ऐतिहासिक >> सुहाग के नूपुर सुहाग के नूपुरअमृतलाल नागर
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महाकवि इलंगोवन रचित तमिल महाकाव्य ‘शिलप्पदिकारम्’ की कथावस्तु पर आधारित पहली हिन्दी कृति...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदनम्
ईसा की प्रथम शताब्दी में महाकवि इलंगोवन रचित तमिल महाकाव्य
‘शिलप्पदिकारम्’ भारतीय साहित्य की एक अनमोल रचना है।
प्रस्तुत उपन्यास उक्त महाकाव्य की कथावस्तु पर आधारित पहली हिन्दी कृति
है, जिसमें दक्षिण भारत के ऐतिहासिक जीवन का चित्रण हुआ है। तत्कालीन
पृष्ठभूमि को सँजोने में लेखक ने इतिहास-ग्रंथों का अवगाहन करके अपने
चित्रणों को यथासम्भव प्रामाणिक बनाने की चेष्टा की है और इस प्रकार उक्त
महाकाव्य पर आधारित होते हुए भी यह प्रायः एक स्वतन्त्र रचना बन गई है।
स्वयं लेखक के शब्दों में घिसी-पिटी थीम होने पर भी पापुलर उपन्यास के लिए
मुझे वह अच्छी लगी मैं अपने दृष्टिकोण से उसमें नवीनता देख रहा था।
सन् ’46 में भारत कोकिली श्रीमती एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी जी की तमिल फिल्म ‘मीरा’ का हिन्दीकरण करते हुए लगभग साल-सवा साल तक तमिल भाषा के श्रेष्ठ उपन्यासकार स्व. कृष्णमूर्ति जी ‘कल्कि’, ‘कंब रामायणम्’ के सुप्रसिद्ध टीकाकार स्व. रसिकमणि टी.के. चिदंबरनाथ मुदलियार तथा साप्ताहिक ‘कल्कि’ पत्रिका के मैनेजिंग डायरेक्टर एवं सुब्बुलक्ष्मी जी के पति श्री टी. सदाशिवन् जी के साथ घंटों बैठने-उठने का अवसर मिला।
कविवर नरेन्द्र शर्मा जी उक्त फिल्म के लिए गीत लिख रहे थे। बड़ा ही सुखद साथ था। पहली बार यह कथा मैंने इसी सुसंगति में सुनी थी। तमिल भाषा सीख रहा था सो छठी या सातवीं पोथी में यह कथा फिर पढ़ी। सन् ’52 में सुप्रसिद्ध आलोचक बंधुवर डॉ. रामविलास शर्मा और ख्यातनामा कथालेख्य प्रिय राजेन्द्र यादव के साथ दक्षिण भारत की यात्रा फिर की। तिरुच्चिरापल्ली में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के भाई श्री अवधनंदन जी ने मुझसे आग्रह किया कि इस पर उपन्यास लिखूँ। तब से ही विचार कर रहा था, पर लिख न पाया। सन्’ 52 में ‘सुहाग के नूपुर’ के नाम से इस कथानक पर सवा घंटे का एक रेडियो नाटक अवश्य लिखा था। आकाशवाणी के केन्द्रों से वह प्रसारित हो चुका है। तेलगु भाषा में भी उसका अनुवाद मद्रास रेडियो के केन्द्र से प्रसारित हुआ था।
जनता ने उसे सराहकर मुझे बल दिया। गत वर्ष ‘धर्मयुग’-संपादक आदरणीय भाई सत्यकाम जी विद्यालंकार के आग्रह पर इसे उपन्यास का रूप दिया। भाषा मिली-जुली सरल रखी है जिससे साधारण हिन्दी जाननेवाले पाठक पढ़ सकें। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सँजोने में मुझे अपने आदरणीय भाई डॉ. मोतीचंद्र जी की अमूल्य पुस्तक ‘सार्थवाह’ से बड़ी सहायता मिली। इसके अतिरिक्त ब्लीच तथा एच.जी. वेल्स लिखित विश्वास इतिहास, डोनाल्ड़ मैकंजी की ‘मिथ्स एंड लाजेंड्स ऑफ ईजिप्ट’ तथा राबर्ट ग्रेव्ज की पुस्तक ‘क्लाडियम’ का उपकार मानता हूँ।
उपन्यास की पांडुलिपि चिरंजीव-त्रय अवधनारायण मुद्गल, गणेश त्रिपाठी और चंद्रकिशोर वर्मा ने लिखी।
सन् ’46 में भारत कोकिली श्रीमती एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी जी की तमिल फिल्म ‘मीरा’ का हिन्दीकरण करते हुए लगभग साल-सवा साल तक तमिल भाषा के श्रेष्ठ उपन्यासकार स्व. कृष्णमूर्ति जी ‘कल्कि’, ‘कंब रामायणम्’ के सुप्रसिद्ध टीकाकार स्व. रसिकमणि टी.के. चिदंबरनाथ मुदलियार तथा साप्ताहिक ‘कल्कि’ पत्रिका के मैनेजिंग डायरेक्टर एवं सुब्बुलक्ष्मी जी के पति श्री टी. सदाशिवन् जी के साथ घंटों बैठने-उठने का अवसर मिला।
कविवर नरेन्द्र शर्मा जी उक्त फिल्म के लिए गीत लिख रहे थे। बड़ा ही सुखद साथ था। पहली बार यह कथा मैंने इसी सुसंगति में सुनी थी। तमिल भाषा सीख रहा था सो छठी या सातवीं पोथी में यह कथा फिर पढ़ी। सन् ’52 में सुप्रसिद्ध आलोचक बंधुवर डॉ. रामविलास शर्मा और ख्यातनामा कथालेख्य प्रिय राजेन्द्र यादव के साथ दक्षिण भारत की यात्रा फिर की। तिरुच्चिरापल्ली में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के भाई श्री अवधनंदन जी ने मुझसे आग्रह किया कि इस पर उपन्यास लिखूँ। तब से ही विचार कर रहा था, पर लिख न पाया। सन्’ 52 में ‘सुहाग के नूपुर’ के नाम से इस कथानक पर सवा घंटे का एक रेडियो नाटक अवश्य लिखा था। आकाशवाणी के केन्द्रों से वह प्रसारित हो चुका है। तेलगु भाषा में भी उसका अनुवाद मद्रास रेडियो के केन्द्र से प्रसारित हुआ था।
जनता ने उसे सराहकर मुझे बल दिया। गत वर्ष ‘धर्मयुग’-संपादक आदरणीय भाई सत्यकाम जी विद्यालंकार के आग्रह पर इसे उपन्यास का रूप दिया। भाषा मिली-जुली सरल रखी है जिससे साधारण हिन्दी जाननेवाले पाठक पढ़ सकें। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सँजोने में मुझे अपने आदरणीय भाई डॉ. मोतीचंद्र जी की अमूल्य पुस्तक ‘सार्थवाह’ से बड़ी सहायता मिली। इसके अतिरिक्त ब्लीच तथा एच.जी. वेल्स लिखित विश्वास इतिहास, डोनाल्ड़ मैकंजी की ‘मिथ्स एंड लाजेंड्स ऑफ ईजिप्ट’ तथा राबर्ट ग्रेव्ज की पुस्तक ‘क्लाडियम’ का उपकार मानता हूँ।
उपन्यास की पांडुलिपि चिरंजीव-त्रय अवधनारायण मुद्गल, गणेश त्रिपाठी और चंद्रकिशोर वर्मा ने लिखी।
अमृतलाल नागर
एक
ब्राह्म मुहूर्त में ही कावेरीपट्टम के नौकाघाट की ओर आज विशेष चहल-पहल
बढ़ रही है। सजे-बजे सुंदर बैलोंवाले शोभनीय रथों, पालकियों और घोड़ों पर
नगर के गण्यमान्य चेट्टियार, प्रौढ़ और युवक, कावेरी नदी के नौकाघाट की ओर
बढ़े चले जा रहे हैं। रथों की खड़-खड़, बैलों की मधुर घंटियाँ, घोड़ों की
टाँपें, सारथियों, मशालचियों की हाँक-गुहार पौ फटने से पूर्ववाले धुँधलके
को अपनी गूँज से चौंधियाने लगीं। रथों, घोड़ों आदि के साथ राजपथ पर
दूर-दूर तक दौड़ती दिखाई देती मशालें ऐसी लगती हैं मानो आकाश पर सूर्य
देवता का आना जान तारे भयकंप से स्खलित हो धरती पर मुँह छिपाने चले आए हों।
दो अश्वारोहियों के साथ दौड़ती मशालें आगे-पीछे प्राय: साथ-साथ आ लगीं। उनके प्रकाशन में अश्वरोहियों ने एक-दूसरे की ओर देखा।
‘‘अहो ! पापनाशन, तुम भी ! तब तो निश्चय ही आज सूर्य पश्चिम से उदय होनेवाला है।’’
दोनों अश्वारोहियों के घोड़े पास-पास आ गए। दोनों की मशालें मिलकर प्रकाशपुंज बन गईं। साँवले, गठीले बदन के, सजीले नवयुवक पापनाशन ने मुस्कराकर कहा, ‘‘क्या करता ! तंबी आ रहा है। स्वागत के लिए न तो अप्पा और अम्मा दोनों को ही क्षोभ होता। और तुम किसके लिए आए हो महालिंगम् ?’’
‘‘स्वयं नए सार्थवाह कोवलन के लिए।’’
‘‘बड़ा भाग्यशाली है यह कोवलन भी। चेट्टिपुत्रों में इस संयम सिरमौर माना जा रहा है। भाग्य तो देखो, धन के साथ-साथ परदेश में सुख्याति की गठरी भी बाँधकर ला रहा है।’’
महालिंगम् ने एक गरम उसाँस छोड़ी और ईर्ष्या-भरे स्वर में बोला, ‘‘और वहाँ भी उसके लिए लक्ष्मी वरमाला लिए खड़ी है। भाग्य इसको कहते हैं !’’
‘‘मैंने तो सुना था कि मानाइहन की कन्या का संबंध तुमसे होनेवाला है : कल अचानक सुना कि......’’
‘‘मैं किसी की दासता नहीं कर सकता। मानाइहन चेट्टियार चाहते थे कि उनकी पुत्री से विवाह करनेवाला पुरुष फिर किसी ओर आँख उठाकर भी न देखे।’’
पापनाशन तनिक हँसकर बोला, ‘‘ठीक ही तो कहते है। कन्नगी सुन्दरता में अद्वितीय है। उसे पाकर फिर किसी और की चाह क्यों रहे !’’
‘‘नारी का सौन्दर्य तभी तक आकर्षण रहता है जब तक कि उस पर किसी पुरुष का अधिकार नहीं हो जाता।’’
‘‘और वेश्या का सौन्दर्य ?’’
महालिंगम् हँसा। बोला, ‘‘वेश्या पूरे तौर पर कभी किसी के अधिकार में नहीं आती पापनाशन ! उस पर अधिकार प्राप्त करने की भावना ही मृग-मरीचिका है। उसका आकर्षण अनंत है।’’
पापनाशन जोर से हँस पड़ा। अपना घोड़ा उसके घोड़े से सटाते हुए उसके कंधे पर थपकी देकर बोला, ‘‘कोई कुछ कहे, मैं तो यही कहूँगा महालिंगम् कि तुम कावेरीपट्टणम् के रसिकरत्न हो। कोवलन में अर्थ का व्यापार करने की क्षमता भले ही आ गई हो, परन्तु रस-व्यपार में, श्रृंगारहाट में तुम्हीं अद्वितीय रहोगे।’’
दोनों हँस पड़े। कुछ पल चुपचाप आगे बढ़ने के बाद पापनाशन ने फिर पूछा, ‘‘आज तुम्हारी ललिता नृत्योत्सव में भाग ले रही है ?
‘‘हाँ।
‘‘लेकिन मैंने सुना है कि पेरियनायकी की पोष्पपुत्री माधवी उससे अधिक चतुर और कुशल है !’’ पापनाशन ने तनिक उकसाते हुए कहा।
उसका तीर सच्चा बैठा। महालिंगम् ने तड़पकर उत्तर दिया, ‘‘राजा के गले की माला कुलीन वरवधुओं के कंठ में ही पड़ती है पापनाशन ! माधवी मेरी ललिता के पैरों की धोवन भी नहीं।’’
‘‘मैंने तो कल ही नंदा के यहाँ सुना कि कुलीनता का बंधन वर्षों पहले ही इस दरबार से टूट चुका। चेलम्मा तो कुलीन नहीं थी, परन्तु मैंने सुना है कि बीस वर्ष पहले प्रथम बार उसकी नृत्यकुशलता देखकर ही महाराज ने यह नियम भंग कर दिया था।’’
महालिंगम् ने घृणा की कड़वाहट से मुँह बिगाड़कर उत्तर दिया, ‘‘स्वर्गीय महाराज स्वयं उस पर मुग्ध हो गए थे, और उसका जो विरोध हुआ था वह भी रूप के हाट में किसी से छिपा नहीं। फल भी देख लिया। चेलम्मा भला उस गौरव को रख सकी ! कुलीन वेश्या होती तो अपने पदगौरव की रक्षा कर भी पाती। कल ललिता की अम्मा यही तो कह रही थीं। नृत्याचार शंकरन मुदलियार भी इसी मत के हैं कि नृत्योत्सव में ‘कामदेव के धनुष’ का पद-गौरव केवल कुलीन वेश्याओं को ही मिलना चाहिए। अकुलीन रूपसियाँ उसकी प्रतिष्ठा नहीं रख पातीं। इसलिए एक चेलम्मा को छोड़कर और किस अकुलीनी को अब तक यह पद मिला, बताओ तो सही ?’’
‘‘परन्तु इतने वर्षों में से किसी अकुलीना ने भाग भी तो नहीं लिया ! चेलम्मा के बाद बीस वर्षों में पहली बार पेरियनायकी ने ही अपनी बेटी को प्रतियोगिता में उतारने का साहस किया है। मेरी अमरावती कह रही थी कि माधवी के आगे ललिता ठहर नहीं सकती। रूप व गुण दोनों में ही वह अद्वितीय है। स्वयं चेलम्मा ने उसे नृत्य की शिक्षा दी है।’’
दो अश्वारोहियों के साथ दौड़ती मशालें आगे-पीछे प्राय: साथ-साथ आ लगीं। उनके प्रकाशन में अश्वरोहियों ने एक-दूसरे की ओर देखा।
‘‘अहो ! पापनाशन, तुम भी ! तब तो निश्चय ही आज सूर्य पश्चिम से उदय होनेवाला है।’’
दोनों अश्वारोहियों के घोड़े पास-पास आ गए। दोनों की मशालें मिलकर प्रकाशपुंज बन गईं। साँवले, गठीले बदन के, सजीले नवयुवक पापनाशन ने मुस्कराकर कहा, ‘‘क्या करता ! तंबी आ रहा है। स्वागत के लिए न तो अप्पा और अम्मा दोनों को ही क्षोभ होता। और तुम किसके लिए आए हो महालिंगम् ?’’
‘‘स्वयं नए सार्थवाह कोवलन के लिए।’’
‘‘बड़ा भाग्यशाली है यह कोवलन भी। चेट्टिपुत्रों में इस संयम सिरमौर माना जा रहा है। भाग्य तो देखो, धन के साथ-साथ परदेश में सुख्याति की गठरी भी बाँधकर ला रहा है।’’
महालिंगम् ने एक गरम उसाँस छोड़ी और ईर्ष्या-भरे स्वर में बोला, ‘‘और वहाँ भी उसके लिए लक्ष्मी वरमाला लिए खड़ी है। भाग्य इसको कहते हैं !’’
‘‘मैंने तो सुना था कि मानाइहन की कन्या का संबंध तुमसे होनेवाला है : कल अचानक सुना कि......’’
‘‘मैं किसी की दासता नहीं कर सकता। मानाइहन चेट्टियार चाहते थे कि उनकी पुत्री से विवाह करनेवाला पुरुष फिर किसी ओर आँख उठाकर भी न देखे।’’
पापनाशन तनिक हँसकर बोला, ‘‘ठीक ही तो कहते है। कन्नगी सुन्दरता में अद्वितीय है। उसे पाकर फिर किसी और की चाह क्यों रहे !’’
‘‘नारी का सौन्दर्य तभी तक आकर्षण रहता है जब तक कि उस पर किसी पुरुष का अधिकार नहीं हो जाता।’’
‘‘और वेश्या का सौन्दर्य ?’’
महालिंगम् हँसा। बोला, ‘‘वेश्या पूरे तौर पर कभी किसी के अधिकार में नहीं आती पापनाशन ! उस पर अधिकार प्राप्त करने की भावना ही मृग-मरीचिका है। उसका आकर्षण अनंत है।’’
पापनाशन जोर से हँस पड़ा। अपना घोड़ा उसके घोड़े से सटाते हुए उसके कंधे पर थपकी देकर बोला, ‘‘कोई कुछ कहे, मैं तो यही कहूँगा महालिंगम् कि तुम कावेरीपट्टणम् के रसिकरत्न हो। कोवलन में अर्थ का व्यापार करने की क्षमता भले ही आ गई हो, परन्तु रस-व्यपार में, श्रृंगारहाट में तुम्हीं अद्वितीय रहोगे।’’
दोनों हँस पड़े। कुछ पल चुपचाप आगे बढ़ने के बाद पापनाशन ने फिर पूछा, ‘‘आज तुम्हारी ललिता नृत्योत्सव में भाग ले रही है ?
‘‘हाँ।
‘‘लेकिन मैंने सुना है कि पेरियनायकी की पोष्पपुत्री माधवी उससे अधिक चतुर और कुशल है !’’ पापनाशन ने तनिक उकसाते हुए कहा।
उसका तीर सच्चा बैठा। महालिंगम् ने तड़पकर उत्तर दिया, ‘‘राजा के गले की माला कुलीन वरवधुओं के कंठ में ही पड़ती है पापनाशन ! माधवी मेरी ललिता के पैरों की धोवन भी नहीं।’’
‘‘मैंने तो कल ही नंदा के यहाँ सुना कि कुलीनता का बंधन वर्षों पहले ही इस दरबार से टूट चुका। चेलम्मा तो कुलीन नहीं थी, परन्तु मैंने सुना है कि बीस वर्ष पहले प्रथम बार उसकी नृत्यकुशलता देखकर ही महाराज ने यह नियम भंग कर दिया था।’’
महालिंगम् ने घृणा की कड़वाहट से मुँह बिगाड़कर उत्तर दिया, ‘‘स्वर्गीय महाराज स्वयं उस पर मुग्ध हो गए थे, और उसका जो विरोध हुआ था वह भी रूप के हाट में किसी से छिपा नहीं। फल भी देख लिया। चेलम्मा भला उस गौरव को रख सकी ! कुलीन वेश्या होती तो अपने पदगौरव की रक्षा कर भी पाती। कल ललिता की अम्मा यही तो कह रही थीं। नृत्याचार शंकरन मुदलियार भी इसी मत के हैं कि नृत्योत्सव में ‘कामदेव के धनुष’ का पद-गौरव केवल कुलीन वेश्याओं को ही मिलना चाहिए। अकुलीन रूपसियाँ उसकी प्रतिष्ठा नहीं रख पातीं। इसलिए एक चेलम्मा को छोड़कर और किस अकुलीनी को अब तक यह पद मिला, बताओ तो सही ?’’
‘‘परन्तु इतने वर्षों में से किसी अकुलीना ने भाग भी तो नहीं लिया ! चेलम्मा के बाद बीस वर्षों में पहली बार पेरियनायकी ने ही अपनी बेटी को प्रतियोगिता में उतारने का साहस किया है। मेरी अमरावती कह रही थी कि माधवी के आगे ललिता ठहर नहीं सकती। रूप व गुण दोनों में ही वह अद्वितीय है। स्वयं चेलम्मा ने उसे नृत्य की शिक्षा दी है।’’
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