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मय्यादास की माड़ी

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :333
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2722
आईएसबीएन :81-7178-988-9

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पंजाब के सिक्ख समुदाय को उखाड़ती ब्रिटिश साम्राज्यशाही पर आधारित उपन्यास...

Maiyadas Ki Madi - Hindi story about Establishment of British rule in Punjab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मय्यादास की माड़ी’ में दाखिल होने का एक खास मतलब है, यानी पंजाब की धरती पर एक ऐसे काल-खण्ड में दाखिल होना, जबकि सिक्ख-अमलदारी को उखाड़ती हुई ब्रिटिश-साम्राज्यशाही दिन-ब-दिन अपने पाँव फैलाती जी रही थी।
भारतीय इतिहास के इस अहम बदलाव को भीष्म जी ने एक कस्बाई कथाभूमि पर चित्रित किया है और कुछ इस कौशल से हम जन-जीवन के ठीक बीचों-बीच जा पहुँचते हैं। झरते हुए पुरातन के बीच लोग एक नये युग की आहटे सुनते हैं, उन पर बहस-मुबाहसा करते हैं और चाहे-अनचाहे बदलते चले जाते हैं-उनकी अपनी निष्ठाओं, कदरों, कीमतों और परम्पराओं पर एक नया रंग चढ़ने लगता है।

इस सबके केन्द्र में है दीवान मय्यादास की माड़ी, जो हमारे सामने एक शताब्दी पहले की सामंती अमलदारी, उसके सड़े-गले जीवन मूल्यों और हास्यास्यपद हो गये ठाठ-बाट के एक अविस्मरणीय ऐतिहासिक प्रतीक में बदल जाती है। इस माड़ी के साथ दीवानों की अनेक पीढ़ियाँ और अनेक ऐसे चरित्र जुड़े हुए हैं जो अपने-अपने सीमित दायरों में घूमते हुए भी विशेष अर्थ रखते हैं-हमें चाहे सामंती धूर्तता और दयनीयता की पराकाष्ठा तक पहुँचा दीवान धनपत और उसका बेटा हुकूमतराय हो, राष्ट्रियता के धूमिल आदर्शों से उद्देलित लेखराज हो, बीमार और नीम-पागल कल्ले हो, साठसाला बूढ़ी भागसुद्धी हो या फिर विचित्र परिस्थितियों में माणी की बहू बन जाने वाली रुक्मो हो-जो अन्ततः एक नये युग की दीप-शिखा बनकर उभरती है।

वस्तुतः भीष्म जी का यह उपन्यास एक हवेली अथवा एक कस्बे की कहानी होकर भी बहते काल-प्रवाह और बदलते परिवेश की दृष्टि से एक समूचे युग को समेटे हुए है और उनकी रचनात्मकता को एक नई ऊँचाई सौंपता है।

 

मय्यादास की माड़ी

 

‘माड़ी’ के बाहर चबूतरे पर, बड़े मेहराबदार फाटक के बाईं ओर ‘माड़ी’ का मालिक दीवान धनपतराय  आरामकुर्सी पर दोनों टाँगे ऊपर चढ़ाए बैठा था, और हाथ में गुड़गुड़ी उठाए हल्के-हल्के कश ले रहा था, जबकि चबूतरे के सामने गली में, बिरादरी का बूढ़ा पुरोहित दीवान जी की हाँ-में-हाँ मिलाता हुआ, ‘सत बचन, सत महाराज’ कहे जा रहा था।
‘‘यह काम तुम्हें करना ही है, रामदास ! भूल नहीं जाना।’’
रामदास ने पहले से अधिक कृतज्ञता करते हुए कहा, ‘‘सत बचन महाराज राम भली करेंगे।’’

दीवान धनपतराय की छोटी–छोटी नुकीली आँखें घनी भौंहों के बीच पुरोहित के चेहरे पर लगी थीं, मानो उसे तौल रही हों कि पुरोहित का विश्वास कहाँ तक किया जा सकता है। उधर सत बचन, सतबचन’ के रटे-रटाए वाक्य के पीछे पुरोहित की आज्ञाकारिता कितनी थी और चापलूसी कितनी इसका भी अंदाज  लगा पाना कठिन था। दोनों ही व्यक्ति जीवन के ऐसे चरण में पहुँच चुके थे जब चेहरे को देखकर मन के भाव का अंदाजा लगा पाना इतना आसान नहीं रह जाता।
सुबह का वक्त था। कस्बे के इक्का-दुक्का लोग नदी पर से नहाकर लौट रहे थे। कुछ लोग अपनी दूकानें खोलने जा रहे थे। कुछ नौजवान डंड पेलने और कुश्ती करने के बाद  अखाड़ों पर से लौट रहे थे। हवा में हल्की सी ठंडक थी।
दीवान धनपत ने फिर से गुड़गुड़ी को मुँह से  लगाया और उसे दोनों हाथों से पकड़े, बड़ी एकाग्रता से सिर टेढ़ा किए कुछ देर तक कश लगाता और धुआँ छोड़ता रहा, मानो किसी सोच में डूबा हो।

दीवान धनपत जिस ढंग से कुर्सी पर दोनों पाँव चढ़ाकर बैठा था, उसी से उसके बड़प्पन का अंदाज़ हो जाना चाहिए। कस्बे में दीवान धनपत अपने सनकी स्वभाव के लिए मशहूर था। अब तो वह बूढा हो चला था, पर जब जवान था तभी से उसका नाम  कस्बेवालों ने ‘सनकी’ दीवान’ डाल रखा था, दीवानों की बिरादरी में यही एक आदमी था जो आज भी  पीले रंग का अँगरखा पहनता था, और सिर पर केसरी रंग की पगड़ी, जबकि अँगरखा का चलन कस्बे में अंग्रेज़ों की अमलदारी कायम होने के साथ खत्म हो गया था और केसरी रंग की पगड़ी केवल ब्याह-शादी के वक्त सिर पर बाँधी जाती थी।
वह भी ज़माना था जब कस्बे में हर कोई इससे ठिठोली किया करता था। जब यह पीला अँगरखा पहने, छोटे-से मरियल टट्टू पर सवार, आँखों में सुरमे की लकीर खींचे और कानों में बालियाँ लटकाए, कस्बे की गलियों घूमता था तो लोग तरह-तरह के फ़िकरे कसा करते थे। लोगों ने उसके तरह-तरह के नाम डाल रखे थे- ‘चाचा’ ‘सनकी दीवान’ ‘दुमकटा दीवान’ और न जाने क्या-क्या। तब भी यह नाम मात्र का ही दीवान था, जमीन-जायदाद इसके पल्ले कुछ नहीं थी। पर अब तो यह सचमुच दीवान बन चुका था, और जिस ‘माड़ी’ के चबूतरे पर बैठा यह गुड़गुड़ी के कश लगा रहा था, वह इसकी अपनी मिल्कियत थी, जबकि एक जमाना था जब इसे इसी माड़ी में से निकाला गया था और इसका समान बाहर गली में फिंकवा दिया गया था।

 जिंदगी के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर बरसों तक चलते रहने के बाद धनपतराय यहाँ तक पहुँचा था-यहाँ तक का मतलब, उस स्थिति तक, जहाँ वह चैन से आरामकुर्सी पर दोनों टाँगें चढ़ाए बैठा गुड़गुड़ी के कश ले सके और जब यह जान पड़े कि यह आदमी अंदर से तृप्त है, मनचाहा व्यवहार कर सकता है, उसे किसी की परवाह नहीं।
हर पाँचवे-दशवें दिन वह दाढ़ी-मूछों पर मेहँदी लगाकर इसी तरह चबूतरे पर बैठ जाता, राह जाते लोग झुक-झुककर ‘जयरामजी’ की !’ ‘पा लागूँ दीवान जी !’ कहते हुए पास से गुज़रते। कभी-कभी शाम को इसी चबूतरे पर ऊपर-नीचे टहलता और बादाम की गिरियाँ और पिस्ते के दाने मुँह में डालता रहता। कस्बे में जब भी निकलता तो सजी-धजी पालकी पर बैठकर, पूरे दीवानी ठाठ के साथ  निकलता था। अँगरखा और केसरी पगड़ी के अतिरिक्त गले में मोतियों के हार होते, और जब महीने में एक दिन, हुजूर डिप्टी कमिश्नर साहिब से मिलने जाता तो हारों की जगह नेकटाई लगाकर जाता था। चार कहार उसकी पालकी उठाते थे, और अपनी सनक में कहो या अपने दीवानी ठाठ में, इसने कहारों के गले में घंटियाँ लगवा रखी थीं।

 कस्बे की सँकरी गलियों में से गुजरती हुई पालकी छन-छन करती जाती लोगों को घंटियों की आवाज़ से ही पता चल जाता कि दीवान जी की सवारी आ रही है। यही नहीं, पालकी के पीछे-पीछे एक कहार मूढा उठाए दौड़ता चला आता ताकि जहाँ कहीं पालकी रुके और दीवान जी उसमें से उतरकर कहीं बैठना चाहें तो मूढ़ा पहले से तैयार हो।

दीवान धनपत ने अधमुँदी आँखों को तनिक खोला और पुरोहित की ओर देखते हुए अपनी गहरी, खरज आवाज़ में बोला, ‘‘और कोई कस्बे की खै़र-खबर सुना पुरोहित, तू तो बिल्ली की तरह घर-घर में झाँकता है।’’
 बूढे पुरोहित ने हाथ बाँध दिए, ‘‘आपको तो सब  मालूम है, दीवान जी, आपसे क्या छिपा है।’’ पर फिर यह सोचकर कि कुछ तो कहना बनता है, वह बोला ‘‘सुना है लेखराज कस्बें में लौट रहा है।’’
लेखराज का नाम सुनकर दीवान धनपत की अधंमुँदी आँखें खुल गईं। ‘‘तुझे किसने बताया है ?’’
‘‘उड़ती-उड़ती ख़बर सुनी है महाराज, ठीक-ठीक तो किसी को मालूम नहीं ।’’
‘‘क्या सुना है ?’’

‘‘मालिक सुंदरदास का बड़ा भाई कल ही बाहर से लौटा है। वह सुना रहा था कि किसी ने लेखराज को  हुजूरपुर में देखा है। उसी के मुँह से उसने सुना कि लेखराज जल्दी ही कस्बे में लौट आएगा।’’
एक क्षीण, रहस्यपूर्ण मुस्कान धनपत के होठों पर थिरकने लगी। लेखराज अब कस्बे में लौटकर आए  नहीं आए, कोई फ़र्क नहीं पड़नेवाला है। आए भी तो फिर ठोकरें खा-खाकर वापिस लौट जाएगा। दीवान ने कुर्सी पर बैठे-बैठे करवट बदली और आश्वस्त हो गया।

‘‘और ? और क्या सुना है ? मंसाराम आढ़ती का क्या समाचार है ?’’
‘‘उसने पौ-बारह हैं, महाराज ! माल इधर से आता है, उधर बिक जाता है। सुना है रामजवाया को उसने अपना गुमाश्ता बना लिया है। जब से रेलगाड़ी चली है उसके वारे-न्यारे हो गए हैं।’’  
दीवान की आँखें पुरोहित के चेहरे पर लगी थीं। पुरोहित भी बूढ़ा हो चला है उसके घिसे-पिटे, झुर्रियों-भरे चेहरे को देखते हुए दीवान सोच रहा था कि इस आदमी का कुछ पता नहीं चलता। जितना ज़मीन के ऊपर है, उससे दुगुना ज़मीन के अन्दर नीचे है। दीवान अपनी पैनी आँखों से देर तक उसके चेहरे को पढ़ पाने की कोशिश करता रहा, फिर मुस्करा दिया। ‘‘कुछ और पता चले तो बताना, रामदास !’’
‘‘हाँ ग़रीबनवाज़, यह तो उड़ती-उड़ती ख़बर ही सुनी है।’’
‘‘तू तो उड़ते पंछी को भी हाथ बढ़कर पकड़ लेता है, पुरोहित, तेरे लिए क्या मुश्किल है।’’

‘‘ग़रीबनवाज़,......’’ पुरोहित के मुँह में से निकला। ‘‘जुग-जुग जियो, महाराज लाखों पर कलम हो।’’ वह बुदबुदाया।
पुरोहित चलने को हुआ तो दाईं ओर की गली में से एक अध

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