसे जा नहीं सकता। तो फिर कब तक उसे बाधा और समस्या का रूप दिए रखें ? सत्याग्रह के युग में पुरुष ने नारी के साथ प्रकृति विरोधी प्रयोग करते जो व्यापक और घातक फ्रस्ट्रेशन पाया था उसके अभिशप्त प्रेत क्या तुम्हें हर जगह आजहमारे समाज के कर्णधार बने नहीं दिखाई देते...?
-अच्छा, बस-बस। जनाब, आप टेलीफ़ोन पर बात कर रहे हैं, रामलीला के मैदान में मंच पर नहीं खड़े हैं। कहाँ से बात शुरू की और कहाँ पहुँचा दी। कहाँ प्रेम-कहानियाँ और कहाँ ये गम्भीर मसले ! हमें शब्दों में मत बहलाओ।
-तब ठीक है। जब तुम्हारे लिए प्रेम और समाज-निर्माण के गम्भीर प्रश्न दो विरोधी बातें हैं तब मैं कह ही क्या सकता हूँ ! लेकिन याद रखो, जिस समाज में धर्म और धन के कारण पत्नी और प्रेयसी; पति और प्रेमी-ये दो व्यक्ति न रहकर तीन होने को बाध्य हैं-वह समाजका स्वस्थ रूप नहीं है। तुम्हें इन त्रिकोणात्मक प्रेम-कहानियों के पीछे आजका कोई भयंकर मसला नहीं दिखाई देता ? प्रेम की समस्या को सिर्फ़ मध्यवर्गीय मानसिकता का विकृत और कुंठित प्रतिबिम्म बताकर एक तरफ गलती को दुहराना है जो संकीर्णतावादी उतावले आलोचक कर चुके हैं। वे लोग आर्थिक रूप में आने वाली तीन व्यवस्थाओं की बातें सोचते थे और हर सामन्तवादी चिह्न को उखाड़ फेंकने के नारे लगाते थे; लेकिन नैतकिता अर्थात् नारी-पुरुष केसम्बन्धों और परिवार के नए रूपगठन के बारे में घोर सामन्तवादी ज़हनियत रखते थे।उसके लिए नारी और सेक्स उतना ही हेय है, जितना पुराने योगियों और ब्रह्मचारियों के लिए। भाई, प्रेम कोई हवाई चीज़ तो हैं नहीं-मूलतः व्यक्तियों के पारिवारिक गठबन्धन की प्राकृतिक स्फुरणा है जो समाज की सबसे स्वस्थ इकाई है। इसे मध्यवर्ग की...
-देखो, देखो, एख बात कहते-कहते अपने को दूसरे आरोप से मत बचाओ। तुम्हें दुनिया में मध्य-वर्ग के सिवा कुछ और लिखने को ही नहीं दीखता।
-आरोप से नहीं बच रहा। मैं तो खुलकर कहता हूँ कि मैं निम्नमध्यवर्ग को जानता हूँ और प्रायः उसी के बारे में लिखता हूँ। और यह भी कहता हूँ कि कुछ वर्गों पर ही लिखने को जो प्रगतिशीलता मानते हैं, उन्हें अभी इस शब्द तक का अर्थ समझने में समय लगेगा। प्रगतिशीलता आदेश नहीं, एक दृष्टि है और उस दृष्टि से समाज के हर वर्ग पर लिखा जा सकता है। उत्तर-प्रदेश में शहरी-मध्यवर्गीय लोगों की कहानियों को मैं तेलंगाना और केरल के गाँव के बारे में लिखना आज फ़ैशन है, यह ठीक है। लेकिन यह तो हमेशा ही हुआ है कि कुछ लोगों के लिए जो जीवन और मरण के प्रश्न रहे हैं, वे बहुतों के लिए फ़ैंशन हैं। बढ़िया शानदार ड्राइंगरूमों में आज लोक-कला और चित्र फ़ैशन ही तो हैं। आज लोक-कला है, कल देशी-विदेशी कोई और कला आ जाएगी तो वे सब सज्जा और साज-सामान, पर्दें और फ़र्नीचर उठकर पीछे चले जाएँगे...
-अरे जाओ ! ये मध्यवर्गीय लोग ही सबसे ज़्यादा फ़ैशन परस्त होते हैं...
-तो संसार में जो जैसा है उसे जैसे का तैसा ही स्वीकार करने का प्रण मैंने कब किया ?
-अच्छा छोड़ो, अब हमें किताब पढ़ने दो ये दुनिया भर की बकवास अब बन्द ! कहानियाँ अच्छी लगीं तो तुम्हारी बातों पर भी सोच देखेंगे, नहीं तो कहते तो सभी एक से एक अच्छी बातें हैं। तुम लोगों के पास शब्द बहुत सस्ते हो गए हैं न आजकल।
-हाँ, यह शर्त तो सबसे पहले होनी चाहिए। लेकिन कुछ बातें बताना चाहता था। कहानियाँ पढ़ने से पहले उन्हें ध्यान में रख लेतीं तो बहुत अच्छा होता...
-नहीं, नहीं, यह सह बाद में। अब और बात मत करो। पढ़ने दो। इतनी ही शामत क्या कम है कि किताब हाथ में लेकर लैक्चर निगलना पड़ा। पढ़कर बताएँगे। तभी तुम्हारी बातें सुनेंगे...
-बताना ज़रूर। वह राय अच्छी कहानियाँ लिखने में मदद देगी। देखलो, यह भी ट्रेजेडी है कि लेखक से घृणा और लेखन से प्रेम...पढ़ने की जल्दी में उसकी इतनी-सी बात भी न सुनी जाए...कि इन कहानियों को इस रूप में लाने में भाई कमलेश्वर की मदद कितनी उल्लेखनीय रही है, और तुम तो दी’..
-अच्छा, बस !
एक कमज़ोर लड़की की कहानी
भूमिका
पाठको, इसमें मैंने सुखान्त और दुखान्त दोनों प्रकार की रुचि रखने वालों के लिए कहानी कही है। आपमें से बहुतों ने अपनी सच्ची लगन से किसी पड़ोसिन लड़की से अवश्य ही प्रेम किया होगा, और बहुत सम्भावना है-बहुत क्या निश्चय ही-उस लड़की की शादी आपके देखते-देखते दूसरे के साथ हो गई होगी। तब आप रोए होंगे, मन-ही-मन घुले होंगे और अक्सर आत्महत्या की बात सोचा करते होंगे। लेकिन फिर सभी कुछ ठीक हो गया होगा। आप अपनी ज़िन्दगी के संघर्षों में, नौकरी की तलाश में या ऑफ़िस की फ़ाइलों में खो गए होंगे, लड़की अपने पति के साथ बच्चे पैदा करने में लगी होगी। और दोनों उस बात को बचपन की बात कहकर भूल गए होंगे। बड़े होकर आप अत्यन्त रखवाली रखते होंगे कि कहीं आपका लड़का भी किसी लड़की से बचपन का यही खेल न खेलने लगे, और आपकी भूतपूर्व प्रेमिका अपनी लड़की को हमेशा अपनी आँखों के आगेरखती होगी कि कहीं वह आप किसी पड़ोसी लड़के के चक्कर में न उलझ जाए और उसे ‘जीवन-सर्वस्व’ न समझने लगे; जैसा स्वयं उसने कभी आपको समझा था।
ख़ैर, मैं कहानी यहाँ से शुरू करना चाहता हूँ कि प्रेमिका की शादी को हुए बहुत थोड़ा,लगभग दो-तीन साल का समय बीता है। प्रेमी, सुविधा के लिए उसका नाम प्रमोद मानिए, एक प्रसिद्ध नेता बनकर उसी नगर में आया हुआ है जिसमें प्रेमिका रहती है; लेकिन ठहरा वहाँ नहीं है। फिर भी व्यस्तता में से थोड़ा समय निकालकर,जैसे भी हो, उसका इरादा उससे मिल आने का अवश्य है। वह बैठा संध्या को कार्यकारिणी में पढ़ने के लिए आवश्यक रिपोर्ट तैयार कर रहा है। मन-ही-मन प्रतीक्षा वह कर रहा है कि जिस अधिवेसन में वह रिपोर्ट तैयार कर रहा है। मन ही मन प्रतीक्षा वह कर रहा है कि जिस अधिवेशन में वह आया हुआ है, उसके संयोजक से उसने कुछ आँकड़े माँगे थे, वे अभी तक क्यों नहीं आए। उसने उनके पास एकस्वयंसेवक भेजा था और इस समय वह उसी की राह देख रहा है। सुबह के दस बजे हैं, वह पलंग पर बैठा हुआ ही लिख रहा है, अभी जो चाय पी चुका है, वह ख़ाली प्याला पास में रखा है। सामने का दरवाजा बरामदे में खुला है-बरामदे में दरवाजे तक धूप की एक चौड़ी पट्टी आई हुई है। समय जाड़े का है। एक ऊनी शॉ़ल उसके कन्धों पर लापरवाही से पड़ा है। हाथ में फ़ाउण्टमैन खुला है और उसे पीछे से हल्के हल्के दाँतों पर ठोककर वह कुछ सोच रहा है। बस, कहानी शुरू करने के लिए इतना काफ़ी है, शेष कहानी के दौरान आता चलेगा।
कहानी दूसरे महायुद्ध से पहले की है।
ख़ैर, मैं कहानी यहाँ से शुरू करना चाहता हूँ कि प्रेमिका की शादी को हुए बहुत थोड़ा,लगभग दो-तीन साल का समय बीता है। प्रेमी, सुविधा के लिए उसका नाम प्रमोद मानिए, एक प्रसिद्ध नेता बनकर उसी नगर में आया हुआ है जिसमें प्रेमिका रहती है; लेकिन ठहरा वहाँ नहीं है। फिर भी व्यस्तता में से थोड़ा समय निकालकर,जैसे भी हो, उसका इरादा उससे मिल आने का अवश्य है। वह बैठा संध्या को कार्यकारिणी में पढ़ने के लिए आवश्यक रिपोर्ट तैयार कर रहा है। मन-ही-मन प्रतीक्षा वह कर रहा है कि जिस अधिवेसन में वह रिपोर्ट तैयार कर रहा है। मन ही मन प्रतीक्षा वह कर रहा है कि जिस अधिवेशन में वह आया हुआ है, उसके संयोजक से उसने कुछ आँकड़े माँगे थे, वे अभी तक क्यों नहीं आए। उसने उनके पास एकस्वयंसेवक भेजा था और इस समय वह उसी की राह देख रहा है। सुबह के दस बजे हैं, वह पलंग पर बैठा हुआ ही लिख रहा है, अभी जो चाय पी चुका है, वह ख़ाली प्याला पास में रखा है। सामने का दरवाजा बरामदे में खुला है-बरामदे में दरवाजे तक धूप की एक चौड़ी पट्टी आई हुई है। समय जाड़े का है। एक ऊनी शॉ़ल उसके कन्धों पर लापरवाही से पड़ा है। हाथ में फ़ाउण्टमैन खुला है और उसे पीछे से हल्के हल्के दाँतों पर ठोककर वह कुछ सोच रहा है। बस, कहानी शुरू करने के लिए इतना काफ़ी है, शेष कहानी के दौरान आता चलेगा।
कहानी दूसरे महायुद्ध से पहले की है।
कुआँ और गूँजती आवाज़
‘हुँ:, तो आपने मुझे ज़हर देने के लिए बुलाया है ! मैं आऊँगा यह ज़हर भी तो देखें।’ प्रमोद ने मन ही मन कहा और हाथ का पत्र मोड़कर जेब में रखने लगा, रखते-रखते फिर एक बार उडती निगाह डाली। उसमें चिर-परिचित अक्षरों में केवल यही लिखा था और हर अक्षर में किसी की अलकों की भीन-भीनी गन्ध थी :
‘प्रमोद भैया,
आप यहाँ आए हुए हैं, फिर भी आपने हमारे यहाँ आने की आवश्यकता नहीं समझी। यह तो आपको उचित नहीं है। क्या सन्ध्या को ठीक आठ बजे हमारे यहाँ खाने पर आएँगे ? सच, हम लोग बहुत प्रतीक्षा करेंगे। हाँ, एक बात है आपसे छिपाना नहीं चाहती। आज का भोजन मैं अपने ही हाथों से बनाऊँगी, यह विशेष रूप से आपके ही लिए होगा, क्योंकि उसमें पोटेशियम साइनाइड मिला होगा। मज़ाक इसमें ज़रा भी नहीं है। लेकिन वह आपको खाना ही है। विशेष क्या ! आप आठ बजे आ ही रहे हैं। आ रहे हैं न ?
‘प्रमोद भैया,
आप यहाँ आए हुए हैं, फिर भी आपने हमारे यहाँ आने की आवश्यकता नहीं समझी। यह तो आपको उचित नहीं है। क्या सन्ध्या को ठीक आठ बजे हमारे यहाँ खाने पर आएँगे ? सच, हम लोग बहुत प्रतीक्षा करेंगे। हाँ, एक बात है आपसे छिपाना नहीं चाहती। आज का भोजन मैं अपने ही हाथों से बनाऊँगी, यह विशेष रूप से आपके ही लिए होगा, क्योंकि उसमें पोटेशियम साइनाइड मिला होगा। मज़ाक इसमें ज़रा भी नहीं है। लेकिन वह आपको खाना ही है। विशेष क्या ! आप आठ बजे आ ही रहे हैं। आ रहे हैं न ?
आपकी सविता’
साथ का पत्र संयोजक जी का था, जिसमें कागज देर से भेजने के लिए क्षमा-यातना की गई थी, क्योंकि जो सज्जन इन कागज़ों को रख गए थे वे अभी तक नहीं आए थे। एक साथ दोनों पत्रों को उसने बड़ी लापरवाही से मेज़ के एक कोने में फूलदान से टिकाकर खड़ा कर दिया और स्वयं उस रिपोर्ट में उलझ गया। दो घंटे तक सब कुछ भूलकर वह रिपोर्ट लिखता रहा।
काम समाप्त करके जब उसने सिर ऊपर उठाया और एक थकी साँस ली तो अनजाने ही उसको होठों से निकलगया, ‘‘तो तुम ज़हर खिलाओगी सविता ? अच्छी बात है।’’ और स्मृतियों की फुहार में हँस पड़ा। पीछे दीवार से पीठ टिकाकर सहारा लिया और गुनगुनाने लगा, ‘अमृत हो जाएगा विष भी, पिता दो हाथ से अपने’...अतीत की गुंजलिका धीरे-धीरे खुलने लगी, खुलती चली गई...वह बह बुदबुदाया, ‘‘अब कौन सा ज़हर रहा गया है कि...’’
‘‘सचमच, शर्म तो आपको आ नहीं रही होगी ?’’
‘‘किस बात की ?’’
‘‘किस बात की ?’’ उसने चिढ़कर मुँह बनाते हुए दुहराया,‘‘बड़े आए हमें अपनी जूठी कॉफी पिलाने वाले ! पहले शीशे में जाकर अपनी अपना मुँह तो देखिए ! जाइए, हम नहीं पीते।’’ वह ठनक उठी, ‘‘पता है, मैं ब्राह्मण की बेटी हूँ, अपनी हैसियत से रहा कीजिए !’’
‘‘बहुत बक-बक मत कर, खोपड़ी तोड़ दूँगा। घर में क्यों घुस आने देते हैं...यहाँ आकर रौब झाड़ने लगी, तेरे पुरखों ने भी देखी होगी कॉफी वहाँ ? वहाँ तो तुलसी का जुशान्दा उबालते हैं।’’
‘‘नहीं जी, हमें कॉफ़ी क्यों देखने को मिलेगी ? हिन्दुस्तान के सारे कॉफ़ी के बग़ीचे तो आपके हैं न ! आप ही तो एक इंग्लैंड से नए लौटकर आए हैं न, बड़े आए चलकर हमें कॉफ़ी पिलाने !’’ मुँह बिचकाकर वह बोली।
‘‘इंग्लैंड से नहीं आए तो तेरी तरह से घर में ही बैठकर पढ़े हैं ? पता है, आप एक बैरिस्टर से बातें कर रही हैं इस समय, बाहर से ही चपरासी भगा दिया करेगा।’’
‘‘जी हाँ, बहुत बैरिस्टर देखे हैं, आते हैं तो बड़ा रौब और शान रखते हैं, फिर तो झाड़ू ही लगाते बनता है सड़कों पर !’’ वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।
‘‘अच्छा, बक-बक मत कर, क़ीफ़ी पीती है कि नहीं ? ठंडी किए डाल रही है।’’
‘‘फिर वही रट; कह दिया कि हे लन्दन-पलट बैरिस्टर प्रमोदजी ! आप इस समय लन्दन के किसी क्लब में, किसी मेम के साथ नहीं बैठे हैं कि एक दूसरे की तनतुरूस्ती’ पी जा रही है, जूठी शराब और कॉफ़ी चल रही है; आप इस प्रसिद्ध तीर्त नगरी में अपने घर में हैं और कुमारी सविता शर्मा, समझे, शर्मा से बात कर रहे हैं; यह तो कहिए, मैं आपके के यहाँ का पानी तब भी पी लेती हूँ, हमारी जाति का कोई सुने तो निकाल बाहर करे-कायस्थों के यहाँ का पानी ? राम-राम !’’ उसने कानों पर हाथ रख लिए।
‘‘तो मुझे भी जिद है कि आज तुझे कॉफ़ी पिलाकर ही छोड़ूँगा, बैरिस्टरी मैंने पढ़ी है, छाँट आप रही हैं।’’
प्रमोद ने झपटकर उसकी बाँह पकड़ ली और अपना प्याला उठाकर उसके मुँह से लगाकर गुर्राया,‘‘पी...पी...नहीं तो फैलती है...’’
‘‘भैया, यह बात ठीक नहीं है, मैं भाभी को आवाज देती हूँ..भाभी !’’ वह नाराज़गी से बोली, ‘‘कॉफ़ी वाफ़ी हम नहींपीते, हमें स्वाद नहीं आता। हुक्के का-सा पानी,अरे...मानो.,..’’
‘‘स्वाद नही आता ? सारी दुनिया कॉफ़ी पीती है, इन्हें अनोखा ही स्वाद नहीं आता।’’ बाँह छोड़कर प्रमोद ने गर्दन पकड़ ली, और दूसरे हाथ क्या प्याला खट् से उसके होंठों से लगा दिया। सविता के होंठ जल गए और दो घूँट-मुँह में भर गई। एकदम वह सटक गई। सारा मुँह लाल हो उठा, गले की नसें उभर आईं और आँखओं में पानी भर आया। उसने दोनों हाथों से प्याला पकड़कर इस तरह साँसली जैसे डूब जाने पर उबर कर साँस ली हो। प्रमोद ने कप हटा लिया।
‘‘ले अब, रो भाभी से जाकर कि मेरा धर्म नष्ट कर दिया, न जाने क्या पिला दिया !’’ उद्दण्ड स्वर में वह बोला, ‘फिर कॉफ़ी के प्याले को होंठों की ओर बढ़ाया। सविता का गला जल गया था और दोनों हाथों से अभी तर गला पकड़ रखा था.
‘‘तुझे तो सीधे मुँह कभी कुछ करने को कहे ही नहीं। बस, गर्दन पकड़ी और कम करा लिया।’’ बात समाप्त करके उसने फिर प्याला अपने होठों की तरफ, जहाँ कुटिल मुस्कराहट नाच रही थी, बढ़ाया।
‘‘तुम्हारी भी आज बाबूजी से शिकायत नहीं की तो मेरा नाम नहीं। लन्दन से लौटकर आए हैं, इस मारे यहाँ आदर करते-करते मरे जाते हैं, और आप साहब हैं कि् किसी को बदलते ही नहीं, अपने सामने। हमारा सारा गला जल गया। अरे, अब उसे क्यों पीते हैं, मेरे मुँह से निकलआई थी-हाय-हाय कैसे गन्दे हैं ! छि:छि:!’’ घिन से दोनों हाथ झपटकर वह बोली, ‘‘भैया, सच तुम तो जब से पढ़-लिखकर आए हो, बिल्कुल मलेच्छ हो गए हो, और लेके अपनी जूठी कॉफ़ी पिला दी। भैया, सच बात है, ऐसे तुम मेरा धरम नष्ट करोगे तो मैं यहाँ झाँकूँगी भी नहीं समझे !’’ उसने ऐसा भाव दिखाया जैसे कॉफ़ी उसके पेट से वापस उमड़ी आ रही हो।
‘‘झाँकने को कौन मैं तेरे हाथ-पाँव जोड़ने गया था कि हे सविता रानी जी, आपके बहिना हमारा घर सूना पड़ा है, आप तलिए, नीहं तो मुहूर्त निकला जा रहा है।’’
‘हाय, कोई सुने तो क्या कहे ? जाने क्या-क्या बके जा रहे हो ! भैया, हमें ये सब बातें अच्छई नहीं लगतीं। तुम्हें तो कुछ शरम-लिहाज है नहीं। जब से आए हो, जो मुँह कर दो और ऊपर से ये सब कहनी अनकहनी कहो।’’
‘‘बड़ी आईं धरम-करम की रट अनकहनी कहो।’
‘‘बड़ी आईं धरम-करम की रट लगानेवाली ! धरम की बच्ची, धरम तो तेरा तभी नष्ट हो गया जब तू जान बूझकर यहाँ आई।’’ फिर एक ओर मुँह फेरकर जैसे किसी अनुपस्थिति व्यक्ति को सम्बोधित करके बोला, ‘‘भैया, इन ब्राह्मणों की माया ये ही जानें ! बाप-भाइयों ने हमारी बिरादरी वालों को भड़काकर जात से निकाल दिया, लड़का इंग्लैंड हो आया है और बेटी है कि चौबीस घंटे बस हमारी ही छाती पर सवार रहती है, न पढ़ने देती है न लिखने।’’ एकदम उसकी ओर मुँह करके बोला, ‘‘अच्छा, आप भागिए यहाँ से वर्ना फिर मैं बुलाता हूँ पंडिण्तजी को। खबरदार, फिर जो कभी यहाँ आई-बस वहीं से बैठी अपनी खिडकी से झाँका करो, समझी ! वैसे तो जूठी-जूठी है की रट लगा दी, पिलाया तो एक घूँटमें आधा कप खाली कर दिया।’’
‘‘हाय, झूठ की हद हो गई है भैया, सच ! एक तो हमारे होंठ जला दिए, नहीं तो मैं एक घूँट नहीं पीती।’’
‘‘पी तो सही। अच्छा, बता, कैसी लगी हमारी जूठी कॉफ़ी ?’’ उसने ललककर पूछा।
‘‘कड़वी ज़हर, थू-थू जाने मांस मच्छी क्या क्या खाते हैं !’’ सविता ने ऐसा मुँह बनाया जैसे नीम की पत्तियाँ चबा ली हों।
‘‘आहा, हमें तो बड़ी मीठी लग रही है, अमृत जैसी ! भई वाह, क्या कहने हैं ! ’’ बाकी कॉफ़ी को आनन्द से एक ही घूँट में पीते हुए वह बोला।
‘‘तो लाओ, थोड़ा और थूक दूँ उसमें। ज़रा और मीठी हो जाएगी।’’ धृष्ठता से वह बोली।
‘‘थूकना क्या, तुमने तो छू दिया होंठों से बस, उसमें शहद घुल गया।’’ उसी तरह से उसने उत्तर दिया।
‘‘तो बस, मैं भाभी से कहे आती हूँ, आज से चीनी-बूरा घर में ज़रा भी नहीं आएगा। मैं कुल्ला करके पानी रख दूँगी, दूध-चाय-सबमें वही पड़ेगा।’’
दूर बरामदे में आती भाभी की झलक प्रमोद कोमिल गई। वह झटककर सीधा बैठ गया, इधर-उधर पड़ी किताबें सामने खिसकाकर ठीक कर लीं। एक घूँसा सविता की पीठ में मारकर बोला, ‘‘बड़ी आप स्वर्ग की देवी चली आ रही हैं कि हमारे खाने में थूकेंगी। अपना मुँह तो देख, महीने भर से दाँत साफ नहीं किए हैं, तमाम बदबू आ रही है। चली आई मटकती हुई, ’‘अमें पड़ा दो।’ फिर ऊपर से ये कि हम आपके खाने-पीन में थूकेंगे।’’
काम समाप्त करके जब उसने सिर ऊपर उठाया और एक थकी साँस ली तो अनजाने ही उसको होठों से निकलगया, ‘‘तो तुम ज़हर खिलाओगी सविता ? अच्छी बात है।’’ और स्मृतियों की फुहार में हँस पड़ा। पीछे दीवार से पीठ टिकाकर सहारा लिया और गुनगुनाने लगा, ‘अमृत हो जाएगा विष भी, पिता दो हाथ से अपने’...अतीत की गुंजलिका धीरे-धीरे खुलने लगी, खुलती चली गई...वह बह बुदबुदाया, ‘‘अब कौन सा ज़हर रहा गया है कि...’’
‘‘सचमच, शर्म तो आपको आ नहीं रही होगी ?’’
‘‘किस बात की ?’’
‘‘किस बात की ?’’ उसने चिढ़कर मुँह बनाते हुए दुहराया,‘‘बड़े आए हमें अपनी जूठी कॉफी पिलाने वाले ! पहले शीशे में जाकर अपनी अपना मुँह तो देखिए ! जाइए, हम नहीं पीते।’’ वह ठनक उठी, ‘‘पता है, मैं ब्राह्मण की बेटी हूँ, अपनी हैसियत से रहा कीजिए !’’
‘‘बहुत बक-बक मत कर, खोपड़ी तोड़ दूँगा। घर में क्यों घुस आने देते हैं...यहाँ आकर रौब झाड़ने लगी, तेरे पुरखों ने भी देखी होगी कॉफी वहाँ ? वहाँ तो तुलसी का जुशान्दा उबालते हैं।’’
‘‘नहीं जी, हमें कॉफ़ी क्यों देखने को मिलेगी ? हिन्दुस्तान के सारे कॉफ़ी के बग़ीचे तो आपके हैं न ! आप ही तो एक इंग्लैंड से नए लौटकर आए हैं न, बड़े आए चलकर हमें कॉफ़ी पिलाने !’’ मुँह बिचकाकर वह बोली।
‘‘इंग्लैंड से नहीं आए तो तेरी तरह से घर में ही बैठकर पढ़े हैं ? पता है, आप एक बैरिस्टर से बातें कर रही हैं इस समय, बाहर से ही चपरासी भगा दिया करेगा।’’
‘‘जी हाँ, बहुत बैरिस्टर देखे हैं, आते हैं तो बड़ा रौब और शान रखते हैं, फिर तो झाड़ू ही लगाते बनता है सड़कों पर !’’ वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।
‘‘अच्छा, बक-बक मत कर, क़ीफ़ी पीती है कि नहीं ? ठंडी किए डाल रही है।’’
‘‘फिर वही रट; कह दिया कि हे लन्दन-पलट बैरिस्टर प्रमोदजी ! आप इस समय लन्दन के किसी क्लब में, किसी मेम के साथ नहीं बैठे हैं कि एक दूसरे की तनतुरूस्ती’ पी जा रही है, जूठी शराब और कॉफ़ी चल रही है; आप इस प्रसिद्ध तीर्त नगरी में अपने घर में हैं और कुमारी सविता शर्मा, समझे, शर्मा से बात कर रहे हैं; यह तो कहिए, मैं आपके के यहाँ का पानी तब भी पी लेती हूँ, हमारी जाति का कोई सुने तो निकाल बाहर करे-कायस्थों के यहाँ का पानी ? राम-राम !’’ उसने कानों पर हाथ रख लिए।
‘‘तो मुझे भी जिद है कि आज तुझे कॉफ़ी पिलाकर ही छोड़ूँगा, बैरिस्टरी मैंने पढ़ी है, छाँट आप रही हैं।’’
प्रमोद ने झपटकर उसकी बाँह पकड़ ली और अपना प्याला उठाकर उसके मुँह से लगाकर गुर्राया,‘‘पी...पी...नहीं तो फैलती है...’’
‘‘भैया, यह बात ठीक नहीं है, मैं भाभी को आवाज देती हूँ..भाभी !’’ वह नाराज़गी से बोली, ‘‘कॉफ़ी वाफ़ी हम नहींपीते, हमें स्वाद नहीं आता। हुक्के का-सा पानी,अरे...मानो.,..’’
‘‘स्वाद नही आता ? सारी दुनिया कॉफ़ी पीती है, इन्हें अनोखा ही स्वाद नहीं आता।’’ बाँह छोड़कर प्रमोद ने गर्दन पकड़ ली, और दूसरे हाथ क्या प्याला खट् से उसके होंठों से लगा दिया। सविता के होंठ जल गए और दो घूँट-मुँह में भर गई। एकदम वह सटक गई। सारा मुँह लाल हो उठा, गले की नसें उभर आईं और आँखओं में पानी भर आया। उसने दोनों हाथों से प्याला पकड़कर इस तरह साँसली जैसे डूब जाने पर उबर कर साँस ली हो। प्रमोद ने कप हटा लिया।
‘‘ले अब, रो भाभी से जाकर कि मेरा धर्म नष्ट कर दिया, न जाने क्या पिला दिया !’’ उद्दण्ड स्वर में वह बोला, ‘फिर कॉफ़ी के प्याले को होंठों की ओर बढ़ाया। सविता का गला जल गया था और दोनों हाथों से अभी तर गला पकड़ रखा था.
‘‘तुझे तो सीधे मुँह कभी कुछ करने को कहे ही नहीं। बस, गर्दन पकड़ी और कम करा लिया।’’ बात समाप्त करके उसने फिर प्याला अपने होठों की तरफ, जहाँ कुटिल मुस्कराहट नाच रही थी, बढ़ाया।
‘‘तुम्हारी भी आज बाबूजी से शिकायत नहीं की तो मेरा नाम नहीं। लन्दन से लौटकर आए हैं, इस मारे यहाँ आदर करते-करते मरे जाते हैं, और आप साहब हैं कि् किसी को बदलते ही नहीं, अपने सामने। हमारा सारा गला जल गया। अरे, अब उसे क्यों पीते हैं, मेरे मुँह से निकलआई थी-हाय-हाय कैसे गन्दे हैं ! छि:छि:!’’ घिन से दोनों हाथ झपटकर वह बोली, ‘‘भैया, सच तुम तो जब से पढ़-लिखकर आए हो, बिल्कुल मलेच्छ हो गए हो, और लेके अपनी जूठी कॉफ़ी पिला दी। भैया, सच बात है, ऐसे तुम मेरा धरम नष्ट करोगे तो मैं यहाँ झाँकूँगी भी नहीं समझे !’’ उसने ऐसा भाव दिखाया जैसे कॉफ़ी उसके पेट से वापस उमड़ी आ रही हो।
‘‘झाँकने को कौन मैं तेरे हाथ-पाँव जोड़ने गया था कि हे सविता रानी जी, आपके बहिना हमारा घर सूना पड़ा है, आप तलिए, नीहं तो मुहूर्त निकला जा रहा है।’’
‘हाय, कोई सुने तो क्या कहे ? जाने क्या-क्या बके जा रहे हो ! भैया, हमें ये सब बातें अच्छई नहीं लगतीं। तुम्हें तो कुछ शरम-लिहाज है नहीं। जब से आए हो, जो मुँह कर दो और ऊपर से ये सब कहनी अनकहनी कहो।’’
‘‘बड़ी आईं धरम-करम की रट अनकहनी कहो।’
‘‘बड़ी आईं धरम-करम की रट लगानेवाली ! धरम की बच्ची, धरम तो तेरा तभी नष्ट हो गया जब तू जान बूझकर यहाँ आई।’’ फिर एक ओर मुँह फेरकर जैसे किसी अनुपस्थिति व्यक्ति को सम्बोधित करके बोला, ‘‘भैया, इन ब्राह्मणों की माया ये ही जानें ! बाप-भाइयों ने हमारी बिरादरी वालों को भड़काकर जात से निकाल दिया, लड़का इंग्लैंड हो आया है और बेटी है कि चौबीस घंटे बस हमारी ही छाती पर सवार रहती है, न पढ़ने देती है न लिखने।’’ एकदम उसकी ओर मुँह करके बोला, ‘‘अच्छा, आप भागिए यहाँ से वर्ना फिर मैं बुलाता हूँ पंडिण्तजी को। खबरदार, फिर जो कभी यहाँ आई-बस वहीं से बैठी अपनी खिडकी से झाँका करो, समझी ! वैसे तो जूठी-जूठी है की रट लगा दी, पिलाया तो एक घूँटमें आधा कप खाली कर दिया।’’
‘‘हाय, झूठ की हद हो गई है भैया, सच ! एक तो हमारे होंठ जला दिए, नहीं तो मैं एक घूँट नहीं पीती।’’
‘‘पी तो सही। अच्छा, बता, कैसी लगी हमारी जूठी कॉफ़ी ?’’ उसने ललककर पूछा।
‘‘कड़वी ज़हर, थू-थू जाने मांस मच्छी क्या क्या खाते हैं !’’ सविता ने ऐसा मुँह बनाया जैसे नीम की पत्तियाँ चबा ली हों।
‘‘आहा, हमें तो बड़ी मीठी लग रही है, अमृत जैसी ! भई वाह, क्या कहने हैं ! ’’ बाकी कॉफ़ी को आनन्द से एक ही घूँट में पीते हुए वह बोला।
‘‘तो लाओ, थोड़ा और थूक दूँ उसमें। ज़रा और मीठी हो जाएगी।’’ धृष्ठता से वह बोली।
‘‘थूकना क्या, तुमने तो छू दिया होंठों से बस, उसमें शहद घुल गया।’’ उसी तरह से उसने उत्तर दिया।
‘‘तो बस, मैं भाभी से कहे आती हूँ, आज से चीनी-बूरा घर में ज़रा भी नहीं आएगा। मैं कुल्ला करके पानी रख दूँगी, दूध-चाय-सबमें वही पड़ेगा।’’
दूर बरामदे में आती भाभी की झलक प्रमोद कोमिल गई। वह झटककर सीधा बैठ गया, इधर-उधर पड़ी किताबें सामने खिसकाकर ठीक कर लीं। एक घूँसा सविता की पीठ में मारकर बोला, ‘‘बड़ी आप स्वर्ग की देवी चली आ रही हैं कि हमारे खाने में थूकेंगी। अपना मुँह तो देख, महीने भर से दाँत साफ नहीं किए हैं, तमाम बदबू आ रही है। चली आई मटकती हुई, ’‘अमें पड़ा दो।’ फिर ऊपर से ये कि हम आपके खाने-पीन में थूकेंगे।’’
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