कहानी संग्रह >> भारत और भैंस भारत और भैंसगोपाल चतुर्वेदी
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प्रस्तुत है हास्य-कहानी संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भैंस को देखने से अक्सर प्रतीत होता है कि वह ध्यान में डूबी है। इस मायने
में वह सरकार के दफ्तर और देश के बुद्धिजीवी का प्रतिनिधित्व करती है। बाबू
और बुद्धिजीवी भी इसी तरह कान में कलम लगाये या पेंसिल चबाते अनजान के
ध्यान में डूबे पाये जाते हैं। हम भैंस से बेहद प्रभावित हैं।
पूरा भारत घूमने का सौभाग्य अभी तक हमें नहीं मिला है। हम भैंस की तस्वीर देखकर संतोष कर लेते हैं। हमें लगता है कि भैंस भारत है और भारत भैंस है। अगर भारत की प्रगति की यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं है कि जबकि भारत की भैंस संसार में छाए। लोग भैंस पर नजर डाले और कहें, ‘भारत वाकई दर्शन और चिन्तन का देश है। इतनी समस्याओं के बावजूद इसकी भैंस कितनी टेंशन-फ्री है !’
प्रतिष्ठित व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी व्यंग्यकारों की श्रृंखला में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनके व्यंग्यों में तीक्ष्ण धार भी है और छिपा हुआ प्रहार भी। विषय की विविधता का तो उनके पास खजाना है। उनके व्यंग्यों की मारक-शक्ति बेजोड़ है।
आशा है, प्रस्तुत संग्रह के लेख आपको गुदगुदाएँगे, हँसाएँगे और कुछ बेहतर करने के लिए उकसाएँगे भी।
पूरा भारत घूमने का सौभाग्य अभी तक हमें नहीं मिला है। हम भैंस की तस्वीर देखकर संतोष कर लेते हैं। हमें लगता है कि भैंस भारत है और भारत भैंस है। अगर भारत की प्रगति की यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं है कि जबकि भारत की भैंस संसार में छाए। लोग भैंस पर नजर डाले और कहें, ‘भारत वाकई दर्शन और चिन्तन का देश है। इतनी समस्याओं के बावजूद इसकी भैंस कितनी टेंशन-फ्री है !’
प्रतिष्ठित व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी व्यंग्यकारों की श्रृंखला में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनके व्यंग्यों में तीक्ष्ण धार भी है और छिपा हुआ प्रहार भी। विषय की विविधता का तो उनके पास खजाना है। उनके व्यंग्यों की मारक-शक्ति बेजोड़ है।
आशा है, प्रस्तुत संग्रह के लेख आपको गुदगुदाएँगे, हँसाएँगे और कुछ बेहतर करने के लिए उकसाएँगे भी।
मोहल्ले के मिलेनियम खेल
हमें अंदाज तक न था। कुंभकर्ण के सोते-सोते लंका जल गई। हम सोकर उठे तो
मिलेनियम आ गया। पत्नी ने बताया गेंद-बल्ला तो घर पर है, पर पप्पू फरार
हैं। हमें एक पल को लगा कि हमारी प्यारी पत्नी अपने पति की नींद पूरी तरह
भगाने को पुत्र-अस्त्र का प्रयोग कर रही हैं। हमारे घर में पुत्र हमें
सताने का एक बहाना है। वह तो गनीमत है कि आजकल छुट्टियाँ हैं, वरना उन्हें
स्कूल छोड़ने के लिए हमें पौ फटने के पहले जगा दिया जाता है। गणित में
हमेशा फेल होनेवाले को घर-खर्च का हिसाब रखने का अभ्यास पुत्र-जन्म से
पहले से कराया जा रहा है, ताकि लख्तेजिगर स्कूल जाने लगें तो हम उन्हें
मैथ्स पढ़ा सकें।
हम अधजगी हालत में ‘पप्पू’, ‘पप्पू’ चीखे। मन में प्रार्थना का भाव था कि ‘हे पप्पू ! जहाँ भी छिपे हो, जल्दी प्रकट होकर हमें बिस्तर के विरह से बचाओं।’ बच्चे भगवान का रूप होते हैं। न भगवान् भक्तों की पुकार सुनता है, न बच्चे माँ-बाप की। हमें पप्पू की तालाश में घर से खदेड़ दिया गया। मोहल्ले का मुरगा भी सर्दी के मारे देर तक सोता है। हम घर के मुरगे ‘पप्पू’ की बाँग देकर मोहल्ले को जगाने के प्रयास में लग लिये। अपने पड़ोसी वर्माजी के घर में हमें ‘ठाँय-ठाँय’ और ‘ढिशूँ-ढिशूँ’ के जोरदार स्वर सुनाई पड़े। हमें शक हुआ कि वर्माजी के घर सवेरे-सवेरे दूरदर्शन पर आतंक का भजन-कीर्तन हो रहा है।
फिर हमें ध्यान आया कि जीवन का असली आतंक फिल्मों को कभी का पीछे छोड़ चुका है। पिछली सदी के अंतिम सप्ताह में ‘मिस मोहल्ला मिलेनियम’ चुनी गई स्वीटी को कुछ लड़को ने सीटी बजाकर बधाई दी, कुछ ने शाम को भुतहा खंडहर में अकेले आने की दावत। कुछ ने ‘आती क्या खंडाला’ की तर्ज पर ‘आ जा तू बिस्तर में’ जैसी पेशकश की तो कुछ ने भीड़ का फायदा उठाकर स्पर्श-सुख भोगा।
स्वीटी बुरा मानने की स्थिति में नही हैं। लड़के भेदभाव में यकीन नहीं करते हैं। हर स्वीटी के साथ उनका यही व्यवहार है। उम्र के साथ उनका महिला-सम्मान का जज्बा और जोर मारता है। कभी-कभार पैसे की माँग कर और कभी शगलन की घर की बहू को पेट्रोल और कैरोसीन में नहलाकर वह इस सच की खोज करते हैं कि कितने लिटर से लड़की आराम से फुँक सकती है। मिलेनियम में महिलाओं के सम्मान से खेलने को मोहल्ले के जाँबाज कटिबद्ध हैं।
मेडिकल की पढ़ाई कर रहें स्वीटी के भाई छुट्टियों में घर पधारे थे। उन्हें अपनी बहन के प्रशंसकों की छेड़छाड़ का अंदाज किसी जिंदा इंसान की गैर-जरूरी चीर-फाड़ सा ऐतराज-कुन लगा। उन्होंने एक गाना गाते प्रशंसक को कॉलर पकड़कर झकझोर दिया। उनकी इस हिंसक हरकत से वह अहिंसक गायक भड़क उठा। पहले वह गायन से गाली पर उतरा। गाली की अंताक्षरी टाइम पास है। उसके खिलाड़ी प्यार-मोहब्बत से एक-दूसरे को ही गाली देते हैं, जब कोई तीसरा नहीं मिलता है। इस वक्त तीसरा था।
पहले वह अंताक्षरी खेला, फिर उसे चेतावनी दी, ‘बोल, अंतिम संस्कार के लिए तुझे रामपुरी चाकू पसंद है या अलीगढ़ी कट्टा ?’ ब्रांडवाले गेंद-बल्ले की तरह अपहरण के खेल में आधुनिक बाजार के ये लोकप्रिय उपकरण हैं। इनके नाम भर से खिलाडी़ कलाकार की श्रेष्ठता का बोध होता है। वह अपनी पसंद इजहार कर पाते कि कट्टा-कलाकार फुर्र हो गया। रात को स्वीटी के घर से हाय-तौबा का शोरगुल सुनाई देता रहा।
जिन पड़ोसियों के दरवाजे खुले थे उन्होंने बंद कर लिये। जिनके बंद थे उन्होंने खिड़की के परदे खींचकर उसमें कान गड़ा दिए। शरीफ खुलेआम किसी को जिंदगी में नहीं झाँकते हैं, बस लुक-छिपकर ताक-झाँक करते हैं। सुबह पता लगा कि मोहल्ले की सुंदरी स्वीटी हर ली गई। उनके भाई रामपुरी से इतना गोदे गए कि डॉक्टर बनते-बनते उन्हें अस्पताल के शराणागत होना पड़ा। हमने मन-ही-मन उनकी पसंद की दाद दी। अगर कहीं वह कट्टे की फरमाइश करते तो अस्पताल जाने की नौबत न आती। घर पर ही राम नाम सत्य हो जाता।
हमारे खेलप्रिय मौहल्ले ने क्रिकेट से कट्टे तक हैरतअंगेज तरक्की की है। अभी कुछ साल पहले तक गली-गली में गावस्कर थे। उनमें से कुछ सचिन बनने की कोशिश करते। आस-पास की खिड़कियों में लगे काँचों की शामत आती। खिड़कीवाले कभी सिर्फ शिकायत से काम चलाते, कभी गेंद जब्त कर लेते।
इंसान के बारे में संशय है। पर हिंदुस्तान के हर पेड़ में और हर काँच में जान है। लोग लड़को की इस बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति पर चिंता जताते, ‘काँच तोड़ना कोई अच्छा लक्षण नहीं है। जाने इनके माँ-बाप इन्हें ऐसे जानलेवा खेलों से रोकते क्यों नहीं हैं।’ खिड़कीवालों की इच्छाशक्ति काम कर गई। खिलाड़ियों ने कतई अहिंसक खेल अपना लिया। वे क्रिकेटर से किपनैपर बन गए। अब किसी को शिकायत नहीं है। उलटे लोग उनकी तारीफ करते हैं, ‘इधर मोहल्ले में इतने सिर फूटे हैं, पर अपनी खिड़की के काँच सही-सलामत हैं।’ सिर फूटना यों भी कोई खास हादसा नहीं है, खिड़कियों के काँच टूटना है। आदमियों की इरफात है। खिड़की में लगे काँच कम हैं।
युवा इस नए खेल से खुश हैं। क्रिकेट एक ‘टीम गेम’ है। उनका अनुभव है कि एक कपिल, गावस्कर या सचिन की व्यक्तिगत प्रतिभा से मैच कभी-कभी ही जीते जाते हैं। दस के मुकाबले एक कर ही क्या सकता है ? वहीं अपहरण का भाड़ एक अकेला चना फोड़ने में सक्षम है। क्रिकेट खेलते-खेलते वह कॉलेज की टीम तक में नहीं आ पाए। गेम्स टीचर के प्रिय छात्र और उनका भतीजा उनसे बाजी मार ले गए थे।
अपहरण का खेल उनके अपने बाहुबल पर निर्भर है। इससे उनकी सामाजिक पहचान बनी है। विधायक-सांसद से लेकर पुलिस कमिश्नर तक उन्हें नाम लेकर पुकारते हैं। जब वह अपहरण का मैच खेलते हैं तो उनके कानों में अदृश्य दर्शकों की तालियाँ गूँजती हैं। सामनेवाले का चेहरा जितना भयग्रसित होता है उतनी ही तारीफ की तालियों की आवाज तेज होती है। सफल पारी के समापन पर इनाम का इंतजार कभी-कभी दो-तीन राते जागकर करना पड़ता है। उन्हें उसमें थकान नहीं आती है। हर अच्छा खिलाड़ी खेल का मजा लेता है। किडनैपर भी अपने खेल का पूरा आनंद उठाते हैं।
अपहृत व्यक्ति का डर, जीवन का संशय, फिरौती की सौदेबाजी, घरवालों की चिरौरी-मनौती तो स्वाभाविक है। वह उस दिन आनंद के अतिरेक में डूब गए जब लाला लज्जाराम के घरवालों ने उनकी जान की कीमत लगाने से इनकार कर दिया। इनसान की जान होती ही अनमोल है।
लालाजी के साहबजादे ने जानना चाहा, ‘अंकलजी ! मम्मी पूछ रही हैं कि आप पापा को रखने का कितना पैसा लेंगे ?’
एक पल को उनकी जुबान को लकवा मार गया। नई पीढ़ी के इस नुमाइंदे में अपने लक्ष्य को हासिल करने की लगन थी। उसने अपना सवाल फिर दोहराया।
किडनैपर ने उल्लास के उत्साह में फोन पटका, लालाजी को राहखर्च के लिए सौ रुपया का नोट दिया, उनके हाथ और आँख पर पट्टी बाँधी, पार्श्व भाग पर प्यार से एक लात लगाई और सड़क पर छोड़ दिया। परिवार के पारंपरिक प्रेम के बारे में वह निश्चिंत हो गए। लाला लज्जाराम जैसे तीन-चार और खिलाड़ी परिवारों से अगर उसका साबका पड़ा तो उन्हें खेल बदलना होगा। प्रतियोगिता दिनोदिन कड़ी होती जा रही है।
हम अतीत में और नहीं टहल पाए। वर्माजी के घर से पप्पू कुहरे की चादर-से भुवन-भास्कर की भाँति प्रकट हुए। उन्होंने हमें देखते ही आड़े हाथों लिया, ‘इस खराब मौसम में आप सड़क पर खड़े-खड़े क्यों सो रहे हो ?’
हमें उन्हें देखकर आश्वस्त हुए। हमने जिज्ञासा जताई कि आज वह भोर की वेला में ही घर से क्यों पलायन कराए गए ?
पप्पू में हमें ज्ञान दिया, ‘आजकल हमारी छुट्टी है। हर शाम को खोलने जाते हैं तब मम्मी टोकती हैं, सुबह जाएँ तो आप। प्लीज, याद रखिए कि आप हमारे फादर हैं, जेलर नहीं हैं।’
वर्माजी के आगमन ने पप्पू के पापा-अनुशासन के भाषण को बीच में ही रोक दिया। वर्माजी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
उन्होंने हमले निवेदन किया, ‘आपके बेटे ने हमारे पुत्र के साथ मिलकर पूरा घर सिर पर उठा लिया है। मेरी पत्नी बीमार हैं। इन लोगों ने ऐसी फायरिंग की प्रैक्टिस की कि वह डर के मारे बेहोश हो गई हैं। डॉक्टर ने उन्हें पूरी तरह आराम करने की सलाद दी है। मेहरबानी कर पप्पू को आप हमारे यहाँ आने से रोकने की कृपा करें।’
इतने में उनके लाड़ले राजू ने आकर पप्पू को सूचित किया, ‘हमारे घर में तो बूढ़े-बुढ़िया का पारिवारिक आतंक है। कल से खेल तुम्हारे यहाँ होगा।’
हमें खुशी हुई। नई पीढ़ी ने हमें निर्णय की जहमत से बचा लिया। हमारे मन में उत्सुकता भी जगी। ग्यारह-बारह साल के इन लड़कों ने ऐसा कौन सा खेल ईजाद किया कि वर्मा परिवार के बुर्जुग अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। हमने पप्पू से उनके खेल की जानकारी का अनुरोध किया। मुहावरे ज्ञान की खान हैं। उन्होंने मुहावरे के सहारे हमें टाला, ‘हाथ कंगन को आरसी क्या, कल खुद ही देख लीजिएगा।’ सरकार से लेकर घर तक सूचना के लिए उचित कीमत चुकानी पड़ती है। हमने पप्पू से ‘बर्गर’ का वादा किया। उन्होंने अपने खेल के बारे में हमें सवाल-जवाब के जरिए बताया-
‘आप बचपन में चोर-सिपाही खेलते थे या नहीं ?’
हमने स्वीकृति में सिर हिलाया, ‘घर में ही क्यों, हम स्कूल में भी चोर-सिपाही खेलते थे।’
‘आप के हिसाब से अब चोरों और सिपाहियों में कोई फर्क है क्या ? उनके दार्शनिक प्रश्न ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया। सरकार में रहकर हम सच बोलने से परहेज करते हैं, पर पुत्र से हमने झूठ की सामाजिकता का निर्वाह नहीं किया, ‘इधर शहर में जो हो रहा है, उसके हिसाब से तो सिर्फ वरदी का अंतर बचा हैं। जाहिर है, सिर्फ चोर का एक तरफा खेल मुमकिन नहीं। आजकल हम लोग ‘लीडर-स्मगलर’ का खेल खेलते हैं। यह पूरे स्कूल का पॉपुलर खेल है। आज पहला दिन होने की वजह से ‘ढिशूँ-ठाँय’ कुछ ज्यादा हो गई।’
दूसरे दिन हमारी नींद में कोई खलल नहीं पड़ा। अपना विश्वास है कि सोता आदमी चैन से रहता है। सारे दु:खों की जड़ जगाना है। हम दफ्तक जाने लगे तो हमारा कलम जेब से कहीं टहल लिया था। वैसे रूमाल, कलम, कगज पहले भी टहल चुके हैं। एकाध दिन बाद अकसर पत्नी उन्हें बरामद करती हैं। मुफ्त की चीजें अपनी कमजोरी हैं। कलम मुफ्त का ही नहीं, विदेशी भी था और दफ्तर आए एक सज्जन हमें बतौर शिष्टाचार के भेंट कर गए थे। दो-तीन दिन उसे घर के हर कोने-कमीज में तलाशा गया।
वह गायब रहा। इस बीच हमारे सिरहाने की मेज पर रखी अलार्म घड़ी के भी पैर उग आए। वह पिछली दीवाली की गिफ्ट थी। उस पति-पत्नी और पप्पूवाले घर में कौन है जो हमारी मुफ्त की कमाई के पीछे पड़ा है ? हमने पत्नी से सलाह ली। कहीं पप्पू को नैतिकता के आदर्शों का रोग तो नहीं लग गया है जो वह फ्री के भ्रष्टाचार उन्मूलन पर उतारू है।
पत्नी ने ऐसी किसी भी संभावना से इनकार किया, ‘आजादी के बाद हम मलेरिया भले नहीं मिटा पाए, पर हमने आदर्शों और उसूलों जैसे रोगों का जड़ से सफाया कर दिया।’
हमने पप्पू से असलियत जानने का दुस्साहस नहीं किया। अपन उन पिताओं में से नहीं हैं जो अपने पुत्र से डरते हैं। पर छोटी-छोटी बातों पर छोटों से जिरह-जाँच बड़ों को शोभा नहीं दोती है। पप्पू स्कूल और लीडर-स्मगलर में व्यस्त थे, उनसे टी.वी. देखते वक्त ही मुलाकात होती। टी.वी. टाइम के दौरान बात करना वर्जित है। यों पप्पू को भी चैनल बदलने से इतनी फुरसत नहीं रहती कि वह टी.वी. अलावा किसी और पर नजर डालने की इनायत करें।
हम अधजगी हालत में ‘पप्पू’, ‘पप्पू’ चीखे। मन में प्रार्थना का भाव था कि ‘हे पप्पू ! जहाँ भी छिपे हो, जल्दी प्रकट होकर हमें बिस्तर के विरह से बचाओं।’ बच्चे भगवान का रूप होते हैं। न भगवान् भक्तों की पुकार सुनता है, न बच्चे माँ-बाप की। हमें पप्पू की तालाश में घर से खदेड़ दिया गया। मोहल्ले का मुरगा भी सर्दी के मारे देर तक सोता है। हम घर के मुरगे ‘पप्पू’ की बाँग देकर मोहल्ले को जगाने के प्रयास में लग लिये। अपने पड़ोसी वर्माजी के घर में हमें ‘ठाँय-ठाँय’ और ‘ढिशूँ-ढिशूँ’ के जोरदार स्वर सुनाई पड़े। हमें शक हुआ कि वर्माजी के घर सवेरे-सवेरे दूरदर्शन पर आतंक का भजन-कीर्तन हो रहा है।
फिर हमें ध्यान आया कि जीवन का असली आतंक फिल्मों को कभी का पीछे छोड़ चुका है। पिछली सदी के अंतिम सप्ताह में ‘मिस मोहल्ला मिलेनियम’ चुनी गई स्वीटी को कुछ लड़को ने सीटी बजाकर बधाई दी, कुछ ने शाम को भुतहा खंडहर में अकेले आने की दावत। कुछ ने ‘आती क्या खंडाला’ की तर्ज पर ‘आ जा तू बिस्तर में’ जैसी पेशकश की तो कुछ ने भीड़ का फायदा उठाकर स्पर्श-सुख भोगा।
स्वीटी बुरा मानने की स्थिति में नही हैं। लड़के भेदभाव में यकीन नहीं करते हैं। हर स्वीटी के साथ उनका यही व्यवहार है। उम्र के साथ उनका महिला-सम्मान का जज्बा और जोर मारता है। कभी-कभार पैसे की माँग कर और कभी शगलन की घर की बहू को पेट्रोल और कैरोसीन में नहलाकर वह इस सच की खोज करते हैं कि कितने लिटर से लड़की आराम से फुँक सकती है। मिलेनियम में महिलाओं के सम्मान से खेलने को मोहल्ले के जाँबाज कटिबद्ध हैं।
मेडिकल की पढ़ाई कर रहें स्वीटी के भाई छुट्टियों में घर पधारे थे। उन्हें अपनी बहन के प्रशंसकों की छेड़छाड़ का अंदाज किसी जिंदा इंसान की गैर-जरूरी चीर-फाड़ सा ऐतराज-कुन लगा। उन्होंने एक गाना गाते प्रशंसक को कॉलर पकड़कर झकझोर दिया। उनकी इस हिंसक हरकत से वह अहिंसक गायक भड़क उठा। पहले वह गायन से गाली पर उतरा। गाली की अंताक्षरी टाइम पास है। उसके खिलाड़ी प्यार-मोहब्बत से एक-दूसरे को ही गाली देते हैं, जब कोई तीसरा नहीं मिलता है। इस वक्त तीसरा था।
पहले वह अंताक्षरी खेला, फिर उसे चेतावनी दी, ‘बोल, अंतिम संस्कार के लिए तुझे रामपुरी चाकू पसंद है या अलीगढ़ी कट्टा ?’ ब्रांडवाले गेंद-बल्ले की तरह अपहरण के खेल में आधुनिक बाजार के ये लोकप्रिय उपकरण हैं। इनके नाम भर से खिलाडी़ कलाकार की श्रेष्ठता का बोध होता है। वह अपनी पसंद इजहार कर पाते कि कट्टा-कलाकार फुर्र हो गया। रात को स्वीटी के घर से हाय-तौबा का शोरगुल सुनाई देता रहा।
जिन पड़ोसियों के दरवाजे खुले थे उन्होंने बंद कर लिये। जिनके बंद थे उन्होंने खिड़की के परदे खींचकर उसमें कान गड़ा दिए। शरीफ खुलेआम किसी को जिंदगी में नहीं झाँकते हैं, बस लुक-छिपकर ताक-झाँक करते हैं। सुबह पता लगा कि मोहल्ले की सुंदरी स्वीटी हर ली गई। उनके भाई रामपुरी से इतना गोदे गए कि डॉक्टर बनते-बनते उन्हें अस्पताल के शराणागत होना पड़ा। हमने मन-ही-मन उनकी पसंद की दाद दी। अगर कहीं वह कट्टे की फरमाइश करते तो अस्पताल जाने की नौबत न आती। घर पर ही राम नाम सत्य हो जाता।
हमारे खेलप्रिय मौहल्ले ने क्रिकेट से कट्टे तक हैरतअंगेज तरक्की की है। अभी कुछ साल पहले तक गली-गली में गावस्कर थे। उनमें से कुछ सचिन बनने की कोशिश करते। आस-पास की खिड़कियों में लगे काँचों की शामत आती। खिड़कीवाले कभी सिर्फ शिकायत से काम चलाते, कभी गेंद जब्त कर लेते।
इंसान के बारे में संशय है। पर हिंदुस्तान के हर पेड़ में और हर काँच में जान है। लोग लड़को की इस बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति पर चिंता जताते, ‘काँच तोड़ना कोई अच्छा लक्षण नहीं है। जाने इनके माँ-बाप इन्हें ऐसे जानलेवा खेलों से रोकते क्यों नहीं हैं।’ खिड़कीवालों की इच्छाशक्ति काम कर गई। खिलाड़ियों ने कतई अहिंसक खेल अपना लिया। वे क्रिकेटर से किपनैपर बन गए। अब किसी को शिकायत नहीं है। उलटे लोग उनकी तारीफ करते हैं, ‘इधर मोहल्ले में इतने सिर फूटे हैं, पर अपनी खिड़की के काँच सही-सलामत हैं।’ सिर फूटना यों भी कोई खास हादसा नहीं है, खिड़कियों के काँच टूटना है। आदमियों की इरफात है। खिड़की में लगे काँच कम हैं।
युवा इस नए खेल से खुश हैं। क्रिकेट एक ‘टीम गेम’ है। उनका अनुभव है कि एक कपिल, गावस्कर या सचिन की व्यक्तिगत प्रतिभा से मैच कभी-कभी ही जीते जाते हैं। दस के मुकाबले एक कर ही क्या सकता है ? वहीं अपहरण का भाड़ एक अकेला चना फोड़ने में सक्षम है। क्रिकेट खेलते-खेलते वह कॉलेज की टीम तक में नहीं आ पाए। गेम्स टीचर के प्रिय छात्र और उनका भतीजा उनसे बाजी मार ले गए थे।
अपहरण का खेल उनके अपने बाहुबल पर निर्भर है। इससे उनकी सामाजिक पहचान बनी है। विधायक-सांसद से लेकर पुलिस कमिश्नर तक उन्हें नाम लेकर पुकारते हैं। जब वह अपहरण का मैच खेलते हैं तो उनके कानों में अदृश्य दर्शकों की तालियाँ गूँजती हैं। सामनेवाले का चेहरा जितना भयग्रसित होता है उतनी ही तारीफ की तालियों की आवाज तेज होती है। सफल पारी के समापन पर इनाम का इंतजार कभी-कभी दो-तीन राते जागकर करना पड़ता है। उन्हें उसमें थकान नहीं आती है। हर अच्छा खिलाड़ी खेल का मजा लेता है। किडनैपर भी अपने खेल का पूरा आनंद उठाते हैं।
अपहृत व्यक्ति का डर, जीवन का संशय, फिरौती की सौदेबाजी, घरवालों की चिरौरी-मनौती तो स्वाभाविक है। वह उस दिन आनंद के अतिरेक में डूब गए जब लाला लज्जाराम के घरवालों ने उनकी जान की कीमत लगाने से इनकार कर दिया। इनसान की जान होती ही अनमोल है।
लालाजी के साहबजादे ने जानना चाहा, ‘अंकलजी ! मम्मी पूछ रही हैं कि आप पापा को रखने का कितना पैसा लेंगे ?’
एक पल को उनकी जुबान को लकवा मार गया। नई पीढ़ी के इस नुमाइंदे में अपने लक्ष्य को हासिल करने की लगन थी। उसने अपना सवाल फिर दोहराया।
किडनैपर ने उल्लास के उत्साह में फोन पटका, लालाजी को राहखर्च के लिए सौ रुपया का नोट दिया, उनके हाथ और आँख पर पट्टी बाँधी, पार्श्व भाग पर प्यार से एक लात लगाई और सड़क पर छोड़ दिया। परिवार के पारंपरिक प्रेम के बारे में वह निश्चिंत हो गए। लाला लज्जाराम जैसे तीन-चार और खिलाड़ी परिवारों से अगर उसका साबका पड़ा तो उन्हें खेल बदलना होगा। प्रतियोगिता दिनोदिन कड़ी होती जा रही है।
हम अतीत में और नहीं टहल पाए। वर्माजी के घर से पप्पू कुहरे की चादर-से भुवन-भास्कर की भाँति प्रकट हुए। उन्होंने हमें देखते ही आड़े हाथों लिया, ‘इस खराब मौसम में आप सड़क पर खड़े-खड़े क्यों सो रहे हो ?’
हमें उन्हें देखकर आश्वस्त हुए। हमने जिज्ञासा जताई कि आज वह भोर की वेला में ही घर से क्यों पलायन कराए गए ?
पप्पू में हमें ज्ञान दिया, ‘आजकल हमारी छुट्टी है। हर शाम को खोलने जाते हैं तब मम्मी टोकती हैं, सुबह जाएँ तो आप। प्लीज, याद रखिए कि आप हमारे फादर हैं, जेलर नहीं हैं।’
वर्माजी के आगमन ने पप्पू के पापा-अनुशासन के भाषण को बीच में ही रोक दिया। वर्माजी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
उन्होंने हमले निवेदन किया, ‘आपके बेटे ने हमारे पुत्र के साथ मिलकर पूरा घर सिर पर उठा लिया है। मेरी पत्नी बीमार हैं। इन लोगों ने ऐसी फायरिंग की प्रैक्टिस की कि वह डर के मारे बेहोश हो गई हैं। डॉक्टर ने उन्हें पूरी तरह आराम करने की सलाद दी है। मेहरबानी कर पप्पू को आप हमारे यहाँ आने से रोकने की कृपा करें।’
इतने में उनके लाड़ले राजू ने आकर पप्पू को सूचित किया, ‘हमारे घर में तो बूढ़े-बुढ़िया का पारिवारिक आतंक है। कल से खेल तुम्हारे यहाँ होगा।’
हमें खुशी हुई। नई पीढ़ी ने हमें निर्णय की जहमत से बचा लिया। हमारे मन में उत्सुकता भी जगी। ग्यारह-बारह साल के इन लड़कों ने ऐसा कौन सा खेल ईजाद किया कि वर्मा परिवार के बुर्जुग अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। हमने पप्पू से उनके खेल की जानकारी का अनुरोध किया। मुहावरे ज्ञान की खान हैं। उन्होंने मुहावरे के सहारे हमें टाला, ‘हाथ कंगन को आरसी क्या, कल खुद ही देख लीजिएगा।’ सरकार से लेकर घर तक सूचना के लिए उचित कीमत चुकानी पड़ती है। हमने पप्पू से ‘बर्गर’ का वादा किया। उन्होंने अपने खेल के बारे में हमें सवाल-जवाब के जरिए बताया-
‘आप बचपन में चोर-सिपाही खेलते थे या नहीं ?’
हमने स्वीकृति में सिर हिलाया, ‘घर में ही क्यों, हम स्कूल में भी चोर-सिपाही खेलते थे।’
‘आप के हिसाब से अब चोरों और सिपाहियों में कोई फर्क है क्या ? उनके दार्शनिक प्रश्न ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया। सरकार में रहकर हम सच बोलने से परहेज करते हैं, पर पुत्र से हमने झूठ की सामाजिकता का निर्वाह नहीं किया, ‘इधर शहर में जो हो रहा है, उसके हिसाब से तो सिर्फ वरदी का अंतर बचा हैं। जाहिर है, सिर्फ चोर का एक तरफा खेल मुमकिन नहीं। आजकल हम लोग ‘लीडर-स्मगलर’ का खेल खेलते हैं। यह पूरे स्कूल का पॉपुलर खेल है। आज पहला दिन होने की वजह से ‘ढिशूँ-ठाँय’ कुछ ज्यादा हो गई।’
दूसरे दिन हमारी नींद में कोई खलल नहीं पड़ा। अपना विश्वास है कि सोता आदमी चैन से रहता है। सारे दु:खों की जड़ जगाना है। हम दफ्तक जाने लगे तो हमारा कलम जेब से कहीं टहल लिया था। वैसे रूमाल, कलम, कगज पहले भी टहल चुके हैं। एकाध दिन बाद अकसर पत्नी उन्हें बरामद करती हैं। मुफ्त की चीजें अपनी कमजोरी हैं। कलम मुफ्त का ही नहीं, विदेशी भी था और दफ्तर आए एक सज्जन हमें बतौर शिष्टाचार के भेंट कर गए थे। दो-तीन दिन उसे घर के हर कोने-कमीज में तलाशा गया।
वह गायब रहा। इस बीच हमारे सिरहाने की मेज पर रखी अलार्म घड़ी के भी पैर उग आए। वह पिछली दीवाली की गिफ्ट थी। उस पति-पत्नी और पप्पूवाले घर में कौन है जो हमारी मुफ्त की कमाई के पीछे पड़ा है ? हमने पत्नी से सलाह ली। कहीं पप्पू को नैतिकता के आदर्शों का रोग तो नहीं लग गया है जो वह फ्री के भ्रष्टाचार उन्मूलन पर उतारू है।
पत्नी ने ऐसी किसी भी संभावना से इनकार किया, ‘आजादी के बाद हम मलेरिया भले नहीं मिटा पाए, पर हमने आदर्शों और उसूलों जैसे रोगों का जड़ से सफाया कर दिया।’
हमने पप्पू से असलियत जानने का दुस्साहस नहीं किया। अपन उन पिताओं में से नहीं हैं जो अपने पुत्र से डरते हैं। पर छोटी-छोटी बातों पर छोटों से जिरह-जाँच बड़ों को शोभा नहीं दोती है। पप्पू स्कूल और लीडर-स्मगलर में व्यस्त थे, उनसे टी.वी. देखते वक्त ही मुलाकात होती। टी.वी. टाइम के दौरान बात करना वर्जित है। यों पप्पू को भी चैनल बदलने से इतनी फुरसत नहीं रहती कि वह टी.वी. अलावा किसी और पर नजर डालने की इनायत करें।
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