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भक्त ध्रुव

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :78
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2712
आईएसबीएन :8126705515

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पौराणिक आख्यान को नए अर्थ देती किशोर पाठकों के लिए एक प्रेरणाप्रद पुस्तक...

Bhakt Dhruv a hindi book by Suryakant Tripathi Nirala - भक्त ध्रुव - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किशोर पाठकों के प्रति दायित्व बोध से भरकर महाकवि ‘निराला’ ने काफी कुछ लिखा है। उनके मन में भारतीय पुराकथाओं के अनेक आदर्श चरित्र थे, जिनको वे किशोर पाठकों तक ले जाना चाहते थे, भक्त ध्रुव उनकी एक ऐसी ही पुस्तक है।
भक्त ध्रुव एक पौराणिक आख्यान पर आधारित है, किन्तु निराला ने इसमें धुव की चिन्ता को एक मानवीय अर्थ देने का प्रयास किया है ‘‘गहन अरण्य में एक ओर चिंता में डूबा हुआ एक बालक मन-ही-मन अपने भविष्य की चिन्ता कर रहा है-वह मनुष्य है, मनुष्य का हक लेकर पैदा हुआ है, मनुष्य के मनुष्योचित व्यवहार की आशा रखता है...तिरस्कार, घृणा, अपमान, अत्याचार, निर्यातन, इन पाशविक वृत्तियों के विरोध के लिए आज उसके खून में हर एक बूँद तीव्र गति से उस कार्य तत्पर कर रहा है। बालक सोच रहा है इस अत्याचार का उपाय। चिरकाल के मनुष्य जाति पर अत्याचार करती चली आ रही है, इसका कारण और साथ ही इसका प्रतिरोध भी। वह अत्याचार सहने के लिए नहीं आया।’’

स्पष्ट है कि निराला ने एक पौराणिक आख्यान को नए अर्थ दिए है, उसे हमारी आज की चिन्ताओं से जोड़ा है। अत्यन्त प्रांजल भाषा में लिखी गई यह पुस्तक किशोर पाठकों के लिए न केवल रोचक बल्कि प्रेरणाप्रद भी सिद्ध होगी।

 

पूर्वाभास

 

भारत के इतिहास में मनु परम प्रसिद्ध हैं, उन्होंने बड़ी कठोर तपस्या की थी। अपने कठोर तप के प्रताप से मनु मनुष्यों के पिता के आसन पर प्रतिष्ठित हैं। श्रुतिमार्ग को धर्मसम्मत रखने का इन्हें ही अधिकार दिया गया है। महाप्रलय में भी इनका नाश नहीं हुआ। मनुष्यों के बीज-रूप से, उनकी पुनः सृष्टि करने के लिए वे बच रहे थे। तपःप्रभाव से इनका शरीर पुष्ट, गठन सुन्दर और रंग गोरा था, ये पराक्रमी भी बड़े थे। वीर्यवान् और जितेन्द्रिय थे। संसार में मनुष्य जाति के प्रथम और मुख्य आदर्श यही कहलाते हैं।

मनुष्य-सृष्टि के पहले, महाप्रलय के द्वारा संसार का नाश हो जाता है। नाश के कारण ये हैं, मनुष्यों में मिथ्याचार की मात्रा बढ़ जाती है। व्रत-विधान, यज्ञदान, जप-तप सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। ब्राह्मणों में नीचता आ जाती है। शूद्रों में धर्म का भाव बढ़कर अन्त में महा अनर्थकारी दम्भ का रूप धारण कर लेता है। क्षत्रिय अपने वीर-कर्म रहित और पतित होकर हत्याएँ करने लगते हैं। वैश्य नीच उपायों से धन-संग्रह करना अपना परम धर्म समझते हैं। राजा स्वेच्छाचार ग्रस्त हो जाता है। वर्णाश्रम धर्म का निशान भी संसार में नहीं रह जाता।

चारों ओर अपनी डफली और अपना रागवाली कहावत चरितार्थ होती है। धर्म से च्युत होने के कारण लोग अल्पायु होते हैं, उनमें असत्य भाषण, दूसरों को ठगकर अपनी जिन्दगी बसर करना, इस तरह के सैकड़ों दुराचार समा जाते हैं। बाल विवाह और वृद्ध-विवाह की प्रथा प्रचलित हो जाती है। आठ-आठ और दस-दस वर्ष की बालिकाओं के सन्तान पैदा होने लगती है। सृष्टि में चारों ओर पाप की पताका फहराने लगती है।

कलिकाल के उस अन्त समय में उसका नाश हो जाता है। पहले अनावृष्टि होती है।, कई साल तक लगातार पानी न बरसने के कारण हरे-भरे पेड़-पौधे जलकर राख हो जाते हैं। अन्न नहीं पैदा होता। जीव-जन्तु भूखों मरने लगते हैं। फिर सूर्य भगवान् भी उग्र-रूप धारण कर लेते हैं। नदियों और तालाबों का पानी सूख जाता है। जल-जन्तु भी तड़फ-तड़फकर मौत के शिकार होते हैं। जब संसार का इस तरह, आधे से अधिक नाश हो जाता है,

तब ईश्वर की इच्छा से बड़े काले-काले बादल आसमान को घेरकर प्रलय की वर्षा आरम्भ कर देते हैं। इतना अधिक जल होता है कि समुद्र का पानी उमड़कर जमीन के ऊपर आ जाता है। सब देश और गाँव बह जाते हैं। बड़े-बड़े पहाड़ों की चोटियाँ भी पानी के अन्दर हो जाती हैं। तब सम्पूर्ण सृष्टि विनाश को प्राप्त होती है।

जिस परमात्मा की इच्छा से संसार में प्रलय होता है, उसी की इच्छा से फिर सृष्टि उत्पन्न होती है। नाश और सृष्टि की लीला देखते रहना ही मानो सच्चिदानन्द भगवान् की यथार्थ इच्छा है।– इस बार महाप्रलय के बाद सृष्टि का क्रम फिर शुरू हो गया था। जल-स्थल, जल-जीवों और स्थल-जन्तुओं की सृष्टि हो चुकी थी। शस्यश्यामला भूमि पर कुसुमित लताओं और गुंथों के वसन्त की वायु बहने लगी थी। जलाशयों में लहरों के साथ कमल का कौतुक होने लगा था। संसार के हृदय पर सजीवता विहार कर रही थी। यह स्वर्ण-युग था, सृष्टि की शोभा का पहला श्रृंगार। इस समय हिमालय के नीचे समतल गंगा और यमुना की तट-भूमि पर मनुष्यों की उत्पत्ति हुई।

सृष्टि की प्रथम छटा बड़ी विचित्र थी। वह शोभा आज तक विचारवान् मनुष्यों की आदर्श-मूर्ति हो रही है। उसी राज्य में बसने के लिए लोग लालायित हो रहे हैं। अस्तु-मनु एक सभ्य जनसमुदाय के पालक थे। उनकी राजधानी बड़ी सुहावनी और अजीब-सी थी। उसमें आडम्बर न था। परन्तु उसकी वह उतनी ही श्री, औचित्य के आसन पर समासीन हो रही थी। सारांश यह कि चारुता हद दर्जे को पहुँची हुई थी।

जिस गढ़ के अन्दर महाराज मनु रहते थे चारों ओर खाई–खुदी थी। सदा वहाँ अथाह पानी भरा रहता था। गढ़ में घुसने के लिए बड़े-बड़े आठ फाटक थे। सब फाटकों से राजा के महल तक सीधा रास्ता गया हुआ था। रास्ते के दोनों ओर सुगन्धित फूलों के पेड़ लगे हुए थे। पेड़ों में भाँति-भाँति की लताएँ लिपटायी गयी थीं। जगह-जगह पर कुएँ और तालाब थे। हर फाटक पर एक-एक साथ कई सन्तरियों का पहरा रहता था। पुरी सब प्रकार से सुरक्षित थी आदि-युग के मनुष्य भी बड़े बलवान और डील-डौल के बड़े हृष्ट-पुष्ट होते थे।
सुराज्य था, इसलिए मनुष्यों में एक-दूसरे से प्रेम का बर्ताव था। ईर्ष्या की बेलि उस, समय भारत-वसुन्धरा की छाती पर लहराने न पायी थी, न इससे किसी को क्षतिग्रस्त ही होना पड़ता था। सब लोग प्रसन्न रहते, थे, सब लोग सम्पन्न थे। अभाव का अनुभव कभी किसी को स्वप्न में भी न होता था। राज्य की श्रृंखला में किसी प्रकार की शिथिलता न थी। सबके लिए राज्य का प्रबन्ध सुखकर था, और वह प्रजा के स्वत्वों पर ध्यान रखकर किया गया था। उसके अनुसार कार्य करने और उसी के अनुसार चलने की प्रजा की हार्दिक अभिलाषा थी।

सदाचार, स्पष्टवादिता, निरहंकारिता, मधुर आलाप, मितव्ययिता, व्यायाम, हास्य-प्रमोद आदि के लिए लोगों को उपदेश दिये जाते और उन्हीं के अनुसार उनसे काम भी लिया जाता था। प्रजा से लिया गया कर प्रजा के हित के लिए ही खर्च होता था। धर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को राज्य की ओर से काफी सहायता मिलती थी। वे निश्चिन्त होकर तीनों वर्णों के बालकों को उचित शिक्षाएं देते और ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन कराते थे। कभी किसी की सन्तान को बाल्यकाल में ही काल का ग्रास होते नहीं देखा गया। विवाह शास्त्रीय रीति से हुआ करता था। कभी बाल-विवाह या वृद्ध-विवाह नहीं होता था। उस समय अबकी तरह बाल-विवाह की व्यर्थ प्रशंसा भारतवर्ष में न होती थी। आदि-सृष्टि में मनुष्य हर तरह से सुख और शान्तिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते थे।
महाराज मनु केवल तपस्वी ही न थे, वे बड़े नीतिज्ञ और मनुष्य-चरित्र के ज्ञाता थे। उन्हें ज्ञान-विज्ञान, राजनीति और धर्मनीति, समाज और शासन, सब विषयों का पूर्ण ज्ञान था। किस तरह से राज्य की परिस्थिति में सुधार करना राजा के लिए आदर्श कार्य कहलाता है

किस तरह की रीतियों का अनुसरण किया जाए, तो प्रजा में पारस्परिक प्रेम-भाव दृढ़ होता है किन विधानों की रचना हो तो प्रजा आदर्श-भ्रष्ट नहीं होती, किस मार्ग पर रहना मनुष्य जाति के लिए सबसे बड़ा धर्म है, संसार में किस उपाय से थोड़े समय में काफी ज्ञान संचय हो सकता है, बालकों की तन्दुरुस्ती के लिए गुरू-कुलों में किस-किस तरह की व्यायाम-प्रणालियों का प्रचलन किया जाय, इस तरह की आवश्यक सैकड़ों बातों पर विचार होता था और निर्णय हो चुकने पर उस विषय पर अमल किया जाता था।

महाराज मनु की देह भी बड़ी ही सुसंगठित थी। तपे हुए सोने का-सा गोरा रंग, काले और चमकीले बाल, ललाट प्रशस्त और तेजोव्यंजक-शुकतुण्डसी नासिका, बड़ी-बड़ी रतनार आँखें, स्फूर्ति और कान्ति से चमकती हुई शेर की-सी गर्दन, आजानुलम्बित बाँहे हाथी की सूँड-सी, भरी हुई छाती गज-भर की चौड़ी और ऊंची, कमर-पेटी का सारा मांस, जैसे खिंचकर ऊपर सीने में चला गया हो, केले के खम्भों की-सी जाँघें। महाराज की देह देखकर बड़े-बड़े पहलवान उनकी तारीफ करते थे कि ऐसा जवान हमने और कहीं नहीं देखा। उनका लोगों के प्रति व्यवहार भी बड़ा मधुर और सरल होता था।
महाराज मनु के दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपात। पिता की तरह उत्तानपाद भी बड़े तेजस्वी और पराक्रमी हुए। इनके क्षत्रियत्व का प्रकाश ज्यादा था। लड़ना-भिड़ना, डण्ड-बैठक करना, तीर चलाना, शिकार खेलना, इन विषयों पर खासतौर से उन्हें प्रेम था। ये घोड़े की सवारी बहुत पसन्द करते थे। सौन्दर्य और सुकुमारता में ये पिता से भी बढ़कर थे।


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