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परतों के बीच

गोविन्द मिश्र

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2738
आईएसबीएन :8171192920

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प्रस्तुत है एक यात्रा-संस्मरण...

Parton Ke Beech

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘जब विजयनगर साम्राज्य बढ़ा, राजधानी तुंगभद्रा के दक्षिणी किनारे मौजूदा हम्पी के पास ही कहीं ले आई गई। इस इतिहास के पार समय की एक और परत है जो इन अवशेषों से झाँकती है। यह किष्किंधा है-बालि-सुग्रीव की कर्मस्थली, हनुमान की जन्म और लीला स्थली, राम-सुग्रीव मित्रता की भूमि। अतीत की एक तीसरी परत भी थी जो हमारे साथ ही चल रही थी। राजा अच्युतदेव राय जो अनेगुंदी रियासत के राजा थे- राज्यों के स्वतंत्र भारत में विलय के ठीक पहले...
अतीत की परतों को भी अपने में से खरोंचकर निकाल अंततः प्रकृति के बीच खड़ा होना, नदी-पर्वत, पेड़ पौधों को उस तरह ही लेना जो वे हैं। एक से एक सुबहें रही होंगी-त्रेता युग में, विजयनगर काल में रजवाड़ों के समय उसके बाद भी....लेकिन यह सुबह जो आज है—ऐसी कभी नहीं हुई थी...’’

‘‘धुधभरी सुर्खी’, ‘दरख्तों के पार...शाम’और ‘झूलती जड़े’ के बाद गोविन्द मिश्र का यह चौथा यात्रावृत है। यात्रा में अपने साथ जो छोटे-छोटे अनुभव होते हैं उन्हें जीते हुए यात्रा-भूमि से साक्षात्कार-इधर-उधर से, कई कोणों-दृष्टिकोणों से इस तरह कि परतें खुलती चली जाएँ। यात्रा-भूमि एक व्यक्तित्व लेकर उठ खड़ी हो; अपने में हमें पूरी तरह से ले ले, उसमे डूबा जाया जाय...और डुबकी के बाद बाहर आओ तो वह भूमि अपने ओढ़न-पहरावन उतार फिर वापस अपनी पाशविक निर्मलता में सामने खड़ी हुई।

पार देखने, देखते चलने का क्रम जहाँ इन यात्रावृतों को एक बृहत् आयाम देता है, वहीं अपनी दुर्बलताओं के साथ लड़ते-झगड़ते, फिर भी चलते हुए लेखक की स्वयं को मिलकर उठा-पटक इन यात्रावृतों का दैहिक आकार बराबर बरकरार रखती है, इन्हें प्रभावी नहीं बनने देती। यहाँ बड़ी बातें है तो छोटी भी।

‘‘अधेड़ ड्राइवर सिगरेट जलाकर अपने असिस्टेंन्ट के साथ गाड़ी दुरूस्त करने में जुट गया। गाड़ी सुधारने में वह इस तरह तलीन हो जाता था जैसे कोई वैज्ञानिक अपनी लैब में काम कर रहा हो....साथ में उसका अस्सिटेंट। दोनों जैसे भूल जाते थे कि उन्हें कहीं जाना है और साथ में सवारियाँ भी हैं।...उनके सामने मुश्किलें कई थीं। पहली यह कि उनमें जितनी तल्लीनता थी, उतनी ही लियाकत कम। ऊपर से बीच-बीच में मेरी टोंका-टाका, खीझ....उनकी तल्लीनता टूट जाती...’’
उपन्यास का फैलाव और कहानी की गहराई अगर इन यात्रावृतों में जगह-जगह, एक जगह नजर आ जाए तो  वह ताज्जूब की बात कतई नहीं होगी।

 

तीन परतों के बीच-हम्पी

होस्पेट में समकालीन साहित्य सम्मेलन का ग्यारहवाँ अधिवेशन था। मेरे साथ पत्नी और मनु भी हो लिये थे।

गुन्तकल स्टेशन पर साढ़े सात बजे शाम इन्तजार करते महेन्द्र कार्तिकेय और उनकी एक सहकर्मी महिला। गुन्तकल से होस्पेट एक सौ दस किलोमीटर करीब दूर है। छोटी लाइन की ट्रेन है, जिससे चलते तो रात बारह के आसपास पहुँचते। इसलिए महेन्द्र ने टैक्सी का इन्तजाम किया था-दो घण्टे में होस्पेट। टैक्सी भी एक नहीं थी, दो थीं। एक काफी होती...मैं सोच रहा था।

सामान रखते ही दोनों ड्राइवर फुर्ती से आये। हमारी टैक्सी का ड्राइवर एक छोकरा-सा, शायद हाल ही में टैक्सी चलाना सीखी थी, इसलिए उत्साह से भरा। दूसरा-जो छोकरे का गुरु लगता था-अधेड़, काले रंग का, चेहरा थोड़ा खुतैला। वह सीनियर होने के वजन को महसूस करते हुए चलता था। फुर्तीले दोनों थे। हमारी टैक्सी स्टार्ट होने से इन्कार कर रही थी तो छोकरे ने हमें भरोसा दिलाया और अपने साथी को पुकारा, दोनों ने कार को आगे-पीछे, हिला-डुला स्टार्ट किया। हम चल पड़े–आगे हमारी टैक्सी, पीछेवाले में महेन्द्र और उसकी मित्र। टैक्सी डीजल एम्बेसेडर की थी, ऊपर से खटारा...हैलीकाप्टर जैसी आवाज कर रही थी। बीस किलोमीटर ही चलकर बैठ गयी, सीनियर ड्राइवर सिगरेट पी-पीकर उसे ठीक करता रहा, आखिर हमारी जिद पर वह बड़े बेमन से गाड़ी वहीं छोड़ने को तैयार हुआ। इत्तफाक से गाड़ी गाँव में ही बिगड़ी थी।

हम सब अब महेन्द्रवाली टैक्सी में आ गये। यह कार भी रेस देने पर हैलीकाप्टर जैसी आवाज करती थी। आवाज की वजह से स्पीड से बहुत ज्यादा तेज चलती हुई महसूस होती। मुझे कान में रुई डालनी पड़ी।
दस बजे करीब बेलारी पहुँचे। बड़ा कस्बा लग रहा था क्योंकि सड़कों पर इतनी रात भी रोशनी और चलाफिरी थी। खाना खा कर चले तो बेलारी कस्बे के आखिरी छोर पर ही कोई तार टूट गया और कार की रोशनी गायब। सिगरेट जलाकर अपने असिस्टेंस के साथ अधेड़ ड्राइवर गाड़ी दुरुस्त करने में जुट गया। गाड़ी सुधारने में वह इस तरह तल्लीन हो जाता था कि जैसे कोई वैज्ञानिक अपनी लैब में काम कर रहा हो.....साथ में उसका असिस्टेंट। दोनों जैसे भूल जाते थे कि उन्हें कहीं जाना है और साथ में सवारियाँ भी हैं। उनके सामने मुश्किलें कई थीं। पहली यह कि उनमें जितनी तल्लीनता थी, उतनी ही लियाकत कम। ऊपर से बीच-बीच में मेरी टोकाटाकी, खीज...उनकी तल्लीनता टूट जाती तो उन्हें अच्छा नहीं लगता था। तेलगू में बात करते हुए वे मुझे दरकिनार कर कार सुधारने में जुट जाते। जब गाड़ी सुधरती नजर नहीं आई तो अधेड़ बोला-ऐसे ही चले चलते हैं बिना लाइट के, साठ मील ही तो है...मैं उनके आत्मविश्वास पर चकरा गया।

हमें ले जाने में उनकी कमाई भी जुड़ी थी जिसे वे किसी भी हालत में गँवाना नहीं चाहते थे। मैं जिद करने लगा कि वे हमें रेल स्टेशन पर छोड़ दें। महेन्द्र की मित्र चाहती थीं कि ड्राइवरों को थोड़ा समय और दिया जाय, वे गाड़ी ठीक कर लेंगे। मेरी बात अनसुनी करते हुए दोनों ड्राइवर फिर कार की मशीनरी में खो गये। थोड़ी देर में कार की बत्ती, एकाएक जल उठी, बराबरी से महेन्द्र की मित्र का चेहरा रोशन हो गया। वे कार से ही जाना चाहती थीं।

चारेक किलोमीटर चले होंगे कि फिर तार जलने की दुर्गंध, धुआँ और कार की रोशनी गुल। अब आधी रात को हम बीच रास्ते...सितारों और छोटे चाँद की रोशनी, चारों ओर बियाबान मैदान। जंगल नहीं था लेकिन इस तरफ उठाईगीरी के किस्से सुने जाते थे। फिर हमारे साथ दो औरतें भी थीं। ड्राइवर भाई सिगरेट जलाकर अपने असिस्टेंट के साथ फिर लैब में व्यस्त हो गया !

इस बार ड्राइवरों और महेन्द्र की मित्र...दोनों का मूक विरोध झेलते हुए मैंने होस्पेट की तरफ जाते वाहनों को हाथ देना शुरू किया। एक ट्रकवाला रुका...आगे वाली छोटी-सी जगह में मजदूर बैठे थे, फिर भी ट्रक ड्राइवर ने हमारे लिए जगह बना दी। हम सामान समेत किसी तरह धँस लिए। महेन्द्र की मित्र को अपने छाते की विशेष चिन्ता थी...वह रखा गया, सही जगह रखा गया कि नहीं। ट्रक चला तो हमें मुसीबत से छुटकारे का संतोष हुआ। ट्रक ड्राइवर पूरा अधेड़ नहीं हुआ था—उसमें जीवन के प्रति उत्साह, मोहब्बत छलक-छलक उठते जब वह बीच-बीच में पास बैठी मजदूरिन से मुहब्बत जताता। वे पूर्व परिचित थे और ड्राइवर बार-बार उसे समझा रहा था—तू मेरे साथ रहने चली चल, तुझे ऐसे रखूँगा, वैसे रखूँगा...कैसा सीधा-साधा प्रणय निवेदन !
जगह कम होने की वजह से महेन्द्र और मैं फँसे-फँसे-से बैठे थे इसलिए जब ट्रक अगली बार रुका तो हमने ट्रक के ऊपर बैठने का तय किया। हमें आराम होगा और यहाँ भी लोगों के लिए जगह बन जाएगी। मैं देखकर हैरान रह गया कि महेन्द्र कार्तिकेय भी अपने भारी-भरकम शरीर को ऊपर चढ़ा ले गये—ट्रक के पहिए पर पैर रखकर दूसरे से ऊपर...मस्तिष्क की शरीर पर विजय !

ऊपर पत्थर की चीपें रखी थीं जिन्हें ट्रक ढोकर ले जा रहा था। चीपों के ऊपर हम...हमारे ऊपर सितारे, हल्की चाँदनी और आसमान। हमें झकझोरती बेहद ठंडी हवा, हम पतली शालों में सुरसुर करते हुए। नीचे औरतों को अकेला छोड़ आने की चिन्ता कम से कम मुझे नहीं थी। ड्राइवर के मन में मजदूरिन के लिए प्रेम था...प्रेम ने उसके मन को निर्मल कर दिया होगा—दुर्भावनाएँ निष्काशित होंगी ! ड्राइवर मीठी-मीठी बातों में व्यस्त होगा—मजदूरिन होस्पेट में उतरने वाली थी, ट्रक ड्राइवर आगे चला जायेगा...ठंडी रात के इन दो-तीन घण्टों में ली-दी गयी मिठास ! रास्ते का पता ही न चलेगा !
फिर भी ऊपर हमारे लिये रास्ता लम्बा हो रहा था। हवा इतनी ठंडी होगी...यह हम न सोंच सके थे। इस इलाके में रातें बहुत ठंडी हो जाती हैं। तकलीफ के बावजूद मुझे सुकून था—बहुत दिनों बाद प्रकृति के विराट प्रांगण में। आसमान, सितारे चाँदनी, हवा। कभी-कभी पेड़ों के नीचे आती डालें हमें सीधे-सीधे छू रही थीं।

साढें बारह बजे रात होस्पेट में ट्रक ने हमें उतारा। रिक्शे हमें मिल गये। हर जगह के रिक्शों की बनावट थोड़ा भिन्न होती है और वे बैठने की अलग-अलग तरह की अनुभूति देते हैं। यहाँ के रक्शे में बैठते ही धँस जाने की प्रतीत हुई। पूरा रिक्शा महेन्द्र की काया के लिए पर्याप्त न था, उसके रिक्शे में हम कोई सामान न रख सके। रिक्शे चले तो घंटियों की अनवरत आवाज...किनकिनाहट पहिये की तीलियों से किसी चीज के टकराने से निकलती थी, इसलिए बराबर चलती थी। रात के सन्नाटे में वह आवाज मोहक लगती थी।

ठहरने वाली जगह पर एक-दो कारें थीं...किसी को कहीं जाना हो। मेरे लिए एक कमरे का प्रबंध तुंगभद्र डैम के ऊपर बने रेस्ट हाउस-वैकुंठ में भी था। कार लेकर हम उसे देखने निकले। बाँध के ऊपर सुंदर इमारत, नीचे चारों तरफ सितारों की तरह बीछी हुई बिजली की रोशनियाँ। सामने अँधेरे में डूबी बाँध की जलराशि। कई आवाजें मारने के बाद दरवाजा खुला। अंदर लाइट जलते ही कुछ लोग सोते से उठे-उघारे बदन, नीचे रंगीन लुंगी। एक-दो औरतें और बच्चे भी थे। आधी रात को अनमने उठते हुए वे प्रेत छायाओं से लगे। सरकारी रेस्ट हाउसों का यह इस्तेमाल मैंने मध्यप्रदेश में भी देखा था। सरकारी रेस्ट हाउस अब यही रह गये हैं...चन्द दिनों के लिए मंत्रियों, विधायकों के प्रवास के लिए, बाकी करीब-करीब मुस्तकिल तौर पर वहाँ के कर्मचारियों के आवास के लिए। बीच में कोई सरकारी अफसर खींचा-तानी से एक-दो दिन रह ले तो ठीक...वहाँ भी उसे कोने का कोई साधारण-सा कमरा दे दिया जायेगा। हर चीज उसे दिक्कत से दो, साधारण चीजों के लिए भी मोहताज रखो, अपने आप भाग जायेगा। बाद में फिर मंत्रियों-विधायकों और उनकी नामौजूदगी में कर्मचारियों का एकाधिकार ! एक-दो कमरे बढ़िया रखे जाते हैं, बाकी फटेहाल। उस बड़ी इमारत में आधी रात को प्रेत-छायाओं से घूमते उन मनुष्यों के आसपास एक सुरंगी कमरे में रहना, यह मुझे जमा नहीं, विशिष्ठता हमें साधारण से काटकर ऐसे ही किसी-न-किसी तरह के प्रेत-जगत में ले जाती है। जहाँ साधारण है, वहाँ चहल-पहल है, जीवन है। मैं वहीं ठहरूँगा जहाँ सब ठहरे हैं। ‘वैकुंठ’ से अच्छा अपना संसार है। मैं रात को ही नीचे उतर आया, प्रियदर्शिनी होटल में सबके साथ रहने के लिए।

अगला दिन कस्बा, शराब और शक्कर की फैक्टरी देखने और सम्मेलन में निकल गया। कस्बा अन्य कस्बों की तरह धूल-भरा, फैक्टरियाँ भी अन्यों जैसी।  शक्कर फैक्टरी के मुहानों पर गन्नों के गट्ठर ले जाते थे जो अगली स्टेज पर महीन कुटे हुए निकलते थे...गीले भूसे की तरह। बंधुवर अमरनाथ शुक्ल वहाँ बेहद बेचैनी से इधर-उधर पूछताछ करते दौड़ते दिखाई दिये—‘जूस कहाँ गया, जूस कहाँ..?’ जूस...माने की रस... मैं सोच रहा था लेखन में भी तो यही अहं सवाल है—रस कहाँ गया ?

अगले रोज सुबह जब हम हम्पी अवशेष देखने पहुँचे तो अपने आप से पूछ रहा था—क्या है आज का नगर होस्पेट आम, अनाकर्षक, यहाँ तक कि उबास-भरा है, जबकि उसके बरक्स हम्पी के खँडहर आकर्षक, यहाँ तक कि जीवन्त दिखते हैं। क्या यह महज हमारा अतीत के प्रति मोह है ? कमालापुर को पीछे छोड़ते ही पहाड़ियाँ दिखने लगती हैं..छोटी, इधर-उधर बिखरी पहाड़ियाँ....जैसे पहाड़ियाँ भी नहीं, बड़े-बड़े लाल पत्थरों के टीले हों। पत्थर भी वैसे सटे हुए नहीं जैसे पहाड़ों में होते हैं, अलग-अलग औघड़ और कहीं-कहीं तो खासे खतरनाक ढंग से एक-दूसरे पर रखे हुए...अब खिसके, अब खिसके। विशेषज्ञों का कहना है कि दक्षिणी पठार में जो दिन में खूब गर्मी और रात को खूब ठंडक पड़ती है, उससे पत्थर चटक जाते हैं,...इसलिए पहाड़ कालान्तर में इस तरह बड़े-बड़े पत्थरोंवाले टीले, सिलसिलेवार टीले हो गये। रात को पैनी ठंडक का मजा मैं ट्रक के ऊपर बैठ कर ले चुका था। टीलो-पर, टीलों के पार जैसे ही हम्पी के अवशेष दिखना शुरू हुए कहीं लंबी पत्थर की दीवार-सी, कहीं दुकानों जैसे कटोरे, कहीं मंदिर, कहीं दरवाजे—मैं एक तिलिस्म में डूबता चला गया। करीब 26 किलोमीटर की सपाटता और वीरानी में जहाँ-तहाँ सिर उठाये खड़े अवशेष। मैदानी सपाटता में जिनकी बनावट की बारीकी और भी बारीक हो उठती है। शायद इसी वजह से खँडहरों में घूमते हुए भी यह अहसास एक पल को भी हमें नहीं छोड़ता कि यहाँ कभी एक नगर फैला हुआ था, अपने समय में भारत का एक महत्त्वपूर्ण नगर—विजयनगर। हम्पी उसका पहले का नाम—हम्पी माने पार्वती। उन्होंने यहां शिव को प्राप्त किया था।

सन् 1310 ई. के आसपास अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक कफूर ने दक्षिण के राज्यों को रौंद डाला। पीछे छूटे मुसलमान गवर्नरों, उन राज्यों के प्रतिनिधियों और स्थानीय प्रमुखों के बीच तनातनी, मारामारी हुई, उसके बीच से उभरा विजय नगर साम्राज्य, 1336 के आसपास, जो फिर करीब दो सौ वर्षों तक मुसलिम आक्रमण के खिलाफ ढाल-सा बना खड़ा रहा। इस साम्राज्य की नीव दो भाइयों—हक्का और बुक्का ने डाली। विरुपाक्ष विजयनगर राजाओं के कुल देवता थे। उनका राज्य चिह्न वाराह था जो उनके पहले चालुक्यों का भी था। राजधानी पहले अनेगुंदी, तुंगभद्रा के उत्तरी किनारे पर थी। आनेगुंदी मौजूदा हम्पी के ठीक सामने हैं। जब साम्राज्य बढ़ा, राजधानी तुंगभद्रा के दक्षिणी किनारे—मौजूदा हम्पी के पास ही कहीं ले आयी गयी। इस इतिहास के पार समय की एक और पर्त है जो इन अवशेषों से झाँकती है। यह किष्किंधा है—बालि-सुग्रीव की कर्मस्थली, हनुमान की जन्म और लीलास्थली, राम-सुग्रीव की मित्रता की भूमि। अतीत की एक तीसरी पर्त भी थी, जो हमारे साथ ही चल रही थी। राजा अच्युतदेव राय जो अनेगुंदी रियासत के राजा थे—राज्यों के स्वतंत्र भारत के विलय के ठीक पहले, वे हमारे साहित्य सम्मेलन में हिस्सा ले रहे थे।

मुख्य द्वार के अवशेष जैसे दिखते, चट्टानी बड़े द्वार को पार कर हम सबसे पहले विरुपाक्ष मंदिर पहुँचे। यह हम्पी का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण मंदिर है। शिवजी, पम्पा-पति का मंदिर। इसके कई गोपुरम् हैं लेकिन पहला और मुख्य दस मंजिलीय गोपुरम् है जिसे पार कर हम विशाल प्रांगण में प्रवेश करते हैं। दो तरफ लंबे बरामदे, बीच में एक बड़ा बरामदा जिसके ऊपर पुराने धार्मिक चित्रों के चिह्न अब भी दिखते हैं। इस बरामदे के सामने गर्भगृह है जहाँ भगवान विरुपाक्ष विराजते हैं। बायीं तरफ हम्पा अम्मा का मंदिर और उसके ठीक सामने देवी भुवनेश्वरी का मंदिर। पास ही एक गुफा जैसी है जहाँ दीवार पर दस-मंजिलीय गोपुरम् की उल्टी परछाईं देखते हैं...‘पिन होल कैमरा’ का सिद्धांत ! प्रांगण में एक कुएँ के पास एक हाथी का बच्चा लेटा हुआ था...उसे नहलाया जा रहा था और स्नान के सुख में उसकी आँखें मुँदी हुई थीं। लोग फटाफट फोटो खींच रहे थे।

विरुपाक्ष मंदिर के सामने एक छोटा रास्ता बायीं ओर तुंगभद्रा नदी के स्नान-घाट की ओर एक लंबा और खासा चौड़ा रास्ता सीधा चला गया है। पुराने समय का यह हम्पी बाजार है....दोनों तरफ दुकानें-जैसी अब भी बनी हुई हैं...कुछ सिर्फ खोल हैं, कुछ ने रिहायशी मकानों का रूप ले लिया है और कुछ रिहायशी मकानों के हिस्से हैं। वे जगहें जिनमें कभी सोने-चाँदी के आभूषड़ों की जगमग रही होगी; आज साधारणतः आदमी के सिर छिपाने की जगहें हैं...समृद्धि का कैसा उतार...पर अगर जीवन के प्रवाह को अगर रोकना मुश्किल है तो यह भी कितना उचित है कि अवशेष कुछ काम तो आ रहे हैं। इस मार्ग पर मार्च-अप्रैल में रथ-उत्सव और अक्तूबर में हम्पी दशहरा अब भी धूमधाम से मनाया जाता है। पुरानी जैसी जगमग थोड़े समय के लिए इस सड़क पर थिरकने लगती है।

मंदिर के सामने, हम्पी बाजार के छोर पर एक पूरी शिला पर बने नन्दी हैं और उनके पीछे माटुंग पर्वत है (वाल्मीकि रामायण में मातंग ऋषि और उनके आश्रम का जिक्र आता है)। बायीं तरफ को एक कच्चा रास्ता कोदंडराम मंदिर की तरफ जाता है...पर फिलहाल मैं बस में ग्रुप के साथ था, इसलिए वहीं से लौट आया। बस में सवार हो जिस सड़क से हम गये थे। उसी से लौटे। सड़क के ही दायीं तरफ नरसिंह की एक विशाल मूर्ति देखने रुके—एक चट्टान पर बनायी गयी 22 फुट ऊँची मूर्ति—कोई उग्र नरसिंह कहते हैं तो कोई भोग लक्ष्मीनरसिंह। मुँह-हाथ तोड़ दिये गये हैं, वरना मूर्ति भय की तरंगे उठाती। मूर्ति के चारों ओर एक दीवार का घेरा-सा बना हुआ है जिसके ऊपर सात साँप बनाए गये हैं। मूर्ति की बराबरी पर ही एक बड़ी चट्टान पर बनाया हुआ विशाल शिवलिंग है जिसे बड़ाशिवलिंग कहते हैं....करीब दस फीट ऊँचा। लिंग के चारों ओर पानी बराबर रहता है जिसमें उतरकर पूजा करते हैं। कहते हैं कि लिंग एक गरीब शिवभक्त का बनाया हुआ है।
आगे चलकर हम जमीन के अंदर बने एक मंदिर को देखने के लिए रुके। पृथ्वी की सतह से दस या बारह फुट नीचे बना यह शिव का मंदिर था—प्रसन्न विरुपाक्ष। कभी भव्य रहा होगा जैसा कि प्रवेश द्वार से पता चलता है। नीचे उतरकर मंदिर के खँडहर...बीच में भरा पानी, दीवारें और खंभे पानी में डूबे हुए।

दूसरी सड़क पकड़कर हम जनाना इन्क्लोज़र पहुँचे। चारों तरफ दीवार से छिंका यह बड़ा कम्पाउण्ड है। बीच में रानियों के महल के भग्नावशेष के रूप में उठा हुआ चबूतरा है, बायीं ओर कोने में नौकर-चाकर के क्वार्टर्स और पीछे ‘वाच टावर’ दिखायी देती है। कम्पाण्ड में वास्तुकला का सबसे अच्छा नमूना है—कमल महल, जिसे लोटस महल और चित्रांगिनी महल भी करते हैं—एक बड़े चबूतरे पर उठी दो-मंजिलीय इमारत, हर तरफ से खुली हवादार। ऊपर कई बालकनी, खिड़कियाँ और पत्तियों की डिजाइन वाली ‘आर्च’ हैं। ईंट और चूने से बनी इस इमारत को विशेषज्ञ हिंदू और मुसलमानी वास्तुशैलियों का उत्तम सम्मिश्रण मानते हैं। यह इमारत अपनी पूरी डिजाइन में तो कलात्मक है ही, जिस कोने से देखो खूबसूरत लगती है। ऊपर खिड़कियों में लकड़ी के छोटे किवाड़ों का भी प्रावधान था—ऐसा लगता है। इससे और भी यह बात सिद्ध होती है कि यह जनाना इस्तेमाल में आने वाली इमारत ही रही होगी।

जनाना इन्क्लोज़र के पीछे ग्यारह चौड़े-चौड़े कमरे एक कतार में। कहते हैं कि यह हाथियों का अस्तबल था...लेकिन जंजीर बँधने के चिह्न न होने की वजह से इस बात पर असहमति भी जाहिर की जाती है। कमरों के ऊपर गोल-मोल गुंबद हैं, बीच में कोई टावर जैसी चीज थी जो टूटी हुई है। पास में ही ग्यारह कमरों की एक और कतार है। चूँकि यह भीतर के गार्डन्स की डिजाइन से मिलते-जुलते हैं इसलिए यही अनुमान लगाया जाता है कि यह रानियों के गार्डों के रहने के लिए ही होगा। विजयनगर आने वाले यूरोपीय यात्रियों के अनुसार रानियों की सुरक्षा के लिए औरतें या म्याहर (नपुंशक लोग) दोनों ही होते थे—औरतें भीतर वाले क्वार्टर्स में रहती होंगी, म्याहर बाहर के क्वार्टर्सों में।

खँडहर बोलते हैं जब उनमें अकेले चला नहीं, भटका जाय। कैसा लगता है कि कौमों की जीवन भी आदमियों के जीवन की तरह ही उगता है, बढ़ता है और अवसान को प्राप्त होता है, कि इमारतों और नगरों का भी क्रम वैसा ही है...बसना, जगमग होना और फिर धीरे-धीरे उसी जमीन में धँसते चले जाना जहाँ से वे उगे थे। अंडरग्राउण्ड मंदिर के इर्दगिर्द अकेले डोलते हुए यह साक्षात दिखाई दिया था।
हजार राम मंदिर (मंदिर में हजार राम अंकित हैं, इसलिए यह नाम) राजाओं का प्राइवेट पूजा-स्थल था। दीवारों पर हर तरफ रामायण की घटनाएँ बनायी हुई हैं, कुछ महाभारत के भी दृश्य हैं। केंद्रीय मंडप की छत चार काले पत्थर के खम्भों पर टिकी है। खम्भों पर खूबसूरत मूर्तियाँ हैं....इतनी बारीक और साफ, जैसी कि लकड़ी में भी मुश्किल से बनायी जा सके। पत्थर में पैदा की गयी लचक ! गर्भगृह में अब कोई मू्र्ति नहीं है, उठा ले गये होंगे लोग। मंदिर की बाहरी दीवार पर हाथी, घोड़ों सिपाहियों की कतारें अंकित हैं पर उनके साथ ही नाचने वाली लड़कियाँ भी। अगर यह मंदिर मुख्यतः हिन्दुत्व के शौर्य पक्ष को प्रदर्शित करता है तो ये नाचने वाली लड़कियाँ संभवतः यह स्थापित करने के लिए युद्ध पर उनके साथ-साथ और उसके पार जीवन भी है, निश्चित ही।

एक छत्तीस फुटा ऊँचा टीला...नीचे की दीवार पर सिपाही, घोड़े, हाथी, ऊँट और नचनियों की कतारें अंकित हैं, सीढ़ियाँ ऊपर प्लेटफार्म पर ले जाती हुईं—राज-सिंहासन का प्लेटफार्म। बताते हैं कि नवरात्रि के उत्सव को राजा यहीं से देखते थे...इसलिए इसे महानवमी डिब्बा या दशहरा डिब्बा भी कहते हैं। इसे कृष्णदेवरमा राजा ने उदयगिरि पर विजय के बाद सन् 1513 में बनवाया था।
बाहर सड़क पर पत्थर के दो किवाड़ पड़े थे...किवाड़ों पर उम्दा कारीगरी, लेकिन आश्चर्य वाली चीज यह है कि पत्थर पर ही किवाड़ों के जोड़, उनके घूमने का सौकेट...ये भी बनाये गये हैं। उठाकर फिट करना भी खासी मशक्कत का काम होता होगा !

दशहरा डिब्बा के पास ही जमीन के करीब पाँच फुट ऊँची पत्थर की नालियाँ-सी बनी हुई हैं, पानी को इधर से उधर ले जाने के लिए। आज की वाटर-पाइप व्यवस्था जैसी ही। बगल में ही एक बावड़ी है, हर तरफ काले पत्थर की सीढ़ियाँ ! इसे पुष्करणी कहते हैं। यह हाल की खुदाई में मिला है....थोड़ा और आगे एक आयताकार तालाब के अवशेष मिले हैं। यह पूरा हिस्सा, पत्थरों की नालियों समेत जलागार रहा होगा। लौटने के रास्तों में पत्थरों की थालियाँ दिखाई दीं...कुछ में कटोरे-कटोरियाँ भी खुदी हुईं, कुछ केले के पत्ते के आकार कीं।
देर हो गयी थी इसलिए हमारा गाइड हमें सीधा पुरन्दरदास मंडप ले गया, जहाँ नास्ते का प्रबंध था। तुंगभद्रा नदी के किनारे एक मंडप है जिसमें पुरन्दरदास की एक छोटी-सी मूर्ति है जहाँ लोग नहाने के बाद पूजा करते हैं। इस तरह यह मंडप के साथ एक तरह का स्नान-घाट है। पुरन्दरदास इस तरफ के कबीर हैं। उनका असली नाम नवकोटिनारायण था...शैट्टि थे, वैश्य। रईस थे तो कंजूस भी। एक बार किसी जरूरतमंद भिखारी को कुछ देने के लिए पत्नी ने बहुत जिद की, लेकिन नवकोटिनारायण कहाँ कुछ देने वाले ! चोरी से पत्नी ने अनी नाक की कील दे दी तो नवकोटिनारायण क्रोधित हुए...पर देखा कि तत्काल उस कील-जैसी पाँच-छः उनकी पत्नी के हाथ में प्रकट हो गयीं। तभी उन्हें वैराग्य हुआ और सबकुछ छोड़ वह निकल गये...कन्नड में गीत बनाते और गाते घूमते थे।

तुंगभद्रा की धारा बेहद निर्मल और आकर्षक थी। मैं बहती नदी देखता हूँ तो आचमन-मज्जन भर से जी नहीं भरता ! बरगीनगर में वत्सलनिधि के लेखक-शिविर था। एक दिन सवेरे नर्मदा में स्नान करते हुए दिव्य अनुभूति हुई। पूर्व दिशा से नर्मदा की बहती धारा आ रही थी, उगते सूरज की किरणें लहरों पर झिलिर-मिलिर। मुझे लगा, माँ-प्रकृति सामने हैं, मेरी ओर दौड़ी चली आ रही हैं, अपने स्नेह की असंख्य किरणें लिए हुए। वे मुझे भर देना चाहती हैं। किरणों की लहरें दौड़ती हुई मुझ पर गिर रही हैं, मुझे आप्लावित कर रही हैं। मेरा शरीर, मन, आत्मा....सब रोमांचित हो गये थे। तब से बहती नदी की धारा के पार मुझे माँ-प्रकृति दिखायी देने लगती हैं—‘आओ थोड़ी देर गोद में बैठ लो।’

मंडप से अलग, एक कोने में चुपचाप कपड़े उतार, माँ को प्रणाम कर पानी में घुस गया। तौलिया और दूसरे कपड़े..कुछ साथ नहीं थे तो क्या धूप में शरीर सूख जायेगा, कपड़े वही पहन लूँगा। सामने किष्किंधा पर्वत की श्रेणी पर लुढ़कऊँ पत्थरों के ढेर, नीचे पत्थरी इलाके में विरल घास-फूस की सूखती हरियाली और जहाँ-तहाँ बीच से बहती तुंगभद्रा की हरी धारा....कैसे पर्वत-श्रेणी से नीचे जलधारा तक आते-आते रंग क्रमशः गहराता जाता है। चट्टानों के बीच ही कहीं मैं इस गहरे रंग को आत्मसात करने की कोशिश करता हुआ डुबकी लगाता हूँ तो बहती धारा की थिरकन सिर के एक-एक बाल पर महसूस करता हूँ...


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