नारी विमर्श >> परदेसिया परदेसियाबुद्धदेव गुहा
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बंगाली समाज के स्वभाव व चरित्र का सच्चा और प्रामाणिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बेहद सहज और सरल ढंग से किस्सागोई की शैली में लिखा गया यह उपन्यास बंगाली
समाज के स्वभाव और चरित्र का सच्चा एवं प्रामाणिक चित्र उपस्थित करता है।
महानगरीय जीवन की भागमभाग और गहमागहमी से ऊबी-थकी अविवाहित कामकाजी युवती, अरा, जब अपनी बड़ी बहन स्मृति के घर बिलासपुर छुट्टियाँ बिताने पहुँची तो उसके सामने धीरे-धीरे जीवन का सर्वथा नया अर्थ खुलता चला जाता है। उसके अभावग्रस्त एकाकी जीवन की थकान दूर होती है और वह जीवन-राग एवं प्रकृति-राग से लबरेज तरोताजा होकर कलकत्ता लौटती है।
हर जीवन महाजीवन है और ढोने के लिए नहीं, जीने के लिए है-जीवन का यह पाठ अरा को प्रकृति से समृद्ध आदिवासी अंचल छत्तीसगढ़ की गोद में बसे विलासपुर में मिलता है।
महानगरीय जीवन-बोध और प्रकृत आदिवासी जीवन-बोध की टकराहट की अनुगूँज लिए यह छोटी-सी औपन्यासिक कृति एक सूने सितार के तार छेड़ने की तरह है। यह सितार है ‘अरा’ जिसके तार छेड़ता है ‘परदेसिया’ और जिसकी झंकृति पाठक के दिलो-दिमाग में देर-देर तक, दूर-दूर तक बनी रहती है।
बांग्ला के अग्रिम पंक्ति के कथाकार बुद्धदेव गुहा ने अपनी व्यापक यात्राओं के दौरान पहाड़ों, जंगलों और नदियों को काफी नजदीक एवं आत्मीयता के साथ देखा है और अपनी रचनाओं के जरिए पाठकों में प्रकृति से प्रेम करने की ललक जगाई है। उनके साहित्य में स्त्री-पुरुष प्रेम से लेकर जनसाधारण तक के प्रति रागात्मक संबंधों का विस्तार देखा जा सकता है। यह उपन्यास एक बार फिर इस बात की पुष्टि करता है।
हर जीवन महाजीवन है और ढोने के लिए नहीं, जीने के लिए है-जीवन का यह पाठ अरा को प्रकृति से समृद्ध आदिवासी अंचल छत्तीसगढ़ की गोद में बसे विलासपुर में मिलता है।
महानगरीय जीवन-बोध और प्रकृत आदिवासी जीवन-बोध की टकराहट की अनुगूँज लिए यह छोटी-सी औपन्यासिक कृति एक सूने सितार के तार छेड़ने की तरह है। यह सितार है ‘अरा’ जिसके तार छेड़ता है ‘परदेसिया’ और जिसकी झंकृति पाठक के दिलो-दिमाग में देर-देर तक, दूर-दूर तक बनी रहती है।
बांग्ला के अग्रिम पंक्ति के कथाकार बुद्धदेव गुहा ने अपनी व्यापक यात्राओं के दौरान पहाड़ों, जंगलों और नदियों को काफी नजदीक एवं आत्मीयता के साथ देखा है और अपनी रचनाओं के जरिए पाठकों में प्रकृति से प्रेम करने की ललक जगाई है। उनके साहित्य में स्त्री-पुरुष प्रेम से लेकर जनसाधारण तक के प्रति रागात्मक संबंधों का विस्तार देखा जा सकता है। यह उपन्यास एक बार फिर इस बात की पुष्टि करता है।
परदेसिया
गाड़ी कितनी लेट है ?
थ्री-टायर के बगलवाले वर्थ की महिला से अरा ने पूछा।
हावड़ा से गाड़ी छूटने से पहले ही उनकी बातचीत अरा समझ गई थी कि वे भी विलासपुर ही जा रहे हैं, यह महिला विलासपुर की ही रहने वाली है। दो पुरुष ही हैं साथ में। हम लोग भी बंगाली ही हैं। ‘स’ को अंग्रेजी में ‘एस’ की तरह बोल रहे थे।
तब तक सुबह हो चुकी थी। बाहर उजास हो गया है।
उस महिला ने एक बार खिड़की से बाहर झाँका, इस वक्त गाड़ी पूरी रफ्तार से चल रही है। रात को जितनी लेट थी, उसे मेकअप करने की कोशिश की जा रही है।
उन्होंने कहा, लग तो रहा है मेकअप कर चुकी है। लगभग ठीक समय पर ही पहुँच जाएगी, यह कौन-सी जगह है, ठीक से समझ नहीं पा रही हूँ। कोई स्टेशन आने पर पता चलेगा।
फिर भी अरा ने छोटा-सा तौलिया, सोपकेस तथा ब्रश-मंजन आदि लेकर बाथरूम की ओर बढ़ गई। ट्रेन के सफर में, इस बाथरूम में जाते ही उसे रोना आ जाता है। सुना है, फर्स्ट क्लास ए.सी. की हालत भी एक जैसी ही है, हालाँकि उसमें खुद वह कभी नहीं गई है। गरीब हो, मध्यमवर्गीय या अमीर, सबकी आदत एक जैसी रही है। फिर बाथरूम यदि गीला रहे या गन्दा रहे तब तो सुबह-सुबह उसका मिजाज बिगड़ जाता है। बाथरूम को पूजा-घर की तरह जो लोग साफ-सुथरा रखते हैं, वही सचमुच शिक्षित हैं—अरा यही मानती है। आज तक उसने कोई ऐसा पुरुष नहीं पाया, जिसकी राय बाथरूम के बारे में उससे मिलती-जुलती हो ! अधिकतर पुरुष गन्दे होते हैं।
बाथरूम से निकलते ही लगा ट्रेन की रफ्तार कम हो गई है। खिड़की से अऱा ने झाँककर देखा कि ट्रेन एक बडे़ जंक्शन के पास पहुँच चुकी है। उसने जल्दी-जल्दी सूटकेस में सामान भर लिया। बाथरूम में ही उसने सिर झाड़-पोंछ लिया था। मँझले जीजा के दिए हुए छोटे इंटीमेंट परफ्यूम को हैंडबेग से निकालकर जरा-सा स्प्रे कर लिया।
उसे लेने के लिए विलासपुर स्टेशन पर बड़े जीजा के एक सहकर्मी आएँगे। बड़े जीजा को अचानक टूर पर जाना पड़ गया। रिटायर्ड होने में अभी करीब दस साल बाकी हैं। काफी ऊँचे ओहदे पर हैं। साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड का इलाका बताते हैं कि करीब चार सौ वर्ग किलोमीटर तक में है। इसलिए काफी भाग-दौड़ करनी पड़ती है।
दीदी-जीजा ने जाड़े में आने को कहा था लेकिन अरा को समय नहीं मिला। उसकी नौकरी की व्यस्तता भी कम नहीं। और फिर किसी भी नौकरी में समय निकाल पाना ही ज्यादा झमेले का काम होता है। जितना ऊपर बढ़ते जाएँगे रिटायरमेंट के समय उसी के हिसाब से पेंशन और ग्रेच्युटी आदि मिलेगी, वह उस समय कहाँ पर पोस्टिंग होगी, उसी पर निर्भर करता है कि कहाँ सेटल होंगे। सोचने से हैरानी होती है कि जब दीदी की शादी हुई थी, तब से वे कितनी सारी जगहों पर उन लोगों का तबादला हुआ। ईस्टर्न कोलफील्ड, वैस्टर्न कोलफील्ड, उड़ीसा, सिंगरौली, मार्घारिटा, सिंगारेनी आदि भारत के कितने स्थानों पर वे रहे। लेकिन उनके इतना कहने पर भी इतने बरसों में मैं कहीं जा नहीं सकी।
यह सब सोचते-सोचते इधर-उधर छितराई रेल-लाइनों के जाल से निकलकर एक बड़े-से स्टेशन में घुसी। यह कोई बड़ा जंक्शन है, इसमें कोई सन्देह नहीं। यहाँ से चिरीमिरी, मुनीन्द्रगढ़, अनूपपुर और भी कई जगह के लिए ट्रेन जाती है।
साथ की महिला भी तब तक तैयार हो गई। बोली, ‘‘चलो, जान में जान आई। अब साँस लेने के लायक ताजी हवा तो मिल सकेगी। नीला आसमान, चिड़ियों की चहचहाहट, पेड़-पौधे। पिछले अट्ठारह सालों से कलकत्ता पुस्तक मेले में मैं साल की आधी छुट्टियाँ बिताती आ रही हूँ लेकिन साल-दर-साल कलकत्ता रहने के अयोग्य होता जा रहा है। साँस लेने में, चलने-फिरने में इतनी तकलीफ होती है कि लोग काम-काज क्या करेंगे ?’’
अरा चुप थी। कलकत्ता की बुराई वह भी हमेशा करती रही है लेकिन जो लोग कलकत्ता में रहते नहीं, उनकी जुबान से बुराई सुनना सहन नहीं होता, बिल्कुल नहीं। और फिर कलकत्ता यदि खराब है तो पुस्तक-मेले में क्यों आती हैं ? दिल्ली-मुम्बई, बैंगलोर तो बहुत अच्छे शहर हैं लेकिन उन शहरों में कलकत्ता जैसा पुस्तक-मेला क्यों नहीं होता ?
एक झटके के साथ ट्रेन रुकी। बहुत बड़ा स्टेशन है, लम्बा प्लेटफार्म। उतरते ही देखा पर अन्य अखबारों के साथ ‘आनन्दबाजार पत्रिका’ और ‘द टेलीग्राफ’ भी बिक रहे हैं। जहाँ तक अरा जानती थी बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के इलाकों में ‘युगान्तर’ और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘नार्दर्न इंडिया पत्रिका’ का काफी बोलबाला था।
यहाँ के प्रवासी बंगाली शायद जानते ही नहीं कि ‘युगान्तर’ और ‘अमृतबाजार पत्रिका’ अब नए ढंग से निकल रहे हैं और ‘वर्तमान’ दैनिक और साप्ताहिक भी काफी जोर-शोर से चल रहे हैं, उनमें काम भी अच्छा हो रहा है। लेकिन आनन्द बाजार ग्रुप जैसी मार्केटिंग की उतनी अच्छी समझ और किसी में नहीं है। फिर आजकल किसी भी बिजनेस के लिए मार्केटिंग बहुत महत्त्वपूर्ण है। मार्केटिंग की बदौलत ही अपंग पहाड़ लाँघ रहे हैं, अगायक बने जा रहे हैं गायक और अलेखक हो रहे हैं ऊँचे लेखक।
दीदी ने लिखा है कि जो लड़का मुझे स्टेशन पर लेने आएगा, वह लम्बा है। खेलकूद करता है इसलिए स्पौर्ट्समैन जैसा डीलडौल है। नीले रंग की फुल शर्ट और सफेद ट्राउजर पहने रहेगा। भीतर प्लेटफार्म में नहीं घुसेगा। क्योंकि उससे मिस करने की सम्भावना अधिक रहती है। बाहर निकलनेवाले गेट पर खड़ा रहेगा। तुम्हारा हुलिया भी उसे बता दिया है। तुम पीली साड़ी और काला ब्लाउज पहनकर आना।
लिखा था—हालाँकि रंग साँवला है लेकिन नाक-नक्श बहुत अच्छा है। बहुत अच्छा फिगर है।
दीदी का यह वर्णन पढ़कर अरा मन-ही-मन हँसी थी।
खैर, निर्देश के मुताबिक उसने साड़ी-ब्लाउज पहन रखा है। पीले रंग की मुर्शीदाबाद सिल्क की साड़ी। उसके साथ काला ब्लाउज। रात में निकलते समय काजल लगा लिया था।
डिब्बे और बाथरूम के आइने में देखा, अब तक उसका अवशिष्ट आँखों में है।
वह बुरी नहीं दिखती।
सोचा अरा ने।
वह छोटा-सा सूटकेस हाथ में लिए ब्रीज पार करके जब गेट पर पहुँची तो देखा कि कोट पहने चेकर के बगल में नीली शर्ट वाले तीन आदमी खड़े है। एक की दाढ़ी मूँछ है। दूसरे की दाढ़ी बहुत अच्छी तरह बनी हुई है और तीसरे की मूँछें हैं। लेकिन सिर्फ मूँछ ही। और तीनों ही लम्बे हैं।
अरा नर्वस होकर पीछे की ओर मुड़ी, उसके पीछे ही पीली साड़ी पहने दो और महिलाएँ चली आ रही हैं। गनीमत है कि एक बिलकुल ही कम उम्र की किशोरी और दूसरी उम्रदराज।
चेकर को टिकट देकर स्टेशन से बाहर निकलते ही उनमें जो सिर्फ मूँछोंवाला था—छह फुट के करीब लम्बा, साफ रंग, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए बोला—‘‘आप निश्चय ही अरा देवी हैं !’’
नमस्कार के उच्चराण में एस’ था, ‘स’ नहीं। अपने को देवी बनाए जाने पर अरा थोड़ा खुश हुई हालाँकि यह कुछ-कुछ बुद्ध-सा भी लगा।
याद आ गई, उसके फर्स्ट इयर में पढ़ने के लिटिल मैगजीनवाली बात। एक सहपाठी ने कालेज की पत्रिका ‘देवी’ शीर्षश की कविता लिखकर परोक्ष रूप से उसने प्रेम-निवेदन किया था।
अरा बहुत सुन्दर नहीं है, यह उसे पता है। पर साथ ही वह यह भी जानती है कि माधुरी दीक्षित या रूपा गांगुली न होने पर भी सुन्दर कहलाया जा सकता है। उसकी आँखों में, उसके व्यक्तित्व में और उसके चलने-बोलने में ऐसा कुछ था जो हमेशा पुरुषों को आकर्षित करता था। वह ऐसे निवेदन की अभ्यस्त हो चुकी है। लेकिन आज तक एक भी ऐसा पुरुष उसकी नजर में नहीं आया जो उसे अच्छा लगा हो।
अगले ही क्षण साँस छोड़कर खड़ी बोली, ‘‘छोड़ो, इन बातों को !
अरा ने मुस्कान के साथ सिर हिलाया। सूटकेस नीचे रखकर हाथ जोड़कर बोली—‘‘नमस्ते !’’ फिर मुस्कुराते हुए कहा,-‘‘आपको मेरे लिए तकलीफ करनी पड़ी !’’
‘‘नहीं-नहीं, यही सारी तकलीफ तो काम में ही शामिल है। यह भी मेरा काम ही है। फिर यह तो सिर्फ काम नहीं कर्तव्य भी है। और फिर सारी ही तकलीफें तकलीफदेह होती हों, ऐसी बात नहीं ! कई तकलीफें आनन्ददायक भी होती हैं !’’
फिर बोला, ‘‘आप तो मदन भाई साहब की चहेती साली हैं। कितनी बार कितने थर्ड ग्रेट के लोगों को मुझे ट्रेन में बैठाने और रिसीव करने के लिए आना पड़ता है। आपको रिसीव करना तो मेरे लिए सौभाग्य की बात बात हरै !’’
-‘‘अच्छा ?’’
अरा ने कहा।
-‘‘दीजिए। सूटकेस मुझे दीजिए।’’
नहीं, नहीं।’’
-‘‘वाह ! ऐसा भी होता है क्या ? कितने लोगों के जूते मुझे ढोने पड़ते हैं फिर यह तो एक सामान्य सूटकेस ही है। वह भी महिला का।’’
-‘‘जूते ढोने पड़ते हैं ?’’
-‘‘नहीं होता क्या ? पेट की खातिर लोगों को क्या कुछ करना पड़ता है। जिसका जैसा काम है। पब्लिक रिलेशन का काम बहुत भयानक होता है। वी.आई.पी. लोगों को लाना और छोड़ना पड़ता है। एक शिकायत भर से नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। नौकरी नहीं भी गई तो ऐसी जगह पर तबादला हो जाएगा कि रोते-रोते हालत खराब हो जाएगी। जबकि मैं पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट का आदमी हूँ ही नहीं।’’
स्टेशन से बाहर निकलकर एक सफेद गाड़ी को दिखाते हुए उस सज्जन ने कहा—‘‘वह रही गाड़ी।’’ आइए !’’ कहते हुए सफेद एम्बेस्डर के पीछे का दरवाजा खोलकर बड़े जतन से उन्होंने अरा को पीछे की सीट पर बैठाया।
‘‘रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई आपको ?’’
उन्होंने पूछा।
अरा जल्दी से बोली—‘‘नहीं, नहीं, तकलीफ किस बीत की ?’’
फिर सोचा, रात में तो हजरत उसके साथ थे नहीं। यदि तकलीफ होती भी तो वे क्या कर सकते थे ?
फिर भी सोचकर अच्छा लगा कि उसके पिता के चले जाने के बाद इतने अपनापे के साथ किसी ने उसकी तकलीफ के बारे में कभी नहीं पूछा था। ट्रेन की यात्रा की बात छोड़िए, जीवन के रास्ते पर चलते हुए हमेशा कितनी ही तकलीफें उठानी पड़ती हैं। दूसरे की तकलीफ के बारे में कौन जानना चाहता है, वह भी इतने अपनेपन के साथ ?
थोड़ा गौर से सोचते हुए वह हैरान हुई कि वह एक बेहद फार्मल सवाल से उसके मन में इतनी गहरी सोच कहाँ से आ गई ? सच, मैं भी विचित्र हूँ। आज के जमाने के लायक नहीं।
उसके बाद उस हजरत ने फिर कुछ नहीं पूछा।
इनका डीलडौल बहुत अच्छा है। इतने लम्बे, एथलीट जैसी कद-काठी के बंगाली युवक आजकल हम ही दिखाई देते हैं। इसके अलावा इनका व्यवहार भी बहुत परिष्कृत है। इतना तो अरा समझ ही रही थी कि यह आदमी अपनी स्वभावगत सौजन्यता के कारण ही उसके साथ इतना अच्छा व्यवहार कर रहा है, इसलिए नहीं कि बड़े जीजा साउथ ईर्स्टन कोलफील्ड के बड़े अफसर हैं।
उसकी बहुत इच्छा हो रही थी कि इन सज्जन का नाम जाने लेकिन लड़कियों की इस सहजात के सतर्कता के कारण कि अपरिचित आदमी को सर पर चढ़ाने से जो मुश्किल आती है और जैसा कि उसे पता है क्योंकि किसी का अच्छा लगना जाहिर होते ही वह पुरुष यानी पुरुष जात उँगली पकड़ते हुए पहुँचा पकड़ना चाहता है और यह पहले भी वह देख चुकी है—इससे अच्छा है कि खुद को समेटकर रखे। शाम के स्थलपद्म की तरह ! सुबह होने पर देखा जाएगा। सुबह होगी ही यह भी कोई निश्चित तो नहीं।
इसलिए चुप ही रही।
देखते ही देखते गाड़ी खुली जगह में पहुँच गई। हवा अब भी ठंडी थी। फरवरी महीने की तरह। अरा ने काँच को ऊपर उठा दिया। वे सज्जन बायाँ हाथ बाहर निकाले वैसे ही बैठे रहे जैसे वी.आई.पी. लोगों के सिक्योरिटी गार्ड सामने की सीट पर बैठते हैं। अरा भी एक वी.आई.पी. है।
उनका सुडौल हाथ गाड़ी के दरवाजे पर सुशोभित हो रहा है। चौड़ा सख्त कन्धा। मन ही मन कितना ही लिबरेटैड क्यों न हो, कभी पुरुष पर निर्भर न होने की प्रतिज्ञा क्यों न की हो, पर अब भी भारतीय महिला के मन के किसी गहन कोने में मनपसन्द, विश्वस्त, एकनिष्ठ पुरुष के चौड़े कन्धे पर सिर रखने की तीव्र इच्छा होती है और हमेशा रहेगी भी।
महिलाओं का यह नया जेहाद अरा को पसन्द नहीं है, हालाँकि वह खुद स्वावलम्बी और आधुनिक है। और फिर स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही खेल में प्राण डालते हैं। जहाँ सम्बन्ध सम्मान का—प्यार का है, वहाँ प्रतियोगिता के जरिए विभेद पैदा करके स्त्रियों को अन्ततः कोई फायदा होगा, अरा ऐसा नहीं समझती। तसलीमा नसरीन का वह पूरी तरह समर्थन नहीं करती। लेकिन यह बात भी मानती है कि स्त्रियों के मामले में वह पुरुषों की युगों से चली आ रही परतन्त्रता, अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध के ज्वलन्त विद्रोह के रूप में तसलीमा जैसे एक ‘अवतार’ का आविर्भाव स्त्रियों की प्रतिभू के रूप में जन्म लेना नितान्त जरूरी था। पूरे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया है तसलीमा ने। उसका भला हो।
ठीक इसी वक्त उस सज्जन ने पूछा—‘‘आपने तसलीमा नसरीन को पढ़ा है ?’’
चौंक गई अरा, इस टेलीपैथी को देखकर भी हैरान हुई।
कोयला-खदान के ब्लैक डायमंड के कारोबारी होने के बावजूद दूसरे कई विषयों की जानकारी रखते हैं वह !
अरा ने कहा—‘‘हाँ।’’
-‘‘आपका क्या कहना है ?’’
-‘‘मैं क्या कहूँगी ! जो कुछ कहना है, वही तो कह रही हैं।’’
अरा ने कहा।
-‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि क्या आप उनकी बातों का समर्थन करती हैं ?’’
-‘‘न करने की तो कोई वजह नहीं। लेकिन किसी-किसी मामले में मैं सहमत नहीं हूँ !’’
यह कहते ही पूछा—‘‘आपने पढ़ा है ?’’
-‘‘जरूर ! न पढ़ा होता तो आपसे क्यों पूछता ?’’
-‘‘कौन-सी किताब पढ़ी है ?’’
-‘‘निर्वाचित कालम’, ‘लज्जा’, ‘फेरा’ और ‘नष्ट लड़की’ : नष्ट गद्य’।’’
-‘‘मेरा विचार भी आप जैसा ही है। किसी-किसी मामले में वह थोड़ा अतिरंजित है।’’
अरा ने बात आगे नहीं बढ़ाई। गाड़ी एक काफी चौड़े रास्ते से होती हुई सिक्योरिटी गेट पार करती एक टाउनशिप में घुसी।
-‘‘वाह ! कितना सुन्दर है !’’
स्वतःस्फूर्त ढंग से कहा अरा ने।
-‘‘हाँ ! आप यहीं रहेंगी। यह साउथ ईर्स्टन कोलफील्ड लिमिटेड की नई कालोनी है। नाम है ‘वसन्त-विहार।’
-‘‘सारी बातों में दिल्ली की नकल क्यों ?’’
-‘‘यह मैं नहीं बता सकता। ये सारे डिसीजन दूसरे लोग लेते हैं। पुरानी कालोनी भी है। उसका नाम है ‘इन्दिरा विहार’। वह भी बुरी नहीं है। सारे गेस्टहाउस वही हैं। मैं भी वहीं रहता हूँ। दो तरफ दोनों कालोनियाँ हैं, बीच में दफ्तर है।’’
-‘‘और कारखाना ?’’
वे सज्जन हँसे।
बोले—‘‘हमारा कारखाना कोलियरीज हैं। वे चार सौ वर्ग किलोमीटर में इधर-उधर बिखरी हुई हैं। विलासपुर में ही एस.ई.सी.एल. का हेडक्वार्टर है। यहाँ सिर्फ कार्यालय ही है। एडमिनिस्ट्रेशन, प्रोडक्शन, मार्केटिंग, एकाउंट्स, टेक्निकल डिपार्टमेंट, पब्लिक रिलेशंस, प्लानिंग, ट्रेनिंग जो कुछ भी है, सबकी जड़ें यहाँ हैं।’’
‘‘अच्छा ?’’
हैरानी से अरा ने कहा।
इसके बाद भी नाम पूछना अशालीनता होगी, यह सोचकर बोली—‘‘आपने अब तक अपना नाम नहीं बताया, हालाँकि बहुत सारी बातें बताईं।’’
-‘‘ओह ! मेरा नाम ? मैं तो एक नान-आइडेंटिटी हूँ। मेरा नाम जानना जरूरी भी है ? जिस दिन फिर वापस जाएँगी, आपसे मुलाकात होगी। मैं आपका सेवादास हूँ। रोबो ! रोबो का नाम नहीं होता, नम्बर होता है। मुझे एक नम्बर रोबो या सेवादास कहकर ही पुकार लीजिएगा। यदि सेनगुप्ता साहब या मिसेज सेनगुप्ता आदेश देंगी तो फिर आपकी खिदमत में हाजिर हो जाऊँगा, मैं बेनाम हूँ।’’
-‘‘रोबो मतलब ?’’
-‘‘ROBOT, ‘T’ का उच्चारण नहीं होता न।’’
-‘‘यहाँ साहबों के आर्डर के साथ-साथ मेमसाहबों का आर्डर भी मानना पड़ता है क्या ?’’
-‘‘सभी मामलों में नहीं। कहीं-कहीं पर। यह खास-खास मेमसाहबों के अधिकारी पर निर्भर करता है। इन्दिरा गांधी इमर्जेंसी के समय से ही अधिकारियों की पत्नियों में से कई ने यह गुर सिखा लिया है। ‘सी डिजायर्स दैट’ इतना सुनते ही बड़े से बड़े माहिर अधिकारियों की हड्डियों खड़खड़ाने लगती हैं।’’
-‘‘अच्छा ?’’
अरा यह सब सुनकर हँसने लगी।
अरा ने सोचा, नाम पूछकर उसने खुद को छोटा कर लिया हो। हो सकता है कि अब यह आदमी करीब आने की कोशिश करे।
अरा को खुद पर गुस्सा आ रहा था। इस आदमी की मूँछें कितनी खराब हैं। लेकिन फीचर और फिगर बहुत अच्छा है। इसमें कोई शक नहीं।
फिर अपने आपसे सवाल किया—क्या यह आदमी विवाहित है ?
जानने का उपाय नहीं।
खिड़की से बाहर ‘वसन्त-विहार’ की खूबसूरती देखने लगी।
गाड़ी एक बँगले के सामने जाकर रुकी।
उस सज्जन ने कहा-‘‘आ गए !’’ कहते हुए तेजी से झटके के साथ दरवाजा खोलकर सूटकेस एक हाथ में लिए वे ऐसे उतरे कि अरा को कोई शक न रहा कि हजरत सचमुच स्पोट्समैन हैं।
उतरते ही गाड़ी के पीछे का दरवाजा खोलकर उसे पकड़े हुए वे बोले—‘‘उतरिए मैडम !’’
थ्री-टायर के बगलवाले वर्थ की महिला से अरा ने पूछा।
हावड़ा से गाड़ी छूटने से पहले ही उनकी बातचीत अरा समझ गई थी कि वे भी विलासपुर ही जा रहे हैं, यह महिला विलासपुर की ही रहने वाली है। दो पुरुष ही हैं साथ में। हम लोग भी बंगाली ही हैं। ‘स’ को अंग्रेजी में ‘एस’ की तरह बोल रहे थे।
तब तक सुबह हो चुकी थी। बाहर उजास हो गया है।
उस महिला ने एक बार खिड़की से बाहर झाँका, इस वक्त गाड़ी पूरी रफ्तार से चल रही है। रात को जितनी लेट थी, उसे मेकअप करने की कोशिश की जा रही है।
उन्होंने कहा, लग तो रहा है मेकअप कर चुकी है। लगभग ठीक समय पर ही पहुँच जाएगी, यह कौन-सी जगह है, ठीक से समझ नहीं पा रही हूँ। कोई स्टेशन आने पर पता चलेगा।
फिर भी अरा ने छोटा-सा तौलिया, सोपकेस तथा ब्रश-मंजन आदि लेकर बाथरूम की ओर बढ़ गई। ट्रेन के सफर में, इस बाथरूम में जाते ही उसे रोना आ जाता है। सुना है, फर्स्ट क्लास ए.सी. की हालत भी एक जैसी ही है, हालाँकि उसमें खुद वह कभी नहीं गई है। गरीब हो, मध्यमवर्गीय या अमीर, सबकी आदत एक जैसी रही है। फिर बाथरूम यदि गीला रहे या गन्दा रहे तब तो सुबह-सुबह उसका मिजाज बिगड़ जाता है। बाथरूम को पूजा-घर की तरह जो लोग साफ-सुथरा रखते हैं, वही सचमुच शिक्षित हैं—अरा यही मानती है। आज तक उसने कोई ऐसा पुरुष नहीं पाया, जिसकी राय बाथरूम के बारे में उससे मिलती-जुलती हो ! अधिकतर पुरुष गन्दे होते हैं।
बाथरूम से निकलते ही लगा ट्रेन की रफ्तार कम हो गई है। खिड़की से अऱा ने झाँककर देखा कि ट्रेन एक बडे़ जंक्शन के पास पहुँच चुकी है। उसने जल्दी-जल्दी सूटकेस में सामान भर लिया। बाथरूम में ही उसने सिर झाड़-पोंछ लिया था। मँझले जीजा के दिए हुए छोटे इंटीमेंट परफ्यूम को हैंडबेग से निकालकर जरा-सा स्प्रे कर लिया।
उसे लेने के लिए विलासपुर स्टेशन पर बड़े जीजा के एक सहकर्मी आएँगे। बड़े जीजा को अचानक टूर पर जाना पड़ गया। रिटायर्ड होने में अभी करीब दस साल बाकी हैं। काफी ऊँचे ओहदे पर हैं। साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड का इलाका बताते हैं कि करीब चार सौ वर्ग किलोमीटर तक में है। इसलिए काफी भाग-दौड़ करनी पड़ती है।
दीदी-जीजा ने जाड़े में आने को कहा था लेकिन अरा को समय नहीं मिला। उसकी नौकरी की व्यस्तता भी कम नहीं। और फिर किसी भी नौकरी में समय निकाल पाना ही ज्यादा झमेले का काम होता है। जितना ऊपर बढ़ते जाएँगे रिटायरमेंट के समय उसी के हिसाब से पेंशन और ग्रेच्युटी आदि मिलेगी, वह उस समय कहाँ पर पोस्टिंग होगी, उसी पर निर्भर करता है कि कहाँ सेटल होंगे। सोचने से हैरानी होती है कि जब दीदी की शादी हुई थी, तब से वे कितनी सारी जगहों पर उन लोगों का तबादला हुआ। ईस्टर्न कोलफील्ड, वैस्टर्न कोलफील्ड, उड़ीसा, सिंगरौली, मार्घारिटा, सिंगारेनी आदि भारत के कितने स्थानों पर वे रहे। लेकिन उनके इतना कहने पर भी इतने बरसों में मैं कहीं जा नहीं सकी।
यह सब सोचते-सोचते इधर-उधर छितराई रेल-लाइनों के जाल से निकलकर एक बड़े-से स्टेशन में घुसी। यह कोई बड़ा जंक्शन है, इसमें कोई सन्देह नहीं। यहाँ से चिरीमिरी, मुनीन्द्रगढ़, अनूपपुर और भी कई जगह के लिए ट्रेन जाती है।
साथ की महिला भी तब तक तैयार हो गई। बोली, ‘‘चलो, जान में जान आई। अब साँस लेने के लायक ताजी हवा तो मिल सकेगी। नीला आसमान, चिड़ियों की चहचहाहट, पेड़-पौधे। पिछले अट्ठारह सालों से कलकत्ता पुस्तक मेले में मैं साल की आधी छुट्टियाँ बिताती आ रही हूँ लेकिन साल-दर-साल कलकत्ता रहने के अयोग्य होता जा रहा है। साँस लेने में, चलने-फिरने में इतनी तकलीफ होती है कि लोग काम-काज क्या करेंगे ?’’
अरा चुप थी। कलकत्ता की बुराई वह भी हमेशा करती रही है लेकिन जो लोग कलकत्ता में रहते नहीं, उनकी जुबान से बुराई सुनना सहन नहीं होता, बिल्कुल नहीं। और फिर कलकत्ता यदि खराब है तो पुस्तक-मेले में क्यों आती हैं ? दिल्ली-मुम्बई, बैंगलोर तो बहुत अच्छे शहर हैं लेकिन उन शहरों में कलकत्ता जैसा पुस्तक-मेला क्यों नहीं होता ?
एक झटके के साथ ट्रेन रुकी। बहुत बड़ा स्टेशन है, लम्बा प्लेटफार्म। उतरते ही देखा पर अन्य अखबारों के साथ ‘आनन्दबाजार पत्रिका’ और ‘द टेलीग्राफ’ भी बिक रहे हैं। जहाँ तक अरा जानती थी बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के इलाकों में ‘युगान्तर’ और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘नार्दर्न इंडिया पत्रिका’ का काफी बोलबाला था।
यहाँ के प्रवासी बंगाली शायद जानते ही नहीं कि ‘युगान्तर’ और ‘अमृतबाजार पत्रिका’ अब नए ढंग से निकल रहे हैं और ‘वर्तमान’ दैनिक और साप्ताहिक भी काफी जोर-शोर से चल रहे हैं, उनमें काम भी अच्छा हो रहा है। लेकिन आनन्द बाजार ग्रुप जैसी मार्केटिंग की उतनी अच्छी समझ और किसी में नहीं है। फिर आजकल किसी भी बिजनेस के लिए मार्केटिंग बहुत महत्त्वपूर्ण है। मार्केटिंग की बदौलत ही अपंग पहाड़ लाँघ रहे हैं, अगायक बने जा रहे हैं गायक और अलेखक हो रहे हैं ऊँचे लेखक।
दीदी ने लिखा है कि जो लड़का मुझे स्टेशन पर लेने आएगा, वह लम्बा है। खेलकूद करता है इसलिए स्पौर्ट्समैन जैसा डीलडौल है। नीले रंग की फुल शर्ट और सफेद ट्राउजर पहने रहेगा। भीतर प्लेटफार्म में नहीं घुसेगा। क्योंकि उससे मिस करने की सम्भावना अधिक रहती है। बाहर निकलनेवाले गेट पर खड़ा रहेगा। तुम्हारा हुलिया भी उसे बता दिया है। तुम पीली साड़ी और काला ब्लाउज पहनकर आना।
लिखा था—हालाँकि रंग साँवला है लेकिन नाक-नक्श बहुत अच्छा है। बहुत अच्छा फिगर है।
दीदी का यह वर्णन पढ़कर अरा मन-ही-मन हँसी थी।
खैर, निर्देश के मुताबिक उसने साड़ी-ब्लाउज पहन रखा है। पीले रंग की मुर्शीदाबाद सिल्क की साड़ी। उसके साथ काला ब्लाउज। रात में निकलते समय काजल लगा लिया था।
डिब्बे और बाथरूम के आइने में देखा, अब तक उसका अवशिष्ट आँखों में है।
वह बुरी नहीं दिखती।
सोचा अरा ने।
वह छोटा-सा सूटकेस हाथ में लिए ब्रीज पार करके जब गेट पर पहुँची तो देखा कि कोट पहने चेकर के बगल में नीली शर्ट वाले तीन आदमी खड़े है। एक की दाढ़ी मूँछ है। दूसरे की दाढ़ी बहुत अच्छी तरह बनी हुई है और तीसरे की मूँछें हैं। लेकिन सिर्फ मूँछ ही। और तीनों ही लम्बे हैं।
अरा नर्वस होकर पीछे की ओर मुड़ी, उसके पीछे ही पीली साड़ी पहने दो और महिलाएँ चली आ रही हैं। गनीमत है कि एक बिलकुल ही कम उम्र की किशोरी और दूसरी उम्रदराज।
चेकर को टिकट देकर स्टेशन से बाहर निकलते ही उनमें जो सिर्फ मूँछोंवाला था—छह फुट के करीब लम्बा, साफ रंग, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए बोला—‘‘आप निश्चय ही अरा देवी हैं !’’
नमस्कार के उच्चराण में एस’ था, ‘स’ नहीं। अपने को देवी बनाए जाने पर अरा थोड़ा खुश हुई हालाँकि यह कुछ-कुछ बुद्ध-सा भी लगा।
याद आ गई, उसके फर्स्ट इयर में पढ़ने के लिटिल मैगजीनवाली बात। एक सहपाठी ने कालेज की पत्रिका ‘देवी’ शीर्षश की कविता लिखकर परोक्ष रूप से उसने प्रेम-निवेदन किया था।
अरा बहुत सुन्दर नहीं है, यह उसे पता है। पर साथ ही वह यह भी जानती है कि माधुरी दीक्षित या रूपा गांगुली न होने पर भी सुन्दर कहलाया जा सकता है। उसकी आँखों में, उसके व्यक्तित्व में और उसके चलने-बोलने में ऐसा कुछ था जो हमेशा पुरुषों को आकर्षित करता था। वह ऐसे निवेदन की अभ्यस्त हो चुकी है। लेकिन आज तक एक भी ऐसा पुरुष उसकी नजर में नहीं आया जो उसे अच्छा लगा हो।
अगले ही क्षण साँस छोड़कर खड़ी बोली, ‘‘छोड़ो, इन बातों को !
अरा ने मुस्कान के साथ सिर हिलाया। सूटकेस नीचे रखकर हाथ जोड़कर बोली—‘‘नमस्ते !’’ फिर मुस्कुराते हुए कहा,-‘‘आपको मेरे लिए तकलीफ करनी पड़ी !’’
‘‘नहीं-नहीं, यही सारी तकलीफ तो काम में ही शामिल है। यह भी मेरा काम ही है। फिर यह तो सिर्फ काम नहीं कर्तव्य भी है। और फिर सारी ही तकलीफें तकलीफदेह होती हों, ऐसी बात नहीं ! कई तकलीफें आनन्ददायक भी होती हैं !’’
फिर बोला, ‘‘आप तो मदन भाई साहब की चहेती साली हैं। कितनी बार कितने थर्ड ग्रेट के लोगों को मुझे ट्रेन में बैठाने और रिसीव करने के लिए आना पड़ता है। आपको रिसीव करना तो मेरे लिए सौभाग्य की बात बात हरै !’’
-‘‘अच्छा ?’’
अरा ने कहा।
-‘‘दीजिए। सूटकेस मुझे दीजिए।’’
नहीं, नहीं।’’
-‘‘वाह ! ऐसा भी होता है क्या ? कितने लोगों के जूते मुझे ढोने पड़ते हैं फिर यह तो एक सामान्य सूटकेस ही है। वह भी महिला का।’’
-‘‘जूते ढोने पड़ते हैं ?’’
-‘‘नहीं होता क्या ? पेट की खातिर लोगों को क्या कुछ करना पड़ता है। जिसका जैसा काम है। पब्लिक रिलेशन का काम बहुत भयानक होता है। वी.आई.पी. लोगों को लाना और छोड़ना पड़ता है। एक शिकायत भर से नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। नौकरी नहीं भी गई तो ऐसी जगह पर तबादला हो जाएगा कि रोते-रोते हालत खराब हो जाएगी। जबकि मैं पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट का आदमी हूँ ही नहीं।’’
स्टेशन से बाहर निकलकर एक सफेद गाड़ी को दिखाते हुए उस सज्जन ने कहा—‘‘वह रही गाड़ी।’’ आइए !’’ कहते हुए सफेद एम्बेस्डर के पीछे का दरवाजा खोलकर बड़े जतन से उन्होंने अरा को पीछे की सीट पर बैठाया।
‘‘रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई आपको ?’’
उन्होंने पूछा।
अरा जल्दी से बोली—‘‘नहीं, नहीं, तकलीफ किस बीत की ?’’
फिर सोचा, रात में तो हजरत उसके साथ थे नहीं। यदि तकलीफ होती भी तो वे क्या कर सकते थे ?
फिर भी सोचकर अच्छा लगा कि उसके पिता के चले जाने के बाद इतने अपनापे के साथ किसी ने उसकी तकलीफ के बारे में कभी नहीं पूछा था। ट्रेन की यात्रा की बात छोड़िए, जीवन के रास्ते पर चलते हुए हमेशा कितनी ही तकलीफें उठानी पड़ती हैं। दूसरे की तकलीफ के बारे में कौन जानना चाहता है, वह भी इतने अपनेपन के साथ ?
थोड़ा गौर से सोचते हुए वह हैरान हुई कि वह एक बेहद फार्मल सवाल से उसके मन में इतनी गहरी सोच कहाँ से आ गई ? सच, मैं भी विचित्र हूँ। आज के जमाने के लायक नहीं।
उसके बाद उस हजरत ने फिर कुछ नहीं पूछा।
इनका डीलडौल बहुत अच्छा है। इतने लम्बे, एथलीट जैसी कद-काठी के बंगाली युवक आजकल हम ही दिखाई देते हैं। इसके अलावा इनका व्यवहार भी बहुत परिष्कृत है। इतना तो अरा समझ ही रही थी कि यह आदमी अपनी स्वभावगत सौजन्यता के कारण ही उसके साथ इतना अच्छा व्यवहार कर रहा है, इसलिए नहीं कि बड़े जीजा साउथ ईर्स्टन कोलफील्ड के बड़े अफसर हैं।
उसकी बहुत इच्छा हो रही थी कि इन सज्जन का नाम जाने लेकिन लड़कियों की इस सहजात के सतर्कता के कारण कि अपरिचित आदमी को सर पर चढ़ाने से जो मुश्किल आती है और जैसा कि उसे पता है क्योंकि किसी का अच्छा लगना जाहिर होते ही वह पुरुष यानी पुरुष जात उँगली पकड़ते हुए पहुँचा पकड़ना चाहता है और यह पहले भी वह देख चुकी है—इससे अच्छा है कि खुद को समेटकर रखे। शाम के स्थलपद्म की तरह ! सुबह होने पर देखा जाएगा। सुबह होगी ही यह भी कोई निश्चित तो नहीं।
इसलिए चुप ही रही।
देखते ही देखते गाड़ी खुली जगह में पहुँच गई। हवा अब भी ठंडी थी। फरवरी महीने की तरह। अरा ने काँच को ऊपर उठा दिया। वे सज्जन बायाँ हाथ बाहर निकाले वैसे ही बैठे रहे जैसे वी.आई.पी. लोगों के सिक्योरिटी गार्ड सामने की सीट पर बैठते हैं। अरा भी एक वी.आई.पी. है।
उनका सुडौल हाथ गाड़ी के दरवाजे पर सुशोभित हो रहा है। चौड़ा सख्त कन्धा। मन ही मन कितना ही लिबरेटैड क्यों न हो, कभी पुरुष पर निर्भर न होने की प्रतिज्ञा क्यों न की हो, पर अब भी भारतीय महिला के मन के किसी गहन कोने में मनपसन्द, विश्वस्त, एकनिष्ठ पुरुष के चौड़े कन्धे पर सिर रखने की तीव्र इच्छा होती है और हमेशा रहेगी भी।
महिलाओं का यह नया जेहाद अरा को पसन्द नहीं है, हालाँकि वह खुद स्वावलम्बी और आधुनिक है। और फिर स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही खेल में प्राण डालते हैं। जहाँ सम्बन्ध सम्मान का—प्यार का है, वहाँ प्रतियोगिता के जरिए विभेद पैदा करके स्त्रियों को अन्ततः कोई फायदा होगा, अरा ऐसा नहीं समझती। तसलीमा नसरीन का वह पूरी तरह समर्थन नहीं करती। लेकिन यह बात भी मानती है कि स्त्रियों के मामले में वह पुरुषों की युगों से चली आ रही परतन्त्रता, अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध के ज्वलन्त विद्रोह के रूप में तसलीमा जैसे एक ‘अवतार’ का आविर्भाव स्त्रियों की प्रतिभू के रूप में जन्म लेना नितान्त जरूरी था। पूरे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया है तसलीमा ने। उसका भला हो।
ठीक इसी वक्त उस सज्जन ने पूछा—‘‘आपने तसलीमा नसरीन को पढ़ा है ?’’
चौंक गई अरा, इस टेलीपैथी को देखकर भी हैरान हुई।
कोयला-खदान के ब्लैक डायमंड के कारोबारी होने के बावजूद दूसरे कई विषयों की जानकारी रखते हैं वह !
अरा ने कहा—‘‘हाँ।’’
-‘‘आपका क्या कहना है ?’’
-‘‘मैं क्या कहूँगी ! जो कुछ कहना है, वही तो कह रही हैं।’’
अरा ने कहा।
-‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि क्या आप उनकी बातों का समर्थन करती हैं ?’’
-‘‘न करने की तो कोई वजह नहीं। लेकिन किसी-किसी मामले में मैं सहमत नहीं हूँ !’’
यह कहते ही पूछा—‘‘आपने पढ़ा है ?’’
-‘‘जरूर ! न पढ़ा होता तो आपसे क्यों पूछता ?’’
-‘‘कौन-सी किताब पढ़ी है ?’’
-‘‘निर्वाचित कालम’, ‘लज्जा’, ‘फेरा’ और ‘नष्ट लड़की’ : नष्ट गद्य’।’’
-‘‘मेरा विचार भी आप जैसा ही है। किसी-किसी मामले में वह थोड़ा अतिरंजित है।’’
अरा ने बात आगे नहीं बढ़ाई। गाड़ी एक काफी चौड़े रास्ते से होती हुई सिक्योरिटी गेट पार करती एक टाउनशिप में घुसी।
-‘‘वाह ! कितना सुन्दर है !’’
स्वतःस्फूर्त ढंग से कहा अरा ने।
-‘‘हाँ ! आप यहीं रहेंगी। यह साउथ ईर्स्टन कोलफील्ड लिमिटेड की नई कालोनी है। नाम है ‘वसन्त-विहार।’
-‘‘सारी बातों में दिल्ली की नकल क्यों ?’’
-‘‘यह मैं नहीं बता सकता। ये सारे डिसीजन दूसरे लोग लेते हैं। पुरानी कालोनी भी है। उसका नाम है ‘इन्दिरा विहार’। वह भी बुरी नहीं है। सारे गेस्टहाउस वही हैं। मैं भी वहीं रहता हूँ। दो तरफ दोनों कालोनियाँ हैं, बीच में दफ्तर है।’’
-‘‘और कारखाना ?’’
वे सज्जन हँसे।
बोले—‘‘हमारा कारखाना कोलियरीज हैं। वे चार सौ वर्ग किलोमीटर में इधर-उधर बिखरी हुई हैं। विलासपुर में ही एस.ई.सी.एल. का हेडक्वार्टर है। यहाँ सिर्फ कार्यालय ही है। एडमिनिस्ट्रेशन, प्रोडक्शन, मार्केटिंग, एकाउंट्स, टेक्निकल डिपार्टमेंट, पब्लिक रिलेशंस, प्लानिंग, ट्रेनिंग जो कुछ भी है, सबकी जड़ें यहाँ हैं।’’
‘‘अच्छा ?’’
हैरानी से अरा ने कहा।
इसके बाद भी नाम पूछना अशालीनता होगी, यह सोचकर बोली—‘‘आपने अब तक अपना नाम नहीं बताया, हालाँकि बहुत सारी बातें बताईं।’’
-‘‘ओह ! मेरा नाम ? मैं तो एक नान-आइडेंटिटी हूँ। मेरा नाम जानना जरूरी भी है ? जिस दिन फिर वापस जाएँगी, आपसे मुलाकात होगी। मैं आपका सेवादास हूँ। रोबो ! रोबो का नाम नहीं होता, नम्बर होता है। मुझे एक नम्बर रोबो या सेवादास कहकर ही पुकार लीजिएगा। यदि सेनगुप्ता साहब या मिसेज सेनगुप्ता आदेश देंगी तो फिर आपकी खिदमत में हाजिर हो जाऊँगा, मैं बेनाम हूँ।’’
-‘‘रोबो मतलब ?’’
-‘‘ROBOT, ‘T’ का उच्चारण नहीं होता न।’’
-‘‘यहाँ साहबों के आर्डर के साथ-साथ मेमसाहबों का आर्डर भी मानना पड़ता है क्या ?’’
-‘‘सभी मामलों में नहीं। कहीं-कहीं पर। यह खास-खास मेमसाहबों के अधिकारी पर निर्भर करता है। इन्दिरा गांधी इमर्जेंसी के समय से ही अधिकारियों की पत्नियों में से कई ने यह गुर सिखा लिया है। ‘सी डिजायर्स दैट’ इतना सुनते ही बड़े से बड़े माहिर अधिकारियों की हड्डियों खड़खड़ाने लगती हैं।’’
-‘‘अच्छा ?’’
अरा यह सब सुनकर हँसने लगी।
अरा ने सोचा, नाम पूछकर उसने खुद को छोटा कर लिया हो। हो सकता है कि अब यह आदमी करीब आने की कोशिश करे।
अरा को खुद पर गुस्सा आ रहा था। इस आदमी की मूँछें कितनी खराब हैं। लेकिन फीचर और फिगर बहुत अच्छा है। इसमें कोई शक नहीं।
फिर अपने आपसे सवाल किया—क्या यह आदमी विवाहित है ?
जानने का उपाय नहीं।
खिड़की से बाहर ‘वसन्त-विहार’ की खूबसूरती देखने लगी।
गाड़ी एक बँगले के सामने जाकर रुकी।
उस सज्जन ने कहा-‘‘आ गए !’’ कहते हुए तेजी से झटके के साथ दरवाजा खोलकर सूटकेस एक हाथ में लिए वे ऐसे उतरे कि अरा को कोई शक न रहा कि हजरत सचमुच स्पोट्समैन हैं।
उतरते ही गाड़ी के पीछे का दरवाजा खोलकर उसे पकड़े हुए वे बोले—‘‘उतरिए मैडम !’’
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