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धर्मगुरु

स्वराजबीर

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2798
आईएसबीएन :81-8361-012-9

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इसमें आज के दौर में फैले धार्मिक कठमुल्लापन और सामाजिक आपाधापी पर तीखा व्यंग्य....

Dharmaguru

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


यह नाटक उच्चस्तरीय बौद्धिक रचना का प्रमाण है। नाटककार ने पूरे धार्मिक व्यवहार पर जो कटाक्ष किया है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। संवादो-घटनाओं तथा कार्य व्यापार के माध्यम से उभारा गया नाटकीय टकराव शिखर को छूता है। इस नाटक धर्मगुरु की प्रस्तुति से पंजाब नाटक नये क्षितिजों के द्वार खोलता है..

-गुरुशरण सिंह (नाटककार एवं निर्देशक )

स्वराजबीर के नाटक पहली बार पंजाबी नाटक को उस नाट्य विधि विधान के साथ जोड़ते हैं जो भारतीय नाट्य रूप से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि ये नाटक अग्रदूत बनकर पंजाबी नाटक में पैदा हुई जड़ता को तोड़ते हैं। नाट्य विधि के रूप में ही इनमें कविता और गद्य अन्तर्संबन्धित हैं।

डॉ. सुतिंदर सिंह नूर

स्वाजबीर का नाटक धर्मगुरु वर्तमान समय पर एक बड़ी टिप्पणी है जो धर्म और राजनीति की साँठ-गाँठ के माध्यम से समाज के समूचे अस्तित्व को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए सक्रिय है। इस समय इसकी प्रस्तुति एक साहसिक कदम है।

नवांजमाना (दैनिक, जालन्धर)

यह नाटक (धर्मगुरु)आज के दौर में फैले धार्मिक कठमुल्लापन और सामाजिक आपाधापी पर तीखा व्यंग्य है। तथाकथित धार्मिक नेताओं की मनमानियों और समाज की बेबसी की त्रासदी के दौर में इस नाटक का मंचन बुद्धजीवियों और कलाकारों की बुलन्द आवाज और सच्चाई का प्रतीक है।

अजीत (दैनिक, जालन्धर)

कथानक


जब साधारण से अलग कुछ घटता है तो कथा का जन्म होता है। वह लोगों के मन में जवान होती है और मौखिक रूप में चलती रहती है। लोगों की सृजन शक्ति इसे कई तरह से सजाती है। कोई इसमें नए रंग भरता है तो कोई इसमें नई घटना जोड़ देता है। इस तरह कथा बलवान होती है। पुन:सृजन करते हुए कोई इसमें अपने अर्द्धचेतन का स्पर्श छोड़ जाता है और कोई सचेत-अचेत इसमें अपने वर्ग या जाति की शक्ति और स्वार्थ के रंग भर देता है। चलते-चलते कई बार कथा का कोई हिस्सा, कोई अंग टूट जाता है, बह जाता है, मिट जाता है, गुम हो जाता है। इसलिए कई बार कथा में खरोंचे और गड्ढे दिखाई देते हैं। कोई कथाकार इसे कल्पना द्वारा नया बना देता है और कई बार यह अपूर्ण रह जाती है।

‘धर्मगुरु’; की कथा मैंने 89-90 में लिखनी शुरू की। 94-95 में मित्र लेखकों की बैठक में इसका प्रथम पाठ किया। उनके सुझावों को सुनकर मैं पुन:-पुन: कथा के स्रोतों की ओर लौटा और कुछ नया ग्रहण कर लौटा। शान्तिदेव और मोहनजीत ने इसका अक्षर-अक्षर पढ़ा, वाचन किया और सुझाव दिए। केवल धालीवाल ने मूल पांडुलिपि का कई बार पाठ किया और रंगमंचीय दृष्टि से दृश्यों के घटाने-बढ़ाने सम्बन्धी राय दी। इस बात ने निर्देशक और लेखक के बीच संवाद को जन्म दिया, जो निश्चित रूप में लाभदायक है। भगवान जोथ ने पांडुलिपि के अंतिम प्रारूप को पढ़ा और दार्शनिक पक्ष से मूल्यवान सुझाव दिए।

मैं इन सभी दोस्तों का आभारी हूँ। परमिंदरजीत द्वारा मंचन और कविता के अर्थ सम्बन्धी दिए गए सुझावों के प्रति मैं उनका शुक्रगुजार हूँ।
मेरे तीन नाटकों-‘धर्मगुरु,’ ‘कृष्ण’ तथा ‘मेदनी’ को पुराणपंथी मानसिकता रखने वालों के विरोध का सामना करना पड़ा है। ‘कृष्ण’ का मंचन तो एक बार ही हो सका। इसके बाद की सभी प्रस्तुतियाँ बजरंगदल तथा अन्य रूढ़िवादी संगठनों के विरोध का शिकार होती रहीं। इस विरोध में अधिकारी-तंत्र और पुलिस ने भी इनका साथ दिया।
धर्मगुरु का विरोध इतना तीखा नहीं था। सम्भवत: इसकी वजह यह है कि इस नाटक का कथ्य आज की बदलती सामाजिक मानसिकता की अभिव्यक्ति है। यह नाटक आज के दौर में हर तरह के उन धार्मिक अंधविश्वासों तथा सामाजिक रूढ़ियों का विरोध करता है जो एक वर्ग द्वारा पूरे समाज पर लादी गई हैं और इसका नायक मानवीय संवेदना लिये इन सबके विरोध में खड़ा है।

धर्मगुरु नाटक ने पंजाबी आलोचकों का अपनी ओर विशेष ध्यान खींचा है। लेकिन जिन दो मुद्दों की ओर ध्यान नहीं दिया गया, उनमें से एक है-धर्मसभा की स्थापना और उस सभा की ओर से मनुष्य की स्वतंत्रता पर लगाए जाने वाले अंकुश। आज सत्ताधारी वर्ग धार्मिक संगठनों के द्वारा मनुष्य और समाज पर फतवानुमा पाबंदियाँ लगाने का संचालन करता है। इस तरह का व्यवहार हमारे देश में और बाहर के देशों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। यह अलग बात है कि आज की सुपर पावर अपना ‘फतवा’ या ‘हुकुमनामा’ जारी करने से पहले किसी सभा की भी जरूरत महसूस नहीं करती। दूसरा मु्द्दा है नाटक का बुनियादी सरोकार। इस नाटक का बुनियादी सरोकार जीवन की प्राथमिकता है। नाटक का नायक तीन स्तरों पर इस प्राथमिकता की रक्षा करता है। सबसे पहले यह भावात्मक स्तर पर अपने प्रेम की रक्षा करता है। दूसरे वह भौतिक स्तर पर ऋषि विश्वामित्र और अपने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिए हर संभव यत्न करता है और तीसरे बौद्धिक स्तर पर धर्मसभा में मनुष्य की विचार-स्वतंत्रता का ऐलान करता है।

धर्मगुरु को पंजाबी दर्शकों की ओर से व्यापक स्तर पर स्वीकृति मिली है। इस बात की गवाह है, 1998 में ‘गदरी बाबाओं के वार्षिक मेले’ में हजारों लोगों के सामने इसकी प्रस्तुति और उनके द्वारा इसका स्वागत। इसका कारण है कि नाटक की जड़े भले ही प्राचीन इतिहास-मिथक में हैं लेकिन इसका सन्दर्भ पूरी गहराई के साथ आज की वास्तविक स्थिति से जुड़ा हुआ है। इसीलिए पंजाब के लोगों ने खुले दिल से धर्मगुरु को स्वीकार किया।<

-स्वराजबीर


आदिकथा



सत्यव्रत प्राचीन ग्रन्थों में त्रिशंकु के नाम से प्रसिद्ध है। त्रिशंकु की कथा रामायण (वाल्मीकि रामायण : बालकांड सर्ग 57-59), श्रीमद्भागवत (नौवाँ स्कंद), हरिवंश (अध्याय 12-13) और देवी भागवत में मिलती है। सत्यव्रत के अतिरिक्त प्राचीन ऋषि वसिष्ठ और विश्वामित्र इस कथा के अन्य प्रमुख पात्र हैं। इन ऋषियों के परस्पर झगड़े के वर्णन इन ग्रन्थों में और कुछ अन्य प्राचीन ग्रन्थों (जैसे महाभारत-आदिपर्व) में मिलते हैं। कई ग्रन्थों में कथा सम्पूर्ण रूप में है, लेकिन कई जगह इसका रूप खंडित व अत्यन्त संक्षिप्त है। यदि कथा को एकत्र कर लिया जाए तो इसका संयुक्त रूप निम्नानुसार बनता है-
सत्यव्रत अयोध्या के राजा त्र्यारुण का पुत्र था। उसके स्वभाव और बाहुबल सम्बन्धी अलग-अलग पुराणों में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। एक बार जब एक ब्राह्मण की बेटी का ब्याह हो रहा था तो सत्यव्रत विवाह मंडप में दाखिल हुआ और दुल्हन को उठा ले गया। इस बात पर क्रुद्ध होकर महाराजा त्र्यारुण ने सत्यव्रत को अयोध्या छोड़ देने का आदेश दिया और सत्यव्रत नगर से बाहर तथाकथित निम्न लोगों (दलितों और श्व-पाचकों) के साथ रहने लगा। पुराणों में इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह आदेश अयोध्या के पुरोहित महर्षि वसिष्ठ के कहने पर दिया गया। वसिष्ठ का वर्णन कई जगह भगवान् वसिष्ठ नाम से मिलता है, जो उसके प्रभाव और महत्त्व का साक्ष्य है। इस बात के पूरे संकेत मिलते हैं कि सत्यव्रत के मन में वसिष्ठ के प्रति अत्यन्त घृणा और निराशा उत्पन्न हुई क्योंकि उसे यकीन था कि इस आदेश के पीछे वसिष्ठ का ही हाथ है।

पुत्र के नगर से चले जाने पर त्र्यारुण के मन में भी वैराग्य जगा और वह भी तपस्या करने वन में चला गया। पुराणों में वर्णन है कि उस समय पुरोहित और यजमानी सम्बन्धों के कारण राजकाज की पूरी जिम्मेदारी ऋषि वसिष्ठ के कन्धों पर आ गई। इसी दौरान राज्य में भयानक अकाल पड़ा और कई साल वर्षा नहीं हुई। उन्हीं दिनों ऋषि विश्वामित्र अपनी पत्नी और बच्चों को पीछे छोड़ कर तपस्या करने वनों में गए हुए थे। एक दिन भूख से तंग आकर विश्वामित्र की पत्नी सत्यवती ने अपने बीच के पुत्र के गले में घास की बनी रस्सी डाली और उसे बेचने चल पड़ी। रास्ते में उसकी भेंट सत्यव्रत से हुई, जिसने उनकी सहायता का वचन दिया। गले में रस्सी डाले जाने के कारण यह बालक बाद में गालव ऋषि के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस घटना के बाद सत्यव्रत ऋषि विश्वामित्र के परिवार के लिए भोजन का प्रबन्ध करने लगा। एक बार खाने के लिए कुछ न मिलने पर सत्यव्रत ने ऋषि वसिष्ठ के आश्रम से उसकी गाय नंदिनी चुराई, उसे मार कर उसका मांस खुद भी खाया और ऋषि विश्वामित्र के परिवार को भी खिलाया। इससे ऋषि वसिष्ठ ने उसे चांडाल बन जाने का श्राप दिया और साथ ही उसे तीन पापों या शंकुओं (पिता की आज्ञा न मानना, ब्राह्मण की बेटी को निकाल ले जाना और गोहत्या) का अपराधी ठहरा कर त्रिशंकु नाम दिया। दिल में गहरा क्रोध लेकर सत्यव्रत वन में चला गया और घोर तपस्या की।

तपस्या के कारण अलग-अलग देवी-देवता (पुराणों में हर पुराण के अनुसार उस पुराण के पूज्य देवी-देवता) प्रसन्न हुए। इसी समय में ही त्र्यारुण ने लौटकर राजकाज पुत्र सत्यव्रत को सौंप दिया। राजा बन कर सत्यव्रत ने कई वर्षों तक राज्य किया। उस समय सत्यव्रत के मन में सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा उत्पन्न हुई। सत्यव्रत ने यह इच्छा वसिष्ठ के सामने प्रकट की, जिसने एक इच्छा से क्रोधित होकर उसे चांडाल बन जाने का श्राप दिया।
वसिष्ठ के श्राप से चांडाल बन जाने से सत्यव्रत फिर वन-वन भटकने लगा। यहीं पर ऋषि विश्वामित्र  (जिसे उनकी पत्नी सत्यवती ने सत्यव्रत द्वारा उन्हें दी गई सहायता सम्बन्धी सारी कहानी बताई थी) ने सत्




व्रत को चांडालपन से मुक्त किया और अपने तप के प्रताप से उसे सदेह ही स्वर्ग भेज दिया। जब इन्द्र और अन्य देवताओं ने सत्यव्रत को सदेह स्वर्ग आते देखा तो उनमें भगदड़ मच गई। देवताओं ने उसे स्वर्ग में प्रवेश न करने दिया और धक्का मार कर पुन: धरती पर फेंक दिया। सत्यव्रत को वापिस आते देख विश्वामित्र ने अपने तप से उसे धरती पर गिरने से बचाया और सत्यव्रत स्वर्ग और धरती के बीच ही लटकने लगा। देवताओं के व्यवहार से खीझ कर विश्वामित्र ने सत्यव्रत के लिए अलग स्वर्ग का सृजन किया। इस बात से घबरा कर इन्द्र और अन्य देवताओं ने ऋषि विश्वामित्र से प्रार्थना की, उन्हें प्रति-स्वर्ग बनाने से मना किया और इन्द्र स्वयं सत्यव्रत को सदेह ही स्वर्ग ले गया।
कई पुराणों में यह वर्णन है और कई पुराणों में यह कि सत्यव्रत अभी भी अपने त्रिशंकु रूप में स्वर्ग और धरती के बीच लटका हुआ है।

उपरोक्त कहानी कथा का मूल शरीर है। किसी ग्रन्थ में किसी बात पर ज्यादा जोर और विस्तार दिया गया है किसी में कम। उदाहरण के रूप में, उसके चांडालपन से छुटकारा मिलने का कारण कहीं विश्वामित्र की कृपा बताया गया है तो कहीं किसी देवी या देवता की आराधना, जिसके नाम पर पुराण की रचना की गई है। मेरे नाटक की कहानी हरिवंश पुराण में अंकित कथा के अधिक निकट है। उपरोक्त कहानी के लिए मैं श्री वैटम मणि (कर्ता-पौराणिक इनसाइक्लोपीडिया) का भी आभारी हूँ।

-स्वराजबीर


कथावस्तु का पुन:सृजन



स्वराजबीर ने अपने नाटक धर्मगुरु की कथावस्तु, पुराण-इतिहास, वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत से ली है। इन प्राचीन ग्रन्थों में अयोध्या के राजकुमार सत्यव्रत की कथा-कहानी जगह-जगह बिखरी हुई है। इसकी परिधि व्यापक है। यह राजकुमार सत्यव्रत की जवानी से लेकर उसके स्वर्ग जाने और स्वर्ग से उसके बाहर निकाले जाने तक फैली हुई है। इस कथा में अनेक घटनाएँ हैं। उनके अलग-अलग सन्दर्भ हैं। ये सन्दर्भ अलग-अलग चरित्रों से जुड़े हुए हैं। स्वराजबीर ने राजकुमार सत्यव्रत की इसी बिखरी हुई कथा को आधार बनाकर अपने नाटक धर्मगुरु की कथावस्तु का पुन:सृजन किया है।
पुराण साहित्य की कथाएँ मौखिक धारा की परम्परागत कथाएँ हैं। कहीं ये सीधी-सादी हैं तो कहीं जटिल। कोई भी रचनाकार जब पुराण साहित्य से कथा-कहानी लेता है तो अपनी रचना को कलात्मक बनाने के लिए उसका रूपांतरण करने से पहले परम्परागत रूप को तोड़कर उसे नए रूप में ढालता है।

 उसका पुन: सृजन करता है। कथावस्तु की रचना-प्रक्रिया में से गुजरते हुए वह पारंपरिक कहानी के कई अंश छोड़ देता है और कई नए अंश जोड़ देता है। इसके साथ ही वह कथा की घटनाओं, उनके समूचे संदर्भों और चरित्रों को तार्किक संगति देने के लिए घटनाओं की सृष्टि करता है। इस रचना-प्रक्रिया के बाद ही पारंपरिक कथा, कलात्मक कथावस्तु बनती है। स्वराजबीर ने राजकुमार सत्यव्रत (त्रिशंकु) की पौराणिक कथा का रूपांतरण करते समय इसी रचना प्रक्रिया का सहारा लिया है आधुनिक भारतीय भाषाओं के रचनाकार, जो पुराण, वाल्मीकि रामायण और महाभारत से कथा-कहानी लेकर कलाकृति की रचना करते हैं, इसी रचना-प्रक्रिया का सहारा लेते हैं। संस्कृत के कवि नाटककार अपने महाकाव्य और नाटक लिखते समय इसी विधि के सहारे कथा का रूपांतरण करते रहे हैं। नाटककार महाकवि कालिदास ने भी इसी विधि से अपने नाटकों की कथावस्तु का सृजन किया था।

शकुंतला (अभिज्ञानशाकुंतलम्) नाटक इस प्रकार की रचना-प्रक्रिया का ठोस प्रमाण है। इस नाटक की कथा पुराण साहित्य और महाभारत से ली गई है। जानकार जानते हैं कि प्राचीन ग्रन्थों में कथा का स्वरूप बड़ा सरल और सीधा है। उसमें दुष्यंत को शकुंतला की पहचान आकाशवाणी द्वारा होती है। दुष्यंत द्वारा शकुंतला को दी जाने वाली अंगूठी का कोई जिक्र नहीं है लेकिन इस घटना को कालिदास ने नाटक का प्रमुख सूत्र बनाया है। (अँगूठी गंधर्व विवाह करने की निशानी है। पहचान का चिह्न है और इसी चिह्न के कारण ही कालिदास ने अपने नाटक का शीर्षक अभिज्ञानशाकुंतलम् रखा है।) इसके अतिरिक्त भी कालिदास ने बहुत से काल्पनिक प्रसंगों और घटनाओं की सृष्टि कर नाटक की कथावस्तु का पुन:सृजन किया है।

पुराण साहित्य की कथा और कालिदास के शकुंतला नाटक की कथावस्तु के इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि पुराण साहित्य की कथाएँ पारंपरिक हैं। इन्हें कलात्मक कथावस्तु का जामा पहनाने के लिए इनका रूपांतरण करना जरूरी है। स्वराजबीर ने भी अयोध्या के राजकुमार सत्यव्रत की पौराणिक कथा को अर्थपूर्ण और कलात्मक बनाने के लिए इसका रूपांतरण किया है। इसके कई अंश और प्रसंग छोड़ दिए हैं और कई अंश और प्रसंग इसमें जोड़ दिए हैं। कई नई घटनाओं की सृष्टि भी की है।

धर्मगुरु नाटक की कथावस्तु है-मानव का धर्म और मानव का कर्म। स्वराजबीर ने राजकुमार सत्यव्रत की कथा में से वही प्रसंग और घटनाएं ली हैं, जो इस थीम से सम्बन्धित हैं। जो प्रसंग और घटनाएँ नाटक की थीम से सम्बन्ध नहीं रखतीं, वे उसने छोड़ दी है। उदाहरण के तौर पर सत्यव्रत के स्वर्ग जाने और वहाँ से निकाले जाने की कहानी का पूरा प्रसंग उसने अपने नाटक धर्मगुरु की कथावस्तु का हिस्सा नहीं बनाया। उसने अपनी थीम को उभारने के लिए कई नए प्रसंगों की कल्पना की है, जैसे अपने आश्रम में धर्मगुरु वसिष्ठ का बालकों को पढ़ाना और उनके मन में स्वर्ग प्राप्ति की लालसा जगाना, ब्राह्मण पुत्री और सत्यव्रत का परस्पर प्रेम, राजकुमार सत्यव्रत को दंड देने के लिए धर्मगुरु का दो बार धर्मसभा बुलाना आदि। इन संरचनाओं से कहानी नए अर्थ ग्रहण करती है।

धर्मगुरु नाटक की कथावस्तु की रचना-प्रक्रिया को देखते हुए कह सकते हैं कि स्वराजबीर ने रचना-प्रक्रिया का टकसाली ढंग अपनाया है।


नए नाट्य रूप का आरम्भ


स्वराजबीर के नाटक धर्मगुरु के नाट्य-रूप और रंगमंच सम्बन्धी बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि नाटक और रंगमंच की समृद्ध परम्परा हमारी विरासत में है। महान नाटककार ब्रेख्त ने हमारी विरासत से कुछ नाट्य-रूपों को लेकर अपने नाटकों का सृजन किया और रंगमंच का निर्माण किया। पंजाबी नाटककार शुरू से ही पश्चिम के यथार्थवादी रंगमंच को मॉडल बना कर नाटकों की रचना करते रहे हैं। अपनी भाषा का रंगमंच निर्मित करने की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है। आजकल के नाटककारों के नाटकों में अपनी परम्परा के कुछ एक नाट्य-रूपों की झलक दिखाई देने लगी हैं, इसे शुभारंभ कह सकते हैं।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विरासत से अर्थ है-पंजाबी संस्कृति, लोक-नाटक एवं संस्कृत नाटक। इस सम्पूर्ण विरासत से ही पंजाबी भाषा के रंगमंच का निर्माण किया जा सकता है। मराठी का ‘तमाशा’ इसका खूबसूरत उदाहरण है। यह मराठी का लोक-नाटक था। कुछ नाटककारों ने माँज-सँवार कर, कल्पना द्वारा और नए रंग भर कर इस लोक-नाटक को उसी प्रकार मराठी के शास्त्रीय नाटक के रूप में बदल दिया है, जैसे मणिपुर, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश के लोक-नृत्य बन गए हैं।

धर्मगुरु को इस संदर्भ में रख कर देखते हैं तो यह कहना होगा कि नाटककार ने अपनी विरासत से बहुत से नाट्य-रूप एवं शैली-रूप लेकर अपनी परिकल्पना द्वारा नई नाट्य-शैली का निर्माण किया है। उसने विरासत से नाटक के जितने भी अंग एवं शैली रूप लिए हैं उनका ऐसे ढंग से प्रयोग किया है कि धर्मगुरु नाटक का पूरा स्वरूप ही मौलिक रूप धारण कर गया है। धर्मगुरु के इस मौलिक नाट्य-रूप को बहु-स्तरीय नाटक का नाम दे सकते हैं।

सबसे पहले इस नाटक के स्वरूप को समझ लेना जरूरी है। धर्मगुरु नाटक का बुनियादी स्तर है-मूल कथावस्तु। यह कथावस्तु अयोध्या के राजा त्र्यारुण, राजकुमार सत्यव्रत, धर्मगुरु वसिष्ठ, सत्यव्रत की प्रेमिका चित्रलेखा, ऋषि विश्वामित्र की पत्नी और ऋषि विश्वामित्र के मध्य मनुष्य के ‘धर्म’ और मनुष्य के ‘कर्म’ के संघर्ष को लेकर चलती है। धर्म और कर्म का यही संघर्ष धर्मगुरु नाटक की मुख्य थीम है। इस संघर्ष का जन्म तभी हो गया था, जिस समय पूरे समाज को जाति व्यवस्था के विधि-विधान में बाँध दिया गया था। इसी विधि-विधान को धर्म का नाम दिया गया। धर्मगुरु इसी को धर्म मानते हैं और धर्म के नाम पर पूरे समाज को पाप-पुण्य का भय दिखा जकड़े रखना चाहते हैं। यह समस्या उस दिन तक चलती रहेगी, जब तक भारतीय समाज इसकी जकड़ से मुक्ति नहीं पा लेता।

धर्मगुरु नाटक के इस बुनियादी स्तर से, विरासत से स्वराजबीर ने जितने भी नाट्य-रूप लिए हैं या नए रूपों का सृजन किया, वे स्तर-दर-स्तर चलते हैं। उसने उनका प्रयोग बंधी-बँधाई परम्परा के रूप में नहीं, वरन् कथावस्तु को गति देने के लिए, कथावस्तु को उभारने के लिए और चरित्रों को स्पष्ट करने के लिए मौलिक ढंग से किया है।

उदाहरण के तौर पर हम सूत्रधार की बात करते हैं। संस्कृत नाटकों में सूत्रधार नाटक का आरम्भ करा कर परदे के पीछे चला जाता है। इसके बाद वह सिर्फ निर्देशक रह जाता है। धर्मगुरु के सूत्रधार की भूमिका इससे अलग है। वह नट और नटनियों के साथ कई बार रंगमंच पर आता है। वह कभी नाटक की कथावस्तु को प्रस्तुत करता है, कभी कथावस्तु को गति देता है और कभी संघर्ष की व्याख्या करता है। इस काम के लिए वह एक बार गद्य का सहारा भी लेता है। अन्यथा वह नट और नटनियों के साथ गीतों द्वारा नाटक को संगीतमय बनाता हुआ नाटक का नया स्वरूप खड़ा कर देता है। इस नाटक की विशेष बात यह है कि नाटक का आरम्भ भी सूत्रधार से होता है और अन्त भी सूत्रधार करता है। लेकिन अंतिम समूह-गान में अन्य कलाकार भी शामिल हो जाते हैं और इस तरह समूह-गान में वह बात करते हैं, जो नाटक में उनकी भूमिका से परे की है। यह संस्कृत नाटक के भरतवाक्य का ही एक रूप है। इस प्रकार सूत्रधार, नट और नटनियाँ पूरे नाटक में दूसरे स्तर पर पर्दा तान देते हैं।

धर्मगुरु नाटक में कुटनियों की भूमिका रोचक भी है और स्तर-दर-स्तर निर्माण भी करती है। यों तो कुटनियों वाला पहला दृश्य लोक नाट्य का ही रूप है, जिसमें मजाक और चुगली का प्राधान्य है। दूसरे दृश्य का रूप यों तो लोक नाट्यवाला ही है, लेकिन इसके संवाद विचित्र और अद्भुत की सीमा से आर-पार जाते हैं। वसिष्ठ के शिष्य और भूख के मारे लोगों के गीत, कविताएँ और स्तोत्र नया स्तर स्थापित करते हैं और धर्मगुरु के नाट्य-रूप और स्वरूप का कैनवास विशाल बना देते हैं। इस नाटक की एक विशेष बात यह है कि कहानी के सारे मूल चरित्र गद्य में ही संवाद बोलते हैं। इस प्रकार पूरा नाट्य संवाद गद्य और गीतों में चलता है।

अन्त में इस परत-दर-परत चलने वाले बहु-स्तरीय नाटक की सफलता सम्बन्धी यह कहना जरूरी है कि इसके सारे नाट्य-रूप और नाट्य-शैलियाँ एक-दूसरे की इस तरह पूरक बनकर आई हैं कि ये घुलमिल कर एक हो गई हैं। धर्मगुरु नाटक के बहु-स्तरीय एवं बहु-आयामी रूप को एक नए नाट्य-रूप का प्रारंभ कह सकते हैं।
नई दिल्ली

जुलाई 1999
-शान्तिदेव




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