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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :287
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :81-7315-524-0

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

|| प्रार्थना ||

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः
-श्वेताश्वतरोपनिषद् (2/5)

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्,
सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः,
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।
-ऋग्वेद (10/121)

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद् (6/18)

“हे अमृत के पुत्रो! सुनो, हे दिव्यधाम के निवासियो! तुम भी सुनो-

सृष्टि के हिरण्यगर्भ धारण करने से पूर्व उसी एक का अस्तित्व था। वही सब भूतादिक पदार्थों का एकमात्र अधीश्वर है, वही इस विश्व का आधार है। वही जीव-सृष्टि का जनक और समस्त शक्तियों का मूल स्रोत है, जिसकी छाया में चराचर जगत् के जीवन-मृत्यु का खेल चल रहा है, उसे छोड़ हम किसकी शरण में जाएँ!

जिसने सृष्टि के आरंभ में सार्वभौम चेतना को उत्पन्न किया और उसकी अनुभूति के लिए जिसने ज्ञानरूपी वेदों को प्रवृत्त किया, आत्मबुद्धि को प्रकाशित करनेवाली उस सर्वोच्च सत्ता की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ।"

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