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आदर्श प्रबंधन के सूक्त

सुरेश कांत

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :199
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2763
आईएसबीएन :9788183610186

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आदर्श प्रबंधन स्थापित करने में सहायक अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण...

Aadharsh Prabandhan Ke Sutra a hindi book by Suresh kant - आदर्श प्रबंधन के सूक्त - सुरेश कांत

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका: क्या, कैसे और किसके लिए

आज से लगभग चार साल पहले हिंदी के पहले बिजनेस-डेली ‘अमर उजाला कारोबार’ के प्रकाशन के साथ हिंदी की व्यावसायिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांति हुई थी। उसके खूबसूरत कलेवर, पेशेवराना प्रस्तुति और उच्चस्तरीय सामग्री ने मुझे भी उसके साथ बतौर लेखक जुड़ने के लिए प्रेरित किया। और तब से उसमें हर मंगलवार को प्रकाशित होनेवाले अपने कॉलम में मैं प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर नियमित रूप से लिखता रहा।
एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर-पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री केवल कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैयद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था और ‘हिंदीवाला’ होने के नाते मैं इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरूआत-इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।

प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है। प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलनेवाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषी छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-अधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखनेवाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ।
इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधारणाओं को समझने में हो सकनेवाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन, प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहाँ हिंदी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे, वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवंत और रवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। कागज, कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, चाय, कुर्सी, मेज, बस, कार रेल, रिक्शा, चेक, ड्राफ्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।

लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं, बात को स्पष्ट करने और प्रामाणिक बनाने के लिए हैं।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे ‘कारोबार’ में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे स्वयं उन्हें भी बहुत लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनंद जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा- बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ? मित्र ने झट से कहा-ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो; और मैं कहूँ कि मरा हुआ है, तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं भी यह कहना चाहता हूं कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार दफ्तर और कारोबार-सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे अपने इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :
नशेमन पे मेरे एहसान सारे चमन का है,
कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका कहीं का है।
-सुरेश कांत

अपने व्यक्तित्व को परखते रहें

गति में रुकावट अपने ही व्यक्तित्व की खामियों का नतीजा होती है
हम सभी अपने जीवन में दो चीजें चाहते हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए दिन-रात प्रयास करते रहते हैं। ये दो चीजें हैं-सफलता और प्रसन्नता। अगर हम इन दोनों को परिभाषित करने की कोशिश करें। तो पाएँगे कि इन दोनों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है और दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सफलता की व्याख्या बहुत-से मनोवैज्ञानिकों ने की है और उन सबमें सामान्य बात यह है कि किसी भी आदमी के व्यक्तित्व की आनंददायक व संपूर्ण अभिव्यक्ति, जो आंतरिक (आदमी के मन में) और बाह्य (समाज या समूह में) सामंजस्य की वृद्धि करे, उसकी सफलता है और जिसे यह सामंजस्य उपलब्ध है, वही सफल व्यक्ति है।
अब आप देखेंगे कि बहुत-सी धन-संपत्ति से घर को भर लेना, तरह-तरह की सुविधाएँ जुटा लेना, उच्च पद प्राप्त कर लेना या प्रसिद्ध हो जाना ही सफलता नहीं है। आपने किसी ऐसे धनवान व्यापारी को देखा होगा, जो सैकड़ों जी-हुजूरियों और चापलूसों से घिरा रहता है और अपने पैसे से सारे भौतिक सुख खरीद लेता है, फिर भी उसे भीतर कहीं भारी असंतोष, कोई चुभती हुई ग्लानि या एक निरर्थकता का बोध अथवा खोखलेपन का एहसास कचोटता रहता है। इस अतृप्ति के डंक से बचने के लिए ही वह ज्यादा, और ज्यादा धन-दौलत के पीछे दौड़ता रहता है। बात साफ है, वह सफल नहीं है। जीवन की असंख्य अभिलाषाओं के अतृप्त रहने के कारण ही वह दिन-रात धन के पीछे पड़ा रहकर अपने-आपको एक छलावे से संतुष्ट कर रहा है।

सुविधा बनाम आनंद

प्रसन्नता सफलता का ही परिणाम है। समूह में जिन अंतस्सबंधों के ताने-बाने में हम रहते हैं, उन मानवीय संबंधों को हम स्नेह की ऊष्मा दे सकें और प्रेम का आदान-प्रदान करते हुए सहज अभिव्यक्ति से परितोष पा सकें, यही हमारे लिए प्रसन्नता होगी। अपने किसी चारित्रिक दोष, मनोवैज्ञानिक कुंठा, व्यक्तित्व की अपरिपक्वता अथवा मानसिक रुग्णता के कारण यदि हम प्रेम की ऊष्मा और संबंधों की सहजता का आनंद नहीं उठा सकते, तो धन-दौलत, जमीन-जायदाद, उच्च पद आदि हमें प्रसन्नता नहीं दे सकेंगे। इनसे सुविधा मिलती है, आनंद नहीं।
अकसर लोग सफलता और तरक्की की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए किसी एक मंजिल पर पहुँचकर रुक जाते हैं। उनका विकास ठहर जाता है। आगे कोई रास्ता नजर नहीं आता। आसपास के लोग आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। स्थिर व्यक्ति रुककर सड़ते हुए पानी की तरह ठहराव महसूस करते हैं। गति में रुकावट प्रायः हमारे ही व्यक्तित्व की कमियों या चारित्रिक दोषों के कारण आती है, साधनों की कमी या परिस्थितियों की खराबी से नहीं।

आत्मपरीक्षण

क्या आप यह महसूस करते हैं कि आपमें योग्यता है, परिश्रम करने की क्षमता भी है और उचित अवसर भी आपको मिलते रहते हैं, फिर भी आप उसी मंजिल पर अटके हुए हैं, जहाँ बहुत पहले आ पहुँचे थे या आपको लगता है कि आगे बढ़ने के मौके आपको मिले ही नहीं ? अथवा आप सोचते हैं कि आपको लोगों का सच्चा स्नेह नहीं मिलता ? क्या आपको सच्चे दोस्तों का अभाव खटकता है ? क्या आप महसूस करते हैं कि लोग आपको हमेशा गलत ही समझते हैं ? क्या आपको इस बात का क्षोभ है कि आपमें आत्मविश्वास की कमी है और आप हमेशा असफल रहते हैं-चाहे प्रेम-संबंध हों या व्यापार ? क्या आपको लगता है कि जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गया है ? क्या आपको शर्मीलेपन, अपराधबोध और अक्षमता का एहसास सताता है ? क्या आप बहुत ही सोच-विचार करते रहते हैं और करते कुछ भी नहीं और काम को आगे के लिए टालते हैं ? क्या आप आगामी दुर्घटनाओं की कल्पना करके चिंताग्रस्त और भयावह तनाव में रहते हैं ? यदि ऐसा है, तो किसी को दोष देने और दूसरों पर आरोप लगाने से पहले आत्मनिरीक्षण अवश्य कर लें। अवश्य ही आपको अपने व्यक्तित्व, अपनी मानसिकता और अपने व्यवहार में कुछ कमियाँ नजर आएँगी, बशर्ते आपको अपने बारे में निष्पक्ष और तथ्यपरक चिंतन करना आता हो।
यहाँ यह भी ध्यान रखें कि आत्मकेंद्रित होकर हमेशा अपने ही बारे में सोचते रहना, स्वमूल्यांकन करते रहना और दूसरों से तुलना करते रहना मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। हाँ, स्वयं को समझने के लिए और यह जानने के लिए कि बाल्यकाल के किन अनुभवों और शिक्षाओं ने हमें हमारे वर्तमान रूप में विकसित किया है, कभी-कभी आत्मपरीक्षण कर लेना लाभदायक होगा।
सफल और प्रसन्नतापूर्वक जीवन का यह अर्थ बिलकुल नहीं कि कोई भी कठिनाई या समस्या आपके सामने न हो। समस्यारहित, सुविधापूर्वक और सुरक्षित जीवन-पद्धति तो आपके व्यक्तित्व का विकास ही रोक देंगी। काम में न आने से हमारी क्षमताएँ भी उसी तरह अविकसित रह जाती हैं, जिस तरह शरीर की मांसपेशियाँ।
आत्मपरीक्षण करने और सफलता की राह पर बढ़ने की नई योजना बनाने के लिए हमें अपने व्यवहार और उसकी जड़ में बैठी अपनी मानसिकता का विश्लेषण करना होगा। तभी हमें अपनी असफलता और मुश्किलों का कारण पता चलेगा। इसके लिए निम्नलिखित बातों पर विचार करना उपयोगी होगा:

दूसरों पर उंगलियाँ

विफल होने पर क्या हम दूसरों पर दोषारोपण करना शुरू कर देते हैं ? वस्तुत:आत्ममुग्ध होने के कारण बहुत-से लोग इसका उत्तर ‘हाँ’ में नहीं देंगे। फिर भी, यह मानकर चलना होगा कि अधिकतर व्यक्ति अपने-आपको कभी दोषी नहीं मानते। वे प्रायः दूसरों की गलतियों पर बड़ी सावधान नजर रखते हैं और यह कभी स्वीकार नहीं करते कि हमारे अंदर भी वैसा ही स्वार्थभाव और संकीर्णता मौजूद है। दूसरों पर दोष लगाकर खुद का पल्ला झाड़ लेने की प्रवृत्ति से न केवल आपको उनसे मिलने वाला सहयोग कम हो जाएगा, बल्कि आप अपनी उस विशिष्ट चारित्रिक त्रुटि को पहचानकर खत्म करने के बजाय उसे पुष्ट करते जाएँगे।
अपने दोषों के प्रति अंधे व्यक्ति घर और दफ्तर, दोनों जगह कड़वाहट फैला देते हैं। पारिवारिक समस्याओं के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराकर झगड़नेवाले पति-पत्नी, भाई-भाई, पिता-पुत्र और दफ्तर की गड़बड़ियों के लिए आरोप-प्रत्यारोप लगानेवाले सहकर्मी इसी मानसिकता के शिकार होते हैं। व्यक्तिगत जीवन की बहुत सारी कड़वाहट इसी पर-दोष-प्रदर्शन की आदत के कारण पैदा होती है। अतः ध्यान रखिए, अपने खुद के व्यवहार की निष्पक्ष जाँच-परख किए बिना कभी भी दूसरों को दोषी न ठहराएँ।

सराहने में कंजूसी

आलोचना करने के लिए हम जितने उत्सुक रहते हैं, क्या प्रशंसा करने में भी उतने ही उदार हैं ? जी नहीं,आलोचना करना ज्यादा सुखद लगता है क्योंकि हमारे अवचेतन में बँधे हुए आक्रामक संवेगों की इसी से संतुष्टि होती है। इसके अलावा मन में छिपे अक्षमता और हीनता के भय भी हमें कचोटते रहते हैं और दूसरों को अक्षम या हीन महसूस कराने से हमें कुछ समय के लिए इस कचोट से मुक्ति मिलती है।
मनोहर पूरे विद्यार्थी-जीवन में कभी किसी सभा-समिति में नहीं बोला, न किसी क्रीड़ा या सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसने भाग लिया। वह बेहद शर्मीला था और आज भी है। उसके बारह वर्षीय पुत्र ने एक दिन घर आकर उसे बताया कि स्कूल में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हो रहा है।
‘तुम उसमें जरूर भाग लेना। बोलना भी एक कला है,’ पिता ने कहा।
‘मगर मुझे तो इतने सारे लोगों में बोलने से घबराहट होती है,’ बच्चे ने उत्तर दिया।
इस पर आगबबूला होते हुए मनोहर बोला, ‘तुम बड़े फिसड्डी हो। क्या होती है घबराहट और क्या होता है डर ? हम भी तो बोला करते थ। तुम्हारी तरह घर की बहू बने शरमाया नहीं करते थे। तुम जिंदगी में किसी काबिल नहीं बन सकते।’
सीधी-सी बात है। मनोहर अगर यह कहता कि खुद उसे भी घबराहट होती थी और यह घबराहट स्वाभाविक है और उसे निरंतर अभ्यास से मिटाया जा सकता है, तो बच्चें में बोलने की हिम्मत पैदा हो जाती।
आलोचना करने से कई लोगों को इसलिए भी संतोष मिलता है कि उनके खयाल से इससे दूसरों पर उनकी योग्यता और क्षमता का प्रभाव पड़ेगा। कइयों को लगता है कि दूसरों की प्रशंसा करना स्वयं को छोटा बनाना है।
अगर आप प्रशंसा करने में कंजूसी बरतते हों, तो आप न केवल स्वयं को अप्रिय बना लेंगे, बल्कि दूसरे व्यक्ति को भी सुधरने न देंगे क्योंकि वह आपकी आलोचना और सुझावों पर तभी ध्यान देगा, जब आपसे वह प्रशंसा पाता रहा हो। प्रशंसा मानव-व्यवहारों में जादू का सा कार्य करती है। दुष्ट और नीच स्वभाव के व्यक्ति भी प्रशंसा प्राप्त करके अपना रास्ता बदल लेते हैं। घर और दफ्तर में प्रशंसा द्वारा आप वह काम कर सकते हैं, और दूसरों से करा सकते हैं, जो और किसी भी तरीके से कभी नहीं हो सकता।

छिलके पर झगड़ा


उम्मीदें ठंडी मत होने दीजिए

आशावादिता ही जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाने का मूल मंत्र है
आधे भरे गिलास को देखने पर आपकी नजर उसके भरेपन पर जाती है या खालीपन पर ? अँगूठे के आकारवाला केक आपको आकर्षित करता है या उसके बीच का खाली हिस्सा ? ये पहेलियाँ अचानक वैज्ञानिक प्रश्न बन जाती हैं, जिनसे शोधकर्ता सकारात्मक विचारधारा की शक्ति का विश्लेषण करते हैं।
विश्व में हो रहे निरंतर अनुसंधानों-अभी तक लगभग डेढ़ लाख लोगों को लेकर हुए 104 अध्ययनों से पता चलता है कि आशावादिता आदमी को अधिक प्रसन्न, स्वस्थ और सफल होने में सहायता करती है। इसके विपरीत नैराश्य बेजारी, बीमारी और असफलता का जनक है और इन्हीं के साथ विषाद, अकेलापन और पीड़ादायक सिमटाव आदमी के मन में घर कर लेता है। राइस विश्वविद्यालय, ह्यूस्टन के मनोवैज्ञानिक क्रेग ए एंडरसन कहते हैं, ‘यदि हम लोगों को अधिक सकारात्मक ढंग से सोचना सिखा सकें, तो मानो हम उन्हें मानसिक विकृति-रोधक टीका लगा रहे हैं।
पिट्सबर्ग, पेंसलवानिया के कारनेगी-मेलॉन विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक माइकेल एफ. रोइयर बताते हैं, ‘यह सत्य है कि आपकी योग्यता काम करती है, पर सफलता का सहज विश्वास भी आपकी सफलता-असफलता पर प्रभाव डालता है।’ कारण, आशावादी और निराशावादी समान चुनौतियों और विफलताओं का अलग-अलग ढंग से सामना करते हैं।

सकारात्मक सोच का परिणाम

उदाहरण के लिए अपनी नौकरी को ही ले लीजिए। पेंसल-वानिया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक ई.पी. सेलिगमैन और उनके सहयोगी पीटर शुलमैन ने मेट्रोपोलिटन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी के विक्रय-प्रतिनिधियों का सर्वेक्षण किया। उन्होंने पाया, पहले से काम कर रहे आशावान प्रतिनिधियों ने निराश सहयोगियों से 37 फीसदी अधिक बीमा किया। नए सकारात्मक प्रतिनिधियों ने भी 20 फीसदी अधिक कारोबार किया। इस अध्ययन से प्रभावित होकर कंपनी ने उन 100 लोगों की भी नियुक्ति कर ली, जो उद्योग की मानक परीक्षा में तो असफल हुए थे, लेकिन जिन्होंने सकारात्मक चिंतन में सर्वाधिक अंक पाए थे। इन अस्वीकृत कर्मचारियों ने भी कंपनी के औसत प्रतिनिधियों से 10 फीसदी का बीमा कर दिखाया।
ऐसा कैसे संभव हुआ ? सेलिगमैन के अनुसार आशावान व्यक्तियों की सफलता का श्रेय उनकी ‘कारण-कार्य शैली’ को है। हर भूल के लिए निराशावादी खुद को कोसता है। वह कहता है, ‘मैं इस काम के अयोग्य हूँ, इसलिए मैं सदैव विफल होता हूँ।’ पर आशावान प्रत्येक विफलता के कारण या बहाने बाहर ढूँढ़ता है। वह मौसम, टेलीफोन की गड़बड़ या किसी दूसरे आदमी तक को कोस बैठता है। वह सोचता है कि शायद ग्राहक का मूड ही खराब होगा। लेकिन सफलता का श्रेय वह अपने-आपको देता है, जबकि निराशावादी उसे संयोगमात्र मानता है।

आशावादिता से आती है सक्रियता

क्रेग एंडरसन के विचार में, ‘नैराश्य-वृत्ति से त्रस्त व्यक्ति सफलता पाने के गुण सीखने की चिंता छोड़ बैठते हैं। एंडरसन के अनुसार, ‘आत्मनियंत्रण ही सफलता का प्रांरभिक लक्षण है। आशावान अपने जीवन को नियंत्रित करता है। कहीं कुछ गड़बड़ होने पर वह तेजी से समाधान खोजने में सक्रिय होता है, कार्यविधि बदलता है और लोगों की राय लेने से भी नहीं हिचलती। निराशावादी भाग्य के हाथ का खिलौना बन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। उसे लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता, इसलिए वह किसी से राय भी नहीं लेता।
आशावान व्यक्ति स्थितियों के विषय में वास्तविकता से अधिक अच्छी तरह सोचते हैं और कई बार यही धारणा उन्हें जीवंत रखती हैं। पिट्सबर्ग कैंसर इंस्टीट्यूट, पेंसलवानिया की डॉ. सांड्रा लैवी ने स्तन-कैंसर की चरमावस्था से ग्रस्त महिलाओं का अध्ययन किया। आशान्वित महिलाओं में रोग-मुक्ति की अवधि अधिक थी। यही जीवित रहने का पूर्व-संकेत हैं। स्तन-कैंसर के प्रारंभिक लक्षणों से ग्रस्त महिलाओं के प्रायोगिक अध्ययन से डॉ. लैवी ने पाया कि निराश स्त्रियों को रोग दोबारा अधिक जल्दी जकड़ लेता है।

रोग-प्रतिरोधक शक्ति पर प्रभाव

सकारात्मक चिंतन असाध्य रोग को ठीक नहीं कर सकता, पर यह बीमारी को रोक अवश्य सकता है। दीर्घकालिक अध्ययन के क्रम में शोधकर्ताओं ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय, मैसाच्चुसेट्स के स्नातकों के स्वास्थ्य-संबंधी इतिहास का अध्ययन किया। जिन स्नातकों को शिक्षा और स्वास्थ्य में उच्च दर्जा प्राप्त था, उनमें से कुछ सकारात्मक प्रवृत्ति के थे, तो कुछ नकारात्मक। बीस साल बाद देखा गया कि नैराश्य की प्रवृत्तिवाले लोगों को आशावादियों के मुकाबले रक्तचाप, मधुमेह और हृदय-रोग ने अधिक पीड़ित किया।
अनेक अध्ययनों से यह सिद्ध होता है कि निराशावादियों की निरुपायता शरीर की प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली-रोगनिरोधी व्यवस्था-को दुर्बल कर देती है। मिशिंगन विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस्टोफर पीटरसन ने पाया कि इस प्रवृत्ति के व्यक्ति अपना खयाल भी ठीक से नहीं रखते। जीवन के झटकों को निष्क्रिय रहकर सहने से वे केवल रोगों और अन्य मुश्किलों की दुश्चिता में डूबे रखते हैं। वे खूब गरिष्ठ पर कम पौष्टिक, भोजन करते हैं, व्यायाम से दूर रहते हैं, डॉक्टरों की सलाह से अरुचि रखते हैं, पर इन सब तनावों को वे नशे में डुबोना चाहते हैं।

माँ की गोद में तय होती है विचार-शैली

अधिकतर व्यक्तियों में सकारात्मक और नकारात्मक प्रवृत्तियों का मिश्रण रहता है, पर उनका विशिष्ट झुकाव किसी एक की ओर ही होता है। सेलिगमैन का कहना है कि आदमी की विचार-शैली ‘माँ की गोद’ में ही तय होती है। हर समय के ‘यह मत करो’, ‘वह मत करो’ और हर चीज का भय दिखाने से बच्चे में अयोग्यता, भय और नैराश्य पनप जाता है।
नकारात्मकता एक ऐसी आदत है, जिसे दूर करना कठिन है, पर असंभव नहीं। अनेक महत्त्वपूर्ण अध्ययनों के क्रम में इलिनाय विश्वविद्यालय की डॉ. कैराल ड्वेक प्राइमरी कक्षाओं के छात्रों को उनकी असफलता का कारण ‘मैं मंदबुद्धि हूँ’ की जगह ‘मैंने पूरी लगन से पढ़ाई नहीं की’ कहलाने में मदद कर रही है, और इस सकारात्मक भावना के विकास से उन बच्चों की शैक्षिक प्रगति पर अच्छा प्रभाव भी पड़ रहा है।
उधर पिट्सबर्ग की डॉ. लैवी ने सोचा कि क्या मरीजों को आशावादी बनाने से उनती उम्र बढ़ाई जा सकती है ? एक प्रायोगिक अध्ययन में आँतों के कैंसर के रोगियों के दो समूहों का एक ही प्रकार से इलाज किया गया, पर एक वर्ग की आशावादिता बढ़ाने के लिए उसे मनोवैज्ञानिक मदद भी दी गई। परिणामों से पता चलता है कि इस उपाय का अच्छा असर हुआ। उससे प्रेरित होकर एक बड़े अध्ययन की योजना बनाई गई, जिससे यह सिद्ध हो सके कि इस मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का रोग की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव होता है।

खुद को एक मौका दीजिए

यदि आप निराश हैं तो घबराइए नहीं। जीवन में आशान्वित होने के पर्याप्त कारण हैं। आप अपने को बदल सकते हैं। प्रस्तुत हैं वांडरमिल्ट विश्वविद्यालय, नैशविल की स्टीच होलन के सुझाए कुछ सहज गुर:
1. कुछ बुरा होने पर अपने विचारों पर ध्यान दीजिए। दिमाग में जो बात सबसे पहले आती है, उसे जैसे का तैसा लिख लीजिए।
2. अब एक प्रयोग कीजिए। कुछ ऐसा कीजिए, जो नकारात्मक प्रतिक्रिया का उलट हो। मान लें कि काम में कुछ हड़बड़ हो गयी है, तो क्या आप सोचते हैं, ‘मैं अपनी नौकरी से नफरत करता हूँ, पर क्या इससे बढ़िया नौकरी मुझे मिल सकेगी ?’ ऐसा व्यवहार कीजिए, मानो ऐसी कोई बात न हो। नौकरी के लिए आवेदन कीजिए।
3. क्या हो रहा है, इस पर नजर रखिए। आपके पहले विचार सही थे या गलत ? हीलन के अनुसार, ‘अगर आपके विचार पीछे धकेलनेवाले हैं, तो उन्हें बदल डालिए। इसे कोशिश और कामयाबी के रूप में लीजिए। सफलता की पक्की गांरटी नहीं है, लेकिन खुद को एक मौका तो अवश्य दीजिए।’
सकारात्मक विचारधारा सकारात्मक क्रिया-प्रतिक्रिया की जननी है। यह प्रमाण-सिद्ध है कि इस दुनिया से आप जैसी आशा करते हैं, वैसा ही उसे पाते हैं।

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