पौराणिक >> महामुनि अगस्त्य महामुनि अगस्त्यरामनाथ नीखरा
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इस पौराणिक सिद्धान्त को आधार बनाकर तर्कसंगत नया आख्यान गुणों को रचा गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘वृत्तेन भवति आर्येण विद्यया न कुलेन च’ के
सिद्धान्तानुसार ऋषित्व व महानता कुल तथा विद्या पर नहीं, कर्म एवं आचरण
की श्रेष्ठता पर निर्भर करती है; अतः यह प्रश्न नहीं उठता कि किसने किसमें
जन्म ग्रहण किया, यह प्रश्न आता है कि गुण और कर्म की श्रेष्ठता किसमें कम
और किसमें अधिक हैं।’’
इस पौराणिक सिद्धान्त को आधार बनाकर तर्क संगत नया आख्यान रचा है हिन्दी के जाने-माने विद्वान रामनाथ नीखरा ने अपनी इस पुस्तक महामुनि अगस्त्य में !
महामुनि अगस्त्य समाज, राष्ट्र व संसार से पूर्ण उदासीन निरे वैरागी नहीं थे, वह मंत्र-स्रष्टा तो थे ही, क्रान्ति-द्रष्टा भी थे। वह सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक गरिमा के संवाहक ही नहीं थे; राष्ट्रीय आस्मिता, एकता व अखंडता के संरक्षक भी थे, और थे राष्ट्रहिताय आयोज्य कर्म-यज्ञ के सच्चे अर्थ में प्रणेता, होता व पुरोधा। किंतु पुराणकर्ताओं ने उनकी इस महात्ता का रहस्यात्मक ढंग से प्रस्तुत कर अनुद्घाटित ही रहने दिया है। प्रस्तुत उपन्यास महामुनि अगस्त्य उनकी इसी महानता को उद्घाटित करने का तर्कसंगत, सार्थक एवं प्रामाणिक प्रयास है।
इस पौराणिक सिद्धान्त को आधार बनाकर तर्क संगत नया आख्यान रचा है हिन्दी के जाने-माने विद्वान रामनाथ नीखरा ने अपनी इस पुस्तक महामुनि अगस्त्य में !
महामुनि अगस्त्य समाज, राष्ट्र व संसार से पूर्ण उदासीन निरे वैरागी नहीं थे, वह मंत्र-स्रष्टा तो थे ही, क्रान्ति-द्रष्टा भी थे। वह सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक गरिमा के संवाहक ही नहीं थे; राष्ट्रीय आस्मिता, एकता व अखंडता के संरक्षक भी थे, और थे राष्ट्रहिताय आयोज्य कर्म-यज्ञ के सच्चे अर्थ में प्रणेता, होता व पुरोधा। किंतु पुराणकर्ताओं ने उनकी इस महात्ता का रहस्यात्मक ढंग से प्रस्तुत कर अनुद्घाटित ही रहने दिया है। प्रस्तुत उपन्यास महामुनि अगस्त्य उनकी इसी महानता को उद्घाटित करने का तर्कसंगत, सार्थक एवं प्रामाणिक प्रयास है।
आमुख
अगस्त्य का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में देखने को मिलता है। इस ग्रंथ में
उन्हें ऋग्वेद मंडल प्रथम, अध्याय तृतीय व चतुर्थ, वर्ग 23 एवं 1 से 16,
अनुवाक 22, 23 व 24, सूक्त क्रमांक 165 से 178 तथा 181 से 191 में संकालित
ऋचाओं या मंत्रों का द्रष्टा कहा गया है। इसके अतिरिक्त इसी वेद के मण्डल
प्रथम, अध्याय चतुर्थ, वर्ग 22, अनुवाक 23 सूक्त क्रमांक 179 व 180 में
समाहित ऋचाओं के ऋषि या कवि के रूप में लोपामुद्रा एवं अगस्त्य का नाम
संयुक्त रूप से पढ़ने को मिलता है। और ....
और सामवेद के पंचम व द्वादश अध्याय में भी यहाँ-वहाँ उनका उल्लेख हुआ है, परंतु एकाकी ही, लोपामुद्रा के साथ संयुक्त रूप में नहीं।
उसके पश्चात् आदि काव्य वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड के द्वादश त्रयोदश सर्ग तथा उत्तरकाण्ड के चौंतीसवे एवं पैंतीसवें सर्ग में अगस्त्य तथा राम की भेंटवार्ता और दिव्यास्त्र प्रदान करने की गाथा पढ़ने को मिलती है फिर तो प्रत्येक पुराण में यत्किंचित् रूप में ही क्यों न हो अगस्त्य से सम्बन्धित किसी वृत्त या घटना का उल्लेख देखने को मिल ही जाता है। इतिहास तथा काव्य में भी अगस्त्य का आख्यान यहाँ-वहाँ उपल्ब्ध होता है, परंतु अत्यंत संक्षेप में, और जो भी उपलब्ध होता है, उसकी प्रस्तुति भी तो मिथक रहस्य के रूप में पढ़ने को उपलब्ध होती है अथवा किसी उपदेशात्मक घटना के रूप में।
श्री कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी का ‘लोपामुद्रा’ उपन्यास तथा ‘विश्वामित्र’ नाटक अवश्यमेव ऐसे ग्रंथ हैं, जिनमें अगस्त्य के संबंध में कुछ नवीन तथ्यों का विविरण दिया गया है। ठीक इसी प्रकार नरेन्द्र कोहलीकृत ‘संघर्ष की ओर’ उपन्यास में राम एवं अगस्त्य के मध्य जो भेंट वार्ता हुई थी, उसमें भी उनके चरित्र पर कुछ नवीन प्रकाश पड़ता है। तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में जो वृत्त उपलब्ध है, उसका आधार पौराणिक आख्यान ही है।
यह भी स्मरणीय है कि ‘लोपामुद्रा’ ‘विश्वामित्र’, ‘संघर्ष की ओर’ बाल्मीकी रामायण तथा रामचरितमानस के वर्ण्य विषय क्रमशः लोपामुद्रा’ विश्वामित्र तथा राम हैं अतः इन ग्रंथों में अगस्त्य की प्रासंगिक चर्चा भर है। इन ग्रंथों में से किसी में भी अगस्त्य के व्यक्तित्व व कृतित्व को क्रमबद्ध, विशद तथा समग्र रूप में प्रस्तुत किये जाने का प्रयास दृष्टिगत नहीं होता।
किंतु अगस्त्य आख्यान की क्रमबद्ध विशद तथा समग्रताः प्रस्तुति का एक स्थान पर प्रयास न किए जाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि अगस्त्य का चरित्र नितांत उपेक्षणीय या अनुल्लेखनीय है, क्यों ? क्योंकि राष्ट्रीय अस्मिता तथा सामाजिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक गरिमा की रक्षा के लिए जो प्रयास आगे चलकर व्यापक स्तर पर राम ने किए थे, उनका शुभारंभ तो अगस्त्य ने किया ही था, उन्हें इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी प्राप्त हुई थी।
यही नहीं, अगस्त्य पहले आर्य ऋषि थे, जिन्होंने आत्म-कल्याण की तुलना में लोक-कल्याण की महत्ता प्रतिपादित की, राष्ट्रीय एकता व अखंडता की दिशा में कुछ ठोस पग उठाए, शम्बर इल्बल, बिल्बल तथा कालकेयों का वध कर राष्ट्र को निरापद बनाने का स्तुत्य प्रयास किया। यह भी कहा जा सकता है कि अगस्त्य पहले आर्य थे, जिन्होंने विंध्य को लाँघकर दक्षिण में प्रवेश किया वैदिक संस्कृति को व्यापक आयाम देने का सबल एवं सफल प्रयास किया।
कुछ विद्वान इस घटना का यह अर्थ ग्रहण करते हैं कि अगस्त्य पहले आर्य थे, जिन्होंने विंध्य की दुर्लंघ्य पर्वतश्रेणियों को लाँघकर दक्षिण में प्रवेश किया। उनके मतानुसार अगस्त्य के पूर्व दक्षिण भारत में आर्य थे ही नहीं, परंतु ऐसा मानना उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि ऐसा मानने पर यह स्वीकार करना होगा कि अगस्त्य के दक्षिण भारत में आने के पूर्व यहाँ जो जातियाँ रहती थीं वे सभी अनार्य मूल की थीं, और उन दिनों वहाँ वैदिक कर्मकांड होते ही नहीं, उन दिनों वहाँ न गुरुकुल थे और न ऋषि–आश्रम ही।
परंतु पुराणों में उपलब्ध अंतर्साक्ष्य तथा तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश पर विचार करने पर इसकी पुष्टि नहीं होती। कहा जाता है कि वृत्रासुर के अत्याचार से पीड़ित आर्यों व देवों की रक्षार्थ इंद्र ने इसी क्षेत्र में निवसित दधीचि आर्य ऋषि की अस्थियाँ लेकर वज्र बनाया था तथा इसी वज्र से वृत्रासुर से युद्ध कर उसका वध किया था, और फिर वृत्रासुर के सजातीय कालकेयों द्वारा प्रपीड़ित आर्य ऋषियों की रक्षा उनका वध कर स्वतः अगस्त्य ऋषि ने की थी। यदि एक क्षण के लिए हम सबको अपनी दृष्टि से ओझल कर दे तो भी यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि वहां आर्य थे ही नहीं। यदि नहीं थे, तो अत्याचार किन पर होता था ? असुर जातियाँ किसके यज्ञ का ध्वंस करती थीं ? ‘निशिचर निकर सकल मुनि खाए, तुलसी की यह अर्धाली दृष्टि में रखकर लिखी गई थी ? निष्कर्षतः इन समस्त प्रश्नों का उत्तर यही है कि अगस्त्य के यहां पहुँचने के पूर्व आर्य ही नहीं, आर्य ऋषि भी वहाँ रहते थे।
फिर प्रश्न यह आता है कि यदि ऐसा था तो अगस्त्य के संबंध में ऐसा क्यों कहा जाता है ? ऐसा लगता है कि तत्कालीन दक्षिण भारत में जो वन्य जातियाँ रहती थीं वे तो आर्य प्रजाति से ही संबंधित, परंतु असंस्कारित थीं वे असुर जातियों के प्राबल्य तथा वन्य जातियों के औदास्यभाव के कारण प्रयास नहीं कर पा रहे थे। करते भी कैसे ? वे तो अपनी अस्तित्व-रक्षा के संघर्ष में ही बुरी तरह उलझे हुए थे, और उसमें भी सफलता-प्राप्ति की स्थिति में नहीं थे।
दूसरी ओर उनकी इस दुर्दशा को देखकर उत्तर भारतीय आर्य चिंचित व दुखित तो थे ही अपने आप को असहाय भी अनुभव कर रहे थे। अतः उत्तर भारतीय आर्यों को दुर्दुशाग्रस्त होने से बचाने के लिए उन्होंने यह प्रचारित कर रखा था कि विंध्य हिमालय की उच्चता से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। अतः दक्षिण में जाना अशक्य तथा असंभव है।
किंतु अगस्त्य ने लोगों द्वारा प्रसारित इस भ्रांत धारणा का खंडन करते हुए दक्षिण ही नहीं साहसिक पग तथा वहाँ जाकर तद्देशीय आर्यों को सुरक्षित ही नहीं किया सुसंस्कारित करने का भी उल्लेखनीय कार्य किया। अतः लोगों ने उस समय तक मित्रावरुणी, महामुनि, और्वश्य तथा कुंभज आदि नामों से अभिहित साहसिक ऋषि को ‘अगं पर्वतं’ स्तम्भयति इति अगस्त्यः’ के सिद्धांतानुसार अगस्त्य नाम से पुकारना आरंभ कर दिया और आगे आने वाली पीढ़ियों ने तो उन्हें चिर स्मृत बनाये रखने के अभिप्राय से एक तारे को ही अगस्त्य संज्ञा से संबोधित करना प्रारंभ कर दिया, जो आज भी प्रचालित है, और वर्तमान पीढ़ी को उस ऋषि के महत्त्व का स्मरण दिलाता है।
प्रसंगवशात् यहाँ यह लिखना अनुचित न होगा कि वेद, पुराण, इतिहास व काव्य में सीमित परिणाम में भले ही अगस्त्य का उल्लेख हुआ तो, परंतु अगस्त्य के असीमित महत्त्व को प्रतिपादित करने की दृष्टि से ही अपना यह प्रयास रहा है निश्चायात्मक वर्णन के रूप में अत्प्रत्यंक्षतः उदाहरण के लिए दक्षिणापथ जाते समय विंध्य का उन्हें साष्टांग कर आदेश देने की प्रार्थना करना, अगस्त्य का उनके परावर्त होने तक इसी प्रकार दंडवत् पड़े रहने को कहना तथा तीन चुल्लुओं में समुद्र की अगाध जलराशि को भरकर उसका पान कर कालकेयों के विनाश का पथ प्रशस्त करना ऐसी घटनाएँ हैं जो अपने-आप में रहस्य छिपाए हुए हैं और इनकी प्रस्तुति पुराणकारों ने लोगों को चमत्कृत करने के अभिप्राय से ही की है, ऐसा लगता है। परंतु अगस्त्य का व्यक्तित्व एवं कृतित्व इन घटनाओं में ही सिमटकर नहीं रह गया, उनके चरित्र में और भी बहुत कुछ है, जिसे स्फुट रूप में पुराणकारों तथा कवियों ने यहाँ-वहाँ प्रस्तुत किया।
हाँ, तो प्रतिपाद्य बात यह है कि अगस्त्य प्रचलित अर्थ में ऋषि या बाबा नहीं थे, वह सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय महापुरुष थे, वह मंत्रस्ष्टा तो थे ही, क्रांतिद्रष्टा भी थे। सचाई तो यह है कि वह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक गरिमा के प्रतीक थे। और स्पष्ट करना चाहें, तो कह सकते हैं कि आगे चलकर भगवान् राम ने राष्ट्रहिताय जिस कर्म-यज्ञ का संपादन किया उसकी परिसमाप्ति अथवा पूर्णाहुति भले ही राम ने की हो, परंतु उसका शुभारंभ तथा एक सीमा तक उसका सम्यक् क्रियान्वय अगस्त्य ने ही किया था। किंतु यह सब होने पर भी उनके चरित्र पर आज पर्यंत कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया जो न केवल उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध पक्षों का उद्घाटन करता हो, वरंच उनके द्वारा संपादित कार्यों का सम्यकरीत्या विश्लेषित कर उनके महत्त्व को प्रतिपादित करता हो। कहना न होगा कि ‘महामुनि अगस्त्य’ शीर्षक यह उपन्यास इसी अभाव की पूर्ति का प्रयास है। अब जहाँ तक इस उपन्यास में वर्णित पात्र, स्थान, घटनादि का संभव है, उनमें से अधिकांशतः अगस्त्य के वृत्य को युक्तियुक्त तथा क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर कुछ पात्र, स्थान आदि की कल्पना करने के लोभ का संवरण मैं नहीं कर सका संक्षेप में पौराणिक आख्यान को यथासंभव यथातथ्य तथा वास्तविक रूप में प्रस्तुत करते हुए भी कहीं-कहीं लेखनीय स्वतंत्रता का उपयोग मैंने किया है, परंतु उतना ही जितने से तथ्यों का रूप विकृत न हो और संप्रेष्य की प्रभविष्णुता प्रभावित न हो। आशा है, सुधीजन एतदर्थ मुझे क्षमा करेंगे।
एक बार और लिख दूँ यह उपन्यास पौराणिक है, अतः इससे संबंधित प्रसंग व घटनाक्रम की यथातथ्य जानकारी प्राप्त करने के लिए मुझे वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी कृत ‘लोपामुद्र’ उपन्यास व ‘विश्वामित्र’ नाटक तथा नरेन्द्र कोहली कृत ‘संघर्ष की ओर’ उपन्यास का अध्ययन-मनन करने को बाध्य होना पड़ा है। अतः स्वाभाविक ही है कि इन सबसे मैंने कुछ-न-कुछ ग्रहण किया हो, और जब ऐसा है, तो इन सबके रचयिताओं के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करना मेरा अपना कर्तव्य ही नहीं घर्म भी है, अतः मैं इन सबके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हुआ, उन सबसे इस, धृष्टता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
और क्या ? मैं यह लिखते हुए हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ कि इस उपन्यास- लेखन के माध्यम से मैं अपने अग्रज पूज्य श्री मोतीलाल नीखरा के किसी पैराणिक कथानक को उपन्यास की वर्णय विषयवस्तु बनाने विषयक निर्देश को कार्य रूप में परिणित करने में सफल हो सका हूँ। वस्तुतः यदि उन्होंने मुझे ऐसा निर्देश न दिया होता तो संभव ही नहीं सुनिश्चित भी है कि मेरे इस उपन्यास की विषयवस्तु भी पूर्व लिखित उपन्यासों की भाँति सामाजिक या ऐतिहासिक ही होती। पौराणिक कदापि नहीं। अस्तु यदि इस उपन्यास के सृजन का श्रेय किसी को है तो उन्हें और मात्र उन्हें ही है। किंतु ......
और सामवेद के पंचम व द्वादश अध्याय में भी यहाँ-वहाँ उनका उल्लेख हुआ है, परंतु एकाकी ही, लोपामुद्रा के साथ संयुक्त रूप में नहीं।
उसके पश्चात् आदि काव्य वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड के द्वादश त्रयोदश सर्ग तथा उत्तरकाण्ड के चौंतीसवे एवं पैंतीसवें सर्ग में अगस्त्य तथा राम की भेंटवार्ता और दिव्यास्त्र प्रदान करने की गाथा पढ़ने को मिलती है फिर तो प्रत्येक पुराण में यत्किंचित् रूप में ही क्यों न हो अगस्त्य से सम्बन्धित किसी वृत्त या घटना का उल्लेख देखने को मिल ही जाता है। इतिहास तथा काव्य में भी अगस्त्य का आख्यान यहाँ-वहाँ उपल्ब्ध होता है, परंतु अत्यंत संक्षेप में, और जो भी उपलब्ध होता है, उसकी प्रस्तुति भी तो मिथक रहस्य के रूप में पढ़ने को उपलब्ध होती है अथवा किसी उपदेशात्मक घटना के रूप में।
श्री कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी का ‘लोपामुद्रा’ उपन्यास तथा ‘विश्वामित्र’ नाटक अवश्यमेव ऐसे ग्रंथ हैं, जिनमें अगस्त्य के संबंध में कुछ नवीन तथ्यों का विविरण दिया गया है। ठीक इसी प्रकार नरेन्द्र कोहलीकृत ‘संघर्ष की ओर’ उपन्यास में राम एवं अगस्त्य के मध्य जो भेंट वार्ता हुई थी, उसमें भी उनके चरित्र पर कुछ नवीन प्रकाश पड़ता है। तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में जो वृत्त उपलब्ध है, उसका आधार पौराणिक आख्यान ही है।
यह भी स्मरणीय है कि ‘लोपामुद्रा’ ‘विश्वामित्र’, ‘संघर्ष की ओर’ बाल्मीकी रामायण तथा रामचरितमानस के वर्ण्य विषय क्रमशः लोपामुद्रा’ विश्वामित्र तथा राम हैं अतः इन ग्रंथों में अगस्त्य की प्रासंगिक चर्चा भर है। इन ग्रंथों में से किसी में भी अगस्त्य के व्यक्तित्व व कृतित्व को क्रमबद्ध, विशद तथा समग्र रूप में प्रस्तुत किये जाने का प्रयास दृष्टिगत नहीं होता।
किंतु अगस्त्य आख्यान की क्रमबद्ध विशद तथा समग्रताः प्रस्तुति का एक स्थान पर प्रयास न किए जाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि अगस्त्य का चरित्र नितांत उपेक्षणीय या अनुल्लेखनीय है, क्यों ? क्योंकि राष्ट्रीय अस्मिता तथा सामाजिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक गरिमा की रक्षा के लिए जो प्रयास आगे चलकर व्यापक स्तर पर राम ने किए थे, उनका शुभारंभ तो अगस्त्य ने किया ही था, उन्हें इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी प्राप्त हुई थी।
यही नहीं, अगस्त्य पहले आर्य ऋषि थे, जिन्होंने आत्म-कल्याण की तुलना में लोक-कल्याण की महत्ता प्रतिपादित की, राष्ट्रीय एकता व अखंडता की दिशा में कुछ ठोस पग उठाए, शम्बर इल्बल, बिल्बल तथा कालकेयों का वध कर राष्ट्र को निरापद बनाने का स्तुत्य प्रयास किया। यह भी कहा जा सकता है कि अगस्त्य पहले आर्य थे, जिन्होंने विंध्य को लाँघकर दक्षिण में प्रवेश किया वैदिक संस्कृति को व्यापक आयाम देने का सबल एवं सफल प्रयास किया।
कुछ विद्वान इस घटना का यह अर्थ ग्रहण करते हैं कि अगस्त्य पहले आर्य थे, जिन्होंने विंध्य की दुर्लंघ्य पर्वतश्रेणियों को लाँघकर दक्षिण में प्रवेश किया। उनके मतानुसार अगस्त्य के पूर्व दक्षिण भारत में आर्य थे ही नहीं, परंतु ऐसा मानना उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि ऐसा मानने पर यह स्वीकार करना होगा कि अगस्त्य के दक्षिण भारत में आने के पूर्व यहाँ जो जातियाँ रहती थीं वे सभी अनार्य मूल की थीं, और उन दिनों वहाँ वैदिक कर्मकांड होते ही नहीं, उन दिनों वहाँ न गुरुकुल थे और न ऋषि–आश्रम ही।
परंतु पुराणों में उपलब्ध अंतर्साक्ष्य तथा तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश पर विचार करने पर इसकी पुष्टि नहीं होती। कहा जाता है कि वृत्रासुर के अत्याचार से पीड़ित आर्यों व देवों की रक्षार्थ इंद्र ने इसी क्षेत्र में निवसित दधीचि आर्य ऋषि की अस्थियाँ लेकर वज्र बनाया था तथा इसी वज्र से वृत्रासुर से युद्ध कर उसका वध किया था, और फिर वृत्रासुर के सजातीय कालकेयों द्वारा प्रपीड़ित आर्य ऋषियों की रक्षा उनका वध कर स्वतः अगस्त्य ऋषि ने की थी। यदि एक क्षण के लिए हम सबको अपनी दृष्टि से ओझल कर दे तो भी यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि वहां आर्य थे ही नहीं। यदि नहीं थे, तो अत्याचार किन पर होता था ? असुर जातियाँ किसके यज्ञ का ध्वंस करती थीं ? ‘निशिचर निकर सकल मुनि खाए, तुलसी की यह अर्धाली दृष्टि में रखकर लिखी गई थी ? निष्कर्षतः इन समस्त प्रश्नों का उत्तर यही है कि अगस्त्य के यहां पहुँचने के पूर्व आर्य ही नहीं, आर्य ऋषि भी वहाँ रहते थे।
फिर प्रश्न यह आता है कि यदि ऐसा था तो अगस्त्य के संबंध में ऐसा क्यों कहा जाता है ? ऐसा लगता है कि तत्कालीन दक्षिण भारत में जो वन्य जातियाँ रहती थीं वे तो आर्य प्रजाति से ही संबंधित, परंतु असंस्कारित थीं वे असुर जातियों के प्राबल्य तथा वन्य जातियों के औदास्यभाव के कारण प्रयास नहीं कर पा रहे थे। करते भी कैसे ? वे तो अपनी अस्तित्व-रक्षा के संघर्ष में ही बुरी तरह उलझे हुए थे, और उसमें भी सफलता-प्राप्ति की स्थिति में नहीं थे।
दूसरी ओर उनकी इस दुर्दशा को देखकर उत्तर भारतीय आर्य चिंचित व दुखित तो थे ही अपने आप को असहाय भी अनुभव कर रहे थे। अतः उत्तर भारतीय आर्यों को दुर्दुशाग्रस्त होने से बचाने के लिए उन्होंने यह प्रचारित कर रखा था कि विंध्य हिमालय की उच्चता से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। अतः दक्षिण में जाना अशक्य तथा असंभव है।
किंतु अगस्त्य ने लोगों द्वारा प्रसारित इस भ्रांत धारणा का खंडन करते हुए दक्षिण ही नहीं साहसिक पग तथा वहाँ जाकर तद्देशीय आर्यों को सुरक्षित ही नहीं किया सुसंस्कारित करने का भी उल्लेखनीय कार्य किया। अतः लोगों ने उस समय तक मित्रावरुणी, महामुनि, और्वश्य तथा कुंभज आदि नामों से अभिहित साहसिक ऋषि को ‘अगं पर्वतं’ स्तम्भयति इति अगस्त्यः’ के सिद्धांतानुसार अगस्त्य नाम से पुकारना आरंभ कर दिया और आगे आने वाली पीढ़ियों ने तो उन्हें चिर स्मृत बनाये रखने के अभिप्राय से एक तारे को ही अगस्त्य संज्ञा से संबोधित करना प्रारंभ कर दिया, जो आज भी प्रचालित है, और वर्तमान पीढ़ी को उस ऋषि के महत्त्व का स्मरण दिलाता है।
प्रसंगवशात् यहाँ यह लिखना अनुचित न होगा कि वेद, पुराण, इतिहास व काव्य में सीमित परिणाम में भले ही अगस्त्य का उल्लेख हुआ तो, परंतु अगस्त्य के असीमित महत्त्व को प्रतिपादित करने की दृष्टि से ही अपना यह प्रयास रहा है निश्चायात्मक वर्णन के रूप में अत्प्रत्यंक्षतः उदाहरण के लिए दक्षिणापथ जाते समय विंध्य का उन्हें साष्टांग कर आदेश देने की प्रार्थना करना, अगस्त्य का उनके परावर्त होने तक इसी प्रकार दंडवत् पड़े रहने को कहना तथा तीन चुल्लुओं में समुद्र की अगाध जलराशि को भरकर उसका पान कर कालकेयों के विनाश का पथ प्रशस्त करना ऐसी घटनाएँ हैं जो अपने-आप में रहस्य छिपाए हुए हैं और इनकी प्रस्तुति पुराणकारों ने लोगों को चमत्कृत करने के अभिप्राय से ही की है, ऐसा लगता है। परंतु अगस्त्य का व्यक्तित्व एवं कृतित्व इन घटनाओं में ही सिमटकर नहीं रह गया, उनके चरित्र में और भी बहुत कुछ है, जिसे स्फुट रूप में पुराणकारों तथा कवियों ने यहाँ-वहाँ प्रस्तुत किया।
हाँ, तो प्रतिपाद्य बात यह है कि अगस्त्य प्रचलित अर्थ में ऋषि या बाबा नहीं थे, वह सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय महापुरुष थे, वह मंत्रस्ष्टा तो थे ही, क्रांतिद्रष्टा भी थे। सचाई तो यह है कि वह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक गरिमा के प्रतीक थे। और स्पष्ट करना चाहें, तो कह सकते हैं कि आगे चलकर भगवान् राम ने राष्ट्रहिताय जिस कर्म-यज्ञ का संपादन किया उसकी परिसमाप्ति अथवा पूर्णाहुति भले ही राम ने की हो, परंतु उसका शुभारंभ तथा एक सीमा तक उसका सम्यक् क्रियान्वय अगस्त्य ने ही किया था। किंतु यह सब होने पर भी उनके चरित्र पर आज पर्यंत कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया जो न केवल उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध पक्षों का उद्घाटन करता हो, वरंच उनके द्वारा संपादित कार्यों का सम्यकरीत्या विश्लेषित कर उनके महत्त्व को प्रतिपादित करता हो। कहना न होगा कि ‘महामुनि अगस्त्य’ शीर्षक यह उपन्यास इसी अभाव की पूर्ति का प्रयास है। अब जहाँ तक इस उपन्यास में वर्णित पात्र, स्थान, घटनादि का संभव है, उनमें से अधिकांशतः अगस्त्य के वृत्य को युक्तियुक्त तथा क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर कुछ पात्र, स्थान आदि की कल्पना करने के लोभ का संवरण मैं नहीं कर सका संक्षेप में पौराणिक आख्यान को यथासंभव यथातथ्य तथा वास्तविक रूप में प्रस्तुत करते हुए भी कहीं-कहीं लेखनीय स्वतंत्रता का उपयोग मैंने किया है, परंतु उतना ही जितने से तथ्यों का रूप विकृत न हो और संप्रेष्य की प्रभविष्णुता प्रभावित न हो। आशा है, सुधीजन एतदर्थ मुझे क्षमा करेंगे।
एक बार और लिख दूँ यह उपन्यास पौराणिक है, अतः इससे संबंधित प्रसंग व घटनाक्रम की यथातथ्य जानकारी प्राप्त करने के लिए मुझे वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी कृत ‘लोपामुद्र’ उपन्यास व ‘विश्वामित्र’ नाटक तथा नरेन्द्र कोहली कृत ‘संघर्ष की ओर’ उपन्यास का अध्ययन-मनन करने को बाध्य होना पड़ा है। अतः स्वाभाविक ही है कि इन सबसे मैंने कुछ-न-कुछ ग्रहण किया हो, और जब ऐसा है, तो इन सबके रचयिताओं के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करना मेरा अपना कर्तव्य ही नहीं घर्म भी है, अतः मैं इन सबके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हुआ, उन सबसे इस, धृष्टता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
और क्या ? मैं यह लिखते हुए हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ कि इस उपन्यास- लेखन के माध्यम से मैं अपने अग्रज पूज्य श्री मोतीलाल नीखरा के किसी पैराणिक कथानक को उपन्यास की वर्णय विषयवस्तु बनाने विषयक निर्देश को कार्य रूप में परिणित करने में सफल हो सका हूँ। वस्तुतः यदि उन्होंने मुझे ऐसा निर्देश न दिया होता तो संभव ही नहीं सुनिश्चित भी है कि मेरे इस उपन्यास की विषयवस्तु भी पूर्व लिखित उपन्यासों की भाँति सामाजिक या ऐतिहासिक ही होती। पौराणिक कदापि नहीं। अस्तु यदि इस उपन्यास के सृजन का श्रेय किसी को है तो उन्हें और मात्र उन्हें ही है। किंतु ......
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