भाषा एवं साहित्य >> आधुनिक हिन्दी कालजयी साहित्य आधुनिक हिन्दी कालजयी साहित्यअर्जुन चव्हाण
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इसमें आधुनिक हिन्दी साहित्य का वर्णन किया गया है...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
कालजयी साहित्य के उपलक्ष्य में
साहित्यकार की भूमिका उस दर्जी के समान नहीं होनी चाहिए जो फैशन के बहाव
में बहनेवाले ग्राहकों की माँग और इच्छा के अनुसार कपड़ा सिल देता है।
साहित्यकार उस फोटोग्राफर के समान न हो जो बिल्कुल बदसूरत शक्ल को भी अपने
तकनीकी कौशल से खूबसूरत दिखाता है। साहित्यकार वस्तुपरकता के साथ समाज के
विभिन्न कारकों को बेबाकी से उद्घाटित करता है। कहना आवश्यक नहीं कि इस
वस्तुपरकता के मूल में सामाजिक उन्नयन ही आधारभूत होता है। मूलतः साहित्य
की सही भूमि है समाज और उसकी सही फसल है कालजयी रचना। जैसे भूमि का उपजाऊ या बंजर बनना किसान तथा प्राकृतिक व्यवस्था पर निर्भर होता है वैसे
साहित्य का हितकारी या अहितकारी बनना साहित्यकार तथा सामाजिक व्यवस्था पर
निर्भर होता है। आत्मा और आत्मानुभूति के साथ-साथ कला और कलानुभूति के नाम
पर सदियों से जो साहित्य सृजन हुआ, उसमें वास्तविक और उपयोगी रचनाधर्मिता
की दृष्टि में समय-समय पर धुँधलके की तथा अनिश्चितता की स्थिति भी बनी रही
है। साहित्यकार में समाज जीवन एवं व्यक्तिगत जीवन के अनुभव और प्रतिभा के
साथ-साथ उस चीज का होना भी आवश्यक होता है जिसे सामाजिक प्रतिबद्धता कहते
हैं, तभी कोई साहित्यकार कालजयी रचना दे पाता है।
कालजयी साहित्य का कोई एक ही आधार नहीं होता। साहित्य मानव-जीवन का अभिन्न अंग है। इसलिए तो साहित्य और कला को मानव-सन्दर्भ की उपज कहा गया है। वस्तुतः कोई भी सृजन सन्दर्भ-निरपेक्ष नहीं हो सकता। असल में साहित्य क्रमशः धर्माश्रय, राजाश्रय और लोकाश्रय में विकसित होता हुआ लोकाभिमुख हुआ है। किन्तु साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि कालजयी साहित्य का सृजन जितना धर्माश्रय और लोकाश्रय में हुआ उतना राजाश्रय में नहीं हो पाया। कालजयी रचना उस बीज की पहचान कराती है जिसमें अपने काल की सच्चाई का वटवृक्ष छिपा होता है। अर्थात् कालगत जीवन ही कालजयी साहित्य का आधार है। अपने कालगत जीवन के प्रति ईमानदार, संवेदनशील और वस्तुनिष्ठ रहना लेखक की प्रधान शर्तें हैं। लेकिन जहाँ इसका अभाव मिलता है, वह लेखन अल्पजीवी अथवा क्षणजीवी बनकर रहता है। यह लेखक की मानसिकता पर निर्भर है कि वह पाठक को, आशा-निराशा, आस्था-अनास्था, लगन-पलायन, आदर्श-यथार्थ, किस दिशा में ले जा रहा है। वैयक्तिक को निर्वैयक्तिकता में परिणत करना श्रेष्ठ रचनाकार का एक और आधार है क्योंकि वैयक्तिकता यदि साहित्य की बुनियाद होती है तो निर्वैयक्तिकता उसका शिखर या लक्ष्य। वस्तुतः कालगत जीवन और व्यक्तिगत मन के साथ-साथ सामाजिक उन्नयन के भाव ही कालजयी रचना के मूल आधार हैं।
दुनिया की महान से महान कृति भी सबको समान रूप से सन्तुष्ट नहीं करती। समाज का दूसरा वर्ग, फिर भले ही वह संख्या में छोटा हो या बड़ा, श्रेष्ठ कृति से भी सन्तुष्ट नहीं रहता। यही कारण है कि जहाँ प्रेमचन्द का ‘गोदान’ यहाँ के अधिकांश पाठक वर्ग को तुष्ट करता है वहाँ वह राय साहब, साहूकार एवं ठाकुर आदि वर्ग को समान रूप से तुष्ट नहीं करता। यही बात तुलसी के ‘रामचरितमानस’ को लेकर है कि यहाँ एक वर्ग ऐसा भी है कि जिसे ‘मानस’ प्रसन्न नहीं कर पाता। ‘मानस’ को ‘लोक’ के लिए पढ़नेवाले हैं और ‘परलोक’ के लिए भी। कहना सही होगा कि किसी भी ‘क्लासिक’, ‘कालजयी’ या ‘महान’ कृति को पढ़नेवाले किन्हीं दो पाठकों की राय कभी एक जैसी नहीं रहती। अतः हमें भ्रम से बाहर होना होगा कि सभी कालजयी कृतियाँ सबको समान रूप से सन्तुष्ट करेंगी।
कालजयी साहित्य एवं कालजयी विचारधाराएँ भी काल-सापेक्ष होती हैं और समाज-सापेक्ष भी। श्रेष्ठ रचना कालजयी होती है किन्तु वह काल-निरपेक्ष हो यह सम्भव नहीं। आज प्रेमचन्द हमारा सम्बल हैं, मंजिल नहीं। ‘गोदान’ की भाषा और विषय को अपनाना आज कहाँ तक उचित है ? वह कौन-सा समाज है जो काल-निरपेक्ष है ? वह कौन-सी दुनिया है जो जड़ और स्थिर है ? क्या शेक्सपियर, तॉलस्तॉय और प्रेमचन्द का समाज ही आज का समाज है ? असल में श्रेष्ठ साहित्य का कालजयी होना स्वाभाविक है, काल-निरपेक्ष नहीं। साहित्यकार ढाँचा-ढला समाज नहीं बना सकता परन्तु कोई कालजयी रचना देकर समाजगत संशोधन में वह अहम भूमिका निभा सकता है। भारतीय किसान जीवन की करुणा गाथा ‘गोदान’ में जब पहली बार चित्रित हुई तब जाकर देश की सरकार द्वारा कृषि-सुधार विषयक नई नीति और नियम अस्तित्व में आए। देश में विदेशी भाषा का गाजर-घास की तरह फैलाव देखकर व्यथित हुए भारतेन्दु के ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल’ विचार कालजयी साबित हुए जिन्होंने देश में विदेशी भाषा के बदले स्वदेशी भाषा का मन्त्र फूँका। आजादी के आन्दोलन-काल में असहाय जनता को सतानेवालों के विरोध में युवकों को चेताने का कार्य कर दिनकर का ‘हुंकार’ कालजयी बना। तात्पर्य यह कि अपने समय की उपादेयता की दृष्टि से श्रेष्ठतम कृति ही कालजयी कहलाने की हकदार बनती है।
जिस तरह विचारधाराएँ भी अपने-अपने समय में कालजयी रहती हैं उसी तरह प्रासंगिकता से जुड़ा हुआ साहित्य भी कालजयी बनता है। समाजवादी विचारधारा, साम्यवादी विचारधारा, आदर्शवादी विचारधारा, यथार्थवादी विचारधारा, मार्क्सवादी विचारधारा, अस्तित्ववादी विचारधारा, गांधीवादी विचारधारा तथा व्यक्तिवादी विचारधारा-ये सब अपने-अपने समय की कालजयी विचारधाराएँ हैं। इनमें से कोई भी विचारधारा न आज से तीन सौ साल पहले प्रासंगिक थी और न आज से तीन सौ साल बाद प्रासंगिक रहेगी। क्योंकि कोई भी विचारधारा सामाजिक सन्दर्भ में काल-सापेक्ष रहती है। वह विशिष्ट काल की उपज होती है। उसका काल निरपेक्ष होना न स्वाभाविक है, न युक्तियुक्त। तद्वत कोई भी साहित्यिक रचना विशुद्ध काल-निरपेक्ष रह नहीं सकती। रचना का काल-सापेक्ष होना स्वाभाविक है और जो काल-सापेक्ष होती है वह प्रासंगिक होती है। तात्पर्य यह कि जो रचना प्रासंगिक और अपनी जमीन से जुड़ी हुई होगी वह कालजयी होगी, इसमें सन्देह नहीं।
साहित्य का संरचनात्मक स्वरूप देखने से कहना सही होगा कि साहित्य एक संस्था है। साहित्य को एक संस्था मानने पर उसके सुचारु संचालन हेतु उसके प्रत्येक अंग का अपना विशिष्ट महत्त्व मानना पड़ता है। मानना होगा कि साहित्य नामक संस्था के प्रधान अंग हैं लेखक, प्रकाशक, पाठक, समीक्षक और समाज कि जिनके अन्तःसम्बन्ध का प्रभाव साहित्य पर पड़े बिना नहीं रहता। अतः किसी भी साहित्यिक रचना का यशापयश साहित्य-संस्था के अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारभूत होता है। साहित्य संस्था का पहला अंग है लेखक जो मूल्यों का संवाहक होता है। असल में मूल्यों के संवाहन में योगदान करनेवाला साहित्य ही कालजयी बनता है। लेकिन मूल्यों के संवाहन का ठेका केवल साहित्यिक को न हो, उसमें साहित्य-संस्था के अन्य अंग भी सहभागी बनें। इसमें लेखक के उपरान्त प्रकाशक का स्थान आता है। अपने लाभ और हानि की स्वाभाविक व्यापारी वृत्ति के साथ-साथ प्रकाशक अगर यह भी सोचे कि क्या प्रकाशनीय है और क्या अप्रकाशनीय, तभी साहित्य के साथ-साथ समाज का हित भी सन्देह से परे होगा। प्रकाशन के बाद रचना पाठक के हाथ में आती है। पाठक उसका रसास्वादन करता है और उससे प्राप्त हितकारी तत्त्वों का अंगीकार भी। समीक्षक रसास्वादन तथा हितकारी तत्त्वों के ग्रहण करने में पाठक का मार्गदर्शन करता है लेकिन मौलिक सोच का बौनापन, पदोन्नति का गंदा लालच, गुटबन्दी और पक्षपात का शिकार बना समीक्षक सच्चा मार्गदर्शन नहीं कर सकता। उसकी दयनीय अथवा निरंकुश समीक्षा पाठक तथा लेखक दोनों के लिए त्रासद सिद्ध होती है। साहित्य संस्था का अन्तिम और महत्त्वपूर्ण अंग है समाज। समाज इन सबको प्रश्रय देता है, इनका श्रोता होता है और इनसे प्रभावित भी। लेकिन वह हितकारी लेखन का प्रशंसक और अहितकारी लेखन का निन्दक हो। साहित्य का कालजयी और मूल्यों का संवाहक बनना साहित्य-संस्था के अन्तःसम्बन्ध पर आधारभूत होता है। साहित्य का इतिहास भी इसका साक्षी है। यही हमारे साहित्य के समाजशास्त्र की अभिनव माँग है और अपेक्षा भी। क्योंकि जहाँ मूल्यों को और साहित्य संस्था के आपसी सम्बन्धों को ही बगल दी जाती है वहाँ साहित्य क्षणजीवी बन जाता है।
जब कोई रचना इतिहास और भूगोल की सीमा लाँघकर पाठकों को प्रभावित करती है तो हम उसे कालजयी मानते हैं। किन्तु सवाल यह है कि वे कौन-से तत्त्व हैं जो रचना को कालजयी बनाते हैं ? क्यों हमें आज भी सीता और शकुन्तला की व्यथा, राधा और मीरा का दर्द, यक्ष और देवदास की विरह-वेदना, होरी और समर की यातना व्यथित, उद्वेलित और आन्दोलित कर देती है ? क्यों ग्रीक त्रासदियाँ, हैमलेट, चैखव की रचनाएँ, तॉलस्तॉय की ‘आन्ना केरेनिना’ जैसी चीत्कार से भरी रचनाएँ आज भी हमें व्यथित करती हैं ? क्या इन्हीं चीत्कारों, व्यथाओं और प्रश्नों से ही दुनिया का ज्ञान-विज्ञान, दर्शन तथा साहित्य नहीं निकला है ? क्या अपने परिवेश की पृष्ठभूमि से कालजयी ग्रन्थों का जन्म नहीं होता ? वस्तुतः प्रामाणिकता, विश्वसनीयता, यातना, संघर्ष और प्रतिभा कालजयी साहित्य के प्रधान तत्त्व हैं और इन्हीं तत्त्वों ने विश्व को कालजयी रचनाएँ दी हैं।
हिन्दी में प्रधानतः कहानी, उपन्यास, नाटक तथा काव्यविधा में कालजयी कृतियाँ प्राप्त होती हैं। ‘उसने कहा था’, ‘कफन’, ‘आकाशदीप’, ‘पर्दा’, ‘शरणदाता’, ‘मलबे का मालिक’, ‘मेहमान’, ‘सजा’, ‘जार्ज पंचम’ की नाक आदि को हिन्दी की कालजयी कहानियाँ कहना होगा। ‘गोदान’, ‘चित्रलेखा’, ‘झूठा सच’, ‘बूँद और समुद्र’, ‘सारा आकाश’, ‘रागदरबारी’, ‘मैला आँचल’, ‘महाभोज’, ‘आधा गाँव’ तथा ‘मुझे चाँद चाहिए’ ‘हिन्दी के कालजयी उपन्यास हैं। ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘सिन्दूर की होली’, ‘मिस्टर अभिमन्यु’, ‘अंधा युग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘आधे-अधूरे’, ‘एक और द्रोणाचार्य’, ‘नेफा की एक शाम’, तथा ‘सूरज की अन्तिम किरण से सूरज की पहली किरण तक’ हिन्दी के कालजयी नाटक हैं और ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘रामचरितमानस’, ‘सूरसागर’, ‘पद्मावत’, ‘शिवराजभूषण’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘साकेत’, ‘कामायनी’, ‘यामा’, और ‘संसद से सड़क तक’ हिन्दी की कालजयी काव्य-कृतियाँ हैं।
सामाजिक उन्नयन के प्रमुखतः तीन महत्त्वपूर्ण कारक होते हैं-समाज-सुधारक, राजनेता तथा रचनाकार। इन तीनों का कार्यक्षेत्र अलग है किन्तु प्रयोजन एक ही। इनमें से किसी एक का पतन या कमजोर होना हानिकारक होता है। सामाजिक उन्नयन में इन तीनों का महत्त्व समान होता है। इनके सम्मलित रूप से सामाजिक उत्थान की शक्ति बनती है। रचनाकार अपने काल की असंगतियों, बाधाओं, नैतिक पतनों तथा भयावह स्थितियों को पहचान लेता है। वह मूल्य और मानक के साथ-साथ अपने काल की यथार्थता को ईमानदारी से रेखांकित करता है और यही वह बिन्दु है जो रचना को कालजयी बनाता है। हर युग की कालजयी रचना अपने काल के पतन का पर्दाफाश ही नहीं करती बल्कि समाज की अधोगामी शक्ति पर प्रहार कर समाज-उन्नयन का अंग भी बन जाती है।
वस्तुतः साहित्य कोई बिजली नहीं जो एक ही झटके से बटन दबाते ही प्रकाश दे दे। वह कोई ऐसा इंजेक्शन नहीं कि लगा दिया और तुरन्त बुखार उतर गया। यह मानना पड़ेगा कि कालजयी साहित्य सामाजिक पतन और युगीन समस्याओं के प्रति ध्यान आकर्षित कर हमें सजग करता है और परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से उनके समाधान भी सूचित करता है। लेकिन सूचित समाधान को व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए समाज सुधारकों की आवश्यकता होती है और उनके विधिवत क्रियान्वयन के लिए सचेत राजनेता की। आजादी के आन्दोलन-काल में देशवासियों को जगाने, चेताने और विदेशी शासन के विरुद्ध स्वदेशाभिमान के भाव उद्दीप्त करने का दायित्व जिन साहित्यकारों ने निभाया और आन्दोलन को तीव्र करने हेतु जो साहित्य-सृजन हुआ, उसे व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठापित करने तथा उसके क्रियान्वयन में तत्कालीन समाज सुधारकों और नेताओं ने अहम भूमिका निभाई है। ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’, ‘वंदे मातरम्, सुजलाम-सुफलाम’, ‘विजयी विश्व तिंरगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा’, और सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ जैसी रचनाएँ इसी वजह से कालजयी बनी हैं। जिन गीतों ने स्वाधीनता संग्राम में युवकों को बलिदान की प्रेरणा दी, आज उन्हीं के कारण हम सही अर्थों में जिन्दा हैं। कहना गलत नहीं होगा कि कालजयी कृति से सामाजिक उन्नयन अनायास होता रहता है।
इसमें दो राय नहीं कि कालजयी साहित्य समाज से संपृक्त होता है। अतः समाज से असंपृक्त लेखन को ‘साहित्य’ कहना साहित्य का अपमान ही नहीं अपितु समाज-हित के अर्थपूर्ण तत्त्व की सम्पूर्ति में बेईमानी है। जब कोई कृति सामाजिक सन्दर्भ में आकार ग्रहण करती है-अपने सामाजिक मूल्य और मानक के साथ-तब वह कालजयी बन जाती है। स्पष्ट है कि कालजयी साहित्य अपने परिवेश की उपज होता है, वह संवेदनशील मस्तिष्क की उपज होता है। कालजयी समीक्षा कालजयी रचना की पूरक होती है। कालजयी रचना कालजयी समीक्षा को पाकर आलोकित होती है। लेकिन कभी-कभी उत्कृष्ट रचना आगे बढ़ जाती है और समीक्षा पिछड़ जाती है-ऐसी स्थिति में जब मूल रचना ही अपनी समीक्षा के संकेत देकर पाठकों का मार्गदर्शन करती है अथवा पाठक को चिन्तन के लिए अन्तर्मुख करती है तब उसकी कालजयिता और अधिक निखर जाती है।
साहित्य समाज का (दर्पण नहीं) एक्सरे है। वह दर्पण के समान समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं दिखाता बल्कि समाज के अंग की हड्डी-पसलियों से होकर वहाँ तक जाता है जहाँ बीमारी का संसर्ग हुआ है। जब संसर्ग और संसर्गग्रस्त अंग-उपांग का पता चलता है तब इलाज की दिशा निश्चित होती है। समाज के स्वास्थ्य का परीक्षण साहित्य रूपी एक्सरे से होता है। साहित्य की भूमिका जहाँ एक्सरे की होती है लेखक की भूमिका वहाँ डॉक्टर (वैद्य) की होती है। इस माने में साहित्यकार समाज का डॉक्टर होता है। वह समाज के स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य का परीक्षण (चैकअप) कर बीमारी की दवा (साहित्य) देता है और वे सभी उपाय (परोक्ष या प्रत्यक्ष) सूचित करता है जिनसे बीमारी नष्ट हो सकती है। पाठक साहित्य-संस्था की महत्त्वपूर्ण इकाई है। उसकी भूमिका स्वास्थ्य सम्पन्न मनुष्य की होती है। वह अपने सुन्दर स्वास्थ्य के सारे उपाय लेखक रूपी वैद्य से प्राप्त करता है। समीक्षक हेल्थ इंस्पेक्टर (स्वास्थ्य निरीक्षक) की भूमिका अदा करता है। वह समीक्षा का डंडा लेकर लेखन का मूल्यांकन और निरीक्षण करता है। समाज की भूमिका हेल्थ सेंटर (स्वास्थ्य केन्द्र) की रहती है। वह हेल्थ सेंटर ख्याति प्राप्त करता है जो ईमानदारी से दायित्व वहन करनेवाले वैद्य तथा सुविधाएँ प्रदान करता है। प्रकाशक की भूमिका स्वास्थ्य मन्त्री की रहती है। अपने समाज को क्या देना और क्या नहीं देना है, इसका निर्णय प्रकाशक रूपी स्वास्थ्य मन्त्री ही कर सकता है। साहित्य-संस्था की इन इकाइयों की भूमिका कालजयी साहित्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण माननी पड़ेगी। प्रेमचन्द के अनुसार ‘‘साहित्य के तीन लक्ष्य हैं-परिष्कृति, मनोरंजन और उद्घाटन। लेकिन मनोरंजन और उद्धाटन भी उसी परिष्कृति के अन्तर्गत आ जाते हैं क्योंकि लेखक का मनोरंजन केवल भाँडों या नक्कालों का मनोरंजन नहीं होता, उसमें परिष्कृति का भाव छिपा रहता है। उसका उद्घाटन भी परिष्कृति का उद्देश्य सामने रखकर ही होता है।’’ प्रेमचंद द्वारा कथित उद्देश्य को हासिल करने के लिए भी साहित्य की इकाइयों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है। तात्पर्य यही कि साहित्य की इकाइयाँ और कालजयी साहित्य का गहरा सम्बन्ध है।
क्षणजीवी साहित्यिक कृति में युगबोध और जीवन-मूल्य हाशिए पर छोड़ दिए जाते हैं किन्तु कालजयी क़ृति में ये केन्द्र में हुआ करते हैं। रचनाकार अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा के लिए साहित्य सृजन करता है तब उसकी रचना कृत्रिम और काल्पनिक धरातल से ऊपर नहीं उठती। प्रस्तुति शिल्प की प्रतिभा या अभिव्यक्ति कौशल का उपयोग जिन्होंने ‘स्वहित’ के लिए किया अथवा धन या सुवर्णमुद्रा पाने के लिए किया, उनकी रचना सामाजिकता से शून्य साबित हुई है। कला के नाम अपने रचना-तन्त्र का कमाल दिखानेवालों की रचनाधर्मिता से समाज को क्या हासिल होगा ? तन्त्र केन्द्रित प्रतिभासम्पन्न रचनाकार की रचनाधर्मिता दायित्व-शून्य होकर क्षत नहीं तो और क्या होगी ? इस तरह के कलाधर्मियों द्वारा निर्मित साहित्य उस जादूगर के जादू के समान क्षणजीवी होता है जो किसी नुक्कड़ पर खड़े हो कागज या पत्थर से रुपया बनाने का कमाल दिखाता है।
क्षणजीवी साहित्य एक दूरदर्शनी इश्तिहार की तरह होता है जो एक पल के लिए औरत के शरीर प्रदर्शन से दर्शकों का ध्यान तो खींच लेता है किन्तु दूसरे ही क्षण तिरोहित हो जाता है। प्रगति और परिवर्तन का विरोध वस्तुतः हर युग की सच्चाई रही किन्तु मानना होगा कि यह विरोध विकास के लिए नहीं बल्कि यथास्थिति को बनाए रखने के लिए ही होता रहा। फलतः प्रगतिशील और कालजयी साहित्य को दुहरी भूमिका निभानी पड़ती है। वह एक ओर प्रतिक्रियावादी तत्त्वों से निपटता है तो दूसरी ओर प्रासंगिकता का खयाल रखते हुए वस्तुतपरकता के साथ उन मूल्यों को भी प्रतिष्ठित करता है जिनसे सामाजिक उन्नयन का पथ प्रशस्त हो सके।
वस्तुतः स्थापित मान्यताओं के हिमायती वर्तमान स्थितियों की भयावहता से चाहे जितना मुख मोड़ते रहें किन्तु संवेदनशील रचनाकार मुख नहीं मोड़ सकता। वह युगबोध के यथार्थ चित्रण के साथ जीवन-मूल्यों को रूपायित किए बिना नहीं रहता। अपनी व्यक्तिगत कुंठा की भड़ास को साहित्य का अंग बनाए बिना, अपने समय की समाज के उत्थान और पतन का आलेख प्रस्तुत करना, उसकी गरिमा और गरल का परिचय देना वह अपना प्रधान प्रयोजन मानता है ताकि पूरे युग को, समय को और समाज को अपने वर्तमान में जानने का, आत्म-मूल्यांकन का अवसर मिले और जिससे कि वह कुछ सबक ले सके। अर्थात कालजयी कृति के केन्द्र में युगबोध तो होता ही है, उसके साथ-साथ जीवन-मूल्य भी। लेकिन जिस रचना में युगबोध हाशिए पर डाला जाता है। उस रचना में प्रासंगिकता लड़खड़ाती है और जहाँ प्रासंगिकता लड़खड़ाकर गिर जाती है वहाँ रचना क्षणजीवी बन जाती है।
कालजयी साहित्य परिवर्तन का प्रेरक किन्तु गति से अलक्षित होता है। कालजयी रचना प्रतिबद्ध और लक्ष्य-केन्द्रित तो होती ही है साथ-साथ उसके जरिए परिवर्तन की प्रेरणा भी प्राप्त हो सकती है। किन्तु वह प्रेरणा इतनी सूक्ष्म और परोक्ष होती है कि उसकी कोई सुनिश्चित गति और दिशा परिलक्षित नहीं होती। तुलसी तथा प्रेमचन्द का साहित्य इसका प्रबल प्रमाण है। तुलसी ने जिन आदर्शों, नैतिक मूल्यों और लोकमंगल की बार-बार बातें की हैं, वे ‘मानस’ की अपूर्व लोकप्रियता को प्राप्त करने के बावजूद जन-समाज में कहाँ प्रतिष्ठापित हो सकीं ? राम तथा सीता के चरित्र महज ‘मानस’ तक सीमित होकर रहे। यहाँ तक कि राम के आदर्श चरित्र को समाज का धर्मप्राण वर्ग तक अपने व्यक्तिगत जीवन में नहीं अपना सका। रही बात प्रेमचन्द की। इसमें दो राय नहीं कि प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाया। सामाजिक उन्नयन, हृदय-परिवर्तन, नैतिक मूल्यों और उदात्त मानवीय गुणों को रूपायित करनेवाले प्रेमचन्द ने जिन असंगतियों और समस्याओं को सत्तर-अस्सी साल पहले रेखांकित किया था, आज वे और अधिक भयावह बन चुकी हैं। दहेज, वेश्यावृत्ति, साम्प्रदायिकता, शोषण आदि समस्याओं के सम्बन्ध में कानून तो बन गए, जो लेखक की प्रतिबद्धता का फल है किन्तु सवाल यही है कि ये जन-समाज में, व्यक्तिगत जीवन में प्रतिष्ठापित होकर कितने उतर पाए। तात्पर्य यह कि कालजयी रचना परिवर्तन की प्रेरक अवश्य होती है लेकिन उसकी सुनिश्चित दिशा और गति को नापा नहीं जा सकता।
इस ग्रन्थ में जिनकी कालजयी कृतियों को लेकर लिखवा लेना अपेक्षित था किन्तु नहीं लिखवा पाया उनमें प्रमुख हैं-यशपाल, जैनेंद्र, भगवतीचरण वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अश्क, अज्ञेय, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, नरेश मेहता, केदारनाथ सिंह, भीष्म साहनी, श्रीलाल शुक्ल, अमृतलाल नागर, निर्मल वर्मा हरिशंकर परसाई कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वजाहत, विनोदकुमार शुक्ल सुरेन्द्र वर्मा और अलका सरावगी, आदि। आधुनिक हिन्दी कालजयी साहित्य/साहित्यकार को रेखांकित करने के इस प्रयास में समेटने का ‘कम’ और छूट जाने का ‘अधिक’ मुझे अहसास हो रहा है.....। बटोरने के प्रयास में बिखर जाने का, पाने से ज्यादा खोने का और सम्पूर्णता की तलाश में अपूर्णता का अपराध बोध। सबकुछ साथ ले चलने की कोशिश में बहुत कुछ छूट जाने का और उस चौबे की मानसिकता का जो छब्बे बनने निकला और दुबे बनकर रहा..। अंतः हिन्दी जगत के सुजान, समृद्ध और संवेदनशील पाठक वर्ग को यह बात अखरना निश्चय ही स्वाभाविक है कि आधुनिक हिन्दी कालजयी रचनाओं पर सम्पादित इस ग्रन्थ में सामाजिक सरोकार को उद्धाटित किया जा रहा है और उसमें ‘भीतर’ कम आ पाया है और ‘बाहर’ ज्यादा बच गया है। लेकिन इसके दो कारण हैं-एक यह कि इस ग्रन्थ को ‘पोथा’ बनाने से बचाना था और दूसरा यह कि इसमें केवल प्रतिनिधि कृतियों/कृतिकारों को रेखांकित करना था। अतः यदि इसमें थोड़ी भी सफलता प्राप्त हुई हो तो आगे के लिए रास्ता मिलेगा कि हर विधा की कालजयी कृतियों/कृतिकारों को लेकर स्वतन्त्र ग्रन्थ का लेखन/सम्पादन सम्भाव्य हो सकता है। एक और मुख्य बात यह है कि इस ग्रन्थ को वृहदाकार होने से बचाने के लिए इसे आधुनिक काल तक सीमित रखना पड़ा। वरना आदिकालीन, भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन कालजयी रचनाओं और उनके सामाजिक सरोकार की तलाश भी अलग-अलग ग्रन्थों में सम्भव हो सकती है। शायद भविष्य हर काल की कालजयी रचनाओं तथा हर विधा की कालजयी कृतियों को लेकर स्वतन्त्र लेखन की माँग करेगा। इसकी पूर्ति के लिए हमें सतर्क रहना होगा। युग की माँग को देखते हुए, वर्तमान समय और समाज की आवश्यकता को देखते हुए।
जिन विद्वान समीक्षकों ने बड़ी तत्परता से अपने आलेख भेजकर मेरे इस संकल्प को साकार करने में अपूर्व सहयोग दिया है वे साधुवाद के पात्र हैं। अतः औपचारिकता को निभाने के चक्कर में उनके सप्रेम सहयोग को ‘आभार’ या ‘धन्यवाद’ जैसे शब्दों के प्रयोग से छोटा नहीं करना चाहूँगा। बल्कि उनके स्नेह में आबद्ध रहना अधिक पसन्द करूँगा। बस खेद एक बात का है कि अनेक विद्वानों द्वारा भेजे गए कई आलेखों को इसमें स्थान नहीं दे पाया। सम्भवतः भविष्य में वे अलग ग्रन्थ में प्रकाशित होंगे। उन सभी से इतना आश्वस्त होना चाहूँगा कि वे इसे अन्यथा न लेकर पूर्ववत सहयोग देंगे। इस ग्रन्थ को प्रकाशित कर आप तक पहुँचाने का संकल्प जिनके कारण साकार हो रहा है उन प्रकाशक बन्धु श्री अशोक महेश्वरी को हार्दिक धन्यावद देना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ और यहाँ विराम आने से पहले आपकी प्रतिकियाओं से लाभान्वित होने की कामना करता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित कालजयी कृतियों/कृतिकारों को लेकर आपके मन में उठे पेचीदा प्रश्नों को, जिज्ञासाओं को, विचार वैविध्य को और उससे प्राप्त किसी दिशा की ओर जाने के लिए इस सारस्वत यज्ञ की पूर्ति में जिन अवरोधकों को पार करने में सबक हासिल हुआ उसके सन्दर्भ में जोश मिल्सयानी का शेर अर्ज है-
कालजयी साहित्य का कोई एक ही आधार नहीं होता। साहित्य मानव-जीवन का अभिन्न अंग है। इसलिए तो साहित्य और कला को मानव-सन्दर्भ की उपज कहा गया है। वस्तुतः कोई भी सृजन सन्दर्भ-निरपेक्ष नहीं हो सकता। असल में साहित्य क्रमशः धर्माश्रय, राजाश्रय और लोकाश्रय में विकसित होता हुआ लोकाभिमुख हुआ है। किन्तु साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि कालजयी साहित्य का सृजन जितना धर्माश्रय और लोकाश्रय में हुआ उतना राजाश्रय में नहीं हो पाया। कालजयी रचना उस बीज की पहचान कराती है जिसमें अपने काल की सच्चाई का वटवृक्ष छिपा होता है। अर्थात् कालगत जीवन ही कालजयी साहित्य का आधार है। अपने कालगत जीवन के प्रति ईमानदार, संवेदनशील और वस्तुनिष्ठ रहना लेखक की प्रधान शर्तें हैं। लेकिन जहाँ इसका अभाव मिलता है, वह लेखन अल्पजीवी अथवा क्षणजीवी बनकर रहता है। यह लेखक की मानसिकता पर निर्भर है कि वह पाठक को, आशा-निराशा, आस्था-अनास्था, लगन-पलायन, आदर्श-यथार्थ, किस दिशा में ले जा रहा है। वैयक्तिक को निर्वैयक्तिकता में परिणत करना श्रेष्ठ रचनाकार का एक और आधार है क्योंकि वैयक्तिकता यदि साहित्य की बुनियाद होती है तो निर्वैयक्तिकता उसका शिखर या लक्ष्य। वस्तुतः कालगत जीवन और व्यक्तिगत मन के साथ-साथ सामाजिक उन्नयन के भाव ही कालजयी रचना के मूल आधार हैं।
दुनिया की महान से महान कृति भी सबको समान रूप से सन्तुष्ट नहीं करती। समाज का दूसरा वर्ग, फिर भले ही वह संख्या में छोटा हो या बड़ा, श्रेष्ठ कृति से भी सन्तुष्ट नहीं रहता। यही कारण है कि जहाँ प्रेमचन्द का ‘गोदान’ यहाँ के अधिकांश पाठक वर्ग को तुष्ट करता है वहाँ वह राय साहब, साहूकार एवं ठाकुर आदि वर्ग को समान रूप से तुष्ट नहीं करता। यही बात तुलसी के ‘रामचरितमानस’ को लेकर है कि यहाँ एक वर्ग ऐसा भी है कि जिसे ‘मानस’ प्रसन्न नहीं कर पाता। ‘मानस’ को ‘लोक’ के लिए पढ़नेवाले हैं और ‘परलोक’ के लिए भी। कहना सही होगा कि किसी भी ‘क्लासिक’, ‘कालजयी’ या ‘महान’ कृति को पढ़नेवाले किन्हीं दो पाठकों की राय कभी एक जैसी नहीं रहती। अतः हमें भ्रम से बाहर होना होगा कि सभी कालजयी कृतियाँ सबको समान रूप से सन्तुष्ट करेंगी।
कालजयी साहित्य एवं कालजयी विचारधाराएँ भी काल-सापेक्ष होती हैं और समाज-सापेक्ष भी। श्रेष्ठ रचना कालजयी होती है किन्तु वह काल-निरपेक्ष हो यह सम्भव नहीं। आज प्रेमचन्द हमारा सम्बल हैं, मंजिल नहीं। ‘गोदान’ की भाषा और विषय को अपनाना आज कहाँ तक उचित है ? वह कौन-सा समाज है जो काल-निरपेक्ष है ? वह कौन-सी दुनिया है जो जड़ और स्थिर है ? क्या शेक्सपियर, तॉलस्तॉय और प्रेमचन्द का समाज ही आज का समाज है ? असल में श्रेष्ठ साहित्य का कालजयी होना स्वाभाविक है, काल-निरपेक्ष नहीं। साहित्यकार ढाँचा-ढला समाज नहीं बना सकता परन्तु कोई कालजयी रचना देकर समाजगत संशोधन में वह अहम भूमिका निभा सकता है। भारतीय किसान जीवन की करुणा गाथा ‘गोदान’ में जब पहली बार चित्रित हुई तब जाकर देश की सरकार द्वारा कृषि-सुधार विषयक नई नीति और नियम अस्तित्व में आए। देश में विदेशी भाषा का गाजर-घास की तरह फैलाव देखकर व्यथित हुए भारतेन्दु के ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल’ विचार कालजयी साबित हुए जिन्होंने देश में विदेशी भाषा के बदले स्वदेशी भाषा का मन्त्र फूँका। आजादी के आन्दोलन-काल में असहाय जनता को सतानेवालों के विरोध में युवकों को चेताने का कार्य कर दिनकर का ‘हुंकार’ कालजयी बना। तात्पर्य यह कि अपने समय की उपादेयता की दृष्टि से श्रेष्ठतम कृति ही कालजयी कहलाने की हकदार बनती है।
जिस तरह विचारधाराएँ भी अपने-अपने समय में कालजयी रहती हैं उसी तरह प्रासंगिकता से जुड़ा हुआ साहित्य भी कालजयी बनता है। समाजवादी विचारधारा, साम्यवादी विचारधारा, आदर्शवादी विचारधारा, यथार्थवादी विचारधारा, मार्क्सवादी विचारधारा, अस्तित्ववादी विचारधारा, गांधीवादी विचारधारा तथा व्यक्तिवादी विचारधारा-ये सब अपने-अपने समय की कालजयी विचारधाराएँ हैं। इनमें से कोई भी विचारधारा न आज से तीन सौ साल पहले प्रासंगिक थी और न आज से तीन सौ साल बाद प्रासंगिक रहेगी। क्योंकि कोई भी विचारधारा सामाजिक सन्दर्भ में काल-सापेक्ष रहती है। वह विशिष्ट काल की उपज होती है। उसका काल निरपेक्ष होना न स्वाभाविक है, न युक्तियुक्त। तद्वत कोई भी साहित्यिक रचना विशुद्ध काल-निरपेक्ष रह नहीं सकती। रचना का काल-सापेक्ष होना स्वाभाविक है और जो काल-सापेक्ष होती है वह प्रासंगिक होती है। तात्पर्य यह कि जो रचना प्रासंगिक और अपनी जमीन से जुड़ी हुई होगी वह कालजयी होगी, इसमें सन्देह नहीं।
साहित्य का संरचनात्मक स्वरूप देखने से कहना सही होगा कि साहित्य एक संस्था है। साहित्य को एक संस्था मानने पर उसके सुचारु संचालन हेतु उसके प्रत्येक अंग का अपना विशिष्ट महत्त्व मानना पड़ता है। मानना होगा कि साहित्य नामक संस्था के प्रधान अंग हैं लेखक, प्रकाशक, पाठक, समीक्षक और समाज कि जिनके अन्तःसम्बन्ध का प्रभाव साहित्य पर पड़े बिना नहीं रहता। अतः किसी भी साहित्यिक रचना का यशापयश साहित्य-संस्था के अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारभूत होता है। साहित्य संस्था का पहला अंग है लेखक जो मूल्यों का संवाहक होता है। असल में मूल्यों के संवाहन में योगदान करनेवाला साहित्य ही कालजयी बनता है। लेकिन मूल्यों के संवाहन का ठेका केवल साहित्यिक को न हो, उसमें साहित्य-संस्था के अन्य अंग भी सहभागी बनें। इसमें लेखक के उपरान्त प्रकाशक का स्थान आता है। अपने लाभ और हानि की स्वाभाविक व्यापारी वृत्ति के साथ-साथ प्रकाशक अगर यह भी सोचे कि क्या प्रकाशनीय है और क्या अप्रकाशनीय, तभी साहित्य के साथ-साथ समाज का हित भी सन्देह से परे होगा। प्रकाशन के बाद रचना पाठक के हाथ में आती है। पाठक उसका रसास्वादन करता है और उससे प्राप्त हितकारी तत्त्वों का अंगीकार भी। समीक्षक रसास्वादन तथा हितकारी तत्त्वों के ग्रहण करने में पाठक का मार्गदर्शन करता है लेकिन मौलिक सोच का बौनापन, पदोन्नति का गंदा लालच, गुटबन्दी और पक्षपात का शिकार बना समीक्षक सच्चा मार्गदर्शन नहीं कर सकता। उसकी दयनीय अथवा निरंकुश समीक्षा पाठक तथा लेखक दोनों के लिए त्रासद सिद्ध होती है। साहित्य संस्था का अन्तिम और महत्त्वपूर्ण अंग है समाज। समाज इन सबको प्रश्रय देता है, इनका श्रोता होता है और इनसे प्रभावित भी। लेकिन वह हितकारी लेखन का प्रशंसक और अहितकारी लेखन का निन्दक हो। साहित्य का कालजयी और मूल्यों का संवाहक बनना साहित्य-संस्था के अन्तःसम्बन्ध पर आधारभूत होता है। साहित्य का इतिहास भी इसका साक्षी है। यही हमारे साहित्य के समाजशास्त्र की अभिनव माँग है और अपेक्षा भी। क्योंकि जहाँ मूल्यों को और साहित्य संस्था के आपसी सम्बन्धों को ही बगल दी जाती है वहाँ साहित्य क्षणजीवी बन जाता है।
जब कोई रचना इतिहास और भूगोल की सीमा लाँघकर पाठकों को प्रभावित करती है तो हम उसे कालजयी मानते हैं। किन्तु सवाल यह है कि वे कौन-से तत्त्व हैं जो रचना को कालजयी बनाते हैं ? क्यों हमें आज भी सीता और शकुन्तला की व्यथा, राधा और मीरा का दर्द, यक्ष और देवदास की विरह-वेदना, होरी और समर की यातना व्यथित, उद्वेलित और आन्दोलित कर देती है ? क्यों ग्रीक त्रासदियाँ, हैमलेट, चैखव की रचनाएँ, तॉलस्तॉय की ‘आन्ना केरेनिना’ जैसी चीत्कार से भरी रचनाएँ आज भी हमें व्यथित करती हैं ? क्या इन्हीं चीत्कारों, व्यथाओं और प्रश्नों से ही दुनिया का ज्ञान-विज्ञान, दर्शन तथा साहित्य नहीं निकला है ? क्या अपने परिवेश की पृष्ठभूमि से कालजयी ग्रन्थों का जन्म नहीं होता ? वस्तुतः प्रामाणिकता, विश्वसनीयता, यातना, संघर्ष और प्रतिभा कालजयी साहित्य के प्रधान तत्त्व हैं और इन्हीं तत्त्वों ने विश्व को कालजयी रचनाएँ दी हैं।
हिन्दी में प्रधानतः कहानी, उपन्यास, नाटक तथा काव्यविधा में कालजयी कृतियाँ प्राप्त होती हैं। ‘उसने कहा था’, ‘कफन’, ‘आकाशदीप’, ‘पर्दा’, ‘शरणदाता’, ‘मलबे का मालिक’, ‘मेहमान’, ‘सजा’, ‘जार्ज पंचम’ की नाक आदि को हिन्दी की कालजयी कहानियाँ कहना होगा। ‘गोदान’, ‘चित्रलेखा’, ‘झूठा सच’, ‘बूँद और समुद्र’, ‘सारा आकाश’, ‘रागदरबारी’, ‘मैला आँचल’, ‘महाभोज’, ‘आधा गाँव’ तथा ‘मुझे चाँद चाहिए’ ‘हिन्दी के कालजयी उपन्यास हैं। ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘सिन्दूर की होली’, ‘मिस्टर अभिमन्यु’, ‘अंधा युग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘आधे-अधूरे’, ‘एक और द्रोणाचार्य’, ‘नेफा की एक शाम’, तथा ‘सूरज की अन्तिम किरण से सूरज की पहली किरण तक’ हिन्दी के कालजयी नाटक हैं और ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘रामचरितमानस’, ‘सूरसागर’, ‘पद्मावत’, ‘शिवराजभूषण’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘साकेत’, ‘कामायनी’, ‘यामा’, और ‘संसद से सड़क तक’ हिन्दी की कालजयी काव्य-कृतियाँ हैं।
सामाजिक उन्नयन के प्रमुखतः तीन महत्त्वपूर्ण कारक होते हैं-समाज-सुधारक, राजनेता तथा रचनाकार। इन तीनों का कार्यक्षेत्र अलग है किन्तु प्रयोजन एक ही। इनमें से किसी एक का पतन या कमजोर होना हानिकारक होता है। सामाजिक उन्नयन में इन तीनों का महत्त्व समान होता है। इनके सम्मलित रूप से सामाजिक उत्थान की शक्ति बनती है। रचनाकार अपने काल की असंगतियों, बाधाओं, नैतिक पतनों तथा भयावह स्थितियों को पहचान लेता है। वह मूल्य और मानक के साथ-साथ अपने काल की यथार्थता को ईमानदारी से रेखांकित करता है और यही वह बिन्दु है जो रचना को कालजयी बनाता है। हर युग की कालजयी रचना अपने काल के पतन का पर्दाफाश ही नहीं करती बल्कि समाज की अधोगामी शक्ति पर प्रहार कर समाज-उन्नयन का अंग भी बन जाती है।
वस्तुतः साहित्य कोई बिजली नहीं जो एक ही झटके से बटन दबाते ही प्रकाश दे दे। वह कोई ऐसा इंजेक्शन नहीं कि लगा दिया और तुरन्त बुखार उतर गया। यह मानना पड़ेगा कि कालजयी साहित्य सामाजिक पतन और युगीन समस्याओं के प्रति ध्यान आकर्षित कर हमें सजग करता है और परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से उनके समाधान भी सूचित करता है। लेकिन सूचित समाधान को व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए समाज सुधारकों की आवश्यकता होती है और उनके विधिवत क्रियान्वयन के लिए सचेत राजनेता की। आजादी के आन्दोलन-काल में देशवासियों को जगाने, चेताने और विदेशी शासन के विरुद्ध स्वदेशाभिमान के भाव उद्दीप्त करने का दायित्व जिन साहित्यकारों ने निभाया और आन्दोलन को तीव्र करने हेतु जो साहित्य-सृजन हुआ, उसे व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठापित करने तथा उसके क्रियान्वयन में तत्कालीन समाज सुधारकों और नेताओं ने अहम भूमिका निभाई है। ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’, ‘वंदे मातरम्, सुजलाम-सुफलाम’, ‘विजयी विश्व तिंरगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा’, और सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ जैसी रचनाएँ इसी वजह से कालजयी बनी हैं। जिन गीतों ने स्वाधीनता संग्राम में युवकों को बलिदान की प्रेरणा दी, आज उन्हीं के कारण हम सही अर्थों में जिन्दा हैं। कहना गलत नहीं होगा कि कालजयी कृति से सामाजिक उन्नयन अनायास होता रहता है।
इसमें दो राय नहीं कि कालजयी साहित्य समाज से संपृक्त होता है। अतः समाज से असंपृक्त लेखन को ‘साहित्य’ कहना साहित्य का अपमान ही नहीं अपितु समाज-हित के अर्थपूर्ण तत्त्व की सम्पूर्ति में बेईमानी है। जब कोई कृति सामाजिक सन्दर्भ में आकार ग्रहण करती है-अपने सामाजिक मूल्य और मानक के साथ-तब वह कालजयी बन जाती है। स्पष्ट है कि कालजयी साहित्य अपने परिवेश की उपज होता है, वह संवेदनशील मस्तिष्क की उपज होता है। कालजयी समीक्षा कालजयी रचना की पूरक होती है। कालजयी रचना कालजयी समीक्षा को पाकर आलोकित होती है। लेकिन कभी-कभी उत्कृष्ट रचना आगे बढ़ जाती है और समीक्षा पिछड़ जाती है-ऐसी स्थिति में जब मूल रचना ही अपनी समीक्षा के संकेत देकर पाठकों का मार्गदर्शन करती है अथवा पाठक को चिन्तन के लिए अन्तर्मुख करती है तब उसकी कालजयिता और अधिक निखर जाती है।
साहित्य समाज का (दर्पण नहीं) एक्सरे है। वह दर्पण के समान समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं दिखाता बल्कि समाज के अंग की हड्डी-पसलियों से होकर वहाँ तक जाता है जहाँ बीमारी का संसर्ग हुआ है। जब संसर्ग और संसर्गग्रस्त अंग-उपांग का पता चलता है तब इलाज की दिशा निश्चित होती है। समाज के स्वास्थ्य का परीक्षण साहित्य रूपी एक्सरे से होता है। साहित्य की भूमिका जहाँ एक्सरे की होती है लेखक की भूमिका वहाँ डॉक्टर (वैद्य) की होती है। इस माने में साहित्यकार समाज का डॉक्टर होता है। वह समाज के स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य का परीक्षण (चैकअप) कर बीमारी की दवा (साहित्य) देता है और वे सभी उपाय (परोक्ष या प्रत्यक्ष) सूचित करता है जिनसे बीमारी नष्ट हो सकती है। पाठक साहित्य-संस्था की महत्त्वपूर्ण इकाई है। उसकी भूमिका स्वास्थ्य सम्पन्न मनुष्य की होती है। वह अपने सुन्दर स्वास्थ्य के सारे उपाय लेखक रूपी वैद्य से प्राप्त करता है। समीक्षक हेल्थ इंस्पेक्टर (स्वास्थ्य निरीक्षक) की भूमिका अदा करता है। वह समीक्षा का डंडा लेकर लेखन का मूल्यांकन और निरीक्षण करता है। समाज की भूमिका हेल्थ सेंटर (स्वास्थ्य केन्द्र) की रहती है। वह हेल्थ सेंटर ख्याति प्राप्त करता है जो ईमानदारी से दायित्व वहन करनेवाले वैद्य तथा सुविधाएँ प्रदान करता है। प्रकाशक की भूमिका स्वास्थ्य मन्त्री की रहती है। अपने समाज को क्या देना और क्या नहीं देना है, इसका निर्णय प्रकाशक रूपी स्वास्थ्य मन्त्री ही कर सकता है। साहित्य-संस्था की इन इकाइयों की भूमिका कालजयी साहित्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण माननी पड़ेगी। प्रेमचन्द के अनुसार ‘‘साहित्य के तीन लक्ष्य हैं-परिष्कृति, मनोरंजन और उद्घाटन। लेकिन मनोरंजन और उद्धाटन भी उसी परिष्कृति के अन्तर्गत आ जाते हैं क्योंकि लेखक का मनोरंजन केवल भाँडों या नक्कालों का मनोरंजन नहीं होता, उसमें परिष्कृति का भाव छिपा रहता है। उसका उद्घाटन भी परिष्कृति का उद्देश्य सामने रखकर ही होता है।’’ प्रेमचंद द्वारा कथित उद्देश्य को हासिल करने के लिए भी साहित्य की इकाइयों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है। तात्पर्य यही कि साहित्य की इकाइयाँ और कालजयी साहित्य का गहरा सम्बन्ध है।
क्षणजीवी साहित्यिक कृति में युगबोध और जीवन-मूल्य हाशिए पर छोड़ दिए जाते हैं किन्तु कालजयी क़ृति में ये केन्द्र में हुआ करते हैं। रचनाकार अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा के लिए साहित्य सृजन करता है तब उसकी रचना कृत्रिम और काल्पनिक धरातल से ऊपर नहीं उठती। प्रस्तुति शिल्प की प्रतिभा या अभिव्यक्ति कौशल का उपयोग जिन्होंने ‘स्वहित’ के लिए किया अथवा धन या सुवर्णमुद्रा पाने के लिए किया, उनकी रचना सामाजिकता से शून्य साबित हुई है। कला के नाम अपने रचना-तन्त्र का कमाल दिखानेवालों की रचनाधर्मिता से समाज को क्या हासिल होगा ? तन्त्र केन्द्रित प्रतिभासम्पन्न रचनाकार की रचनाधर्मिता दायित्व-शून्य होकर क्षत नहीं तो और क्या होगी ? इस तरह के कलाधर्मियों द्वारा निर्मित साहित्य उस जादूगर के जादू के समान क्षणजीवी होता है जो किसी नुक्कड़ पर खड़े हो कागज या पत्थर से रुपया बनाने का कमाल दिखाता है।
क्षणजीवी साहित्य एक दूरदर्शनी इश्तिहार की तरह होता है जो एक पल के लिए औरत के शरीर प्रदर्शन से दर्शकों का ध्यान तो खींच लेता है किन्तु दूसरे ही क्षण तिरोहित हो जाता है। प्रगति और परिवर्तन का विरोध वस्तुतः हर युग की सच्चाई रही किन्तु मानना होगा कि यह विरोध विकास के लिए नहीं बल्कि यथास्थिति को बनाए रखने के लिए ही होता रहा। फलतः प्रगतिशील और कालजयी साहित्य को दुहरी भूमिका निभानी पड़ती है। वह एक ओर प्रतिक्रियावादी तत्त्वों से निपटता है तो दूसरी ओर प्रासंगिकता का खयाल रखते हुए वस्तुतपरकता के साथ उन मूल्यों को भी प्रतिष्ठित करता है जिनसे सामाजिक उन्नयन का पथ प्रशस्त हो सके।
वस्तुतः स्थापित मान्यताओं के हिमायती वर्तमान स्थितियों की भयावहता से चाहे जितना मुख मोड़ते रहें किन्तु संवेदनशील रचनाकार मुख नहीं मोड़ सकता। वह युगबोध के यथार्थ चित्रण के साथ जीवन-मूल्यों को रूपायित किए बिना नहीं रहता। अपनी व्यक्तिगत कुंठा की भड़ास को साहित्य का अंग बनाए बिना, अपने समय की समाज के उत्थान और पतन का आलेख प्रस्तुत करना, उसकी गरिमा और गरल का परिचय देना वह अपना प्रधान प्रयोजन मानता है ताकि पूरे युग को, समय को और समाज को अपने वर्तमान में जानने का, आत्म-मूल्यांकन का अवसर मिले और जिससे कि वह कुछ सबक ले सके। अर्थात कालजयी कृति के केन्द्र में युगबोध तो होता ही है, उसके साथ-साथ जीवन-मूल्य भी। लेकिन जिस रचना में युगबोध हाशिए पर डाला जाता है। उस रचना में प्रासंगिकता लड़खड़ाती है और जहाँ प्रासंगिकता लड़खड़ाकर गिर जाती है वहाँ रचना क्षणजीवी बन जाती है।
कालजयी साहित्य परिवर्तन का प्रेरक किन्तु गति से अलक्षित होता है। कालजयी रचना प्रतिबद्ध और लक्ष्य-केन्द्रित तो होती ही है साथ-साथ उसके जरिए परिवर्तन की प्रेरणा भी प्राप्त हो सकती है। किन्तु वह प्रेरणा इतनी सूक्ष्म और परोक्ष होती है कि उसकी कोई सुनिश्चित गति और दिशा परिलक्षित नहीं होती। तुलसी तथा प्रेमचन्द का साहित्य इसका प्रबल प्रमाण है। तुलसी ने जिन आदर्शों, नैतिक मूल्यों और लोकमंगल की बार-बार बातें की हैं, वे ‘मानस’ की अपूर्व लोकप्रियता को प्राप्त करने के बावजूद जन-समाज में कहाँ प्रतिष्ठापित हो सकीं ? राम तथा सीता के चरित्र महज ‘मानस’ तक सीमित होकर रहे। यहाँ तक कि राम के आदर्श चरित्र को समाज का धर्मप्राण वर्ग तक अपने व्यक्तिगत जीवन में नहीं अपना सका। रही बात प्रेमचन्द की। इसमें दो राय नहीं कि प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाया। सामाजिक उन्नयन, हृदय-परिवर्तन, नैतिक मूल्यों और उदात्त मानवीय गुणों को रूपायित करनेवाले प्रेमचन्द ने जिन असंगतियों और समस्याओं को सत्तर-अस्सी साल पहले रेखांकित किया था, आज वे और अधिक भयावह बन चुकी हैं। दहेज, वेश्यावृत्ति, साम्प्रदायिकता, शोषण आदि समस्याओं के सम्बन्ध में कानून तो बन गए, जो लेखक की प्रतिबद्धता का फल है किन्तु सवाल यही है कि ये जन-समाज में, व्यक्तिगत जीवन में प्रतिष्ठापित होकर कितने उतर पाए। तात्पर्य यह कि कालजयी रचना परिवर्तन की प्रेरक अवश्य होती है लेकिन उसकी सुनिश्चित दिशा और गति को नापा नहीं जा सकता।
इस ग्रन्थ में जिनकी कालजयी कृतियों को लेकर लिखवा लेना अपेक्षित था किन्तु नहीं लिखवा पाया उनमें प्रमुख हैं-यशपाल, जैनेंद्र, भगवतीचरण वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अश्क, अज्ञेय, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, नरेश मेहता, केदारनाथ सिंह, भीष्म साहनी, श्रीलाल शुक्ल, अमृतलाल नागर, निर्मल वर्मा हरिशंकर परसाई कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वजाहत, विनोदकुमार शुक्ल सुरेन्द्र वर्मा और अलका सरावगी, आदि। आधुनिक हिन्दी कालजयी साहित्य/साहित्यकार को रेखांकित करने के इस प्रयास में समेटने का ‘कम’ और छूट जाने का ‘अधिक’ मुझे अहसास हो रहा है.....। बटोरने के प्रयास में बिखर जाने का, पाने से ज्यादा खोने का और सम्पूर्णता की तलाश में अपूर्णता का अपराध बोध। सबकुछ साथ ले चलने की कोशिश में बहुत कुछ छूट जाने का और उस चौबे की मानसिकता का जो छब्बे बनने निकला और दुबे बनकर रहा..। अंतः हिन्दी जगत के सुजान, समृद्ध और संवेदनशील पाठक वर्ग को यह बात अखरना निश्चय ही स्वाभाविक है कि आधुनिक हिन्दी कालजयी रचनाओं पर सम्पादित इस ग्रन्थ में सामाजिक सरोकार को उद्धाटित किया जा रहा है और उसमें ‘भीतर’ कम आ पाया है और ‘बाहर’ ज्यादा बच गया है। लेकिन इसके दो कारण हैं-एक यह कि इस ग्रन्थ को ‘पोथा’ बनाने से बचाना था और दूसरा यह कि इसमें केवल प्रतिनिधि कृतियों/कृतिकारों को रेखांकित करना था। अतः यदि इसमें थोड़ी भी सफलता प्राप्त हुई हो तो आगे के लिए रास्ता मिलेगा कि हर विधा की कालजयी कृतियों/कृतिकारों को लेकर स्वतन्त्र ग्रन्थ का लेखन/सम्पादन सम्भाव्य हो सकता है। एक और मुख्य बात यह है कि इस ग्रन्थ को वृहदाकार होने से बचाने के लिए इसे आधुनिक काल तक सीमित रखना पड़ा। वरना आदिकालीन, भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन कालजयी रचनाओं और उनके सामाजिक सरोकार की तलाश भी अलग-अलग ग्रन्थों में सम्भव हो सकती है। शायद भविष्य हर काल की कालजयी रचनाओं तथा हर विधा की कालजयी कृतियों को लेकर स्वतन्त्र लेखन की माँग करेगा। इसकी पूर्ति के लिए हमें सतर्क रहना होगा। युग की माँग को देखते हुए, वर्तमान समय और समाज की आवश्यकता को देखते हुए।
जिन विद्वान समीक्षकों ने बड़ी तत्परता से अपने आलेख भेजकर मेरे इस संकल्प को साकार करने में अपूर्व सहयोग दिया है वे साधुवाद के पात्र हैं। अतः औपचारिकता को निभाने के चक्कर में उनके सप्रेम सहयोग को ‘आभार’ या ‘धन्यवाद’ जैसे शब्दों के प्रयोग से छोटा नहीं करना चाहूँगा। बल्कि उनके स्नेह में आबद्ध रहना अधिक पसन्द करूँगा। बस खेद एक बात का है कि अनेक विद्वानों द्वारा भेजे गए कई आलेखों को इसमें स्थान नहीं दे पाया। सम्भवतः भविष्य में वे अलग ग्रन्थ में प्रकाशित होंगे। उन सभी से इतना आश्वस्त होना चाहूँगा कि वे इसे अन्यथा न लेकर पूर्ववत सहयोग देंगे। इस ग्रन्थ को प्रकाशित कर आप तक पहुँचाने का संकल्प जिनके कारण साकार हो रहा है उन प्रकाशक बन्धु श्री अशोक महेश्वरी को हार्दिक धन्यावद देना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ और यहाँ विराम आने से पहले आपकी प्रतिकियाओं से लाभान्वित होने की कामना करता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित कालजयी कृतियों/कृतिकारों को लेकर आपके मन में उठे पेचीदा प्रश्नों को, जिज्ञासाओं को, विचार वैविध्य को और उससे प्राप्त किसी दिशा की ओर जाने के लिए इस सारस्वत यज्ञ की पूर्ति में जिन अवरोधकों को पार करने में सबक हासिल हुआ उसके सन्दर्भ में जोश मिल्सयानी का शेर अर्ज है-
अपनों की
दोस्ती ने दिया है वो सबक,
गैरों की दुश्मनी भी इनायत से कम नहीं।
गैरों की दुश्मनी भी इनायत से कम नहीं।
डॉ.
अर्जुन चव्हाण
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर (महाराष्ट्र)
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर (महाराष्ट्र)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अंधेर नगरी
डॉ. कमला प्रसाद
भारतेन्दु हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम
हरिश्चन्द्र था, भारतेन्दु उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर
खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों
को छोड़कर स्वस्थ्य परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए। उनका
जन्म सन् 1850 में हुआ। स्वतन्त्रता का पहला संग्राम जब सन् 1857 में घटित
हुआ तब उनकी उम्र 7 वर्ष की होगी। ये दिन उनकी आँख खुलने के थे। भारतेन्दु
का कृतित्व साक्ष्य है कि उनकी आँखें एक बार खुलीं तो बन्द नहीं हुईं।
पैंतीस वर्ष की आयु (सन् 1885) में उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि
से इतना लिखा, इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक
बन गया। भारतेन्दु के पूर्वज अंग्रेज भक्त थे, उनकी ही कृपा से धनवान हुए।
पिता गोपीचन्द्र उपनाम गिरिधर दास की मृत्यु इनकी दस वर्ष की उम्र में हो
गई। माता की पाँच वर्ष की आयु में हुई। इस तरह माता-पिता के सुख से
भारतेन्दु वंचित हो गए। विमाता ने खूब सताया। बचपन का सुख नहीं मिला।
शिक्षा की व्यवस्था प्रथापालन के लिए होती रही। संवेदनशील व्यक्ति के नाते
उनमें स्वतन्त्र रूप से देखने-सोचने-समझने की आदत का विकास होने लगा।
पढ़ाई की विषय-वस्तु और पद्धति से उनका मन उखड़ता रहा। क्वींस कॉलेज बनारस
में प्रवेश लिया, तीन-चार वर्षों तक कॉलेज आते-जाते रहे पर यहाँ से मन
बार-बार भागता रहा। स्मरण शक्ति तीव्र थी, ग्रहण क्षमता अद्भुत। इसलिए
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहे। बनारस में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे
और प्रसिद्ध लेखक-राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द थे, भारतेन्दु शिष्य भाव से
उनके यहाँ जाते। उन्हीं से अंग्रेजी शिक्षा सीखी। भारतेन्दु ने स्वाध्याय
से संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू भाषाएँ सीख लीं।
कविताएँ लिखते थे-श्रृंगाररस की कविताएँ पर्याप्त मात्रा में कीं।
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लोगों की राय
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