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फागुन दुइ रे दिना

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :81-7315-080-x

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इस ललित निबन्ध में भारतीय संस्कृति को एक नितान्त नूतन के रूप में प्रकट किया गया है...

Phagun Dui Re Dina

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

फागुन तो बस दो-दिन का है। चैत के बारे में तो कवि ने ‘दिन चारिक चैत के’ कहा। चैत को चार दिन दिये, पर फागुन को बस दो दिन। कुछ बात होगी। फिर सोचता हूँ क्या इतनी उदासी, इतना उजड़ापन और इतना दुर्निवार सामूहिक उल्लास दो दिन से ज़्यादा झेला ही नहीं जा सकता ? माताएँ अपने बच्चों को उबटन लगाती हैं, पूरे शरीर का मैल छड़ाती हैं और मैल की गोलियाँ भी ईंधन बन जाती हैं। कभी शाम, कभी रात में, कभी बहुत सुबह, सूर्योदय से पूर्व संवत्सर की चिता जल उठती है। पूरा बीता साल कुछ क्षणों में राख हो जाता है। उस राख की चुटकी हर घर में जाती है, उसे लगाये बिना पर्व पूरा नहीं होता। इस धुलहड़ी के साथ ही होते हैं गीत और दोपहर तक जाने क्या-क्या वेष बनता रहता है। अपराह्ण में नहा धो लेने के बाद एकदम सब बदल जाते हैं, नये बसन, नये पकवान, नयी सुगन्धि, नयी धजा, नया शिष्टाचार, नया मंगल ये सब उतर आते हैं। दो दिन से ज़्यादा फागुन कहाँ रहता है !

इसी पुस्तक से


मिश्रजी के इन ललित निबन्धों में भारतीय संस्कृति को एक नितान्त नूतन रूप में प्रकट किया गया है। भारत ऋतुओं का देश है। प्रत्येक ऋतु कुछ नया देकर भविष्य के प्रति आस्था जगाती है और भारतीय जनमानस उससे प्रेरणा पाकर, अमृत खींचकर आगे बढ़ाता रहता है। भारतीयता को समझने में ये निबन्ध असंदिग्ध रूप से महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगे।

निबन्धों का देशकाल


‘फागुन दुई रे दिना’ का देशकाल साल-सवा साल का दिल्ली प्रवास है। प्रवास दो अर्थों में, एक तो बनारस से (अपनाव-भरे बनारस से) दिल्ली आना (अजनबीपन के उपनिवेश में आना) हुआ इस अर्थ में, दूसरे इस अर्थ में कि भिन्न प्रकार के प्रकाशकीय अनुभव के बाद नये ख़ुशनुमा चाकरी में और लेखकीय कालनिरेपक्षता से पत्रकारीय कालसापेक्षता में नौसिखुआ जैसे राह निकालना पड़ा। इस संग्रह के निबन्धों का यही देशकाल है। और चूँकि ऐसे देशकाल में भी ऋतुएँ आती हैं; ऋतुओं के साथ, मनुष्य की ऋतुओं के साथ पुरानी मिताई आती है, इसलिए रचनात्मक लिखने का कोई अवकाश न होते हुए भी कुछ लिख जाता है। कितना वह मेरा है, कितना ऋतुओं का, कितना ऋतुओं की झारों से गुज़रे देश का, मैं क्या जानूँ। मेरे बारे में यह प्रसिद्धि है कि बहुत कुछ ऐसा लिखते हैं, जो सबके पल्ले नहीं पड़ता, आम आदमी के लिए नहीं लिखते।

वास्तविकता यह है कि आम आदमी ही मेरे भीतर पैठ के लिखाता है, क्या वह केवल लिखाता है, उससे और कोई सरोकार नहीं रखता ? मैं कोशिश करके सहज नहीं होना चाहता। बरसों से अपने को शब्द से, अर्थ से और शब्द-अर्थ के प्रयोक्ता और ज्ञानी से जोड़ता रहा, उसीसे, जितना कुछ बन जाता है, वह सामने परस देता हूँ।
‘फागुन दुई रे दिना’ (फागुन के दो दिन) भी इसी भाव से अर्पित है अपने अनाम अदृश्य पाठक को।
अन्त में अपने दफ्तर के नत्थूसिंह को धन्यवाद ज़रूर दूँगा, क्योंकि वे ही मेरे लेख सहेजकर रख लेते हैं कि समय पर काम आयें।

विद्यानिवास मिश्र


राम : आज के सन्दर्भ में


आजकल लोगों को आज की और आज के सन्दर्भ की चिन्ता कुछ विशेष है। शायद आज का कुछ अजूबा है और उसका सन्दर्भ भी बिलकुल अलग है। आज लोगों पर आज का दबाव कुछ ज़्यादा है, आज ही यह काम होना है, आज के दिन पारसाल यह हुआ, सौ साल पहले यह हुआ, आज का दिन कैसे बीतेगा, आज कौन नया हादसा होगा, आज किस-किसने मूर्खतापूर्ण वक्तव्य दिये, आज के दिन क्या-क्या गुल खिले। ऐसी अनेक अपेक्षाएँ आज से जुड़ी रहती हैं। आज का सन्दर्भ इन्हीं अपेक्षाओं इन्हीं चिन्ताओं का सन्दर्भ है। अब ऐसे में राम की एक तो सुधि कहाँ से आये, आये भी तो भरपूर सुधि कैसे आये ? अधिकतर तो राम की पार्श्वच्छवि से ही काम चल जाता है, किसी के लिए राम शून्य हैं, किसी के लिए सगुणसाकार, किसी के लिए मनुष्य, किसी के लिए देवता, किसी के लिए इतिहास किसी के लिए सब धर्मों के धर्म, किसीके लिए शब्द और
किसी के लिए जीवन के परम और चरम अर्थ। अनेक रचनाकार राम को रचने में लगे हैं, अनेक दूसरे लोग जो रचना नहीं कर सकते, वे राम के अर्थ को तोड़ने में लगे हैं। कोई तो राम को इस युग के लिए बिलकुल अप्रासंगिक ही नहीं, इसयुग के लिए प्रतिकूल मान रहे हैं। कुछ लोग उन्हें बस अपना कवच मानकर अपनी छाती पर चिपकाये हुए हैं, राम बस मेरे हैं। कुछ राम का इस्तेमाल अपनी घटिया रचना में रूपक बनाने के लिए कर रहे हैं और कुछ हैं जो अपने जमाने का सारा पाप राम पर डालकर निश्चिन्त हो जा रहे हैं। जो बहुत सयाने नहीं हैं, जिन्हें शिक्षा-संस्कृति का वरदान नहीं मिला है, ऐसे मेरे और मेरे जैसे असंख्य लोगों के राम मन्द-मन्द मुसका रहे हैं-इसका भी मज़ा है, मुझे लोग ऐसे बूझे-अनबूझे भाव से देखें। हमने राम को कोसा है, राम को सुमिरा है, राम के चरण पखारे हैं, राम के साथ पथरीले कँकरीले रास्तों पर दो-चार डग तो चले ही चले हैं, हमने राम को अकेला पड़ते देखा है, हमने राम को भीड़ में देखा है और हमने राम को सीता के साथ तुलते और जान-बूझकर हलके पड़ते देखा है। राम हलके न पड़ते तो सीता जैसी एकनिष्ठ नारी का दुःख अपना दुःख हम कैसे मानते, कैसे इतने युगों के अन्तराल के बाद अगहन में विवाह रचने में अमंगल मानते, अगहन में सीता का विवाह हुआ, सीता ने इतना, दुःख पाया। कैसे हम देश में हज़ारों स्थलों को सीतानहानी या सीतारसोई के रूप में स्मरण करते।

हमारे राम हमारे गीतों में किसी बाथरूम में टूथब्रश लेकर तौलिया लपेटे नहीं घुसते। हमारे राम हमारे लोकजीवन में आज भी तालाब के किनारे नीम की दातौन लिये दिखायी पड़ते हैं। इतने में लक्ष्मण आते हैं, उनका चेहरा खिला हुआ है। राम पूछते हैं, तुम्हारा चेहरा खिला हुआ है, कोई शुभ समाचार है क्या लक्ष्मण कहते हैं, मेरी भाभी सीता के पुत्र जनमे हैं, अभी-अभी सन्देश मेरे पास आया है, माँ के पास आया है। राम सोचते हैं, मेरे पास सन्देश नहीं आया, कितना अभागा हूँ। मैंने राजा होकर अपने साथ ऐसा क्या किया कि अपने निजी सुख से बिदा हो गये, और राम की आँखों से आँसू तार-तार बहने लगते हैं, अपने कमरबन्द से आँसू पोंछते हैं।
और हमारी सिया सुकुमारी ही नहीं, ऐसी बहादुर भी हैं कि शिवजी का धनुष जिस मण्डप में रखा हुआ है, उसे प्रतिदिन लीपने जाती हैं और बायें हाथ से धनुष उठाकर दायें हाथ से उसके नीचे का फर्श लीपती हैं। राजा जनक यह देखते हैं। सोचते हैं, ऐसी बेटी किसी ऐसे शूरवीर को सौंपनी होगी जो यह धनुष केवल उठाये ही नहीं, इसे तोड़ भी दे, तब तो जोड़ी बैठेगी।

हमारे राम इतने कोमल, इतने कठोर, इतने सुन्दर, इतने आत्मीय और इतने दूर कि हम बस इनकी लीला से चकित होते रहते हैं। इतने आत्मीय हैं कि हम इन्हें कोसते हैं, क्यों हमें पीछे छोड़ गये, अयोध्या नगरी सुनसान कर गये, हमें राम के बिना अयोध्या प्रेतपुरी लगती है। इतने सुकुमार हैं कि हम कौसल्या के साथ बिसूरते रहते हैं, ‘आजु मोहि राम कै सुधि आयी। कवन बिरछ तक भींजत होइहैं, राम लखन दोउ भाई।’ आज राम की याद आ रही है; जाने इस सावन भादों की झड़ी में किसी वृक्ष के नीचे खड़े-खड़े राम लक्ष्मण दोनों भाई भीग रहे होंगे। मेघ तुम यहाँ बरस लो मन चाहे जितना, पर जहाँ राम-लक्ष्मण सीता वन-वन घूम रहे हैं, वहाँ थम जाओ। राम के बिना कलेवा सूना लगता है, लक्ष्मण के बिना बाग बगीचा और सीता के बिना रसोई। राम के बिना नाते-रिश्ते सब बेमानी हो जाते हैं, राम से ही सब नातों में रस घुलता है।

ऐसे राम से हमारे लोक का मन इतना तादात्म्य स्थापित कर चुका है कि वह उनके ऊपर झुँझलाता है जब वे सीता को निर्वासित कर देते हैं, मामूली धोबी की कड़ी बात पर। जब राम पश्चात्ताप करते हुए सीता को मनाने वाल्मीक के आश्रम में जाते हैं, सीता उनकी ओर देखतीं तक नहीं और अपनी माँ धरती से कहती हैं, माँ, फट जाओ, ऐसे पुरुष का मुँह नहीं देखना चाहती, जिसने मेरे ‘गरुए गर्भ’ की चिन्ता नहीं की, निकाल दिया। धरती फटती है, राम पकड़ने चलते हैं और सीता के बस खुले केश हाथ में आते हैं। हाथ में आते ही कुश बन जाते हैं। कुश बनकर तीक्ष्ण असिधाराव्रत के पवित्र संकल्प बन जाते हैं। हम ऐसे निर्मोही राम को ऐसे अकेलेपन में पाकर विह्वल होते हैं।

ऐसे राम स्मृति के विषय नहीं, वे बस मन में बसे रहते हैं, पुतलियों से कभी क्षण-भर उतरते नहीं, वे राम किसी सन्-संवत् में नहीं बँधे, किसी राजधानी में नहीं बँधे, किसी राजनीति में नहीं बँधे, किसी देश में नहीं बँधे, हमारे आपके लिए बिहरते रहते हैं। ऐसे राम को लोग अपने ढंग से रचने की बात करते हैं तो उनकी बुद्धि पर तरस आता है। राम के योग्य मन में आसन न हो और वह व्यक्ति राम को रूपायित करने चले, कोई तैयारी नहीं भीतर और राम की बात करे ! पहले परखें कि हम राम के बिना कोई जीवन सोच नहीं सकते, राम के बिना हम साँस नहीं ले सकते। पहले राम के सत्य को अपने भीतर झाँककर देखें कि उसके योग्य निश्छल हृदय है कि नहीं, तब राम में दोष देखें, राम में पुरुष प्रधान समाज का प्रतिमान देखें। राम तो ‘सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति, तुलसी सूधी सकल बिधि रघुवर प्रेम प्रतीति’ के अनुकूल सीधेपन के साथ हैं; शबरी बन सकें, निषाद बन सकें, कोलकिरात बन सकें, गाँव के साधारण जन बन सकें तो राम समझ में आयें। सारा जीवन दुराव और छल को समर्पित, झूठ ही आसन-बसन, झूठ ही भोजन, झूठ ही शयन और राम की बात करें ! राम-राम, राम का नाम लें और बगल में छुरी रखें !

राम शायद इसीलिए ऐसे लोगों को अप्रासंगिक लगते होंगे, कहीं आदमी इतना सीधा होता है, जरा सी बात पर राजपाट छोड़ दिया और छोड़ दिया तो छोड़ दिया, मनाने पर भी नहीं गये। हमारे यहाँ विवाह में जब गाली (गारी) के गीत गाये जाते हैं तो राम ही सम्बोध्य होते हैं, नये दूल्हे में राम ही दिखायी पड़ते हैं, दूल्हे की माँ-बहन को गाली नहीं मिलती, गाली मिलती है कौसल्या और शान्ता को। राम यह सब सुनते हैं और विशाल भारतीय जन की आत्मीयता से विह्वल हो जाते हैं।

जब बच्चा जन्म लेता है तो जो भी सोहिले (सोहर) जन्म-मंगल के गीत गाय जाते हैं, उनमें बच्चा राम ही होता है, बच्चा बढ़ता जाता है और राम बढ़ते जाते हैं। राम की छठी के लिए हुक्म होता है, शिकारी हरिण मारकर लाओ। हरिण को मारने चलते हैं तो हरिणी कौसल्या से फरियाद करने आती है, ऊँची मचिया पर बैठी कौसल्या रानी’ फरियाद नहीं सुनतीं, कहती हैं कि हमें तो हरिण का मांस चाहिए, हिरणी का मांस फीका होता है। हरिणी कहती है, अच्छा उसकी खाल मुझे दे दो, मैं अपने को उसी से समझा लूँगी। कौसल्या कहती हैं, नहीं उस खाल की खँजड़ी बनवाऊँगी, राम बड़े होंगे, खेलेंगे। जब-जब वह खँजड़ी बजती है, पेड़ के नीचे खड़ी अकेली हरिणी उसकी आवाज सुन-सुनकर अपने हरिण के लिए रोती रहती है। यही रुदन कौसल्या का हाहाकार बन जाता है। ऐसे करुण गीत के बिना जन्म का मंगल पूरा नहीं होता। राम तो हरिणी का शाप जीते हैं। ऐसे अभिशप्त राम ही तो परम मानवीय हैं, अपने इतने सगे हैं। वे आज बेगानेपन की दुनिया में प्रांसगिक नहीं तो और कौन होगा ?

पर इसी के साथ यह भी विचारणीय है कि आज के जो लोग ‘जय श्रीराम’ के नारों से आकाश गुँजा रहे हैं और जो लोग इन नारों से आहत होकर राम पर ही तरह-तरह के कटाक्ष कर रहे हैं, वे भी तो अपनी (आज के सन्दर्भ में) प्रासंगिकता बनायें, राम जिनके लिए आज भी वर्तमान हैं, इतिहास नहीं, उनके साथ राम के इतिहास की दुहाई देनेवाले कितने प्रासंगिक हैं और राम के सत्य को नकारते हैं और नकारकर ही अपने अस्तित्व को सुरक्षित पाते हैं, वे भी कितने प्रासंगिक हैं। आज का अधिसंख्य हिन्दुस्तान संचार साधनों के विपुल विस्तार के बावजूद न पीछे की ओर बचने के लिए भागता है, न भविष्य के विकास के स्वप्निल परिदृश्यों में भटकना चाहता है। वह कठोर धरती पर जीता है। उसके राम नंगे पाँव उसी कठोर धरती पर चले हैं, उस धरती के ईर्ष्या-द्वेष को सहज रूप से स्वीकारते हुए चले हैं, उसकी सीता इस धरती की बेटी हैं, इस धरती ने ही उन्हें अपनी तपसी वनवासिनियों के द्वारा सँभाला है। सबको साथ लेकर जो न चले वह राजा नहीं है। जो राज्य को अपनी प्रभुता माने, अपनी प्रजा की प्रभुता न माने, वह राजा नहीं है।

इसलिए दिल्ली के सिंहासन पर कोई भी बैठे, उस जन को अपने उस राजा पर अधिक प्रतीति होती है, जो उसके दरवाजे के बाहर ही मिल जाता है, उस रानी पर प्रतीति होती है जो रसोई में कुछ कहने आ जाती है।
वह रामराज्य का अनुकीर्तन इसलिए नहीं करता कि वह कोई उस लोक की वायु है, वह इस रामराज्य को जीता रहा है और राम उसकी राजनीति नहीं, उसके जीवन हैं, सुबह से रात होने तक, चिरनिद्रा तक भी, उसके बाद भी। उनका नाम ही सामने विराट् रिश्तों का संसार बसा देता है, आदमी अपने को अकेला और बेगाना नहीं अनुभव करता। राम से जुड़ने के अर्थ हैं अपने में प्रभुता और स्वतंन्त्रता का विश्वास आना। जो लोग राम की अप्रासंगिकता की बात करते हैं, वे अपने हृदय से पूछें, क्या वे सामान्य जन को यह विश्वास दिलाने को तैयार हैं, क्या उनकी विशालता पहचानने को और उसके आगे अपनी संकीर्णता को न्यौछावर करने को तैयार हैं ! जो राम का इतिहास बचाने को ही परम पुरुषार्थ मानते हैं, वे भी अपने हृदय से पूछें। कि अनपढ़ अधपढ़ लोग जो राम में जीते हैं, वे राम में कितना कुछ समेट सकते हैं क्या उतना ही हम भी समेट सकेंगे ?

ये आत्म-मंथक प्रश्न उठें तो बहुत-सा मनमुटाव अपने आप दूर हो जाय और विकास सामंजस्यपूर्ण नीति बने जिसके ऊपर सामान्य जन की दिलजमई हो। अभी तो तटस्थ उदासी ही चारों तरफ दिखती है। इसको छाँटने के लिए राम को आमन्त्रित करना है।

जन्म-मंगल का त्योहार



रामनवमी राम का जन्मदिन नहीं जन्मोत्सव है। राम के जन्म का उछाह राम को अपने बीच सदा अनुभव करनेवाला साधारण जन मानता है। राम को या किसीको भी जो लोग भगवान् नहीं स्वीकार करना चाहते हैं, वे भी इस उत्सव में सहभागी हो जाते हैं, क्योंकि राम सबके हैं, सबके लिए हैं। यह तिथि इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि गोस्वामी तुलसीदास ने इसी दिन अपनी अमरकृति ‘रामचरितमानस’ का शुभारम्भ उसी अयोध्या में किया, जहाँ राम का जन्म हुआ और उस जन्म को हम घर-घर रामनवमी के लिए घटित होती भावना का विषय बनाते हैं। गोस्वामीजी ने किसी और रचना की रचना तिथि नहीं दी केवल मानस की रचना तिथि दी। इसका गूढ़ अभिप्राय है। उन्होंने रचना समाप्ति की तिथि नहीं दी, अनुमानतः दो वर्ष लगे होंगे। अयोध्या, चित्रकूट और काशी तीन स्थानों में अलग-अलग कालावधियों में बैठकर ‘मानस’ लिखा गया। ‘रामचरितमानस’ में भी प्रश्न जरूर प्रारम्भ में पूछा गया कि राम अयोध्यावासियों समेत किस प्रकार स्वर्ग गये, पर इसका उत्तर तुलसीदास जैसे कुशल काव्यशिल्पी ने नहीं दिया। इसका भी कोई विशेष अभिप्राय है।

मैं समझता हूँ कि अभिप्राय यही होगा कि तुलसी के राम यहीं बसे रहते हैं, वे जन्म लेते हैं और धरती पर रहनेवाले मनुष्यों के प्रेम से खिंचे यहीं रहते हैं। वे किसी स्वर्ग में क्यों जायें ? पार्वती जैसी कुशल प्रश्न करनेवाली भी शिव से पुनः नहीं पूछती, स्वामी इस प्रश्न के उत्तर से क्यों कतरा गये, क्योंकि वह कथा सुनती-सुनती देखती हैं, इस कथा में कथावाचक शिव भी बीच-बीच में डूब जाते हैं, फिर कवि को गद्दी सँभालनी पड़ती है। यह कथा सबको ऐसा प्रतिभागी बनाती है, जैसे सब रामकथा में समा गये हों, यदि कथा के साथ न रहें तो राम का साथ छूट जायेगा। उत्तरकाण्ड में राम की राजगद्दी के बाद घर-घर रामकथा होती है और यही रामराज्य है कि राम को अपने बीच अनुभव करते रहें, उनके जन्म मंगल को, उनके विवाह मंगल को, उनके वनवास को, उनके विरहाकुल भ्रमण को, उनके वानर-भालुओं के सहयोग से असुरों के मद का नाश, फिर राजगद्दी पर आना, कैकेयी से मिलना, उसकी ग्लानि को धो देना, इस सबको अनुभव करते रहें। राम के साथ हो तो उसका उछाह हो, राम आगे चले जायें और हम पीछे छूट जायें तो उसका पछतावा हो, राम केवट से पहले मिलें तो हमें रश्क हो कि हम केवट क्यों न हुए। तुलसी के ‘मानस’ से जुड़े लोग राम से छूटकर नहीं रह सकते, राम की तरह वह कथा कभी चुकती नहीं, वह कथा, कथा में ही लौटती रहती है।

यह भी संयोगमात्र नहीं है कि इस कथा के दो मर्मज्ञ वाचक-शिव और काकभुशुण्डि-एक परमेश्वर, दूसरे निकृष्ट काक योनि के जीव, एक परमयोगी भक्त और दूसरे ज्ञान के मद से काक योनि पाये हुए टूटे अहंकारवाले भक्त, दोनों राम के बालरूप का ही स्मरण करते हैं। शिव कथा का आरम्भ ही करते हैं, इस अर्धाली से-


मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।


दशरथ के आँगन में बिहरनेवाले बालक राम मेरे ऊपर द्रवित हों, मंगल राम में ही रहता है, अमंगल राम को दूर से देखते ही भाग जाता है। काकभुशुण्डि तो बस काक योनि नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि इसी योनि में रहते हुए उन्हें बालक राम के हाथों से छीनकर कौर मिला था, वह हाथ उन्हें पकड़ने चला और उन्हें कहीं ठौर नहीं मिला, हाथ उन तक पहुँचता जा रहा था। तब उन्हें ज्ञान हुआ और वे रामकथा सुनाने के परम अधिकारी हुए।
बालक राम की लीला में कौसल्या को ही रस नहीं आया होगा। हर एक माता अपने पुत्र के जन्म-मंगल के गीत में राम-जन्म का ही वर्णन करती है, सुनती है और अपने पुत्र में राम की छवि देखती है, बहू आती है तो उसमें सीता की। राम का जन्म होता है साधारण लोगों के भीतर आत्मविश्वास भरने के लिए। जिसे कोई आलम्बन न मिले, उसे राम आलम्बन देते हैं। जो बिलकुल टूट जाता है, उसे जोड़ने के लिए राम खड़े हो जाते हैं, जिसका कोई रक्षक नहीं, उसके लिए धनुर्धर राम प्रहरी बन जाते हैं, राम सबके ढाढ़स हैं, राम हारे हुए की जीत हैं।

राम के अवतार लेने के दो ही कारण बड़े सटीक हैं। एक कारण पुराणों में बार-बार दुहराया गया, सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार चारों भाई (जो हमेशा पाँच वर्ष के बालक रहते हैं, अर्थात् जो सहज बालभाव में ही रहते हैं) वैकुण्ठधाम आते हैं, विष्णु भगवान् से मिलना चाहते हैं, वैसे उनका कहीं भी प्रवेश बाधित नहीं, पर विष्णु के दो दरबान जय और विजय इस सहज बालभाव का अनादर करते हैं, तुम क्यों चले आये यहाँ ? बस, चारों कुमारों ने शाप दे दिया, जाओ, तुम सेवा के मद में चूर असुर बन जाओ। तब दोनों को होश आया, ये तो बालक नहीं, चार सनातन ज्ञान हैं। ऐसे ज्ञान हैं जो सहज हो गये हैं, उस ज्ञान पर कोई आवरण नहीं है। वह ज्ञान स्वभाव बन गया है, वह अलग से ओढ़ा हुआ लबादा नहीं है। दोनों पैरों पर पड़ते हैं, कुमार शाप में संशोधन करते हैं, तुम्हारा असुर योनि से उद्धार भगवान् विष्णु के हाथों होगा। लाचार होकर सनकादि कुमारों की बात रखने और अपने मदोन्मत्त सेवकों का मद झारने के लिए विष्णु को अवतार लेना पड़ता है, कभी नृसिंह बनकर, कभी राम बनकर, कभी कृ़ष्ण बनकर। तीन बार जन्म लेने पर जय-विजय की निष्कृति होती है। इस प्रकार अवतरण का दुहरा उद्देश्य है। विशिष्ट की सेवा भी विशिष्ट बना देती है। भगवान् उस विशिष्टता को नहीं रहने देते, न ही सबके साधारण में छिपे हुए महत्त्व की पहचान खोने देते हैं।

दूसरा कारण तुलसीदासजी ने यह बतलाया, और उनके राम के अवतीर्ण होने का प्रमुख कारण यही है, कि नारद के मन में यह अहम् हुआ कि मैं अकेला हूँ जो काम के वश में नहीं हुआ, नहीं तो ईश्वर भी काम के वश में हैं। उन्होंने शिव से जाकर कहा कि प्रभु कृपा से मैं काम के वश में नहीं हुआ। शिव ने कहा, ‘‘मुझसे कहा सो कहा, कहीं भगवान् विष्णु के आगे जाकर यह बात न कहना। पर नारद तो नारद थे। विष्णु भगवान् के चरणों में प्रणाम किया और कहा-प्रभु ! तुम्हारी कृपा से मुझे काम नहीं सताता। मैं स्त्री की ओर से पूरी तरह विरक्त हूँ। विष्णु ने सोचा कि यह तो बुरा हुआ कि भक्ति में भी अहंकार आ जाए। उन्होंने माया रची। नारदजी घूमते जा रहे थे, देखा, कहीं स्वयंवर हो रहा है, सुन्दर सुलक्ष्णा माला लेकर घूम रही है, कौन उपयुक्त वर है। नारदजी मोहित हो गये, विष्णु भगवान् के पास आये कहा कि मुझे अपना रूप दीजिए, तभी वह कन्या वरमाला मेरे गले में डालेगी। भगवान् ने हरिरूप तो दिया, पर हरि का अर्थ तो वानर भी है। वानरी मुँह लिये पहुँचे। देखा, कन्या ने जिसके गले मे वरमाला डाली, वह तो स्वयं विष्णु हैं।

बड़े नाराज हुए, चले वैकुण्ठ में हिसाब करने अपनी इतने दिनों की भक्ति का। रास्ते में शिव के दो गण मिले, हँस, रहे थे। नारद कुपित हुए। उन्होंने कहा, जरा जल में अपनी परछाईं तो देखो। देखा तो वानर-सा मुँह। और नाराज हुए। शिवगणों को शाप दिया-जाओ, असुर हो जाओ, हमारे ऊपर हँसे ! तत्काल भगवान् विष्णु को शाप दिया- तुम नारी के विरह का अनुभव करने मनुष्य लोक में अवतीर्ण हो। भगवान् विष्णु ने सहर्ष इस शाप को स्वीकार किया। नारद को फिर बड़ा पछतावा हुआ। भगवान् ने कहा पछतायें नहीं मुझे आपकी बात सच करनी है, शिवगणों का उद्धार करना है और मनुष्य होकर, मनुष्य की दुर्बलता झेलकर मनुष्य के उबरने की क्षमता पहचाननी है। इसलिए राम के रूप में वे आये, उन्होंने गृहस्थ जीवन के सुख-दुःख पहचाने। वे इतने आत्मीय हो गये जन-जन के, वे सारे हिन्दुस्तान ही क्यों, दक्षिण पूर्व एशिया मध्य एशिया और दूर-दूर प्रव्रजित भारतीयों के ऐसे परिवारी हो गये कि उनके परिवार में हर मंगल के अवसर पर, चाहे जन्म हो मुण्डन हो, विवाह हो, तीर्थयात्रा हो, वे ही गाये जाते हैं।






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