नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
अजित : अब ज़्यादा इतराओ मत। कितने ही गाने तुम्हारे तैयार (घंटी बजती है। अजित
उठकर दरवाज़ा खोलता है। एक अपरिचित व्यक्ति का प्रवेश। वह एक चिट्ठी देता है।)
अजित : (पत्र पढ़ते हए) तो तुम्हें मेहता साहब ने भेजा है?
(वह व्यक्ति स्वीकृति-सूचक सिर हिलाता है।)
क्या नाम है तुम्हारा?
व्यक्ति : नाम तो साहब ने चिट्ठी में लिख ही दिया है।
अजित : ओह! (एक क्षण उसका मुँह देखकर फिर पत्र में देखता है।) ओह! बंसीलाल।
अच्छा तो देखो, यहाँ काम करना होगा तुम्हें। पहले ही सारी बातचीत हो जाए तो
ज़्यादा अच्छा रहेगा।
बंसी : हाँ साब! ठीक ही रहेगा!
शोभा : काम तो तुम सब करोगे न?
बंसी : सब से क्या मतलब है साब आपका?
शोभा : अरे, सब काम से मतलब यही है कि कपड़े धोना-
बंसी : (बीच ही में) कपड़े धोना? तो क्या साब, आपके यहाँ धोबी नहीं आता?
शोभा : धोबी तो आता है, पर रोज़मर्रा के जो कपड़े होते हैं उनको तो धोना
पड़ेगा। और चौका-बरतन।
बंसी : चौका-बरतन के लिए तो साब, आपको कहारिन रखनी पड़ेगी, वह हम नहीं करेंगे।
अजित : आप कपड़े नहीं धोएँगे, बरतन साफ़ नहीं करेंगे, तो आख़िर आप करेंगे क्या?
बंसी : हमारे लायक जो काम होगा वह सब करेंगे, साब!
अजित : आपकी लियाक़त?
बसी : यहाँ के मुख्यमन्त्री के नौकरों की फेहरिस्त में हमारा नाम है, साब!
अजित : वाह-वाह, क्या खूब! तब तो सचमुच ही तुम बड़े लायक आदमी हो यार।
शोभा : अच्छा यह बताओ खाना-वाना बनाना भी जानते हो या नहीं?
बंसी : खाना? आप भी क्या बात करते हैं साब! लोग बागों ने हवाई जहाज बना लिये और
हम खाना नहीं बना सकते? (अजित, शोभा हँसने लगते हैं।) पर बात यह है साब कि हम
पहले जहाँ काम करते थे वहाँ हमें पका-पकाया खाना मिलता था। फिर यह काम साब है
भी औरतों का। आदमी रसोई में चला भले ही जाए, अँचता ज़रा भी नहीं है।
अजित : सीम्स टु बी एन इन्टरेस्टिंग पर्सन?
शोभा : अच्छा, तनख्वाह क्या लोगे?
(जीजी का प्रवेश। वे चुपचाप आकर खड़ी हो जाती हैं।)
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