नाटक-एकाँकी >> आधुनिक हिन्दी नाटक का अग्रदूत मोहन राकेश आधुनिक हिन्दी नाटक का अग्रदूत मोहन राकेशडॉ. गोविन्द चातक(डॉ. )
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प्रस्तुत है मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘यह कृति नाट्यसमालोचन के क्षेत्र में अपनी विशेषताओं के कारण एक
महत्वपूर्ण वरेण्य उपलब्धि कहीं जाएगी। अपनी बात कहने के लिए डॉ. गोविन्द
चाकत के पास सामर्थ वैचारिक क्षमता और सशसक्त भाषा है। उन्होंने नाटक की
बदलती हुई रूप रेखा को बड़े परिनिष्ठ रूप में और सूक्ष्मांकनों के साथ
प्रस्तुत किया है। इसलिए यह पुस्तक राकेश के नाट्य वैशिष्ट के अध्ययन के
लिए एक पूर्ण और आवश्य पुस्तक है। डॉ. चाकत की राकेश पर लिखी गई यह कृति
उनकी परिपक्य चिन्तन-पृवृत्ति और माँझी हुई भाषा शैली में रूपायित हुई
है।’ प्रकर से।
इस कृति की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इनमें मोहन राकेश के नाटकों की उपलब्धि और सम्भावनाओं पर विवाद विवेचन हुआ है।
हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं; किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नजर आता है। इसलिए ही की नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इस लिए की उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरे से बाहर निकाला और उसे युगों के रामानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहन से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया । वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु समकालीन भारतीय नाट्य-प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नही प्रदान किया वरन् उनके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया ।
इस कृति की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इनमें मोहन राकेश के नाटकों की उपलब्धि और सम्भावनाओं पर विवाद विवेचन हुआ है।
हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं; किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नजर आता है। इसलिए ही की नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इस लिए की उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरे से बाहर निकाला और उसे युगों के रामानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहन से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया । वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु समकालीन भारतीय नाट्य-प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नही प्रदान किया वरन् उनके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया ।
तीसरे संस्करण की भूमिका
पिछले संस्करणों का स्वागत हुआ। उसके लिए धन्यवाद। बहुत-से लोगों को मोहन
राकेश को आधुनिक हिन्दी नाटक का मसीहा करार देना अच्छा नहीं लगा। अच्छा तो
शायद मुझको भी नहीं लगता। पर अच्छा लगने न लगने से क्या होता है ? मैंने
पहले संस्करण की भूमिका में लिख दिया था कि राकेश का जीने और लिखने का
अपना एक अन्दाज़ था। दुश्मनों की बात जाने दीजिए, उनके दोस्तों ने उन्हें
अपने जीवन में ही एक मिथ बना डाला था। मेरा इरादा उन्हें मसीहा बनाने का
नहीं है मोहन राकेश ने पहली बार हिन्दी नाटक को आधुनिकता की नई दिशा दी
है। पर उनके कृतित्व पर समय के साथ फिर से मूल्यांकन की ज़रूरत है। पर
इतना निश्चित है कि उन्होंने हिन्दी में पहली बार मानव अस्तित्व के मूल
में स्थित प्रश्न उठाए हैं-एक नहीं, अनेक प्रश्न : नियति और स्थिति के
प्रश्न; सत्ता-मोह और सृजन का प्रश्न; पार्थिव और अपार्थिव का प्रश्न;
पुरुष मन की तृप्ति और नारी मन की आत्मरति का प्रश्न ! वह अपने नाटकों में
निरन्तर प्रश्नों से उलझते रहे-कहीं उत्तरों के साथ, कहीं बिलकुल
निरुत्तर। पर सब जगह एक जागरुक झेलनेवाले व्यक्ति की तरह, एक चिन्तक की
मुद्रा में। एक ऐसे ‘मसीहा’ की तरह जिसने युग के
प्रश्नों की चुनौती-भरी भंगिमा को महसूस किया और जो आधुनिक मानव की पीड़ा
और उलझन का प्रवक्ता बना। राकेश और उनकी कृतियों में भावना का सम्बन्ध
इतना सीधा और सच्चा है और अन्तर की आवाज़ इतनी तीखी और तल्ख़ है कि उनके
तेवर मसीहाई-से लगने लगते हैं।
तब भी मेरा यह आग्रह नहीं था कि कोई उन्हें मसीहा कहे। पर मुझे एक शब्द चाहिए था; एक ऐसे साहित्यकार के लिए जिसने आज के टूटे, थके-हारे, भटके इंसान की नियति को उजागर किया हो; जिसने आधे-अधूरों और ज़िन्दगी के अन्ध-लोकों में भटकते मानव की चाहों की विडम्बना को महसूस किया हो और भँवर में पड़े जीवन का अर्थ खोजने का प्रयास किया हो। राकेश की कृतियों में मुझे जो एक विशेष अकुलाहट दिखाई दी, उसमें हो सकता है ग़लत ही मैंने मसीहाईपन देखा हो। मेरी दृष्टि उनकी भंगिमा पर रही है। पर आलोचक के लिए कोई मसीहा नहीं होता। इसीलिए आपको ‘मसीहा’ का कृतित्व सूली पर टँगा भी दिखाई देगा। सवाल असल में मेरे सामने फूल-मालाएँ चढ़ाने का नहीं रहा है। फूल-मालाएँ लोग चढ़ा चुके हैं। मैंने तो उनके नीचे दबे रचनाकार को उबारने की कोशिश मात्र की है।
कोई रचना या रचनाकार क्या है, यह बताना सरल कार्य नहीं है-यह एक प्रकार से रचना से जूझना है। इस संस्करण तक आते-आते मैं अब भी अपने को राकेश से जूझता पाता हूँ। सत्य की तलाश में सभी वक़्तव्यों से बड़ी कही जा सकती है। इस संस्करण को प्रेस में देने तक भी यह तलाश ज़ारी रही है। इसलिए मुझे आपसे यही कहना है कि मैं समीक्षा नहीं दे रहा हूँ, आपको मात्र देखने-समझने की दृष्टि देना चाहता हूँ। सोचने-समझने के कई पहलू हो सकते हैं। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मेरा अपना पहलू निवेदित है।
इस संस्करण में जहाँ-कहीं मुझे कुछ नया सूझा, कुछ बातें यहाँ-वहाँ जोड़ी गई हैं। ‘मसीहा’ के स्थान पर पुस्तक के नाम में ‘अग्रदूत’ शब्द रख दिया है। पैर तले की ज़मीन पर इसमें केवल चर्चा भर है। लिखना चाहता था, पर मन नहीं किया। सच्चाई यह है कि यह अधूरा नाटक पाठक-आलोचक को बेहद निराश करता है। एक और बात यह भी है कि सब-कुछ को लेकर सभी कुछ लिख देना मैं अनिवार्य भी नहीं समझता। राकेश पर लिखनेवाले और भी हैं। मैंने वे ही बातें लिखी हैं जो मेरी परिधि में आती हैं, क्योंकि अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखना मुझे पसन्द नहीं। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। कृतज्ञता की बात चली है तो एक कर्त्तव्य और निभा दूँ। मैं उन सबका कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के सम्बन्ध में मुझे अपने विचारों से अवगत कराया। इस दृष्टि से मैं डॉ. इन्द्रनाथ मदान का विशेष आभार मानता हूँ। पुस्तक के छपते ही उन्होंने एक पत्र लिखा था, ‘‘अगर मेरा इरादा लिखने का कायम रहा तो तुम्हारी पुस्तक मेरे लिए काम की होगी-खंडन और मंडन दोनों के लिए। बहरहाल तुमने काम जमकर किया है।’’ वे मोहन राकेश को एक उपलब्धि नहीं सम्भावना मानते हैं। मेरी यह पुस्तक उपलब्धि और सम्भावना दोनों की तलाश है।
तब भी मेरा यह आग्रह नहीं था कि कोई उन्हें मसीहा कहे। पर मुझे एक शब्द चाहिए था; एक ऐसे साहित्यकार के लिए जिसने आज के टूटे, थके-हारे, भटके इंसान की नियति को उजागर किया हो; जिसने आधे-अधूरों और ज़िन्दगी के अन्ध-लोकों में भटकते मानव की चाहों की विडम्बना को महसूस किया हो और भँवर में पड़े जीवन का अर्थ खोजने का प्रयास किया हो। राकेश की कृतियों में मुझे जो एक विशेष अकुलाहट दिखाई दी, उसमें हो सकता है ग़लत ही मैंने मसीहाईपन देखा हो। मेरी दृष्टि उनकी भंगिमा पर रही है। पर आलोचक के लिए कोई मसीहा नहीं होता। इसीलिए आपको ‘मसीहा’ का कृतित्व सूली पर टँगा भी दिखाई देगा। सवाल असल में मेरे सामने फूल-मालाएँ चढ़ाने का नहीं रहा है। फूल-मालाएँ लोग चढ़ा चुके हैं। मैंने तो उनके नीचे दबे रचनाकार को उबारने की कोशिश मात्र की है।
कोई रचना या रचनाकार क्या है, यह बताना सरल कार्य नहीं है-यह एक प्रकार से रचना से जूझना है। इस संस्करण तक आते-आते मैं अब भी अपने को राकेश से जूझता पाता हूँ। सत्य की तलाश में सभी वक़्तव्यों से बड़ी कही जा सकती है। इस संस्करण को प्रेस में देने तक भी यह तलाश ज़ारी रही है। इसलिए मुझे आपसे यही कहना है कि मैं समीक्षा नहीं दे रहा हूँ, आपको मात्र देखने-समझने की दृष्टि देना चाहता हूँ। सोचने-समझने के कई पहलू हो सकते हैं। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मेरा अपना पहलू निवेदित है।
इस संस्करण में जहाँ-कहीं मुझे कुछ नया सूझा, कुछ बातें यहाँ-वहाँ जोड़ी गई हैं। ‘मसीहा’ के स्थान पर पुस्तक के नाम में ‘अग्रदूत’ शब्द रख दिया है। पैर तले की ज़मीन पर इसमें केवल चर्चा भर है। लिखना चाहता था, पर मन नहीं किया। सच्चाई यह है कि यह अधूरा नाटक पाठक-आलोचक को बेहद निराश करता है। एक और बात यह भी है कि सब-कुछ को लेकर सभी कुछ लिख देना मैं अनिवार्य भी नहीं समझता। राकेश पर लिखनेवाले और भी हैं। मैंने वे ही बातें लिखी हैं जो मेरी परिधि में आती हैं, क्योंकि अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखना मुझे पसन्द नहीं। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। कृतज्ञता की बात चली है तो एक कर्त्तव्य और निभा दूँ। मैं उन सबका कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के सम्बन्ध में मुझे अपने विचारों से अवगत कराया। इस दृष्टि से मैं डॉ. इन्द्रनाथ मदान का विशेष आभार मानता हूँ। पुस्तक के छपते ही उन्होंने एक पत्र लिखा था, ‘‘अगर मेरा इरादा लिखने का कायम रहा तो तुम्हारी पुस्तक मेरे लिए काम की होगी-खंडन और मंडन दोनों के लिए। बहरहाल तुमने काम जमकर किया है।’’ वे मोहन राकेश को एक उपलब्धि नहीं सम्भावना मानते हैं। मेरी यह पुस्तक उपलब्धि और सम्भावना दोनों की तलाश है।
10 वाणी विहार, उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059
नई दिल्ली-110059
-गोविन्द
चातक
एक यात्रा: पद-चिह्नों के आर-पार
हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई
नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं
जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय
किए हैं; किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है।
इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने
हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी
ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुतः
मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे
अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक
हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान
किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य
धारा की ओर भी अग्रसर किया।
‘विश्व नाटक’ शब्द का प्रयोग यहाँ जान-बूझकर किया गया है। दरअसल, जब हम आधुनिक नाटक की बात करते हैं तो नायक न किसी भाषा का रह जाता है, न देश का। सारे आस्पदों और उपाधियों से मुक्त वह सिर्फ़ नाटक है सार्वजनीन और सार्वदेशिक; अभिन्न और अविभाजित। इस अभेद के मूल में आज के युग की बढ़ती हुई अन्तराष्ट्रीयता है जो अब निरन्तर कलाओं का आधार बनती जा रही है। इसीलिए अनेक कलात्मक प्रवृत्तियाँ और चिन्तन धाराएँ निरन्तर आदान-प्रदान के माध्यम से एक विश्वजनीन रूप धारण करती जा रही हैं। आज का नाटक विश्व-भर में इसी आधार पर विकसित हो रहा है।
हिन्दी नाटक भारतेन्दु युग में पहली बार अपनी लक्ष्मण-रेखा से बाहर निकला। उसके बाद पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों और स्वच्छन्दतावादी आग्रह के कारण पौर्वात्य और पाश्चात्य नाट्य शिल्प में समन्वय की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। किन्तु कालान्तर में जिस विश्वजनीन साहित्य-दौर ने हिन्दी नाटक को विश्व नाटक की समकालीन परिस्थितियों से सबसे अधिक जुड़ा पाया, वह था-यथार्थवाद। और फिर उसके बाद यथार्थवाद की प्रतिक्रिया में विश्व-भर में नाटक के जो विविध रूप उभरे और जो-जो तेवर बदले, हिन्दी नाटक ने उन भंगिमाओं को ग्रहण करने में देर ज़रूर लगाई, किन्तु वह उससे सर्वथा अनजान नहीं रहा। इस दिशा में भी, कालक्रम से कई नाटककार आगे आए-उन आगे आनेवालों में अब तक सबसे आख़िरी नाम मोहन-राकेश का कहा जा सकता है जिन्हें नए नाटक की पहल करने का श्रेय प्राप्त है।
राकेश ने हिन्दी नायक को एक नई ज़मीन पर खड़ा किया। सोचने की बात इतनी है कि यह ज़मीन कहाँ तक उन्होंने स्वयं तोड़कर बनाई थी, और कहाँ तक उन्हें बनी-बनाई मिल गई थी ? वैसे हर प्रयोगधर्मा लेखक को अपनी पूर्ववर्ती परम्परा और चिन्तन का एक दाय अपने-आप ही हाथ लग जाता है जिस पर वह अपने लेखन को टिकाता है; और फिर उस बिन्दु से वह आगे बढ़ता है। राकेश के लिए वह बिन्दु था-हिन्दी नाटक का एक विश्वजनीन चेतना की ओर अग्रसर होता विकास-क्रम। इसमें लक्ष्मीनारायण मिश्र, जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती आदि पहले ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके थे। राकेश ने इस धारा को एक नया मोड़ ही नहीं दिया, वरन् उन्होंने विश्व के समकालीन नाट्य लेखन के समानान्तर ऐसी नाट्य रचना भी की जो आधुनिक भाव-बोध के नए आयाम प्रस्तुत करती है।
आधुनिक भाव-बोध पश्चिम में उन्नीसवीं शती के मध्य से बड़ी तीव्रता से जागा और देखते-ही-देखते चारों ओर फैल गया जिससे अनेक कला-आन्दोलन और चिन्तन प्रस्फुटित हुए। फलतः यथार्थवाद, प्रकृतवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, एपिक थिएटर अतियथार्थवाद, असंगतवाद आदि अनेक मतवादों ने समय-समय पर नाट्य लेखन और मंचन की अन्यान्य प्रयोगधर्मितोओं और विविधताओं को जन्म दिया। इनके कारण नाटक की क्षेत्रीय और देशीय सीमाएँ टूँटीं और विश्व-भर में वे सामान्तर प्रवृत्तियाँ उभरीं, जिनमें नाटक की समस्त देशीयता के बावजूद उसकी एक सामान्य पृष्ठभूमि सामने आई। वस्तुतः समान जीवनानुभूतियों और मानवीय स्थितियों के बीच नाटक ने एक ऐसा सामान्य स्वरूप ग्रहण किया जिसने सारे पाश्चात्य जगत् को आकर्षित किया और कालान्तर में जिसका प्रभाव भारत पर भी पड़े बिना न रहा।
पारस्परिक निर्भरता और एकता का यह माहौल जिन साहित्यिक और कला-आन्दोलनों के माध्यम से बना था उसके पीछे सामाजिक परिवर्तन और वैज्ञानिक चिन्तन का विशेष हाथ रहा है। उन्नीसवीं शती ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक परिवर्तन और वैचारिक क्रान्ति की शती रही है। डार्विन, फ्रायड और मार्क्स के सिद्धान्तों के प्रसार के साथ नए वैचारिक वातावरण का निर्माण हुआ; ईश्वर के सम्बन्ध में विचार बदले; आस्थाएँ समाप्त हुईं तथा मानव की नियति और सहज प्रवृत्तियों के घेरे में उसकी दुर्बलताओं-विशेषताओं की चर्चा आम हुई। यही नहीं, मध्यम वर्ग के उदय के साथ समानता का भाव जागा और औद्योगिक क्रान्ति के साथ पुरातन जीवन-पद्धति का खाका ही नहीं बदला, बल्कि नई समस्याएँ भी उभरीं। इस प्रकार, अस्तित्व की जागरूकता को लेकर आधुनिक नाटक की जो शुरूआत हुई उसमें इब्सेन (1828-1906) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इब्सेन ने अपने नाटकों में नए प्रश्न उठाए और अपने सारे कृतित्व को प्राचीन नाटक की रुढ़ियों के अस्वीकार में प्रतिफलित किया। उसकी महानता इस बात में है कि उसने नाटक को स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों के बीच से उठाकर यथार्थ के धरातल पर खड़ा किया और अन्ततः उसे यथार्थ जीवन और जगत् से, उसके त्रासद अनुभवों तथा जीवन्त समस्याओं से संयुक्त किया। उसने अपने नाटकों को कई अर्थमयी भंगिमाएँ दीं और पात्रों, नाट्य-स्थितियों और संवादों के बीच से बहु-आयामी संकेत उभारने के प्रयास किए। इसीलिए उसके नाटक कई स्तरों पर भावना, क्रिया-व्यापार और बौद्धिक ऊहापोह के सामंजस्य को ही नहीं वरन् पक्षधरता के आग्रह के साथ-साथ काव्यमयी दृष्टि के सौन्दर्य को भी उजागर करते हैं। उसकी नाट्य-प्रतिभा ने विश्व-भर के नाटककारों को प्रभावित किया जिससे वह नाटककारों का एक पूरा खेमा तैयार करने में सफल हुआ।
आगे चलकर इब्सेन की यथार्थवादी नाट्यकला का अनेक देशों में बहुमुखी विकास हुआ। नाटककारों ने उसे वाद नहीं, धर्म की तरह अपनाया। किन्तु यथार्थ को नया आयाम देने में बर्नार्ड शॉ और चेख़व का कोई मुक़ाबला नहीं। बर्नार्ड शॉ (1856-1950) ने नाटक को गहरी पैठ और बौद्धिक सजगता प्रदान की और सच्चे अर्थों में उसे सामाजिक आलोचना का शस्त्र बनाया। रंगमंच की पूरी जानकारी के बावजूद नाटक को साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय शॉ को ही है सच्चाई यह है कि कवित्वपूर्ण भावना और बौद्धिक सूझबूझ, विदूषक वृत्ति और चिन्तक की वाक्-पटुता का जैसा अद्भुत सामंजस्य उसके नाटकों में मिलता है, वैसा कहीं और नहीं। दूसरी और चेख़व (1860-1904) ने यथार्थ की कारुणिक अभिव्यक्ति की। उसने जीवन को उस मानवीय बिन्दु से देखा जहाँ से सहानुभूति की किरन नज़र आती है। किन्तु उसने किसी एक का एकांगी समर्थन नहीं किया-न सत् का, न असत् का। सर्वत्र एक प्रकार की तटस्थता और सन्तुलित भावना रखी, जो व्यक्ति के भीतर अस्तित्व के दोनों छोरों को खोजती है। उसने यथार्थ और स्वप्न का ऐसा ताना-बाना जिसमें एक का रंग दूसरे को फीका नहीं करता। उसके नाटकों में हास्य और करुणा के रंग घुले-मिले हैं जो एक विलक्षण भावनात्मक वातावरण की सृष्टि करते हैं। अपने समय से वह बहुत आगे था। देर से स्वीकृत हुआ; किन्तु बाद में कई नाटककारों का अगुआ बनकर रहा जिनमें ऐलमर राइस (1889-1967), यीट्स (1865-1939), सिंज (1871-1909), ओ’ नील (1888-1953), इलियट (1888-1965) आदि का नाम किसी-न-किसी रूप में लिया जा सकता है। उन्नीसवीं शती के तीसरे दशक तक यथार्थ और स्वप्न के संघर्ष से उपजी चेख़व की जीवन-दृष्टि नाटककारों के बीच लोकप्रिय रही जिसने इतालवी नाटककार पिरांडेलो (1867-1936) के लिए उर्वर भूमि तैयार की।
हिन्दी में भी युगीन परिस्थियों के गर्भ से एक प्रकार की यथार्थवादी चेतना पनपी जिसके दर्शन भारतेन्दु युग में ही होने लगते हैं; किन्तु छायावाद के उदय के साथ उसकी सारी तीव्रता मिट-सी गई। प्रसाद तक इब्सेन का नाम पहुँचा तो सही, पर ‘इब्सेन का भूत’ उन्हें त्रस्त किए रहा। एक समय ऐसा ज़रूर आया जब उसी के प्रभाव में ध्रुवस्वामिनी लिखी गई। फिर भी प्रसाद न सही, कुछ लोग थे जिन्होंने आगे बढ़कर धारा के अनुकूल चलने का सजग प्रयत्न किया। भुवनेश्वर, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उदयशंकर भट्ट, अश्क, गोविन्ददास आदि ने यथार्थवादी नाटक लिखे। खेद इतना ही है कि इब्सेन और शॉ की परम्परा से जो यथार्थ उन्होंने ग्रहण किया उसे उसका बाहरी स्वरूप मात्र कहा जा सकता है। समस्या-नायकों के नाम पर लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम ख़ूब उछला। पर आग्रही आदमी की पैठ कृतित्व को विचारणा दे सकती है, कला नहीं। लक्ष्मीनारायण मिश्र के साथ ऐसा ही हुआ। इनमें ‘अश्क’ एकमात्र ऐसा नाटककार रहा जिसने रंगमंच के जीवन्त मुहावरे के बीच से अपने कृतित्व को उभारा; किन्तु कुल मिलाकर हिन्दी में यथार्थवाद पैनी दृष्टि और गहरी अनुभूति को लेकर नहीं आया। उसने हिन्दी को समर्थ नाटककार नहीं दिया-इब्सेन और चेख़व को तो जाने दीजिए-यूरोप के दूसरी श्रेणी के नाटककार जैसा भी नहीं। फिर यह मानना होगा कि हिन्दी का यथार्थवादी नाट्य लेखन एक तरह से व्यर्थ नहीं गया। जगदीशचन्द्र माथुर ने स्वातंत्र्योत्तर नाट्य साहित्य को वह आधार-बिन्दु प्रदान किया जिसकी परम्परा और प्रतिक्रिया को लेकर आधुनिक हिन्दी नाटक के विकास में मोड़ आए।
यह नई दिशा हिन्दी को जैसे-तैसे मिल गई-कुछ लोगों की ग्राहिका वृत्ति या प्रतिभा, या फिर प्रयोग की चाह के कारण; किन्तु पश्चिम का नाट्य लेखन एक लम्बे अर्से तक यथार्थ के बाहरी खोल से बड़ी मुस्तैदी से जूझता रहा। यथार्थ का वास्तविक स्वरूप क्या है ? यह प्रश्न इब्सेन के परवर्ती नाटककारों को बहुत समय तक उलझाता रहा। यथार्थवाद के आगे स्वयं यथार्थ का प्रश्न उठ खड़ा हुआ ! इब्सेन ने यथार्थवादी दृष्टि दी, चेख़व ने स्वप्न और यथार्थ के बीच आन्तरिक यथार्थ की काव्यमयी व्यंजना की; किन्तु परवर्ती नाटककारों ने तो दुविधाओं और शंकाओं की श्रृंखला खड़ी कर यथार्थ की सत्ता के सामने ही प्रश्न-चिह्न का संकट खड़ा कर दिया। इसका फल यह हुआ कि स्वयं यथार्थवाद के भीतर ही शंका और चुनौती का स्वर मुखर हो उठा। इसकी पहली-पहली अनुगूँज पिरांडेलो (1867-1936) तथा स्ट्रिंडबर्ग (1849-1912) के नायकों में उभरी और फिर उन्नीसवीं शती के उदय के साथ प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, अतिप्रकृतवाद आदि विचार-आन्दोलन उठ खड़े हुए जो सब यथार्थवाद के ख़िलाफ एकजुट हो उठे।
इन सबकी तीव्र प्रतिक्रिया थी कि जिसे ‘यथार्थ’ कहा जाता रहा है वह मिथ्या भ्रम मात्र है। महत्तर यथार्थ इस सबसे कहीं बहुत आगे है। फलतः स्थूल और आध्यात्मिक यथार्थ, बाह्म जगत् और अन्तर्जगत के यथार्थ की सही पहचान करने के लिए जो विभिन्न वाद उठ खड़े हुए, उन्होंने अपने-अपने ढंग से निजी यथार्थ की खोज की और उस तलाश में व्यक्ति और उसकी आन्तरिकता को तरजीह दी-आन्तरिकता को इसलिए भी क्योंकि इन्होंने सत्य की सत्ता को वैयक्तिक माना। फलतः सतही जीवन के मिथ्याभास की अपेक्षा आन्तरिक जीवन की गहरी वास्तविकता और जीवन के ऊपरी ढाँचे की अपेक्षा उसकी अन्तर्निहित चेतना नाटकीय कृतित्व की आधार शिला बनी। इस प्रकार यथार्थ के सही स्वरूप की तलाश ने नाटककार को सजग किया। यहाँ तक कि वे नाटककार भी-जैसे पिरांडेलो, स्ट्रिंडबर्ग, ब्रेख़्त आदि-जो पहले यथार्थवादी थे, अब यथार्थ के नए क्षेत्रों को तलाशने में लग गए। यह सब अचानक और अयाचित रूप में नहीं हुआ। वस्तुतः डेकार्ड, लॉक, कान्ट, शॉपेनहावर, नीत्शे आदि चिन्तक यथार्थ के प्रति नई जिज्ञासा पहले ही जगा चुके थे। नाटक के क्षेत्र में इसकी जो प्रतिक्रिया हुई, उससे रचना में स्वानुभूति, आन्तरिकता और इन्द्रिय संवेद्य ज्ञान का महत्त्व बढ़ा; नाटककार को तो जैसे एक सूत्र मिल गया : ‘जो है, मैं उसे नहीं देखता। अगर कुछ है तो वही, जो मुझे दिखाई देता है !’
इस आत्मपरक दृष्टि के उन्मेष के साथ फ्रांस में 1880 के आसपास प्रतीकवाद (जिसे नव्य स्वच्छन्दतावाद भी कहा जाता है) का आविर्भाव हुआ जो बहुत जल्दी ही 1900 ई. तक लुप्तप्राप्य भी हो गया। मूलतः यह काव्य का आन्दोलन था; किन्तु कालान्तर में इसने नाटक को भी समान रूप से आत्मसात् कर लिया। फलतः नाट्य रचनाओं में भी तर्क और बुद्धि के स्थान पर इन्द्रिय बोध और अन्तर्बोध को उच्चतम सत्य की अवधारणा का साधन बनाया गया और जीवन की अन्तरतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए भावना और कल्पना को वहन करनेवाले प्रतीकों का प्रयोग सर्वसामान्य हुआ। इससे रचना की समाग्रता, काव्यमयी अनुभूति और भाषा की सर्जनात्मकता को बल मिला। कवि अथवा कवि-स्वभाववाले नाटककार ही प्रायः प्रतीकवादी नाट्य लेखन की ओर अधिक प्रवृत्त हुए जिनमें मॉरिस मेटरलिंक (1862-1949), रोस्ताँ (1868-1918), हॉ़फमैन्स्थल (1873-1928), हाउप्टमान (1862-1946), क्लॉडेल (1868-1955), यीट्स (1865-1939), आस्द्रेयव (1871-1919), ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900), लोर्का (1899-1936) आदि उल्लेखनीय हैं। यद्यपि प्रतीकवाद के कुछ तत्त्व आज भी कई नाटककारों के बीच लोकप्रिय हैं, किन्तु रहस्यात्मकता, भावुकता तथा वैचारिक एकसूत्रता के अभाव में यह आन्दोलन बहुत स्थायी नहीं रहा।
लगभग इसी काल में नाटककारों का एक दूसरा वर्ग अभिव्यक्तिवाद के प्रभाव में नाट्य रचना में संलग्न था। प्रतीकवाद का उद्गगम फ्रांस था, अभिव्यक्तिवाद जर्मनी की देन कहा जा सकता है। 1900 के आसपास जर्मनी में अभिव्यक्तिवाद का बिल्ला उन रचनाओं पर लगाया जाने लगा था जो वैन्गॉफ की कलाकृतियों का अनुसरण करती थीं। 1910 से लेकर 1920 तक तथा अभिव्यक्तिवादी नाट्य रचना को अनेक प्रतिभाशाली नाटककारों का प्रबल सहयोग मिला। इसमें पिरांडेलो को एकदम अभिव्यक्तिवादी कहने में संकोच हो सकता है; किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि यथार्थवादी प्रवृत्तियों का नाटककार होने के बावजूद वह क्रोचे का समर्थक था और यथार्थ के आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों के सम्बन्ध में उसकी मान्यताओं का अनुसरण करते हुए ही उसने अपनी नाट्य कृतियों में आन्तरिक यथार्थ को परिभाषित किया। उसने यथार्थ को वस्तु में नहीं, विचार में खोजने का प्रयास किया और इस प्रकार व्यक्तिपरक और अभिव्यक्तिवादी नाट्य लेखन के लिए आवश्यक भूमिका तैयार की। पिरांडेलो की भाँति ही हाउप्टमान, बेडेकाइंड, स्ट्रिंडबर्ग, कैसर आदि का दाय भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। अभिव्यक्तिवादी नाट्य लेखन को फ्रांस में कोई सहयोग नहीं मिला, किन्तु पूर्वी यूरोप में कारेल चैपक, कॅरोल रोस्तोवोरस्की, सीन ओ’ केसी जैसी अनेक प्रतिभाएँ इस दिशा में कार्यरत रहीं।
इनमें सबसे अधिक गतिशील व्यक्तित्व स्ट्रिंडबर्ग का रहा। प्रारम्भ में वह जोला को आदर्श मानकर चला था। वह इब्सेन से घृणा करता था, पर लेखन में उसकी जागरूक दृष्टि का हामी था। अपने प्रारम्भिक काल में इसीलिए उसने पर्याप्त यथार्थवादी नाटक लिखे; किन्तु जीवन की वैयक्तिक अनुभूतियों की आकुलता ने उसे आत्मपरक नाटक लिखने की ओर प्रवृत्त किया। उसने सारे जगत् में अपने को केन्द्र में रखकर देखा। फलतः यथार्थ के प्रति उसकी दृष्टि सदा आत्मपरक रही और यही आत्मपरकता उसे कालान्तर में अवचेतन के लोक में ले गई जहाँ से उसके स्वप्न नाटकों की अवतारणा हुई है। इन नाटकों की अवधारणा के सम्बन्ध में उसने स्वयं ही कहा है: कुछ भी हो सकता है, सब-कुछ सम्भव है। दिक् और काल का कोई अस्तित्व नहीं। यथार्थ की महत्त्वहीन पृष्ठभूमि पर कल्पना स्मृतियों, निर्बंध मानसिक उड़ानों एवं कामचलाऊ संवादों के सहारे अपना तन्तु बुनती है। चरित्र खंडित हैं और बहुरंगी, जो कभी भाप बनकर हवा में उड़ जाते हैं, कभी ठोस, हो जाते हैं; कभी इकट्ठे हो जाते हैं, कभी बिखर जाते हैं। किन्तु सबको एक ही चेतना के सूत्र में बाँधकर रखती है और वह है स्वप्नदर्शी की चेतना।’1 जैसे-जैसे वह मानव-नियति से परिचित होता गया, उसकी बाह्य जगत को नकारने की प्रवृत्ति भी उसी मात्रा में बढ़ती गई और धीरे-धीरे जीवन को एक मृग-मरीचिका, एक स्वप्न-भंग, एक उल्टी लटकी तस्वीर समझने का आग्रह ही उसकी सर्जन शक्ति का परिचायक बन गया। उसने इतने अधिक प्रभाव स्वीकार किए, इतनी अधिक दिशाओं में प्रयोग किए कि उसे सबसे अधिक बेचैन, अस्थिर और प्रयोगवादी नाटककार कहा जा सकता है। उसका कृतित्व आस्था और अनास्था के समग्र आयामों को छूता है जिसके अन्तर्गत प्रत्यक्षवाद, निरीश्वरवाद, आधिभौतिकवाद, समाजवाद- सभी कुछ आ जाते हैं। यही नहीं स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को उसने एक नई दृष्टि से देखा और परखा। मानवीय त्रासदी को एक नए धरातल पर उजागर करने का श्रेय भी उसी को है। रचनाओं के पीछे सक्रिय आत्मपरक तत्त्व, भोगे हुए यथार्थ, यथार्थ, के बीच महत्तर यथार्थ की खोज और अन्ततः उसकी अभिव्यक्ति में उसके अपने आत्मिक ओज ने उसके नाटकीय व्यक्तित्व को अद्भुत गरिमा प्रदान की थी। इसका ही परिणाम था कि बाद के यथार्थवादी, अभिव्यक्तिवादी, अतिप्रकृतवादी, दादावादी, ऐब्सर्डवादी नाटककारों ने उससे प्रेरणा के सूत्र निकाले और आगे चलकर वह लेखन की नई प्रवृत्तियों का मसीहा बना।
‘विश्व नाटक’ शब्द का प्रयोग यहाँ जान-बूझकर किया गया है। दरअसल, जब हम आधुनिक नाटक की बात करते हैं तो नायक न किसी भाषा का रह जाता है, न देश का। सारे आस्पदों और उपाधियों से मुक्त वह सिर्फ़ नाटक है सार्वजनीन और सार्वदेशिक; अभिन्न और अविभाजित। इस अभेद के मूल में आज के युग की बढ़ती हुई अन्तराष्ट्रीयता है जो अब निरन्तर कलाओं का आधार बनती जा रही है। इसीलिए अनेक कलात्मक प्रवृत्तियाँ और चिन्तन धाराएँ निरन्तर आदान-प्रदान के माध्यम से एक विश्वजनीन रूप धारण करती जा रही हैं। आज का नाटक विश्व-भर में इसी आधार पर विकसित हो रहा है।
हिन्दी नाटक भारतेन्दु युग में पहली बार अपनी लक्ष्मण-रेखा से बाहर निकला। उसके बाद पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों और स्वच्छन्दतावादी आग्रह के कारण पौर्वात्य और पाश्चात्य नाट्य शिल्प में समन्वय की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। किन्तु कालान्तर में जिस विश्वजनीन साहित्य-दौर ने हिन्दी नाटक को विश्व नाटक की समकालीन परिस्थितियों से सबसे अधिक जुड़ा पाया, वह था-यथार्थवाद। और फिर उसके बाद यथार्थवाद की प्रतिक्रिया में विश्व-भर में नाटक के जो विविध रूप उभरे और जो-जो तेवर बदले, हिन्दी नाटक ने उन भंगिमाओं को ग्रहण करने में देर ज़रूर लगाई, किन्तु वह उससे सर्वथा अनजान नहीं रहा। इस दिशा में भी, कालक्रम से कई नाटककार आगे आए-उन आगे आनेवालों में अब तक सबसे आख़िरी नाम मोहन-राकेश का कहा जा सकता है जिन्हें नए नाटक की पहल करने का श्रेय प्राप्त है।
राकेश ने हिन्दी नायक को एक नई ज़मीन पर खड़ा किया। सोचने की बात इतनी है कि यह ज़मीन कहाँ तक उन्होंने स्वयं तोड़कर बनाई थी, और कहाँ तक उन्हें बनी-बनाई मिल गई थी ? वैसे हर प्रयोगधर्मा लेखक को अपनी पूर्ववर्ती परम्परा और चिन्तन का एक दाय अपने-आप ही हाथ लग जाता है जिस पर वह अपने लेखन को टिकाता है; और फिर उस बिन्दु से वह आगे बढ़ता है। राकेश के लिए वह बिन्दु था-हिन्दी नाटक का एक विश्वजनीन चेतना की ओर अग्रसर होता विकास-क्रम। इसमें लक्ष्मीनारायण मिश्र, जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती आदि पहले ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके थे। राकेश ने इस धारा को एक नया मोड़ ही नहीं दिया, वरन् उन्होंने विश्व के समकालीन नाट्य लेखन के समानान्तर ऐसी नाट्य रचना भी की जो आधुनिक भाव-बोध के नए आयाम प्रस्तुत करती है।
आधुनिक भाव-बोध पश्चिम में उन्नीसवीं शती के मध्य से बड़ी तीव्रता से जागा और देखते-ही-देखते चारों ओर फैल गया जिससे अनेक कला-आन्दोलन और चिन्तन प्रस्फुटित हुए। फलतः यथार्थवाद, प्रकृतवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, एपिक थिएटर अतियथार्थवाद, असंगतवाद आदि अनेक मतवादों ने समय-समय पर नाट्य लेखन और मंचन की अन्यान्य प्रयोगधर्मितोओं और विविधताओं को जन्म दिया। इनके कारण नाटक की क्षेत्रीय और देशीय सीमाएँ टूँटीं और विश्व-भर में वे सामान्तर प्रवृत्तियाँ उभरीं, जिनमें नाटक की समस्त देशीयता के बावजूद उसकी एक सामान्य पृष्ठभूमि सामने आई। वस्तुतः समान जीवनानुभूतियों और मानवीय स्थितियों के बीच नाटक ने एक ऐसा सामान्य स्वरूप ग्रहण किया जिसने सारे पाश्चात्य जगत् को आकर्षित किया और कालान्तर में जिसका प्रभाव भारत पर भी पड़े बिना न रहा।
पारस्परिक निर्भरता और एकता का यह माहौल जिन साहित्यिक और कला-आन्दोलनों के माध्यम से बना था उसके पीछे सामाजिक परिवर्तन और वैज्ञानिक चिन्तन का विशेष हाथ रहा है। उन्नीसवीं शती ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक परिवर्तन और वैचारिक क्रान्ति की शती रही है। डार्विन, फ्रायड और मार्क्स के सिद्धान्तों के प्रसार के साथ नए वैचारिक वातावरण का निर्माण हुआ; ईश्वर के सम्बन्ध में विचार बदले; आस्थाएँ समाप्त हुईं तथा मानव की नियति और सहज प्रवृत्तियों के घेरे में उसकी दुर्बलताओं-विशेषताओं की चर्चा आम हुई। यही नहीं, मध्यम वर्ग के उदय के साथ समानता का भाव जागा और औद्योगिक क्रान्ति के साथ पुरातन जीवन-पद्धति का खाका ही नहीं बदला, बल्कि नई समस्याएँ भी उभरीं। इस प्रकार, अस्तित्व की जागरूकता को लेकर आधुनिक नाटक की जो शुरूआत हुई उसमें इब्सेन (1828-1906) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इब्सेन ने अपने नाटकों में नए प्रश्न उठाए और अपने सारे कृतित्व को प्राचीन नाटक की रुढ़ियों के अस्वीकार में प्रतिफलित किया। उसकी महानता इस बात में है कि उसने नाटक को स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों के बीच से उठाकर यथार्थ के धरातल पर खड़ा किया और अन्ततः उसे यथार्थ जीवन और जगत् से, उसके त्रासद अनुभवों तथा जीवन्त समस्याओं से संयुक्त किया। उसने अपने नाटकों को कई अर्थमयी भंगिमाएँ दीं और पात्रों, नाट्य-स्थितियों और संवादों के बीच से बहु-आयामी संकेत उभारने के प्रयास किए। इसीलिए उसके नाटक कई स्तरों पर भावना, क्रिया-व्यापार और बौद्धिक ऊहापोह के सामंजस्य को ही नहीं वरन् पक्षधरता के आग्रह के साथ-साथ काव्यमयी दृष्टि के सौन्दर्य को भी उजागर करते हैं। उसकी नाट्य-प्रतिभा ने विश्व-भर के नाटककारों को प्रभावित किया जिससे वह नाटककारों का एक पूरा खेमा तैयार करने में सफल हुआ।
आगे चलकर इब्सेन की यथार्थवादी नाट्यकला का अनेक देशों में बहुमुखी विकास हुआ। नाटककारों ने उसे वाद नहीं, धर्म की तरह अपनाया। किन्तु यथार्थ को नया आयाम देने में बर्नार्ड शॉ और चेख़व का कोई मुक़ाबला नहीं। बर्नार्ड शॉ (1856-1950) ने नाटक को गहरी पैठ और बौद्धिक सजगता प्रदान की और सच्चे अर्थों में उसे सामाजिक आलोचना का शस्त्र बनाया। रंगमंच की पूरी जानकारी के बावजूद नाटक को साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय शॉ को ही है सच्चाई यह है कि कवित्वपूर्ण भावना और बौद्धिक सूझबूझ, विदूषक वृत्ति और चिन्तक की वाक्-पटुता का जैसा अद्भुत सामंजस्य उसके नाटकों में मिलता है, वैसा कहीं और नहीं। दूसरी और चेख़व (1860-1904) ने यथार्थ की कारुणिक अभिव्यक्ति की। उसने जीवन को उस मानवीय बिन्दु से देखा जहाँ से सहानुभूति की किरन नज़र आती है। किन्तु उसने किसी एक का एकांगी समर्थन नहीं किया-न सत् का, न असत् का। सर्वत्र एक प्रकार की तटस्थता और सन्तुलित भावना रखी, जो व्यक्ति के भीतर अस्तित्व के दोनों छोरों को खोजती है। उसने यथार्थ और स्वप्न का ऐसा ताना-बाना जिसमें एक का रंग दूसरे को फीका नहीं करता। उसके नाटकों में हास्य और करुणा के रंग घुले-मिले हैं जो एक विलक्षण भावनात्मक वातावरण की सृष्टि करते हैं। अपने समय से वह बहुत आगे था। देर से स्वीकृत हुआ; किन्तु बाद में कई नाटककारों का अगुआ बनकर रहा जिनमें ऐलमर राइस (1889-1967), यीट्स (1865-1939), सिंज (1871-1909), ओ’ नील (1888-1953), इलियट (1888-1965) आदि का नाम किसी-न-किसी रूप में लिया जा सकता है। उन्नीसवीं शती के तीसरे दशक तक यथार्थ और स्वप्न के संघर्ष से उपजी चेख़व की जीवन-दृष्टि नाटककारों के बीच लोकप्रिय रही जिसने इतालवी नाटककार पिरांडेलो (1867-1936) के लिए उर्वर भूमि तैयार की।
हिन्दी में भी युगीन परिस्थियों के गर्भ से एक प्रकार की यथार्थवादी चेतना पनपी जिसके दर्शन भारतेन्दु युग में ही होने लगते हैं; किन्तु छायावाद के उदय के साथ उसकी सारी तीव्रता मिट-सी गई। प्रसाद तक इब्सेन का नाम पहुँचा तो सही, पर ‘इब्सेन का भूत’ उन्हें त्रस्त किए रहा। एक समय ऐसा ज़रूर आया जब उसी के प्रभाव में ध्रुवस्वामिनी लिखी गई। फिर भी प्रसाद न सही, कुछ लोग थे जिन्होंने आगे बढ़कर धारा के अनुकूल चलने का सजग प्रयत्न किया। भुवनेश्वर, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उदयशंकर भट्ट, अश्क, गोविन्ददास आदि ने यथार्थवादी नाटक लिखे। खेद इतना ही है कि इब्सेन और शॉ की परम्परा से जो यथार्थ उन्होंने ग्रहण किया उसे उसका बाहरी स्वरूप मात्र कहा जा सकता है। समस्या-नायकों के नाम पर लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम ख़ूब उछला। पर आग्रही आदमी की पैठ कृतित्व को विचारणा दे सकती है, कला नहीं। लक्ष्मीनारायण मिश्र के साथ ऐसा ही हुआ। इनमें ‘अश्क’ एकमात्र ऐसा नाटककार रहा जिसने रंगमंच के जीवन्त मुहावरे के बीच से अपने कृतित्व को उभारा; किन्तु कुल मिलाकर हिन्दी में यथार्थवाद पैनी दृष्टि और गहरी अनुभूति को लेकर नहीं आया। उसने हिन्दी को समर्थ नाटककार नहीं दिया-इब्सेन और चेख़व को तो जाने दीजिए-यूरोप के दूसरी श्रेणी के नाटककार जैसा भी नहीं। फिर यह मानना होगा कि हिन्दी का यथार्थवादी नाट्य लेखन एक तरह से व्यर्थ नहीं गया। जगदीशचन्द्र माथुर ने स्वातंत्र्योत्तर नाट्य साहित्य को वह आधार-बिन्दु प्रदान किया जिसकी परम्परा और प्रतिक्रिया को लेकर आधुनिक हिन्दी नाटक के विकास में मोड़ आए।
यह नई दिशा हिन्दी को जैसे-तैसे मिल गई-कुछ लोगों की ग्राहिका वृत्ति या प्रतिभा, या फिर प्रयोग की चाह के कारण; किन्तु पश्चिम का नाट्य लेखन एक लम्बे अर्से तक यथार्थ के बाहरी खोल से बड़ी मुस्तैदी से जूझता रहा। यथार्थ का वास्तविक स्वरूप क्या है ? यह प्रश्न इब्सेन के परवर्ती नाटककारों को बहुत समय तक उलझाता रहा। यथार्थवाद के आगे स्वयं यथार्थ का प्रश्न उठ खड़ा हुआ ! इब्सेन ने यथार्थवादी दृष्टि दी, चेख़व ने स्वप्न और यथार्थ के बीच आन्तरिक यथार्थ की काव्यमयी व्यंजना की; किन्तु परवर्ती नाटककारों ने तो दुविधाओं और शंकाओं की श्रृंखला खड़ी कर यथार्थ की सत्ता के सामने ही प्रश्न-चिह्न का संकट खड़ा कर दिया। इसका फल यह हुआ कि स्वयं यथार्थवाद के भीतर ही शंका और चुनौती का स्वर मुखर हो उठा। इसकी पहली-पहली अनुगूँज पिरांडेलो (1867-1936) तथा स्ट्रिंडबर्ग (1849-1912) के नायकों में उभरी और फिर उन्नीसवीं शती के उदय के साथ प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, अतिप्रकृतवाद आदि विचार-आन्दोलन उठ खड़े हुए जो सब यथार्थवाद के ख़िलाफ एकजुट हो उठे।
इन सबकी तीव्र प्रतिक्रिया थी कि जिसे ‘यथार्थ’ कहा जाता रहा है वह मिथ्या भ्रम मात्र है। महत्तर यथार्थ इस सबसे कहीं बहुत आगे है। फलतः स्थूल और आध्यात्मिक यथार्थ, बाह्म जगत् और अन्तर्जगत के यथार्थ की सही पहचान करने के लिए जो विभिन्न वाद उठ खड़े हुए, उन्होंने अपने-अपने ढंग से निजी यथार्थ की खोज की और उस तलाश में व्यक्ति और उसकी आन्तरिकता को तरजीह दी-आन्तरिकता को इसलिए भी क्योंकि इन्होंने सत्य की सत्ता को वैयक्तिक माना। फलतः सतही जीवन के मिथ्याभास की अपेक्षा आन्तरिक जीवन की गहरी वास्तविकता और जीवन के ऊपरी ढाँचे की अपेक्षा उसकी अन्तर्निहित चेतना नाटकीय कृतित्व की आधार शिला बनी। इस प्रकार यथार्थ के सही स्वरूप की तलाश ने नाटककार को सजग किया। यहाँ तक कि वे नाटककार भी-जैसे पिरांडेलो, स्ट्रिंडबर्ग, ब्रेख़्त आदि-जो पहले यथार्थवादी थे, अब यथार्थ के नए क्षेत्रों को तलाशने में लग गए। यह सब अचानक और अयाचित रूप में नहीं हुआ। वस्तुतः डेकार्ड, लॉक, कान्ट, शॉपेनहावर, नीत्शे आदि चिन्तक यथार्थ के प्रति नई जिज्ञासा पहले ही जगा चुके थे। नाटक के क्षेत्र में इसकी जो प्रतिक्रिया हुई, उससे रचना में स्वानुभूति, आन्तरिकता और इन्द्रिय संवेद्य ज्ञान का महत्त्व बढ़ा; नाटककार को तो जैसे एक सूत्र मिल गया : ‘जो है, मैं उसे नहीं देखता। अगर कुछ है तो वही, जो मुझे दिखाई देता है !’
इस आत्मपरक दृष्टि के उन्मेष के साथ फ्रांस में 1880 के आसपास प्रतीकवाद (जिसे नव्य स्वच्छन्दतावाद भी कहा जाता है) का आविर्भाव हुआ जो बहुत जल्दी ही 1900 ई. तक लुप्तप्राप्य भी हो गया। मूलतः यह काव्य का आन्दोलन था; किन्तु कालान्तर में इसने नाटक को भी समान रूप से आत्मसात् कर लिया। फलतः नाट्य रचनाओं में भी तर्क और बुद्धि के स्थान पर इन्द्रिय बोध और अन्तर्बोध को उच्चतम सत्य की अवधारणा का साधन बनाया गया और जीवन की अन्तरतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए भावना और कल्पना को वहन करनेवाले प्रतीकों का प्रयोग सर्वसामान्य हुआ। इससे रचना की समाग्रता, काव्यमयी अनुभूति और भाषा की सर्जनात्मकता को बल मिला। कवि अथवा कवि-स्वभाववाले नाटककार ही प्रायः प्रतीकवादी नाट्य लेखन की ओर अधिक प्रवृत्त हुए जिनमें मॉरिस मेटरलिंक (1862-1949), रोस्ताँ (1868-1918), हॉ़फमैन्स्थल (1873-1928), हाउप्टमान (1862-1946), क्लॉडेल (1868-1955), यीट्स (1865-1939), आस्द्रेयव (1871-1919), ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900), लोर्का (1899-1936) आदि उल्लेखनीय हैं। यद्यपि प्रतीकवाद के कुछ तत्त्व आज भी कई नाटककारों के बीच लोकप्रिय हैं, किन्तु रहस्यात्मकता, भावुकता तथा वैचारिक एकसूत्रता के अभाव में यह आन्दोलन बहुत स्थायी नहीं रहा।
लगभग इसी काल में नाटककारों का एक दूसरा वर्ग अभिव्यक्तिवाद के प्रभाव में नाट्य रचना में संलग्न था। प्रतीकवाद का उद्गगम फ्रांस था, अभिव्यक्तिवाद जर्मनी की देन कहा जा सकता है। 1900 के आसपास जर्मनी में अभिव्यक्तिवाद का बिल्ला उन रचनाओं पर लगाया जाने लगा था जो वैन्गॉफ की कलाकृतियों का अनुसरण करती थीं। 1910 से लेकर 1920 तक तथा अभिव्यक्तिवादी नाट्य रचना को अनेक प्रतिभाशाली नाटककारों का प्रबल सहयोग मिला। इसमें पिरांडेलो को एकदम अभिव्यक्तिवादी कहने में संकोच हो सकता है; किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि यथार्थवादी प्रवृत्तियों का नाटककार होने के बावजूद वह क्रोचे का समर्थक था और यथार्थ के आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों के सम्बन्ध में उसकी मान्यताओं का अनुसरण करते हुए ही उसने अपनी नाट्य कृतियों में आन्तरिक यथार्थ को परिभाषित किया। उसने यथार्थ को वस्तु में नहीं, विचार में खोजने का प्रयास किया और इस प्रकार व्यक्तिपरक और अभिव्यक्तिवादी नाट्य लेखन के लिए आवश्यक भूमिका तैयार की। पिरांडेलो की भाँति ही हाउप्टमान, बेडेकाइंड, स्ट्रिंडबर्ग, कैसर आदि का दाय भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। अभिव्यक्तिवादी नाट्य लेखन को फ्रांस में कोई सहयोग नहीं मिला, किन्तु पूर्वी यूरोप में कारेल चैपक, कॅरोल रोस्तोवोरस्की, सीन ओ’ केसी जैसी अनेक प्रतिभाएँ इस दिशा में कार्यरत रहीं।
इनमें सबसे अधिक गतिशील व्यक्तित्व स्ट्रिंडबर्ग का रहा। प्रारम्भ में वह जोला को आदर्श मानकर चला था। वह इब्सेन से घृणा करता था, पर लेखन में उसकी जागरूक दृष्टि का हामी था। अपने प्रारम्भिक काल में इसीलिए उसने पर्याप्त यथार्थवादी नाटक लिखे; किन्तु जीवन की वैयक्तिक अनुभूतियों की आकुलता ने उसे आत्मपरक नाटक लिखने की ओर प्रवृत्त किया। उसने सारे जगत् में अपने को केन्द्र में रखकर देखा। फलतः यथार्थ के प्रति उसकी दृष्टि सदा आत्मपरक रही और यही आत्मपरकता उसे कालान्तर में अवचेतन के लोक में ले गई जहाँ से उसके स्वप्न नाटकों की अवतारणा हुई है। इन नाटकों की अवधारणा के सम्बन्ध में उसने स्वयं ही कहा है: कुछ भी हो सकता है, सब-कुछ सम्भव है। दिक् और काल का कोई अस्तित्व नहीं। यथार्थ की महत्त्वहीन पृष्ठभूमि पर कल्पना स्मृतियों, निर्बंध मानसिक उड़ानों एवं कामचलाऊ संवादों के सहारे अपना तन्तु बुनती है। चरित्र खंडित हैं और बहुरंगी, जो कभी भाप बनकर हवा में उड़ जाते हैं, कभी ठोस, हो जाते हैं; कभी इकट्ठे हो जाते हैं, कभी बिखर जाते हैं। किन्तु सबको एक ही चेतना के सूत्र में बाँधकर रखती है और वह है स्वप्नदर्शी की चेतना।’1 जैसे-जैसे वह मानव-नियति से परिचित होता गया, उसकी बाह्य जगत को नकारने की प्रवृत्ति भी उसी मात्रा में बढ़ती गई और धीरे-धीरे जीवन को एक मृग-मरीचिका, एक स्वप्न-भंग, एक उल्टी लटकी तस्वीर समझने का आग्रह ही उसकी सर्जन शक्ति का परिचायक बन गया। उसने इतने अधिक प्रभाव स्वीकार किए, इतनी अधिक दिशाओं में प्रयोग किए कि उसे सबसे अधिक बेचैन, अस्थिर और प्रयोगवादी नाटककार कहा जा सकता है। उसका कृतित्व आस्था और अनास्था के समग्र आयामों को छूता है जिसके अन्तर्गत प्रत्यक्षवाद, निरीश्वरवाद, आधिभौतिकवाद, समाजवाद- सभी कुछ आ जाते हैं। यही नहीं स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को उसने एक नई दृष्टि से देखा और परखा। मानवीय त्रासदी को एक नए धरातल पर उजागर करने का श्रेय भी उसी को है। रचनाओं के पीछे सक्रिय आत्मपरक तत्त्व, भोगे हुए यथार्थ, यथार्थ, के बीच महत्तर यथार्थ की खोज और अन्ततः उसकी अभिव्यक्ति में उसके अपने आत्मिक ओज ने उसके नाटकीय व्यक्तित्व को अद्भुत गरिमा प्रदान की थी। इसका ही परिणाम था कि बाद के यथार्थवादी, अभिव्यक्तिवादी, अतिप्रकृतवादी, दादावादी, ऐब्सर्डवादी नाटककारों ने उससे प्रेरणा के सूत्र निकाले और आगे चलकर वह लेखन की नई प्रवृत्तियों का मसीहा बना।
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