नारी विमर्श >> अपनी गवाही अपनी गवाहीमृणाल पाण्डे
|
11 पाठकों को प्रिय 239 पाठक हैं |
सत्ता के पीछे भागनेवालों और दलालों की करतूतों के दिलचस्प और गुदगुदानेवाले विवरणों से भरा यह उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जब कृष्णा पत्रकार बनने का फैसला करती है तो अपना औरत होना और हिन्दी
समाचार ऐयेनसी में काम करना, यही दो परेशानियाँ उसके सामने है। जैसेकि
उसके मुन्नू चाचा कहते है उसका यह फैला भले ही उसे उसकी निराशा से क्षणिक
मुक्ति दे लेकिन आखिरकार यह उसे बर्बाद कर देगा। मुन्नू, चाचा के मन में
इस बारे में कोई शक नहीं था।
सत्तर के दशक में अंग्रेजी मीडिया में आए उफान में अंग्रेजी और उसके पत्रकार उसके असमान पर पहुँच गए जबकि भाषायी पत्र पत्रिकाओं पर उनके मालिक कुंडली मारे हुए बैठे रहे-खासकर अब के दौर में मीडिया साम्राज्यों का संचालन करने वाले मालिक-सम्प्रादकों की फौज। पुरानी बिल्डिग के अन्धे और तंग दफ्तर की शुरूआत करनेवाली कृष्णा नयी बिल्डिंग के अंग्रेजी सम्पादकों और पत्रकारों के नाज नख्सों को कुछ ईर्ष्या से और कुछ मजे लेकर देखती है। लगभग बेमतलब विषयों की रिपोर्टर से बढ़ते-बढ़ते एक राष्ट्रीय दैनिक की पहली महिला सम्पादक देश के सबसे लोक प्रिय टीवी चैनलों में एक की न्यूजएंकर बनने तक वह मीडिया के बदलते स्वरूप को बहुत पास से देखती है। वह सीखती है कि राजनीतिक और आर्थिक फायदो की लड़ाई मीडिया के साहरे कैसे लड़ी जाती है। और वह पाती है कि इन अधिकांश मामलों में सच्चाई ही बलि चढ़ती है।समकालीन भारतीय परिदृश्य में सत्ता के पीछे भागनेवालों और दलालों की करतूतों के दिलचस्प और गुदगुदनेवाले विवरणों से भरा यहा उपन्यास अपनी सचबायनी और समाचार रिपोरर्टिग की चकाचौंध-भरी दुनिया की वास्विकताओं पर केन्द्रित है।
सत्तर के दशक में अंग्रेजी मीडिया में आए उफान में अंग्रेजी और उसके पत्रकार उसके असमान पर पहुँच गए जबकि भाषायी पत्र पत्रिकाओं पर उनके मालिक कुंडली मारे हुए बैठे रहे-खासकर अब के दौर में मीडिया साम्राज्यों का संचालन करने वाले मालिक-सम्प्रादकों की फौज। पुरानी बिल्डिग के अन्धे और तंग दफ्तर की शुरूआत करनेवाली कृष्णा नयी बिल्डिंग के अंग्रेजी सम्पादकों और पत्रकारों के नाज नख्सों को कुछ ईर्ष्या से और कुछ मजे लेकर देखती है। लगभग बेमतलब विषयों की रिपोर्टर से बढ़ते-बढ़ते एक राष्ट्रीय दैनिक की पहली महिला सम्पादक देश के सबसे लोक प्रिय टीवी चैनलों में एक की न्यूजएंकर बनने तक वह मीडिया के बदलते स्वरूप को बहुत पास से देखती है। वह सीखती है कि राजनीतिक और आर्थिक फायदो की लड़ाई मीडिया के साहरे कैसे लड़ी जाती है। और वह पाती है कि इन अधिकांश मामलों में सच्चाई ही बलि चढ़ती है।समकालीन भारतीय परिदृश्य में सत्ता के पीछे भागनेवालों और दलालों की करतूतों के दिलचस्प और गुदगुदनेवाले विवरणों से भरा यहा उपन्यास अपनी सचबायनी और समाचार रिपोरर्टिग की चकाचौंध-भरी दुनिया की वास्विकताओं पर केन्द्रित है।
अथ श्रीगणेश
तस्वीरें आपके बीतों दिनों के बारे में भला ऐसा क्या बता सकती हैं जो आप
नहीं जानते ?
कृष्णा अपनी तस्वीरें पलट रही है। वह खुद को माइक और कैमरे के सामने बोलते देख रही है, गुलदस्ते थामते देखती है, उलझन में पड़कर होंठ चबाने की मुद्रा में, किसी अनदेखी चीज को घूरने की मुद्रा में नजरें तरेरते देखती है। इसी बीच कहीं उसके बाल काले से अधपके खिचड़ी हो चले हैं, आँखों के नीचे तनाव ने झाँइयाँ भी डाल दी हैं। यदि वह कहती कि वह कहती कि यह खुशदिली की धारियाँ हैं, तो आइने के सामने उसके पीछे खड़ी उसकी बेटियाँ कहतीं, नहीं, ये तो झुर्रियाँ हैं। निखालिस।
क्या उसने प्रिंट मीडिया में बहुत कम समय बिताया ? वह कई बार इस सवाल से खुद जूझती रही है। यूँ उसे लगता था कि कई पैमानों से यह अवधि खासी लम्बी ही थी। खासकर एक औरत के लिए। फिर वह उस ख़्याल को यूँ ही लटकता छोड़ देती है।
उसने घर से बाहर यही सोचकर कदम रखा था कि फलाँ की बीवी, फलाँ की बेटी, फलाँ की बहू वाले या लेखक वाले नाम, ख्याति और बेजान से पड़े भारी-भरकम ठप्पों से वह मुक्त होकर कुछ अपने मन की सी कर सके। लेकिन जिस पेशे को उसने अपने तईं इतनी सोच-समझ के साथ चुना था, अन्त तक जाते-जाते उसकी यही असलियत सामने आई कि यहाँ मीडिया में भी किसी महान विचार या प्रेम नहीं, निराधार सी उम्मीदों और बेपनाह खौफ के आधार पर ही साम्राज्य बनते, बढ़ते और चलते हैं।
और हर कहीं किसी कर्मकांड या तत्त्व की तरह कुछ समय बाद आपसे एक निर्विवाद भक्तिभाव की अपेक्षा की जाती है और फिर, बस दिलोदिमाग की हरकतें ठंडी पड़ जाती हैं और आदमी को कोल्हू के बैल या टमटम के टट्टू की तरह आँखों पर पट्टी बाँधे चलते जाना होता है। तदुपरांत जहाँ उसे ले जाया जाता है, जहाँ-जहाँ से रास्ता होकर जाता है, उस पर सवाल उठाना बेमतलब हो जाता है।
कृष्णा को यह आदतें छोड़ने, अपनी आँखों पर बँधे पट्टे को उखाड़ फेंकने का फैसला करने में पूरे बीस साल लए गए, इतने लम्बे अर्से बाद ही वह हिम्मत जुटा पाई, आगे-पीछे बहुत कुछ सोचे बिना इस काम से मुक्त होने की।
अब जब उसकी बेटियाँ कभी घर आती हैं और वे सभी साथ-साथ शहर के बीच में घूमने निकलती हैं तब कृष्णा एक बार फिर उन सड़कों से गुजरती है जहाँ वह कभी पूरी तरह रची-बसी थी पर अब तो उधर से शायद ही कभी गुजरती है। इनमें से कई सड़कें शहर के उन उथलजरों की तरफ जाती हैं, जहाँ कृष्णा शायद कभी जाएगी नहीं, उसके मन में इन्हें देखने की इच्छा तक नहीं है।
‘‘यह है वह इमारत,’’ वह अपने नाती-नतिनियों से कहती है, ‘‘जहाँ मैं एक बार पुलिस लाठी से बचने के लिए भागकर छुप गई थी। इसे हम नई बिल्डिंग कहते थे। मैं तब एक दूसरी बिल्डिंग में काम करती थी जिसे हम पुरानी बिल्डिंग कहते थे। यहाँ कई साल मैंने काम किया और यहीं से होते-होते मैं सीनियर गिनी जाने लगी। पर इस पेशे से बाहर निकलने में लगभग चौथाई सदी लग गई।’’
‘‘पर नानी,’’ ये नन्हें बच्चे पूछते हैं, ‘‘जब तुम्हें यह काम खराब लगने लगा तभी तुम बाहर क्यों नहीं निकल आईं ?’’
‘‘ऊँ...ऊँ..’’ कृष्णा अटकती है, ‘‘पहली बात तो यह थी कि जब तुम्हारे नाना ने सरकारी नौकरी छोड़ दी तो हम लोग जरा खस्ताहाल से हो गए थे, और दूसरी वजह थी कि मुझे घर से बाहर निकलना जरूरी भी लगता था।’’
‘‘इन बच्चों को तो घर की पॉलिटिक्स में शामिल मत करो अम्मा,’’ उसकी बेटियों ने टोका, ‘‘तुमने जो कुछ किया उसके लिए तुम्हें इस तरह का अपराध बोध क्यों है ? इसकी जरूरत नहीं है।’’
‘‘क्यों नहीं ?’’ कृष्णा प्रतिवाद करती है, ‘‘बच्चे परिवार का इतिहास जानें इसमें गलत क्या है ! उन्हें भी मालूम रहना चाहिए कि बड़े-बुजुर्ग भी कैसी-कैसी गलतियाँ कर सकते हैं और हम में से कोई भी जन्म से ही एकदम परफेक्ट माँ-बाप बनकर पैदा नहीं होता।’’
बेटियाँ एक-दूसरे को देखती हैं और चुप हो जाती हैं। साफ है कि इस सवाल पर उन्होंने आपस में पहले भी कई बार बातें की होंगी।
इन दिनों कृष्णा अक्सर अपने उन गुजरे दिनों को याद करती है जब वे लोग लगभग खानाबदोशोंवाला सा जीवन जीते थे। उसके पति के अधिकांश नौकरशाह दोस्त रण-संचालन जैसी कुशलता से ट्रांसफर और पोस्टिंग के मामलों में अपनी गोटियाँ फिट रखते थे और एक-दूसरे का ख्याल रखा करते थे। इस पूरी बिरादरी के यहाँ से वहाँ आने-जाने, उजड़ने-बसने वाली नौकरियों का संचालन अब उनसे थोड़े वरिष्ठ हो गए वे नौकरशाह करते थे, जिनके ऊपर निरन्तर घटिया या औसत किस्म के नेताओं की लगाम सधी होती थी। ऐसे बँधे-बधाए जीवन में कृष्णा कभी भी रम नहीं पाई।
पर दिलचस्प बात यह कि इन नौकरशाहों में से कोई भी, खासतौर से उनकी बेगमें, इस जीवनशैली के बारे में सार्वजनिक रूप से कभी अपने कष्ट नहीं बखानती थीं। यह वे लड़कोरी राजमहिषियाँ थीं, जिनके खुर्राट पति देश को चलाने, कानून एवं व्यवस्था की निगरानी और सरकारी गोपनीयता कानून की हिफाजत करने में ही अहर्निश जुटे रहते हैं। ऐसे में माना जाता था कि अगर पति कभी-कभार ही हँसते हुए नजर आएँ या उनकी बीवियों को सारा घर-परिवार अकेले चलाना पड़ता है तो इसमें शिकायत क्या करना ?
फिर भी अगर कोई बीवियाँ यह सब नहीं सँभाल पातीं और बोझ में ही उनका धैर्य और ऊर्जा जवाब देने लगती, तो इस बात को भी कतई सार्वजनिक नहीं होने दिया जाता। अफसर बिरादरी सदा इस बात का खयाल रखती है कि उनका अन्तरंग जीवन लोगों की नजर में न आ जाए। उन लोगों की हताशा, उनके आतंक, उनके गुस्से को, जिन्हें वे साल-दर-साल भुगतते थे, कभी दर्ज नहीं किया जाता, न सामने लाया जाता। वे सब बीते वक्त को सदा ‘गुड ओल्ड डेज’ ही कहा करते और जब सर्विस वाइब्ज़ वेलफेयर एसोसिएशन अपना वार्षिक प्रीतिभोज देता तो वहाँ उनके पतियों की टोली औरतों को ‘गर्ल्स’ कहकर पुकारती। गर्ल्स ! वेल डन गर्ल्स ! शाबाश लड़कियों !
और ये लड़कोरी बीवियाँ प्रसन्न होकर नवोढ़ाओं सी ठिलठिलातीं। साल-दर-साल ऐसे तमाम ढकोसलों को तोड़कर बाहर निकल आने का लोभ संवरण कृष्णा के लिए मुश्किल होता गया था।
पर पति और कृष्णा, दोनों के अफसरी खानदानों के लिए इस तरह का फैसला लक्ष्मण रेखा को लाँघने जैसा था। आखिरकार वह और उससे भी बढ़कर उसके वैवाहिक जीवन की बागडोर थामने वाला उसका पति इतनी पुरानी और मजबूत परम्परा का किस तरह उल्लंघन कर सकता था ?
क्या वे दोनों इस विशेषाधिकार प्राप्त खानाबदोश कबीले को त्यागकर निरुद्देश्य भटकन में डूबना चाहते थे ? कृष्णा के मुन्नू चाचा की तो राय थी कि वे दोनों यूँ अपनी जाति और वर्ग को छोड़कर आम लोगों की तरह जीवन जीने का एक बेहद घटिया प्रयोग कर रहे हैं।
यह सन् 1998 की बात है।
आखिरकार वे दोनों एक-दूसरे के सहारे ही बाहर निकल पाए-ठीक वैसे ही जैसे हजारों साल पहले मिस्र के जाहवेह ने अपने बच्चों के साथ किया था, ‘‘जाहवेह ने उन्हें पवित्र भोज खिलाया और जाति-बिरादरी से बहिष्कृत होने के बाद सदैव जल्दी-जल्दी खाकर निरन्तर चलते जाने की हिदायत की।’’
और ठीक जाहवेह के बच्चों की तरह वे भी इसके बाद जाति बाहर हो गए व बाइबल के जाहवेह की ही तरह उनसे पुश्तैनी जमीन रखने, उस पर अपनी फसलें उगाने का फट्टा देखने की भी अनुमति छीन ली गई, क्योंकि कबीले को डर था कि यह विद्रोही खानाबदोश कहीं पारिवारिक जमीन पर दावा करके वहाँ अपना घर बनाने न बैठ जाए।
‘‘उस साल इस वक्त यात्रा करने का मतलब ही भारी सर्दी में फँसना था। यह तो यात्रा करने का, खासतौर से लम्बी यात्रा करने का सबसे बुरा समय होता है...।’’
कृष्णा देर रात तक लांसलोट एंड्रूज़ के यह शब्द पढ़ती रही थी। इस बीच खाली समय न होने से उसने पढ़ाई कम कर दी थी, सो अब वक्त मिलने और किताबों का आनन्द लेने की फुर्सत होने पर कृष्णा अक्सर पुरानी कहानियों को दोबारा-तिबारा पढ़ती थी। पुराने बक्से से जो उसने किताबें निकाली थीं वे सभी पुरानी और खस्ताहाल थीं। पर अब शहर की किताबों की कुछ ही दुकानों पर ऐसी पुरानी किताबें दिखने में आती हैं। पढ़ना हो तो आम पट्टी पर से भी सस्ते पेपर-बैक खरीद सकते हैं लेकिन अक्सर वहाँ बकवास किताबें ही मिला करती थीं।
आजकल ज्यादातर घरों की बैठक में तो टीवी का ही राज है। चैनल-चैनल हिन्दी भाषा ही अक्सर यहाँ सुनाई-दिखाई देती है पर उसने जाने कैसा डरावना रूप ले लिया है। टीवी वाले लोगों की अदालत-हमारी अदालत जाने कैसे और कितने नामों से पर्दे पर ‘अपराधियों’ को लाते-बरी करते रहते हैं। पैनल चर्चा नाच-गाना सब बहुत ही भौंड़ी और विद्रूपमय भाषा में। फिर शाम होती है और शुरू हो जाते हैं धारावाहिक। उसी हिन्दी में सिन्दूर पुती महिलाओं को रुलाने-धुलाने का सिलसिला चालू हो जाता है। कई बुजुर्ग लोग तो बैठकों से दर-ब-दर डिप्रेशन में डूब रहे हैं। क्या देखें वे ? क्या सुनें ?
अमेरिका में बनी उन मशीनों से हिन्दी के कॉमेडी सीरियलों में ठहाके भरे जाते हैं। बटन दबाते ही हा, हा, हा !
कभी किसी ने कृष्णा से कहा था कि इन मशीनों को ‘लॉफ-स्वीटनिंग मशीन’ कहा जाता है। मज़ाक का मज़ाक ! कैसा भौंडापन है यह !
यह कैसा प्रतिशोध ले रही है दुरदुराई गई मातृभाषा !
कृष्णा को एक अंग्रेजी साप्ताहिक के लटके-झटकेबाज सम्पादक कृष्णन की याद आई जिसे देसी भाषाओं से सख्त नफरत थी। कुछ दिन पहले ही कृष्णा ने उसे एक ऐसी ही टीवी परिचर्चा में देखा था। तब तक वह राज्य सभा की एक सीट हथिया चुका था और एक धुर दक्षिणपन्थी पार्टी से उसका जुड़ाव था। इस परिचर्चा में वह मुस्लिम कलाकारों द्वारा बनाई गई हिन्दू देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरों वाली प्रदर्शनी को अपनी पार्टी के हुड़दंगियों द्वारा जला दिए जाने और देसी जुबानों की वकालत कर रहा था। इन्हीं हुड़दंगियों ने भारत आए पाक गायकों के कार्यक्रम वाले हॉल की बिजली काट दी थी और समलैंगिक सम्बन्धों पर बनी फिल्म का प्रदर्शन रुकवा दिया था। कृष्णन उनकी इन बातों को भी सही ठहरा रहा था। उसका कहना था कि विधर्मी हमारी हिन्दू संस्कृति को भ्रष्ट नहीं कर सकते।
पर यह पूरी बातचीत अंग्रेजी में ही हो रही थी।
कभी वह समय भी था जब इसी कृष्णन ने भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग से लड़ाई लड़कर एक ऐतिहासिक ठिकाने पर आधुनिक भारतीय कला की सबसे बड़ी और दिखावे भरी प्रदर्शनी आयोजित की थी और कहा गया कि इसने आधुनिक भारतीय कला को नया जीवनदान दिया। उसने एक मृतप्राय समाचार पत्रिका के लिए एक के बाद एक विवादास्पद भाँड़ाफोड़ आवरण कथाएँ छापकर उसे भी कुछ समय के लिए चर्चित बनवा दिया था।
पर आज वही कृष्णन खुद वी.आई.पी. बन चुका था, और संस्कृति और मर्यादा के नाम पर देसी जुबानों और हुड़दंगियों की वकालत कर रहा था। बस इतना जरूर था कि ये पैरवी वह अंग्रेजी में ही कर रहा था। बड़े लोगों की बड़ी बात !
फिर कृष्णा को हिन्दी इलाके की खाँटी उपज, असामान्य बुद्धि और सूझ-बूझ वाले हंगामेदार कुँआरे जेपी की याद आई। वह उन विरले लोगों में था जिन्होंने मीडिया की विकट भाषायी जाति-व्यवस्था को बड़ी सफलता से तोड़ा था। कृष्णन ने जब-जब उससे उलझने की कोशिश की, जेपी ने उसे धूल सुँघाई थी। पर बाद में एक दिन जेपी ने भी अचानक अंग्रेजी बोलनेवाली एक पारसी लड़की से शादी कर डाली। इसके बाद, जाने क्यों उसने अपने हिन्दीवाले चेले-चपाटियों-दोस्तों से एक दूरी बना ली और अन्तत: एक दिन खबर आई कि वह एक अंग्रेजी दैनिक का सम्पादकीय सलाहकार बन गया था। जैसे कि अंग्रेजी सम्पादकों को अपने विवेक और ज्ञान के अलावा भी किसी और की सलाह की दरकार थी, आखिरकार जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, जेपी सलाहकारी से उचाट होकर एक टीवी चैनल में चला गया। शैम्पू किए ब्लोअर से सुखाए गए तरतीब भरे बालों और डिजाइनर कमीजों-टाइयों के साथ सेक्सी स्टार पद को प्राप्त हुआ यह नया जेपी काफी तेजी से ऊपर चढ़ा और उसी गति से वह हिन्दी को भी अंग्रेजीभाषी, भद्रलोक के बीच फैशनेवल बनाता चला गया। तभी अचानक एक दिन दिल के दौरे से हठात् उसकी मौत हो गई। डॉक्टरों के अनुसार काम के तनाव और थकान के चलते शायद उसे यह दौरा पड़ा था।
जेपी जिस मशहूर कार्यक्रम का संचालक था, वह उसकी मौत के बाद भी चलता रहा। धीमे-धीमे जेपी के संकट के दिनों के साथी, उसके चेले-चपाटी जो उसे छोड़कर गायब हो गए थे, अब विभिन्न चैनलों पर जेपी बनने का प्रयास करते दिखाई देने लगे, पर वे अपने उस्ताद की छाया भी नहीं छू सकते थे। कृष्णा ने बत्तियाँ बुझाई तो बहुत रात हो गई थी और बिस्तर पर उसके पति गहरी नींद में समा चुके थे।
‘‘अब सो भी जाओ,’’ उन्होंने धीमी आवाज में कहा।
‘‘मैं सो नहीं सकती,’’ कृष्णा कहती है,‘‘मैं कुछ ज्यादा ही सोचने लगी हूँ।’’
कृष्णा अपनी तस्वीरें पलट रही है। वह खुद को माइक और कैमरे के सामने बोलते देख रही है, गुलदस्ते थामते देखती है, उलझन में पड़कर होंठ चबाने की मुद्रा में, किसी अनदेखी चीज को घूरने की मुद्रा में नजरें तरेरते देखती है। इसी बीच कहीं उसके बाल काले से अधपके खिचड़ी हो चले हैं, आँखों के नीचे तनाव ने झाँइयाँ भी डाल दी हैं। यदि वह कहती कि वह कहती कि यह खुशदिली की धारियाँ हैं, तो आइने के सामने उसके पीछे खड़ी उसकी बेटियाँ कहतीं, नहीं, ये तो झुर्रियाँ हैं। निखालिस।
क्या उसने प्रिंट मीडिया में बहुत कम समय बिताया ? वह कई बार इस सवाल से खुद जूझती रही है। यूँ उसे लगता था कि कई पैमानों से यह अवधि खासी लम्बी ही थी। खासकर एक औरत के लिए। फिर वह उस ख़्याल को यूँ ही लटकता छोड़ देती है।
उसने घर से बाहर यही सोचकर कदम रखा था कि फलाँ की बीवी, फलाँ की बेटी, फलाँ की बहू वाले या लेखक वाले नाम, ख्याति और बेजान से पड़े भारी-भरकम ठप्पों से वह मुक्त होकर कुछ अपने मन की सी कर सके। लेकिन जिस पेशे को उसने अपने तईं इतनी सोच-समझ के साथ चुना था, अन्त तक जाते-जाते उसकी यही असलियत सामने आई कि यहाँ मीडिया में भी किसी महान विचार या प्रेम नहीं, निराधार सी उम्मीदों और बेपनाह खौफ के आधार पर ही साम्राज्य बनते, बढ़ते और चलते हैं।
और हर कहीं किसी कर्मकांड या तत्त्व की तरह कुछ समय बाद आपसे एक निर्विवाद भक्तिभाव की अपेक्षा की जाती है और फिर, बस दिलोदिमाग की हरकतें ठंडी पड़ जाती हैं और आदमी को कोल्हू के बैल या टमटम के टट्टू की तरह आँखों पर पट्टी बाँधे चलते जाना होता है। तदुपरांत जहाँ उसे ले जाया जाता है, जहाँ-जहाँ से रास्ता होकर जाता है, उस पर सवाल उठाना बेमतलब हो जाता है।
कृष्णा को यह आदतें छोड़ने, अपनी आँखों पर बँधे पट्टे को उखाड़ फेंकने का फैसला करने में पूरे बीस साल लए गए, इतने लम्बे अर्से बाद ही वह हिम्मत जुटा पाई, आगे-पीछे बहुत कुछ सोचे बिना इस काम से मुक्त होने की।
अब जब उसकी बेटियाँ कभी घर आती हैं और वे सभी साथ-साथ शहर के बीच में घूमने निकलती हैं तब कृष्णा एक बार फिर उन सड़कों से गुजरती है जहाँ वह कभी पूरी तरह रची-बसी थी पर अब तो उधर से शायद ही कभी गुजरती है। इनमें से कई सड़कें शहर के उन उथलजरों की तरफ जाती हैं, जहाँ कृष्णा शायद कभी जाएगी नहीं, उसके मन में इन्हें देखने की इच्छा तक नहीं है।
‘‘यह है वह इमारत,’’ वह अपने नाती-नतिनियों से कहती है, ‘‘जहाँ मैं एक बार पुलिस लाठी से बचने के लिए भागकर छुप गई थी। इसे हम नई बिल्डिंग कहते थे। मैं तब एक दूसरी बिल्डिंग में काम करती थी जिसे हम पुरानी बिल्डिंग कहते थे। यहाँ कई साल मैंने काम किया और यहीं से होते-होते मैं सीनियर गिनी जाने लगी। पर इस पेशे से बाहर निकलने में लगभग चौथाई सदी लग गई।’’
‘‘पर नानी,’’ ये नन्हें बच्चे पूछते हैं, ‘‘जब तुम्हें यह काम खराब लगने लगा तभी तुम बाहर क्यों नहीं निकल आईं ?’’
‘‘ऊँ...ऊँ..’’ कृष्णा अटकती है, ‘‘पहली बात तो यह थी कि जब तुम्हारे नाना ने सरकारी नौकरी छोड़ दी तो हम लोग जरा खस्ताहाल से हो गए थे, और दूसरी वजह थी कि मुझे घर से बाहर निकलना जरूरी भी लगता था।’’
‘‘इन बच्चों को तो घर की पॉलिटिक्स में शामिल मत करो अम्मा,’’ उसकी बेटियों ने टोका, ‘‘तुमने जो कुछ किया उसके लिए तुम्हें इस तरह का अपराध बोध क्यों है ? इसकी जरूरत नहीं है।’’
‘‘क्यों नहीं ?’’ कृष्णा प्रतिवाद करती है, ‘‘बच्चे परिवार का इतिहास जानें इसमें गलत क्या है ! उन्हें भी मालूम रहना चाहिए कि बड़े-बुजुर्ग भी कैसी-कैसी गलतियाँ कर सकते हैं और हम में से कोई भी जन्म से ही एकदम परफेक्ट माँ-बाप बनकर पैदा नहीं होता।’’
बेटियाँ एक-दूसरे को देखती हैं और चुप हो जाती हैं। साफ है कि इस सवाल पर उन्होंने आपस में पहले भी कई बार बातें की होंगी।
इन दिनों कृष्णा अक्सर अपने उन गुजरे दिनों को याद करती है जब वे लोग लगभग खानाबदोशोंवाला सा जीवन जीते थे। उसके पति के अधिकांश नौकरशाह दोस्त रण-संचालन जैसी कुशलता से ट्रांसफर और पोस्टिंग के मामलों में अपनी गोटियाँ फिट रखते थे और एक-दूसरे का ख्याल रखा करते थे। इस पूरी बिरादरी के यहाँ से वहाँ आने-जाने, उजड़ने-बसने वाली नौकरियों का संचालन अब उनसे थोड़े वरिष्ठ हो गए वे नौकरशाह करते थे, जिनके ऊपर निरन्तर घटिया या औसत किस्म के नेताओं की लगाम सधी होती थी। ऐसे बँधे-बधाए जीवन में कृष्णा कभी भी रम नहीं पाई।
पर दिलचस्प बात यह कि इन नौकरशाहों में से कोई भी, खासतौर से उनकी बेगमें, इस जीवनशैली के बारे में सार्वजनिक रूप से कभी अपने कष्ट नहीं बखानती थीं। यह वे लड़कोरी राजमहिषियाँ थीं, जिनके खुर्राट पति देश को चलाने, कानून एवं व्यवस्था की निगरानी और सरकारी गोपनीयता कानून की हिफाजत करने में ही अहर्निश जुटे रहते हैं। ऐसे में माना जाता था कि अगर पति कभी-कभार ही हँसते हुए नजर आएँ या उनकी बीवियों को सारा घर-परिवार अकेले चलाना पड़ता है तो इसमें शिकायत क्या करना ?
फिर भी अगर कोई बीवियाँ यह सब नहीं सँभाल पातीं और बोझ में ही उनका धैर्य और ऊर्जा जवाब देने लगती, तो इस बात को भी कतई सार्वजनिक नहीं होने दिया जाता। अफसर बिरादरी सदा इस बात का खयाल रखती है कि उनका अन्तरंग जीवन लोगों की नजर में न आ जाए। उन लोगों की हताशा, उनके आतंक, उनके गुस्से को, जिन्हें वे साल-दर-साल भुगतते थे, कभी दर्ज नहीं किया जाता, न सामने लाया जाता। वे सब बीते वक्त को सदा ‘गुड ओल्ड डेज’ ही कहा करते और जब सर्विस वाइब्ज़ वेलफेयर एसोसिएशन अपना वार्षिक प्रीतिभोज देता तो वहाँ उनके पतियों की टोली औरतों को ‘गर्ल्स’ कहकर पुकारती। गर्ल्स ! वेल डन गर्ल्स ! शाबाश लड़कियों !
और ये लड़कोरी बीवियाँ प्रसन्न होकर नवोढ़ाओं सी ठिलठिलातीं। साल-दर-साल ऐसे तमाम ढकोसलों को तोड़कर बाहर निकल आने का लोभ संवरण कृष्णा के लिए मुश्किल होता गया था।
पर पति और कृष्णा, दोनों के अफसरी खानदानों के लिए इस तरह का फैसला लक्ष्मण रेखा को लाँघने जैसा था। आखिरकार वह और उससे भी बढ़कर उसके वैवाहिक जीवन की बागडोर थामने वाला उसका पति इतनी पुरानी और मजबूत परम्परा का किस तरह उल्लंघन कर सकता था ?
क्या वे दोनों इस विशेषाधिकार प्राप्त खानाबदोश कबीले को त्यागकर निरुद्देश्य भटकन में डूबना चाहते थे ? कृष्णा के मुन्नू चाचा की तो राय थी कि वे दोनों यूँ अपनी जाति और वर्ग को छोड़कर आम लोगों की तरह जीवन जीने का एक बेहद घटिया प्रयोग कर रहे हैं।
यह सन् 1998 की बात है।
आखिरकार वे दोनों एक-दूसरे के सहारे ही बाहर निकल पाए-ठीक वैसे ही जैसे हजारों साल पहले मिस्र के जाहवेह ने अपने बच्चों के साथ किया था, ‘‘जाहवेह ने उन्हें पवित्र भोज खिलाया और जाति-बिरादरी से बहिष्कृत होने के बाद सदैव जल्दी-जल्दी खाकर निरन्तर चलते जाने की हिदायत की।’’
और ठीक जाहवेह के बच्चों की तरह वे भी इसके बाद जाति बाहर हो गए व बाइबल के जाहवेह की ही तरह उनसे पुश्तैनी जमीन रखने, उस पर अपनी फसलें उगाने का फट्टा देखने की भी अनुमति छीन ली गई, क्योंकि कबीले को डर था कि यह विद्रोही खानाबदोश कहीं पारिवारिक जमीन पर दावा करके वहाँ अपना घर बनाने न बैठ जाए।
‘‘उस साल इस वक्त यात्रा करने का मतलब ही भारी सर्दी में फँसना था। यह तो यात्रा करने का, खासतौर से लम्बी यात्रा करने का सबसे बुरा समय होता है...।’’
कृष्णा देर रात तक लांसलोट एंड्रूज़ के यह शब्द पढ़ती रही थी। इस बीच खाली समय न होने से उसने पढ़ाई कम कर दी थी, सो अब वक्त मिलने और किताबों का आनन्द लेने की फुर्सत होने पर कृष्णा अक्सर पुरानी कहानियों को दोबारा-तिबारा पढ़ती थी। पुराने बक्से से जो उसने किताबें निकाली थीं वे सभी पुरानी और खस्ताहाल थीं। पर अब शहर की किताबों की कुछ ही दुकानों पर ऐसी पुरानी किताबें दिखने में आती हैं। पढ़ना हो तो आम पट्टी पर से भी सस्ते पेपर-बैक खरीद सकते हैं लेकिन अक्सर वहाँ बकवास किताबें ही मिला करती थीं।
आजकल ज्यादातर घरों की बैठक में तो टीवी का ही राज है। चैनल-चैनल हिन्दी भाषा ही अक्सर यहाँ सुनाई-दिखाई देती है पर उसने जाने कैसा डरावना रूप ले लिया है। टीवी वाले लोगों की अदालत-हमारी अदालत जाने कैसे और कितने नामों से पर्दे पर ‘अपराधियों’ को लाते-बरी करते रहते हैं। पैनल चर्चा नाच-गाना सब बहुत ही भौंड़ी और विद्रूपमय भाषा में। फिर शाम होती है और शुरू हो जाते हैं धारावाहिक। उसी हिन्दी में सिन्दूर पुती महिलाओं को रुलाने-धुलाने का सिलसिला चालू हो जाता है। कई बुजुर्ग लोग तो बैठकों से दर-ब-दर डिप्रेशन में डूब रहे हैं। क्या देखें वे ? क्या सुनें ?
अमेरिका में बनी उन मशीनों से हिन्दी के कॉमेडी सीरियलों में ठहाके भरे जाते हैं। बटन दबाते ही हा, हा, हा !
कभी किसी ने कृष्णा से कहा था कि इन मशीनों को ‘लॉफ-स्वीटनिंग मशीन’ कहा जाता है। मज़ाक का मज़ाक ! कैसा भौंडापन है यह !
यह कैसा प्रतिशोध ले रही है दुरदुराई गई मातृभाषा !
कृष्णा को एक अंग्रेजी साप्ताहिक के लटके-झटकेबाज सम्पादक कृष्णन की याद आई जिसे देसी भाषाओं से सख्त नफरत थी। कुछ दिन पहले ही कृष्णा ने उसे एक ऐसी ही टीवी परिचर्चा में देखा था। तब तक वह राज्य सभा की एक सीट हथिया चुका था और एक धुर दक्षिणपन्थी पार्टी से उसका जुड़ाव था। इस परिचर्चा में वह मुस्लिम कलाकारों द्वारा बनाई गई हिन्दू देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरों वाली प्रदर्शनी को अपनी पार्टी के हुड़दंगियों द्वारा जला दिए जाने और देसी जुबानों की वकालत कर रहा था। इन्हीं हुड़दंगियों ने भारत आए पाक गायकों के कार्यक्रम वाले हॉल की बिजली काट दी थी और समलैंगिक सम्बन्धों पर बनी फिल्म का प्रदर्शन रुकवा दिया था। कृष्णन उनकी इन बातों को भी सही ठहरा रहा था। उसका कहना था कि विधर्मी हमारी हिन्दू संस्कृति को भ्रष्ट नहीं कर सकते।
पर यह पूरी बातचीत अंग्रेजी में ही हो रही थी।
कभी वह समय भी था जब इसी कृष्णन ने भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग से लड़ाई लड़कर एक ऐतिहासिक ठिकाने पर आधुनिक भारतीय कला की सबसे बड़ी और दिखावे भरी प्रदर्शनी आयोजित की थी और कहा गया कि इसने आधुनिक भारतीय कला को नया जीवनदान दिया। उसने एक मृतप्राय समाचार पत्रिका के लिए एक के बाद एक विवादास्पद भाँड़ाफोड़ आवरण कथाएँ छापकर उसे भी कुछ समय के लिए चर्चित बनवा दिया था।
पर आज वही कृष्णन खुद वी.आई.पी. बन चुका था, और संस्कृति और मर्यादा के नाम पर देसी जुबानों और हुड़दंगियों की वकालत कर रहा था। बस इतना जरूर था कि ये पैरवी वह अंग्रेजी में ही कर रहा था। बड़े लोगों की बड़ी बात !
फिर कृष्णा को हिन्दी इलाके की खाँटी उपज, असामान्य बुद्धि और सूझ-बूझ वाले हंगामेदार कुँआरे जेपी की याद आई। वह उन विरले लोगों में था जिन्होंने मीडिया की विकट भाषायी जाति-व्यवस्था को बड़ी सफलता से तोड़ा था। कृष्णन ने जब-जब उससे उलझने की कोशिश की, जेपी ने उसे धूल सुँघाई थी। पर बाद में एक दिन जेपी ने भी अचानक अंग्रेजी बोलनेवाली एक पारसी लड़की से शादी कर डाली। इसके बाद, जाने क्यों उसने अपने हिन्दीवाले चेले-चपाटियों-दोस्तों से एक दूरी बना ली और अन्तत: एक दिन खबर आई कि वह एक अंग्रेजी दैनिक का सम्पादकीय सलाहकार बन गया था। जैसे कि अंग्रेजी सम्पादकों को अपने विवेक और ज्ञान के अलावा भी किसी और की सलाह की दरकार थी, आखिरकार जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, जेपी सलाहकारी से उचाट होकर एक टीवी चैनल में चला गया। शैम्पू किए ब्लोअर से सुखाए गए तरतीब भरे बालों और डिजाइनर कमीजों-टाइयों के साथ सेक्सी स्टार पद को प्राप्त हुआ यह नया जेपी काफी तेजी से ऊपर चढ़ा और उसी गति से वह हिन्दी को भी अंग्रेजीभाषी, भद्रलोक के बीच फैशनेवल बनाता चला गया। तभी अचानक एक दिन दिल के दौरे से हठात् उसकी मौत हो गई। डॉक्टरों के अनुसार काम के तनाव और थकान के चलते शायद उसे यह दौरा पड़ा था।
जेपी जिस मशहूर कार्यक्रम का संचालक था, वह उसकी मौत के बाद भी चलता रहा। धीमे-धीमे जेपी के संकट के दिनों के साथी, उसके चेले-चपाटी जो उसे छोड़कर गायब हो गए थे, अब विभिन्न चैनलों पर जेपी बनने का प्रयास करते दिखाई देने लगे, पर वे अपने उस्ताद की छाया भी नहीं छू सकते थे। कृष्णा ने बत्तियाँ बुझाई तो बहुत रात हो गई थी और बिस्तर पर उसके पति गहरी नींद में समा चुके थे।
‘‘अब सो भी जाओ,’’ उन्होंने धीमी आवाज में कहा।
‘‘मैं सो नहीं सकती,’’ कृष्णा कहती है,‘‘मैं कुछ ज्यादा ही सोचने लगी हूँ।’’
[1]
जब वे सभी बच्चे थे तब कृष्णा की माँ पार्वती
उन्हें
लगातार तरह-तरह की कहानियाँ सुनाया करती थी। किस्से तो वह कुछ नसीहतें
देने के लिए सुनाया करती थी लेकिन इस चक्कर में अक्सर कहानी अन्त से ही
शुरू करती थी और कम्बख्त हितोपदेश जाने कहाँ खो जाता था।
इन कहानियों में एक रहस्यकथा इस बारे में थी कि कृष्णा की माँ के एक चाचा ने अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करने के कारण उसे कैसे मार डाला था ! इस बेचारी चाची को बड़ी लम्बी प्रसवपीड़ा हुई और आखिरकार माँ के पिता ने, जो सर्जन थे, उसका ऑपरेशन किया। तब एनेस्थिशिया का चलन आज की तरह नहीं था और जब उसे होश आया तो वह बहुत ही डरावने ढंग से कराहने-चिल्लाने लगी। थोड़ी देर में ही चाचा जो उससे बहुत प्रेम करते थे, उसकी तकलीफ देखकर इतने विचलित हो गए कि उसका पेट जोर-जोर से दबाने और मसलने लगे। और इस चक्कर में टाँके लगा पेट इतना दब गया कि कच्चे टाँके खुल गए और तीन दुधमुँहों की महतारी बेचारी चाची गोलोकवासी हो गई।
इस दन्तकथा की मार्फत माँ शायद उनको यह बताना चाहती थी कि औरतों के सन्तान पैदा होने के भारी कष्ट की घड़ियों में मर्द उससे प्रेम करे तो इसमें भी औरत का मरण ही है। वह कहना चाहे जो चाहती हो, उसके चेहरे की हल्की मुस्कान यही बताती थी कि और जो हो यह किस्सा पति-पत्नी के रिश्तों या सहज मानवीय प्रेम के बारे में तो नहीं ही है।
कृष्णा के नाना सुदूर कुमाऊँ में बसे एक छोटे से पहाड़ी शहर में डॉक्टर थे। अंग्रेज सरकार बहादुर ने यहाँ उनकी पोस्टिंग की थी और उसके बाद यह बात वह भूल सी गई थी। नाना का कार्यक्षेत्र आसपास की पहाड़ियों में बिखरे उन्नीस गाँवों तक फैला था। नानाजी खबर मिलते ही थ्री-पीस सूट और हैट पहने घोड़े पर सवार होकर आँधी-तूफान-बर्फ, सबके बीच बच्चे-बूढ़ों को देखने के लिए भरी रात में भी चल देते थे। साथ में उनका कम्पाउंडर, बुद्धिबल्लभ भी खच्चर लेकर विशेष लालटेन उठाए हुए चलता था।
डाक सा’ब जिस मकान में रहते थे वह अस्पताल के अहाते में ही था और पार्वती के अनुसार बचपन में वे लोग इस बात के अभ्यस्त हो गए थे कि देर रात आकर कोई दरवाजा खटखटाता, फिर धीमी आवाज में पूछताछ और आपसी राय-मशविरा होंगे, अलमारी खुलेगी, लालटेन में भरे जाने किरासन तेल की गन्ध आएगी और फिर उनके पिता के घोड़े और कम्पाउंडर के खच्चर के टापों की आवाज दूर होती जाएगी। अक्सर जमीन-जायदाद की लड़ाई में जख्मी लोग खाट पर लादकर अस्पताल लाए जाते थे। उनके जिस्म हँसिए, बल्लम, गँडासे, कुदाल जैसी उस किसी भी हथियार से बुरी तरह काट डाले गये होते थे जो उनके हमलावर के हाथ में झगड़ते वक्त रहा होता। कुछ इलाज से बच जाते थे, कुछ च बसते थे। डाक सा’ब जिनकी जान बचा पाते थे, वे लोग उनका उपकार मानते हुए बाद में वर्षो तक अपने खेत की ढेरों ताजा उपज-आलू, प्याज, हरी सब्जियाँ, संतरे, सेब घर में बने खुशबूदार घी से भरी लकड़ी की ठेकियाँ लेकर हाजिर हो जाते थे। इतना बढ़िया जमा दही वे लोग लाते थे कि आप चाहें तो उसे काटकर पॉकेट में रख लीजिए और उसमें से एक बूँद पानी निकलकर कपड़े को खराब नहीं करेगा ! यह कृष्णा की माँ, पार्वती का कहना था।
स्कूल में छुट्टी पाकर होमवर्क पूरा हो जाने के बाद पार्वती और उसके भाई-बहन वहीं अपने घर के छोटे अहाते में खेलते रहते थे। उनको अपने आसपास के नजारों और रोने-चीखने की आवाजों की आदत सी हो गई थी। अक्सर वे बड़े मनोयोग से पेशेवर लोगों द्वारा लाशों को शवघर से लाते-ले-जाते देखते। पार्वती ने यह भी बताया कि उन्होंने चुपचाप एक डायरी भी रखी हुई थी जिसमें उस अस्पताल में मरनेवालों की संख्या, मरने की तारीख और समय, वे नोट करते जाते थे। और जब सारा रिकार्ड देखा गया तो उनके नौकर-चाकर कहा करते थे वही बातें सही साबित हुई कि मनुष्य के जनम-मरण पर जितना असर चन्द्रमा का पड़ता है उतना किसी और चीज का नहीं। कृष्ण पक्ष की तुलना में उजले पाख में न सिर्फ ज्यादा मौतें होती हैं बल्कि ज्यादा बच्चे भी जन्म लेते हैं। माँ ने उनको बताया था कि नानी को अलबत्ता डॉक्टर की बीवी होना एकदम रास नहीं आता था। उसे लगता था कि हर आदमी उसके सर पर सवार घर को भ्रष्ट करने के कुचक्र में जुटा है। उनके अपने खाने का समय तय नहीं था क्योंकि डॉक्टर सा’ब को कोई भी कभी भी बुला लेता था और पतिपरायण नानी पति के खाए बगैर कैसे मुँह में अन्न डाल सकती थी ? देर-सबेर और हड़बड़ी में कुछ भी खा लेने के चलते वे लगातार पेट की तकलीफ झेलतीं। पर उन्होंने कभी भी एलोपैथिक दवाएँ नहीं खाईं। वे जड़ी-बूटियों और अपनी दवाई से ही अपना इलाज करती थीं। नानी की जिन्दगी का मात्र यही इलाका ऐसा था जिस पर नाना का कोई वश न चलता था।
नाना यह बात अपने रिश्तेदार मेहमानों के सामने कबूल भी करते थे- पर अपने बच्चों के आगे उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। उनके लिए तो वे आखिरी दिन तक एक सख्त और अनुशासनप्रिय घर के मुखिया बने रहे जिस कारण बच्चों के मन में उनके प्रति प्रेम से ज्यादा आतंक था।
पार्वती के मायके के ही किसी आदमी ने, जो सम्भवत: उसके पिता का कोई पुराना मरीज था, कृष्णा को बताया था कि नानाजी को हिन्दी से कितना अघोषित लगाव था, और यह भी कि शायद इसके पीछे स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रेरणा थी। उन्होंने ‘एडिटर’ बद्रीदत्त पांडे के प्रसिद्ध स्थानीय अखबार ‘शक्ति’ में छपी राष्ट्रभक्तिवाली कविताओं की एक फाइल बना रखी थी। मातृभाषा से उनका यह लगाव सम्भवत: 1920 के दशक का था और तब यह कोई छोटी चीज नहीं थी क्योंकि गांधीजी और स्वराजियों के प्रति जरा भी रुझान मालूम पड़ते ही आप जेल की हवा खा सकते थे। साथ ही अपनी स्थायी और पेंशनवाली सरकारी नौकरी से भी हाथ धो बैठते।
पार्वती को नाना ने ही हिन्दी में हस्तलिखित पत्रिका निकालने को प्रेरित किया था। पत्थरों से बने उस बड़े घर में पार्वती और उसके अनेक भाई-बहनों के साथ यह काम शुरू हुआ। बच्चे पत्रिका के जितने अंक निकालते, नानाजी हरेक के लिए उनको एक-एक रुपया देते थे। उस जमाने के लिए यह पैसा काफी था।
कृष्णा की माँ ने ही उसे बताया था कि उन दिनों माहौल में एक सनसनी सी महसूस होती थी, एक बिजली सी दौड़ती थी। अपनी मातृभाषा में पढ़ते-लिखते समय स्वाभिमान का बोध होता था और हाथ से बुनी मोटी खादी का कपड़ा पहनने में भी। ‘‘पर मोटे-खुरदरे रूमालों से मुश्किल आती थी।’’ पार्वती ने बताया, ‘‘मुझे अक्सर जुकाम हो जाता था और खुरदरे खादी से दो-चार बार नाक पोंछते ही लगता था कि बस अब नाक कटकर झड़ी।’’
किसी विलुप्त सभ्यता की तरह माँ के युग की वे पत्रिकाएँ, खादी की पोशाकें और रूमाल भी काल के गाल में कैसे समा गए, पता भी नहीं चला। लेकिन माँ के मन में अभी भी वे हिन्दी कविताएँ गूँजती थीं और उस युग की यादें अभी भी उसके लिए बहुत सुहावनी थीं।
ये तमाम किस्से सुन-सुनकर कृष्णा और उसके भाई-बहनों को लगता था कि उनकी माँ ने आदर्शवाद और रोमांच से भरा जीवन जिया होगा। पार्वती उनको बताती थी कि कैसे देर रात को भूखे और बीमार स्वराजी आते थे। कैसे उन्हें चुपचाप खाना खिलाया जाता था, उनकी सेवा-सुश्रूषा की जाती थी और फिर विश्वस्त पुराने नौकरों के साथ सुरक्षित ठिकानों पर भिजवा दिया जाता था। प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएँ जाने किन गुमनाम स्रोतों से उनके घर आ जाती थीं और उन्हें बड़े चाव से छुपकर शौचालय में कैसे पढ़ा जाता था और फिर युवकों और छात्रों की एक नामहीन टुकड़ी में बाँट दिया जाता था। उनके उस घर में अक्सर विस्फोटक साहित्य और परचे सुरक्षित रखने के लिए आते थे और इन्हें अस्पताल के तहे कपड़ों में लपेटकर या ऑपरेशन रूम की अलमारियों या फिर मरीजों के बिस्तरों के नीचे छुपाकर रखा जाता था।
कृष्णा को बहुत बाद में इस बात का एहसास हुआ कि उसकी माँ पार्वती शायद अंग्रेजी हुकूमत के एक अधिकारी की बीवी के रूप में जिए अपने जीवन की नीरसता को तोड़ने के लिए ही ये किस्से कल्पना की कूँची से तमाम तरह के रंगरोगन लगाकर सुनाया करती थी। उसे अपने वर्तमान की ऊब से बचने के लिए उन नाटकीय घटनाओं को याद करना जरूरी लगता होगा जो उसके बचपन को अविस्मरणीय बनाती थीं। 16 वर्ष की उम्र में ही विवाहित होकर उसे उन हिन्दस्तानी अधिकारियों की देसी मेमों की हर बात पर सिर हिलाना और मुस्कुराते हुए अनगिनत पकवान बनाना-परोसना भी सीखना पड़ा था। ये भूरी मेमसाहबें मानती थीं कि गोरे अंग्रेज और उनकी मेमसाहबें जो-जो काम अधूरे छोड़ गए हैं, वह सब उन्हें पूरे करने चाहिए। वे अपनी मजेदार अंग्रेजी में कभी नवीनतम पढ़े रोमांचित नावेलों की बातें सुनाती थीं या कभी यह किस्सा सुनाती थीं कि लखनऊ की फलाँ पूर्व महारानी ने किस तरह मुश्किल में पड़कर अपना माणिक का हार सस्ते में बेच दिया। उनके बच्चे एनिड ब्लाइटन और मार्क ट्वेन की किताबें पढ़ते हुए बड़े होते थे।
कृष्णा और उसके भाई-बहन बेसब्री से इन्तजार करते थे कि कब ये औरतें बिदा हों और कब पार्वती उनके असली रूप में उनके बीच वापस आकर उन्हें अपने बचपन की मजेदार कहानियाँ सुनाए। वह देखा करती थी कि इन मेमसाहबों के विदा होते ही उसकी माँ की आँखों की चमक तथा चेहरे के भाव बदल जाते थे। फिर वह अभी-अभी गए मेहमानों के हावभाव और भाषा की नकल करने के साथ-साथ उनकी आदतों की नकल भी हूबहू उतार देती थी। दस वर्ष की उम्र में पार्वती को एक महिला पाठशाला भेजा गया था जहाँ भले घर की लड़कियों को इंग्लिश और हिन्दी के साथ ही नागरिकशास्त्र और बुनाई-कढ़ाई की भी शिक्षा दी जाती थी। बुनाई-कढ़ाई में तो पार्वती के हाथ खास नहीं चलते थे लेकिन भाषाओं, खासकर हिन्दी में उसकी सहज रुचि थी। उसने बड़े गौरव के साथ अपने बच्चों को बताया कि कैसे वह बड़े आराम से पन्त, निराला, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद की कविताएँ धड़ाधड़ उद्धृत कर सकती थी और स्कूल में काव्यपाठ तथा वाद-विवाद के सारे पुरस्कार झटक ले जाती थी।
आज कृष्णा को लगता है कि एक हद तक पुरानी चीजों की मरम्मत सम्भव है। फर्नीचर, पुराने बर्तनों, गहनों, चित्रों और पुरखों की हवेलियों तक को ठीक-ठाक करके फिर से उपयोग में लाया जा सकता है। पर भाषा के साथ यह नहीं है। वह गई तो गई। माँ को जो बातें मालूम थीं और जिन्हें वह अपनी सबसे कीमती यादों के तौर पर दिल से लगाकर रखे हुए थी, वे माँ की भाषा के मुरझाने के साथ ही पुरानी और अनुपयोगी बनती चली गई थीं। अपन बच्चों को उस युग की कहानियाँ सुनाना भी अब बीते दिनों की रंग उड़ी फिल्में दिखाने जैसा हो चला था।
पार्वती कहा करती थी, ‘‘पाठशाला तो अभी भी है पर सिर्फ इमारत भर है। वहाँ जो पढ़ाई होती है उससे आज की किसी लड़की को न दूल्हा मिल सकता है न काम।’’
कृष्णा को असली जीवन और दन्तकथाओं का फर्क दिखने लगा है।
पार्वती ने दर्जनों बार उनको सुना-सुनाकर यह बात कही होगी कि कैसे अगर उसे फिर से जीवन जीने का अवसर मिले तो वह कृष्णा के नखरों में न आकर उसे किसी कस्बे के हिन्दी मीडियम स्कूल में भेजने से मना कर देती। माँ यह कहकर सदा हँस देती थी, पर कृष्णा जानती थी कि बात पूरी गम्भीरता से कही गई थी।
जब माँ ने पहली बार यह बात कही थी तब कृष्णा तेरह वर्ष की थी और वह कांवेंट स्कूल में अपने दाखिले का विरोध कर रही थी। पिताजी बीमार थे और अपनी बहन के साथ कृष्णा को भी एक कांवेंट स्कूल में भेजने का प्रयास पार्वती ने थक-हारकर छोड़ दिया था। फिर भी कृष्णा जब कभी माँ की यह बात सुनती, उसका मन कचोटता।
माँ उसके बारे में बाहरवालों से जो-जो बातें कहती रहती थी, उसमें एक यह भी थी कि कृष्णा की अंग्रेजी कांवेंट के बच्चों जितनी अच्छी है। वैसे माँ को अपनी बेटी के हिन्दी और संस्कृत ज्ञान पर भी नाज ता जो उस वर्ग के बच्चों में प्राय: नहीं दिखता था। पिता के बाद कृष्णा और माँ को उसके वैधव्य के जीवन ने काफी बदल दिया। कृष्णा अब सोफे पर पालथी मारकर बैठ जाती थी और खूब सारी हिन्दी किताबें पढ़ती रहती। कई बार वह पाती थी कि माँ उसे एकटक निहार रही है। वह सोचती होगी कि कृष्णा अभी अपने खयालों में गुम होगी, लेकिन कृष्णा को लगा कि माँ की टकटकी के पीछे यह चिन्ता छिपी थी कि उसकी यह धूमकेतु सी पगली बेटी पता नहीं कब क्या करने लगे। उसे लगता था कि कहीं वह कलम ही न पकड़ ले क्योंकि तब अपनी कलम से वह जो कुछ उगलेगी वह तूफान ही खड़ा करेगा।
और काफी समय बाद जब कृष्णा ने अपना अध्यापन का काम छोड़कर एक हिन्दी समाचार एजेंसी में काम करने के फैसले की जानकारी देने के लिए फोन किया तो उसे लगा जैसे माँ को इस तरह की खबर का अन्देशा काफी पहले से था।
‘‘हाँ,’’ पार्वती ने कहा, ‘‘काम तो बढ़िया लगता है,’’ फिर थोड़ा रुककर, ‘‘लेकिन तुझे बड़ी देर-देर तक काम करना होगा ? पोलिटिकल प्रेशर होंगे ? थानों और दंगाग्रस्त इलाकों के चक्कर लगाने होंगे ?’’
‘‘उससे क्या होगा ?’’
‘‘क्या तू यह सब झेल सकेगी ? क्या तू यह सब करना चाहती है ? राजनेताओं की संगति में ज्यादा दिखनेवाली औरतों को मर्द आदर के साथ नहीं देखते।’’
‘‘आदर-वादर नहीं, सालों को अपनी मर्दागनी को खतरा लगता है।’’
कृष्णा को अचानक लगा कि वह चीख रही है।
माँ खामोश रही। गाली उसकी बर्दाश्त से बाहर थी।
‘‘ठीक है, गुडलक,’’ उसने आखिर में कहा और फोन काट दिया।
इन कहानियों में एक रहस्यकथा इस बारे में थी कि कृष्णा की माँ के एक चाचा ने अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करने के कारण उसे कैसे मार डाला था ! इस बेचारी चाची को बड़ी लम्बी प्रसवपीड़ा हुई और आखिरकार माँ के पिता ने, जो सर्जन थे, उसका ऑपरेशन किया। तब एनेस्थिशिया का चलन आज की तरह नहीं था और जब उसे होश आया तो वह बहुत ही डरावने ढंग से कराहने-चिल्लाने लगी। थोड़ी देर में ही चाचा जो उससे बहुत प्रेम करते थे, उसकी तकलीफ देखकर इतने विचलित हो गए कि उसका पेट जोर-जोर से दबाने और मसलने लगे। और इस चक्कर में टाँके लगा पेट इतना दब गया कि कच्चे टाँके खुल गए और तीन दुधमुँहों की महतारी बेचारी चाची गोलोकवासी हो गई।
इस दन्तकथा की मार्फत माँ शायद उनको यह बताना चाहती थी कि औरतों के सन्तान पैदा होने के भारी कष्ट की घड़ियों में मर्द उससे प्रेम करे तो इसमें भी औरत का मरण ही है। वह कहना चाहे जो चाहती हो, उसके चेहरे की हल्की मुस्कान यही बताती थी कि और जो हो यह किस्सा पति-पत्नी के रिश्तों या सहज मानवीय प्रेम के बारे में तो नहीं ही है।
कृष्णा के नाना सुदूर कुमाऊँ में बसे एक छोटे से पहाड़ी शहर में डॉक्टर थे। अंग्रेज सरकार बहादुर ने यहाँ उनकी पोस्टिंग की थी और उसके बाद यह बात वह भूल सी गई थी। नाना का कार्यक्षेत्र आसपास की पहाड़ियों में बिखरे उन्नीस गाँवों तक फैला था। नानाजी खबर मिलते ही थ्री-पीस सूट और हैट पहने घोड़े पर सवार होकर आँधी-तूफान-बर्फ, सबके बीच बच्चे-बूढ़ों को देखने के लिए भरी रात में भी चल देते थे। साथ में उनका कम्पाउंडर, बुद्धिबल्लभ भी खच्चर लेकर विशेष लालटेन उठाए हुए चलता था।
डाक सा’ब जिस मकान में रहते थे वह अस्पताल के अहाते में ही था और पार्वती के अनुसार बचपन में वे लोग इस बात के अभ्यस्त हो गए थे कि देर रात आकर कोई दरवाजा खटखटाता, फिर धीमी आवाज में पूछताछ और आपसी राय-मशविरा होंगे, अलमारी खुलेगी, लालटेन में भरे जाने किरासन तेल की गन्ध आएगी और फिर उनके पिता के घोड़े और कम्पाउंडर के खच्चर के टापों की आवाज दूर होती जाएगी। अक्सर जमीन-जायदाद की लड़ाई में जख्मी लोग खाट पर लादकर अस्पताल लाए जाते थे। उनके जिस्म हँसिए, बल्लम, गँडासे, कुदाल जैसी उस किसी भी हथियार से बुरी तरह काट डाले गये होते थे जो उनके हमलावर के हाथ में झगड़ते वक्त रहा होता। कुछ इलाज से बच जाते थे, कुछ च बसते थे। डाक सा’ब जिनकी जान बचा पाते थे, वे लोग उनका उपकार मानते हुए बाद में वर्षो तक अपने खेत की ढेरों ताजा उपज-आलू, प्याज, हरी सब्जियाँ, संतरे, सेब घर में बने खुशबूदार घी से भरी लकड़ी की ठेकियाँ लेकर हाजिर हो जाते थे। इतना बढ़िया जमा दही वे लोग लाते थे कि आप चाहें तो उसे काटकर पॉकेट में रख लीजिए और उसमें से एक बूँद पानी निकलकर कपड़े को खराब नहीं करेगा ! यह कृष्णा की माँ, पार्वती का कहना था।
स्कूल में छुट्टी पाकर होमवर्क पूरा हो जाने के बाद पार्वती और उसके भाई-बहन वहीं अपने घर के छोटे अहाते में खेलते रहते थे। उनको अपने आसपास के नजारों और रोने-चीखने की आवाजों की आदत सी हो गई थी। अक्सर वे बड़े मनोयोग से पेशेवर लोगों द्वारा लाशों को शवघर से लाते-ले-जाते देखते। पार्वती ने यह भी बताया कि उन्होंने चुपचाप एक डायरी भी रखी हुई थी जिसमें उस अस्पताल में मरनेवालों की संख्या, मरने की तारीख और समय, वे नोट करते जाते थे। और जब सारा रिकार्ड देखा गया तो उनके नौकर-चाकर कहा करते थे वही बातें सही साबित हुई कि मनुष्य के जनम-मरण पर जितना असर चन्द्रमा का पड़ता है उतना किसी और चीज का नहीं। कृष्ण पक्ष की तुलना में उजले पाख में न सिर्फ ज्यादा मौतें होती हैं बल्कि ज्यादा बच्चे भी जन्म लेते हैं। माँ ने उनको बताया था कि नानी को अलबत्ता डॉक्टर की बीवी होना एकदम रास नहीं आता था। उसे लगता था कि हर आदमी उसके सर पर सवार घर को भ्रष्ट करने के कुचक्र में जुटा है। उनके अपने खाने का समय तय नहीं था क्योंकि डॉक्टर सा’ब को कोई भी कभी भी बुला लेता था और पतिपरायण नानी पति के खाए बगैर कैसे मुँह में अन्न डाल सकती थी ? देर-सबेर और हड़बड़ी में कुछ भी खा लेने के चलते वे लगातार पेट की तकलीफ झेलतीं। पर उन्होंने कभी भी एलोपैथिक दवाएँ नहीं खाईं। वे जड़ी-बूटियों और अपनी दवाई से ही अपना इलाज करती थीं। नानी की जिन्दगी का मात्र यही इलाका ऐसा था जिस पर नाना का कोई वश न चलता था।
नाना यह बात अपने रिश्तेदार मेहमानों के सामने कबूल भी करते थे- पर अपने बच्चों के आगे उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। उनके लिए तो वे आखिरी दिन तक एक सख्त और अनुशासनप्रिय घर के मुखिया बने रहे जिस कारण बच्चों के मन में उनके प्रति प्रेम से ज्यादा आतंक था।
पार्वती के मायके के ही किसी आदमी ने, जो सम्भवत: उसके पिता का कोई पुराना मरीज था, कृष्णा को बताया था कि नानाजी को हिन्दी से कितना अघोषित लगाव था, और यह भी कि शायद इसके पीछे स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रेरणा थी। उन्होंने ‘एडिटर’ बद्रीदत्त पांडे के प्रसिद्ध स्थानीय अखबार ‘शक्ति’ में छपी राष्ट्रभक्तिवाली कविताओं की एक फाइल बना रखी थी। मातृभाषा से उनका यह लगाव सम्भवत: 1920 के दशक का था और तब यह कोई छोटी चीज नहीं थी क्योंकि गांधीजी और स्वराजियों के प्रति जरा भी रुझान मालूम पड़ते ही आप जेल की हवा खा सकते थे। साथ ही अपनी स्थायी और पेंशनवाली सरकारी नौकरी से भी हाथ धो बैठते।
पार्वती को नाना ने ही हिन्दी में हस्तलिखित पत्रिका निकालने को प्रेरित किया था। पत्थरों से बने उस बड़े घर में पार्वती और उसके अनेक भाई-बहनों के साथ यह काम शुरू हुआ। बच्चे पत्रिका के जितने अंक निकालते, नानाजी हरेक के लिए उनको एक-एक रुपया देते थे। उस जमाने के लिए यह पैसा काफी था।
कृष्णा की माँ ने ही उसे बताया था कि उन दिनों माहौल में एक सनसनी सी महसूस होती थी, एक बिजली सी दौड़ती थी। अपनी मातृभाषा में पढ़ते-लिखते समय स्वाभिमान का बोध होता था और हाथ से बुनी मोटी खादी का कपड़ा पहनने में भी। ‘‘पर मोटे-खुरदरे रूमालों से मुश्किल आती थी।’’ पार्वती ने बताया, ‘‘मुझे अक्सर जुकाम हो जाता था और खुरदरे खादी से दो-चार बार नाक पोंछते ही लगता था कि बस अब नाक कटकर झड़ी।’’
किसी विलुप्त सभ्यता की तरह माँ के युग की वे पत्रिकाएँ, खादी की पोशाकें और रूमाल भी काल के गाल में कैसे समा गए, पता भी नहीं चला। लेकिन माँ के मन में अभी भी वे हिन्दी कविताएँ गूँजती थीं और उस युग की यादें अभी भी उसके लिए बहुत सुहावनी थीं।
ये तमाम किस्से सुन-सुनकर कृष्णा और उसके भाई-बहनों को लगता था कि उनकी माँ ने आदर्शवाद और रोमांच से भरा जीवन जिया होगा। पार्वती उनको बताती थी कि कैसे देर रात को भूखे और बीमार स्वराजी आते थे। कैसे उन्हें चुपचाप खाना खिलाया जाता था, उनकी सेवा-सुश्रूषा की जाती थी और फिर विश्वस्त पुराने नौकरों के साथ सुरक्षित ठिकानों पर भिजवा दिया जाता था। प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएँ जाने किन गुमनाम स्रोतों से उनके घर आ जाती थीं और उन्हें बड़े चाव से छुपकर शौचालय में कैसे पढ़ा जाता था और फिर युवकों और छात्रों की एक नामहीन टुकड़ी में बाँट दिया जाता था। उनके उस घर में अक्सर विस्फोटक साहित्य और परचे सुरक्षित रखने के लिए आते थे और इन्हें अस्पताल के तहे कपड़ों में लपेटकर या ऑपरेशन रूम की अलमारियों या फिर मरीजों के बिस्तरों के नीचे छुपाकर रखा जाता था।
कृष्णा को बहुत बाद में इस बात का एहसास हुआ कि उसकी माँ पार्वती शायद अंग्रेजी हुकूमत के एक अधिकारी की बीवी के रूप में जिए अपने जीवन की नीरसता को तोड़ने के लिए ही ये किस्से कल्पना की कूँची से तमाम तरह के रंगरोगन लगाकर सुनाया करती थी। उसे अपने वर्तमान की ऊब से बचने के लिए उन नाटकीय घटनाओं को याद करना जरूरी लगता होगा जो उसके बचपन को अविस्मरणीय बनाती थीं। 16 वर्ष की उम्र में ही विवाहित होकर उसे उन हिन्दस्तानी अधिकारियों की देसी मेमों की हर बात पर सिर हिलाना और मुस्कुराते हुए अनगिनत पकवान बनाना-परोसना भी सीखना पड़ा था। ये भूरी मेमसाहबें मानती थीं कि गोरे अंग्रेज और उनकी मेमसाहबें जो-जो काम अधूरे छोड़ गए हैं, वह सब उन्हें पूरे करने चाहिए। वे अपनी मजेदार अंग्रेजी में कभी नवीनतम पढ़े रोमांचित नावेलों की बातें सुनाती थीं या कभी यह किस्सा सुनाती थीं कि लखनऊ की फलाँ पूर्व महारानी ने किस तरह मुश्किल में पड़कर अपना माणिक का हार सस्ते में बेच दिया। उनके बच्चे एनिड ब्लाइटन और मार्क ट्वेन की किताबें पढ़ते हुए बड़े होते थे।
कृष्णा और उसके भाई-बहन बेसब्री से इन्तजार करते थे कि कब ये औरतें बिदा हों और कब पार्वती उनके असली रूप में उनके बीच वापस आकर उन्हें अपने बचपन की मजेदार कहानियाँ सुनाए। वह देखा करती थी कि इन मेमसाहबों के विदा होते ही उसकी माँ की आँखों की चमक तथा चेहरे के भाव बदल जाते थे। फिर वह अभी-अभी गए मेहमानों के हावभाव और भाषा की नकल करने के साथ-साथ उनकी आदतों की नकल भी हूबहू उतार देती थी। दस वर्ष की उम्र में पार्वती को एक महिला पाठशाला भेजा गया था जहाँ भले घर की लड़कियों को इंग्लिश और हिन्दी के साथ ही नागरिकशास्त्र और बुनाई-कढ़ाई की भी शिक्षा दी जाती थी। बुनाई-कढ़ाई में तो पार्वती के हाथ खास नहीं चलते थे लेकिन भाषाओं, खासकर हिन्दी में उसकी सहज रुचि थी। उसने बड़े गौरव के साथ अपने बच्चों को बताया कि कैसे वह बड़े आराम से पन्त, निराला, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद की कविताएँ धड़ाधड़ उद्धृत कर सकती थी और स्कूल में काव्यपाठ तथा वाद-विवाद के सारे पुरस्कार झटक ले जाती थी।
आज कृष्णा को लगता है कि एक हद तक पुरानी चीजों की मरम्मत सम्भव है। फर्नीचर, पुराने बर्तनों, गहनों, चित्रों और पुरखों की हवेलियों तक को ठीक-ठाक करके फिर से उपयोग में लाया जा सकता है। पर भाषा के साथ यह नहीं है। वह गई तो गई। माँ को जो बातें मालूम थीं और जिन्हें वह अपनी सबसे कीमती यादों के तौर पर दिल से लगाकर रखे हुए थी, वे माँ की भाषा के मुरझाने के साथ ही पुरानी और अनुपयोगी बनती चली गई थीं। अपन बच्चों को उस युग की कहानियाँ सुनाना भी अब बीते दिनों की रंग उड़ी फिल्में दिखाने जैसा हो चला था।
पार्वती कहा करती थी, ‘‘पाठशाला तो अभी भी है पर सिर्फ इमारत भर है। वहाँ जो पढ़ाई होती है उससे आज की किसी लड़की को न दूल्हा मिल सकता है न काम।’’
कृष्णा को असली जीवन और दन्तकथाओं का फर्क दिखने लगा है।
पार्वती ने दर्जनों बार उनको सुना-सुनाकर यह बात कही होगी कि कैसे अगर उसे फिर से जीवन जीने का अवसर मिले तो वह कृष्णा के नखरों में न आकर उसे किसी कस्बे के हिन्दी मीडियम स्कूल में भेजने से मना कर देती। माँ यह कहकर सदा हँस देती थी, पर कृष्णा जानती थी कि बात पूरी गम्भीरता से कही गई थी।
जब माँ ने पहली बार यह बात कही थी तब कृष्णा तेरह वर्ष की थी और वह कांवेंट स्कूल में अपने दाखिले का विरोध कर रही थी। पिताजी बीमार थे और अपनी बहन के साथ कृष्णा को भी एक कांवेंट स्कूल में भेजने का प्रयास पार्वती ने थक-हारकर छोड़ दिया था। फिर भी कृष्णा जब कभी माँ की यह बात सुनती, उसका मन कचोटता।
माँ उसके बारे में बाहरवालों से जो-जो बातें कहती रहती थी, उसमें एक यह भी थी कि कृष्णा की अंग्रेजी कांवेंट के बच्चों जितनी अच्छी है। वैसे माँ को अपनी बेटी के हिन्दी और संस्कृत ज्ञान पर भी नाज ता जो उस वर्ग के बच्चों में प्राय: नहीं दिखता था। पिता के बाद कृष्णा और माँ को उसके वैधव्य के जीवन ने काफी बदल दिया। कृष्णा अब सोफे पर पालथी मारकर बैठ जाती थी और खूब सारी हिन्दी किताबें पढ़ती रहती। कई बार वह पाती थी कि माँ उसे एकटक निहार रही है। वह सोचती होगी कि कृष्णा अभी अपने खयालों में गुम होगी, लेकिन कृष्णा को लगा कि माँ की टकटकी के पीछे यह चिन्ता छिपी थी कि उसकी यह धूमकेतु सी पगली बेटी पता नहीं कब क्या करने लगे। उसे लगता था कि कहीं वह कलम ही न पकड़ ले क्योंकि तब अपनी कलम से वह जो कुछ उगलेगी वह तूफान ही खड़ा करेगा।
और काफी समय बाद जब कृष्णा ने अपना अध्यापन का काम छोड़कर एक हिन्दी समाचार एजेंसी में काम करने के फैसले की जानकारी देने के लिए फोन किया तो उसे लगा जैसे माँ को इस तरह की खबर का अन्देशा काफी पहले से था।
‘‘हाँ,’’ पार्वती ने कहा, ‘‘काम तो बढ़िया लगता है,’’ फिर थोड़ा रुककर, ‘‘लेकिन तुझे बड़ी देर-देर तक काम करना होगा ? पोलिटिकल प्रेशर होंगे ? थानों और दंगाग्रस्त इलाकों के चक्कर लगाने होंगे ?’’
‘‘उससे क्या होगा ?’’
‘‘क्या तू यह सब झेल सकेगी ? क्या तू यह सब करना चाहती है ? राजनेताओं की संगति में ज्यादा दिखनेवाली औरतों को मर्द आदर के साथ नहीं देखते।’’
‘‘आदर-वादर नहीं, सालों को अपनी मर्दागनी को खतरा लगता है।’’
कृष्णा को अचानक लगा कि वह चीख रही है।
माँ खामोश रही। गाली उसकी बर्दाश्त से बाहर थी।
‘‘ठीक है, गुडलक,’’ उसने आखिर में कहा और फोन काट दिया।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book