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पत्ताखोर

मधु कांकरिया

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2727
आईएसबीएन :81-267-1033-0

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यह उपन्यास युवाओं में बढ़ती नशे और ड्रग्स की लत पर आधारित उपन्यास....

pattakhor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में हमने जहाँ विकास और प्रगति की कई मंजिले तय की हैं वहीं अनेक व्याधियाँ भी अर्जित की हैं। अनेक समाजार्थिक कारणों से हम ऐसी कुछ बीमारियों से घिरे हैं। जिनका कोई सिरा पकड़ में नहीं आता।
युवाओं में बढ़ती नशे और ड्रग्स की लत एक ऐसी ही बीमारी है। एक तरफ समाज की रग-रग में तनाव, घुटन, कुंठा और असन्तोष व्याप्त रहा है, युवाओं को हर तरफ अंधी और अवरुद्ध गलियाँ नजर आ रही हैं, लगातार खुलते बाजार की चकाचौंध से मध्य और निम्नमध्यवर्ग का युवा स्तब्ध है। नतीजा भटकाव और विकृति।

नशे के लिए व्यक्ति खुद जिम्मेदार है, नशे के व्यापारी जिम्मेदार हैं या हमारी सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएँ, कहना कठिन है। हमारे समय की सजग और सचेत लेखिका मधु कांकरिया इस उपन्यास में इन्हीं सवालों से दो-चार हो रही हैं। यह उपन्यास केवल एक कथा-भर नहीं है, बल्कि एक कथा के चौखटे में इसके जरिए नशे के पूरे समाजशास्त्र को समझने की कोशिश की गई है।

 

अँधेरे के उस तरफ

कनपटी पर चुनचुनाते पसीने को अपने मुड़े-तुड़े कुर्ते की बाँह से पोंछा हेमन्त बाबू ने। एक गहरी उच्छ्वास उनके कंठ से निकली- अब जिन्दगी और पुत्र पर राय बदलनी पड़ेगी।
आत्मा में फिर हलचल होने लगी।
ललाट के शिकनें उभरीं।
वे खुश हों या दुखी ?
पहली बार उन्हें उन माता-पिताओं से रश्क हुआ जिनके पुत्रों के स्वप्नों की उड़ानें उतनी उछाल नहीं मारतीं, उतनी ही उड़ान से मालामाल हो जाते हैं। वे जितना आकाश थमा दिया जाता है उन्हें।
पर यह पुत्र !
इसके तो क्रोमोजोम्स ही एकदम अलग !
ऊपर से कितना शांत ! कैसा स्थिर ! पर भीतर कितनी उठापटक, कितने जज्बात ! कितनी लहरें...। कैसा उद्वेलन ! कितना आलोड़न !

कौन विश्वास करेगा, यह तेरहवर्षीय पुत्र ने लिखा है !
जेब से निकाल कर वे फिर पढ़ने लगे उन जेराक्स किए पृष्ठों को जिन्हें उनके पुत्र आदित्य की क्लास टीचर ने उन्हें भेजा था। पहली बार तो वह पढ़कर तय ही नहीं कर पाए कि उसकी क्लास टीचर ने क्यों भेजा है उन्हें ? क्या पुत्र के भविष्य के प्रति आशंकित होकर एक चेतावनी के रूप में ? या इसलिए कि पुत्र की आत्मकथा पढ़कर वह अभिभूत है कि इतनी अल्पायु में ही उसमें कितनी जिन्दगी हैं ! और कितनी गहरी है उसकी जिन्दगी पर पकड़ !
या इसलिए कि मैं समझ जाऊँ कि पुत्र कितनी उदास आत्मा है, कितनी बेचैनियाँ, तन्हाइयाँ, असुरक्षा, सन्नाटे और प्रश्न हैं उसके भीतर...दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप की उस ‘खोई हुई पीढ़ी’ के बच्चों की तरह जिनके सभी बड़े या तो युद्ध में लगे थे या मारे गए थे।

या इसलिए कि मैं समझ जाऊँ कि वह एक कलाकार आत्मा है और जिन्दगी को एक कलाकार की ही तरह जीना चाहता है ! बहरहाल....निश्चित करने के लिए वे पुत्र के आत्म-वक्तव्य को फिर पढ़ने लगे जिसे उसकी मैडम ने 29 मई, 1984 की एक दोपहरी को उसकी कक्षा के सभी छात्रों को लिखने के लिए दिया था।
और बकौल टीचर...मैं चौंक गई। मेरे जेहन में ऐन फ्रैंक की डायरी झाँक गई। नौवीं कक्षा का लड़का...और ऐसा सौंदर्यबोध ! साथ ही इतना बेचैन  ! इतना एकाकी ! इतना चिंतनशील ! जिन्दगी को देखने का ऐसा नजरिया...और भाषा- ऐसी पारदर्शी, बहती हुई और जीवन से दो-चार होती हुई कि अपने समय का सत्य झाँक गया है वहाँ। आपको यह इसलिए भेजा जा रहा है कि आप उसे बेहतर समझ सकें, कि महज जीना नहीं चाहता है वह-वह संगीत के माध्यम से जिन्दगी के आनन्द की खोज में है। जिन्दगी के बुनियादी सवालों से जूझना ज्यादा पसन्द करता है वह। उसमें कुछ कर गुजरने की आग है- पर उसकी जिन्दगी के भयावह एकान्त और सन्नाटों ने उसे आतंकित किया हुआ है।
मुँह में आए थूक को गटका उन्होंने। होंठों पर जीभ फेरी और कुर्ते की बाँह से पसीना पोंछा।
हेमन्त बाबू फिर पढ़ने लगे पुत्र की आत्मकथा-

मेरी निजी एलबम-शुरुआती चित्र।
जिन्दगी की रील को रिबाइंड कर रहा हूँ...बस अब  नो फर्दर रिबाइंडिंग प्वाइंट। आधा-अधूरी, धुँधली-सी एक याद। ठीक नहीं कह सकता तब मेरी उम्र कितनी थी, बस इतना भर ध्यान है कि मैं तब इतना छोटा था कि घर में स्टार-रूम में एक चावल की टंकी थी, मैं उसके पीछे खड़ा हो जाता तो पूरी तरह ढँक जाता था। उस दिन मेरे पड़ोस में मेरी ही उम्र का एक छोटा-सा बच्चा, जो कि पड़ोसियों का नाती था, आया हुआ था। दिन भर आंटी-अंकल (जिन्हें मैं ताऊजी-ताईजी कहता था) अपने चारों हाथों की गाड़ी बनाकर उस पर टिंकू को बैठाकर उसे घुमाते रहे थे। वे उसे घुमाते जाते और गाते जाते- ‘हाथी घोड़ा पालकी’ और ताली बजाता जाता। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने सोचा था कि घर में मैं भी अपने पापा-मम्मी के साथ इसी प्रकार खेलूँगा।

पर घर में उस दिन देखा कि मैं थर, थर, थर। जोर लगाने पर इतना भर याद आ रहा है कि घर उस दिन साक्षात् कुरुक्षेत्र था। सदैव पुस्तकों को ही ओढ़ने-बिछाने वाले मेरे पापा पर माँ स्कूल की प्रिंसिपल की तरह गरज-बरस रही थीं। पापा शायद माँ की कोई फरमाइश पूरी करना भूल गए थे। भूले तो भूले, पर जिस मस्तमौलापन और हाथी चाल से झूमते हुए हाथों में दमकती नई किताब लेकर वे घुसे कि माँ भीतर तक मचमचा उठीं। पापा के चेहरे के उल्लास ने भी आग में घी का काम किया। वे भड़क उठीं और भरपूर ताकत से उन्होंने किताब को रॉकेट की तरह हवा में उछाल दिया। उस एक शॉट ने कई काम कर दिए। किताब तेज रफ्तार से चलते सिलिंग फैन से टकराकर पन्ने-पन्ने बिखर गई थी। उन्होंने कहा कुछ भी नहीं, पर अपमान और दुख से उनके चेहरे पर काँटे उग आए थे। उन्हें ऑफिस से आते ही चाय की तलब होती थी पर उस शाम उन्होंने न चाय बनाई और न ही कपड़े बदले। सिर झुकाए बैठे रहे देर रात तक मैं टंकी के पीछे खड़ा चुपचाप रोता रहा। माँ को गाली देता रहा-साली कुत्ती मरती भी नहीं। करीब घंटे-डेढ़ घंटे बाद आवाजें धीमी पड़ते-पड़ते बन्द होने लगीं। मैंने टंकी के पीछे से मुंड़ी निकालकर देखा- अम्मा ड्राइंग रूम से निकलकर शायद सोनेवाले कमरे में चली गई थीं। पिता सिर झुकाए बैठे थे। टंकी के पीछे से दबे पाँव मैं बाहर निकला। दूसरे दिन पापा की किताब का बदला लेने के लिए मैंने माँ की एक चप्पल अलमारी के नीचे छिपा दी थी, जिससे अम्मा को ऑफिस के लिए देर हो जाए और उन्हें डाँट पड़े।
अम्मा को ऑफिस में डाँट पड़ी या नहीं, मुझे याद नहीं, पर इतना याद हैं कि उस घटना के बाद से मैंने माँ को देवी मानना छोड़ दिया था।

माँ मेरे लिए मुर्दाबाद और पापा जिन्दाबाद हो गए थे।
उसके बाद...सब जीरों !
कुछ भी याद नहीं।
सिर्फ हैं यादों के नेगेटिव।
चाहकर भी जिन्हें पॉजिटिव में नहीं बदल सकता मैं। बीच के कुछ वर्ष फास्ट फारवर्ड। अब सबकुछ जगमग है।
पुरी का समुद्र तट। बचपन की पहली खुशी। पहली चमक। पहला विस्मय। मेरे भीतर तितलियाँ उड़ने लगी थीं। उस पूरी सुबह लहरों से खेलने के बाद उस पूरी शाम मैं झूम-झूमकर गाता रहा था। तो मैं भी खुश हो सकता हूँ ! मैं बन्दर की तरह उछलने-कूदने लगा था। इस यात्रा ने जैसे मेरा आविष्कार कर डाला था। मैंने जी भर गाया था- कभी लाउड तो कभी स्लो। कभी गुनगुनाते। मुझे लगा कि दुनिया का पहला गीत समुद्र की गर्जनों और पक्षियों की चहचहाहट से ही फूटा होगा।
दूसरी सुबह जगन्नाथपुरी के किसी साधु ने मेरा हाथ देखकर मुझसे पूछा था- ‘‘तुम बड़े होकर क्या बनना चाहोगे ?’’
‘‘गायक बनूँगा...’’ मैं चहचहाया था।

‘‘क्या... !’’ माँ भौंचक्क ! मुझे यूँ घूरा गोया मैं शानदार चुटकुला होऊँ।
तीसरी सुबह अधमरे मन से मैं फिर अपनी उसी एकांत, उबाऊ किताबों और होमवर्क वाली जिन्दगी में लौट आया था।
आखिर के मित्र : मिली-जुली यादें।
अंब मैं फुलपेंट पहनने लगा था और अपने बारे में सोचने लगा था। मैंने सोच लिया था कि मुझे गायक ही बनना है....पर कैसे ? मुझे इस बात पर विचार करना था कि इसी बीच मेरे जीवन का आखिरी पुल भी टूट गया। मेरी दादी मर गई थीं। मैं तब साढ़े दस वर्ष का था। दादी मेरे लिए सेफ्टी वाल्व थीं....माँ के प्रचंड गुस्से, भनभनाहट और बदमिजाजी से रक्षा करने वाली – मेरी दादी ! दादी के मृत्यु-भोज पर कई पंडित आए थे....मैंने एक को अपना हाथ दिखाया- देखें, क्या मैं बनूँगा गायक ? मेरी माँ जो कई बार मुझे थाली और टेबुल पर ताल देते और गाते देख चुकी थी, भड़क उठी- गधे कहीं के, जैसा बाप वैसा बेटा। एक किताबी कीड़ा, एक गवैया। रबिश ! बस एक परत उघाड़कर देखो...गायक तुम्हें चप्पल चटकाते, उधार माँगते और भूखों मरते नजर आएँगे।

माँ की आँखों में दर्द की झिलमिलाहट थी, जैसे उनकी पूरी पूँजी ही गलत दाँव पर लग गई हो।
मेरा माँ बैंक में कैशियर थी, धाकड़ थी। पापा जितने नरम वह उतनी ही गरम थी। माँ और पापा के बीच ही नहीं, मेरे और माँ के दरम्यान भी ‘मे आई कम इन मैडम’ वाला माहौल था। मैंने पूछना चाहा कि मेरे गायक बनने और भूखा मरने के बीच क्या संबंध हो सकता है ? क्या जीवन को एक खूबसूरत गीत की तरह गाया नहीं जा सकता ? पर माँ के हाव-भाव, सिकुड़ी हुई भवें और तनी हुई मांसपेशियों को देख मेरी हिम्मत जवाब दे गई। इतना जरूर समझ गया कि जो स्वप्न मैं देख रहा हूँ वह कोई महान स्वप्न नहीं है।

हेमन्त बाबू ने कुर्ते की जेब से पेन निकालकर इन पंक्तियों को रेखांकित किया और आगे पढ़ने लगे-
उन्हीं दिनों जाने किसने मुझे यह मंत्र दिया कि वही होता है जो हाथ कि रेखाओं में लिखा होता है। इस मंत्र के बाद मैंने अपने आपसे लड़ना छोड़, जिन्दगी और स्कूली पढ़ाई में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। पर मेरे साथ दिक्कत यह थी कि स्कूल में मुझे मंदबुद्धि समझा जाता था। मेरी शिक्षिकाएँ चिड़चिड़ी, मूर्ख और काठ की बनी हुई थीं। सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते और कक्षा में खाली घंटे के समय गाने पर मुझे कड़ा दंड दिया जाता। घर में गाने पर...माँ बिगड़तीं। दिन भर बैंक में सिर खपाने के बाद वह चाहतीं थी कि घर में कोई साँस भी न ले। मेरे अन्दर हर वक्त कुछ-न-कुछ कुलबुलाता रहता....बाहर निकलने को बेकाबू। जब-जब मेरे गाने पर रोक लगती, जिन्दगी बर्दाश्त के बाहर हो जाती और मैं बदला लेने के लिए कक्षा में टीचर से ढेर सारे सवाल पूछता...खूब तर्क करता। मेरे सहपाठियों को खूब मजा आता – पर पचपन बच्चों से अटी पड़ी वह क्लास जब एकसाथ ठहाका मारती, तो क्लास को वापस डिसिप्लिन्ड करने में टीचर के हाथ-पैर फूल जाते, वे चिडचिड़ा जातीं। मेरे बेतुके सवाल उनकी झल्लाहट, ऊब और थकान को बढ़ा देते। वे झल्लातीं- बेतुके सवाल मत करो। कई बार वे आते ही मुझे खड़ा कर देतीं। कक्षा छह की पूरी पढ़ाई मैंने ‘अपने पैरों पर खड़े होकर’ की।

हर दिन दंड मिलने पर मैं खराब लड़कों में गिना जाने लगा। मेरे अच्छे दोस्त मुझसे दूर-दूर रहने लगे। स्कूल में भी मैं अकेला पड़ने लगा। घर में तो मैं अकेला था ही। दादी के गुजर जाने के बाद से तो मेरी दुनिया में एकदम सन्नाटा और सूनापन ही आ गया था। मैं सुबह सात बजे निकल जाता था, स्कूल की बस में। अब दादी के मरने के बाद मुझे पड़ोस के फ्लैट से चाबी लेकर ताला खोलना पड़ता जो मुझे बहुत बुरा लगता। हमारा घर पीछे की तरफ था, इस कारण फ्लैट के मुख्य़ दरवाजे को बन्द कर लेने पर पूरा फ्लैट भुतहा घर बन जाता, जहाँ मैं चूहेदानी में बन्द चूहे की तरह झटपटाता रहता। यहाँ सर्दियों में शाम के पहले ही शाम घिर आती थी, पूरा घर अँधेरे में डूब जाता था।

कई बार मैं शाम के पहले ही बत्ती जला देता। कई बार एक दम अकेले में अचानक कॉलिंग बेल बजती तो मैं धड़कते दिल से साँस रोककर दरवाजा खोलता कि कहीं कोई चोर-उचक्का तो नहीं आ गया। कई बार लगता जैसे फैंटम दरवाजा नॉक कर रहा हो। कई बार बाहर से कुछ भारी-भरकम चीजें गिरने पड़ने की आवाजें आती तो मेरे भीतर धुकधुकी मचने लगती जैसे मेरे घर पर किसी ने अकेला पाकर धावा बोल दिया । और तो और, चिलतिलाती दोपहरी के नि:स्तब्ध सन्नाटे में नल से टप्-टप् गिरते पानी की आवाज तक मुझे कँपा देती। लगता जैसे कोई मेरे घर में सेंध मार रहा हो। और जब शाम के समय लोड-शेडिंग हो जाती जब उस सूने भुतहा घर में मैं पत्ते की तरह काँपने लगता। बहरहाल, जब लगातार लोड-शेडिंग होने लगी तो मैं एक टार्च अपने पास रखने लगा। मेरी सारी शाम मोमबत्तियाँ जलाने, उन्हें कतार में लगाने और दीवार पर मच्छरों पर झपट्टा मारती छिपकली को देखने में ही चुक जाती। मैं न होमवर्क कर पाता और न ही सो पाता, इस डर से कि कहीं छिपकली मुझ पर न गिर पड़े। मैं उन बच्चों से जलता जो दिन भर धमाचौकड़ी मचाए रखते और आईस-पाईस खेलते थे या अपने भाई-बहनों से गप्प करते रहते। हमारे घर में चीटियाँ और चूहे भी बहुत थे। कई बार पूरी दोपहर चीटियाँ सफा करने एवं चूहों को भगाने में निकल जाती। उन घंटों में मैं चाहकर भी गा नहीं पाता। बगल के फ्लैट में चम्मच भी गिरती तो मैं डर जाता।....कौन भीतर घुसा ?

इस सारे घमासान का परिणाम यह हुआ कि उस साल मेरा परिणाम बहुत खराब रहा। मुझे वार्निंग के साथ कक्षा सात में जाने की अनुमति दी गई।
इस चेतावनी से माँ एकाएक हरकत में आ गईं और मुझे ‘अच्छा लड़का’ बनाने के प्रयास बहुत तेज हो गए। ठोक-पीटकर मेरे लिए एक टीचर नियुक्त किया गया जिसने आते ही सीना ठोककर घोषणा की कि- ‘‘इसके जैसे गधे को घोड़ा बनाना तो उसके बाएँ हाथ का खेल है।’’ चंगेज खाँ की-सी शक्लवाला वह शिक्षक चंगेज खाँ जैसा ही क्रूर था, जिसका विश्वास था कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में होता है। होमवर्क पूरा नहीं होने पर कभी वह मेरी दो उँगलियों के बीच पेन या पेंसिल को दबा देता और तब तक दबाए रखता जब तक मैं कराहने नहीं लग जाता। और कभी वह टाँगों के बीच से कान पकड़कर मुझे मुर्गा बना देता।

मेरी अक्ल ठिकाने लगाने एवं अलीबाबा के छुपे खजाने की तरह मेरे भीतर की छिपी प्रतिभा को अपने डंडे के बल पर खोज निकालने के लिए वह नित्य नवीन प्रयोग करता था। वह अपने मिशन में कामयाब हो भी जाता, पर एक घटना ने सब गुड-गोबर कर डाला। उसका सिर कुम्हड़े जैसा था, इस कारण मैं उसके लिए अपना होमवर्क की डायरी में सदैव इसी शब्द का प्रयोग करता था जैसे कुम्हड़े का होमवर्क – चैप्टर फाइव।

कुम्हड़े के आने की अगली तारीख 9.1.81 । एक दिन मैंने डायरी में उसका चित्र आँका, उस पर दाढ़ी-मूँछे और सींग बना दिए और नीचे लिख दिया-गुरुदेव। उसने देख लिया। मैंने उसे झासा देना चाहा कि मैंने बिना सोचे ही यह सब लिख दिया है। पर वह उतना भी गधा न था, गुस्से में आगबबूला हो उसने मेरा दायाँ हाथ बुरी तरह मरोड़ दिया। दर्द जब असह्य हो गया और मुझे लगा कि मेरा हाथ ही टूट जाएगा तब अपने बचाव में मैंने अपना ज्यॉमिति बॉक्स उसके मुँह पर दे मारा। मेरा निशाना अचूक निकला। उसके सामने की खल्वाट पर खून चमकने लगा। वह डार्विन के बन्दर की तरह एक बार उछला और फिर भाग खड़ा हुआ।

हेमन्त बाबू रुक गए। यह पूरा पेज काटा-कूटी से भरा था। कई पंक्तियों को लिखकर काटा गया था। कई जगह शब्द बदले गए थे। नाक पर उतर आए चश्मे को ऊपर चढ़ाकर वे फिर पड़ने लगे।
उस रात घर फिर हल्दीघाटी का सुलगता मैदान बना। पापा फिर मैच में पराजित कप्तान की तरह सिर झुकाकर खड़े थे। उनका एक ही अपराध था-हर वक्त मेरा पक्ष लेना। माँ ने फिर एक बार घोषणा की कि इस आदमी में न कमाने की कूबत है और न बच्चा सँभालने की...और फिर होंठ टेढ़े करते हुए माँ ने एक शब्द फेंका था पिता पर ‘बास्टर्ड’। दूसरे दिन मैंने अंग्रेजी की कक्षा में टीचर के घुसते ही अपनी जिज्ञासा उनके सामने धर दी थी-सर, बास्टर्ड माने क्या होता है ? वे गुस्सा गए-फिर शुरू हो गए तुम्हारे बेतुके सवाल-स्टैण्ड अप !
हेमन्त बाबू फिर रुक गए। आगे पढ़ा नहीं गया। स्वयं को सँभलने में वक्त लगा। अतीत का चलचित्र उनकी आँखों के सामने भी घूमने लगा। एक गहरा उच्छ्वास लेकर वे फिर पढ़ने लगे। पर आगे के अक्षरों का जेरॉक्स काफी धुँधला था। उन्होंने चश्मे को फिर पोंछा और रोशनी के सीधे घेरे में पृष्ठों को रखकर पढ़ने लगे।

उन्हीं दिनों फिर एक गड़बड़ी हो गई थी। मेरे स्कूल के रास्ते में एक मिठाई की दुकान थी जहाँ हर वक्त गरमागरम जलेबियाँ छनती रहती थीं। मेरा मन मचलता जलेबियों का रस चूसने को। पर मुझे जेब खर्च नहीं के बराबर मिलता था। जो मिलता उसकी भी कड़ी ऑडिटिंग होती। मेरे घर के केबिनेट की प्रधानमंत्री माँ थीं। फाइनेंस सहित सभी महत्त्वपूर्ण पोर्टफोलियो उन्हीं के पास थे। पर वहाँ हमेशा कम आय का ही रोना-धोना मचा रहता। इस कारण हर दिन मैं टकटकी लगाए गरमागरम जलेबियों को ताकता रहता, तरसता रहता। आखिर मैंने हिम्मत से काम लिया। हमारे स्कूल के पास ही एक शानदार जैन मंदिर था जहाँ महिलाएं पीतल के बड़े से तख्ते पर चावल से रकम-रकम की आकृतियाँ बनाती थीं और उन पर पैसे और मिठाइयाँ चढ़ाती थीं। मैंने उन पैसों को चुराने की योजना बनाई। मैं दर्शन करने के बहाने आँखें बचाकर उन पैसों को कोहनी से सरकाते हुए नीचे गिरा देता और फिर ईश्वर वन्दना में सिर झुकाते वक्त उन्हें टप से उठा लेता। मन्दिर से निकलते ही किसी परमवीर की मुद्रा में मैं दौड़ते-दौड़ते मिठाई की दुकान पर जाता और कभी गरमागरम जलेबी तो कभी गुलाब जामुन उड़ाता और अपने टिफिन के बासी पराँठे और आम के अचार की फाँक को परम उदारता के साथ किसी बिखारी को दे डालता।

इस शाहंशाही के बाद एक दिन अपने गधेपन में इस सुख का राज मैंने अपने दोस्त पर खोल दिया। दोस्त जितना डरपोक था, उतना ही जलमरा। उसने मेरी मां के कान भर दिए। थोड़े विश्वास और थोड़े अविश्वास से माँ ने मुझे देखा-और जब किसी भी प्रकार मुझसे मेरा गुनाह कबूल नहीं करवा पाई तो माँ ने ईश्वर के भेजे हुए किसी एजेंट के-से रौब से मुझे डराते हुए कहा, ‘‘देखो, यदि तुमने सच्चीमुच्ची में मंदिर से पैसे चुराए होंगे तो तुम्हें भूत तेल से जलते कड़ाह में डुबो देगा। तुम्हारी आँखों में नमक भर देगा....तुम्हें उलटे लटकाकर कोड़े लगाएगा।’’ मजे की बात यह थी कि दिन के उजाले में जहाँ मैं माँ की बात पर अविश्वास से हँस दिया था, रात के एकांत में मेरे कमरे की खिड़की का पर्दा तेज हवा से हिला तो मुझे सचमुच लगा कि भूत मुझे दंड देने के लिए आ रहा है। मैंने सोचा, पापा के पास चला जाऊँ। पर उस दिन पापा रोज की तरह ड्राइंग रूप में न सोकर माँ के रूम में ही सोए हुए थे। माँ के डर के चलते मैं पापा को जगाने की हिम्मत नहीं बटोर सका....उल्टे पाँव अपने कमरे में लौटा तो तेज हवा से दीवार पर लटका हनुमान जी का कैलेंडर फड़फड़ाया, जाने क्यों मुझे लगा कि सारे देवी-देवता भूत बनकर आ रहे हैं, मुझे दंड देने। उन अकेले, उदास और डरानेवाले क्षणों में मुझे सचमुच भूत-प्रेतों पर विश्वास होने लगा। एकाएक मुझे एक उपाय सूझा, किसी कहानी में मैंने पढ़ा था कि भूत गाते हुए इंसान को नहीं दबोचते हैं। मैंने गाना चाहा तो मुँह से मारे डर के सुर नहीं निकले, मैं रसोई से थाली ले आया और उसे ही तबले की तरह बजा-बजाकर गाने का मूड बनाने लगा।

 मेरे जोर-जोर से थाली बजाने से पता नहीं भूत भागे कि नहीं, पर जाने कब मेरे भीतर का डर भाग खड़ा हुआ और जाने कब मैं पुरी के समुद्र-तट पर पहुँच गया और अधमुँदी आँखों से विभोर हो-होकर गाने लगा। मुझे होश तब आया जब आँखों के खुलते ही माँ को खा जानेवाली निगाहों से अपनी ओर ताकते पाया। पापा भी भौंचक्क थे, पर साथ ही मेरे कंठ-स्वर पर मुग्ध भी। माँ ने तमतमाते हुए कहा- यह क्या पागलपन है। आधी रात को गला फाड़ना। यह लड़का तो एकदम प्रॉब्लेम चाइल्ड बनता जा रहा है। उस दिन अपने टीचर से मारपीट कर बैठा, फिर मंदिर में चोरी की और आज आधी रात को गला फाड़ रहा है। इसे पंखे से उल्टा लटका दो...सारा गाना-वाना भूल जाएगा। पापा के छूटते ही विपक्ष में वोट डाला। एक प्रॉब्लेम माँ का अकेला बच्चा और कैसा होगा ? इसके बाद पापा माँ के रूम में न जाकर मेरे साथ ही सोए।

और देर रात तक मुझसे बतियाते रहे। जाने किस मूड़ में मैंने पापा से कहा, आप मुझे अच्छे म्यूजिक स्कूल में भर्ती करा दीजिए...देखिए, मैं एक अच्छा लड़का बन जाऊँगा। मुझे मृदंग, गिटार, सितार, वीणा...कोई भी एक दिला दीजिए। मुझे डॉक्टर इंजीनियर नहीं बनना है....मैं ऐसे गीतों की रचना करना चाहता हूँ, जिसमें सबके लिए प्यार भरा हो। पूरी दुनिया के लिए। पापा इस प्रकार मुझे देखते रहे जैसे मेरा नया अवतार हुआ हो-हाँ बेटा, मैं जरूर कुछ करूँगा। मैं कल ही सभी अच्छे म्यूजिक-स्कूलों का पता लगाता हूँ, वैसे मेरी एक सलाह है कि तुम अभी सारा ध्यान अपनी पढ़ाई-लिखाई पर लगाओ क्योंकि आज के जमाने में स्कूल-कॉलेज की डिग्री के बिना जीविका चलानी मुश्किल है। यहाँ हर मोड़ पर माइकल जैक्सन बैठे हैं तानसेन का गला दबोचने को।

अपने वादे के मुताबिक तीसरे दिन मुझे बुलाया और बताया कि दो अच्छे म्यूजिक स्कूल का पता लग चुका है, पर दोनों ही घर से बहुत दूर हैं, माँ से तो कुछ भी आशा करना बेकार है और फिलहाल मैं इतना छोटा हूँ कि मुझे वे ट्राम-बस के रास्ते अकेला भेजने का खतरा नहीं उठा सकते।
‘‘तो...?’’
‘‘मैंने एक संगीत शिक्षक की व्यवस्था कर दी है। वे कल से तुम्हें घर पर ही संगीत की शिक्षा देंगे।’’
‘‘-घर पर ? ओह, नो।’’ अब बन्द घर की दीवारें मुझमें खौफ पैदा करने लगी थीं। मैं किसी भी कीमत पर पिंजरे में बन्द अपने जीवन को खोलना चाहता था।
‘‘बस, दो-तीन साल रुक जाओ, तुम अकेले जाने योग्य हो जाओगे तो फिर तुम्हें जहां चाहो भर्ती करवा दूँगा.... यह मेरा वादा रहा।’’ पापा की आँखों में विश्वास भरा था, लिहाजा मैंने खुद को समझा लिया और जिन्दगी के बन्द दरवाजे से ही अपने गीतों की तान छेड़ने के लिए अपने नए संगीत-गुरु के चरण-स्पर्श कर उनका स्वागत किया जबकि उन्हें देखते ही मुझे लारल-हार्डी की पिक्चर का मोटा हार्डी याद आ गया था।

पर मेरा दुर्भाग्य, पहले वाले टीचर की तरह ये भी अपनी ही तरह के गधेराम जी थे। निरंतर चीखते रहने के कारण उनका गला ट्रक के भोंपू जैसा खुरदरा और ढेंचू-ढेंचू हो चुका था। पहली बार ही वे इतना बेसुरा गाए कि मैं चीख पड़ा- आपमें तो एक मामूली गायक का हुनर भी नहीं, आप संगीत क्या सिखाएँगे ? उसने बिहारी बाबू की स्टाइल में तमतमाते हुए कहा-तुम कल का छोकरा हमका गाना सिखाइब। मैंने उतनी ही जोर से चिल्लाकर कहा- आप मुझे कुछ भी नहीं सिखा सकते। और मैं उठने लगा। मेरी बेअदबी देखकर वे सकपका गए। फिर जाने क्यों उन्होंने मुझे उठने नहीं दिया, थोड़ी देर हुँआ-हुँआ करने के बाद उन्होंने मुझे पकड़ लिया और धीरे-धीरे मुझे अपनी बाँहों में भरना शुरू कर दिया। उसकी विशाल तोंद, सिर से आते कड़वे तेल की गंध और बाहों से आती पसीने की बू से मेरा जी भन्ना गया। एक तो अपने स्वप्नों के चकनाचूर होने की पीड़ा....और उनकी बाँहों की घेराबन्दी की वितृष्णा ! मैं स्वयं को उनके चंगुल से छुड़ाने की जितनी चेष्टा करता, उनकी जकड़न उतनी ही बढ़ती जाती। आखिर बुरी तरह विरक्त और परेशान होकर मैंने उन्हें काट खाया। वे चीखे और मैं जेल से निकले कैदी की तरह भागा।

रात फिर थर, थर, थर। अम्मा और पापा फिर आमने- सामने। दोनों तरफ से तीर चल रहे थे। निशाने पर मैं था।
दो दिन की बढ़ी दाढ़ीवाले पापा का चेहरा काला पड़ गया था। पापा की आँखों की कोर में मैंने फिर आँसू देखे थे- अपनी हैसियत से गिरा दिए जाने और अपने ही बेटे का अच्छा लड़का न हो पाने का दु:ख। इस बार मैंने अपने हथियार डाल दिए थे- अब मैं बाज आया अपनी हरकतों से।
बीच में डेढ़ वर्ष मैंने स्वयं को सुधारने एवं ‘राजा बेटा’ बनने की चेष्टा में निकाल दिए। यद्यपि मेरी आत्मा पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह आकाश में उड़ान भरने को छटपटाती पर मैंने अपने सारे पंखों को समेट लिया था।
अपने भीतर को मारकर मैंने स्वयं को ज्यामिति के थियोरम्स, एलजेबरा की इक्वेशन, अंग्रेजी की ग्रामर और इतिहास की तारीखों के बोझ तले दबा डाला था पर आश्चर्य यह था कि इतनी भारी-भरकम शिलाओं के बावजूद भीतर दबा संगीत का पाखी जब-तब पंख फड़फड़ाने लगता। उसकी पुकार को अनसुनी कर मैं रात ग्यारह-ग्यारह बजे तक – ऊँघता-जागता अपना होमवर्क करता रहता।

और ठीक जिस समय मुझे लग रहा था कि इस प्रकार स्कूली पढ़ाई की ठोस जमीन पर खड़े होकर मैं संगीत की दुनिया के चाँद-सितारों का भी पता लगा लूँगा, एक विपरीत झटके ने फिर मुझे उखाड़ दिया। अब मैं न आकाश का हूँ, न धरती का। वाकया आज के करीब साल भर पूर्व का है। मेरे बारहवें जन्मदिन के अवसर पर मैं जिद कर बैठा कि मुझे अमिताभ बच्चन की फिल्म देखनी ही देखनी है। मेरी जिद के आगे पापा को झुकना पड़ा। वे मुझे अमिताभ बच्चन की ‘नमक हराम’ पिक्चर दिखाने ले गए। उस पिक्चर में अमिताभ अपने थ्री पीस सूट और चमचमाते बूट की ठसक के साथ एक डायलाग मारता है- अरे पढ़ाई-वढ़ाई से कुछ नहीं होता और न ही मेहनत और ईमानदारी से ...बड़ा आदमी बनने के लिए चाहिए बड़ी बेईमानी, हेराफेरी, तिकड़म, की बुद्धि और जिसके लिए चाहिए बड़ा जिगर। और उसी  पिक्चर में एक शब्द भी था ‘सेक्स की भूख’।

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