स्वास्थ्य-चिकित्सा >> आहार चिकित्सा आहार चिकित्सास्वामी अक्षय आत्मानन्द
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इसमें आहार चिकित्सा पर प्रकाश डाला गया है...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
वर्तमान जीवन व्यवस्था ऐसी हो गई है कि आज लगभग प्रत्येक व्यक्ति
किसी-न-किसी रोग से ग्रस्त है। जिन रोगों के बारे में हमने कभी सुना भी
नहीं था, अब उन्हें देखना ही नहीं, भोगना भी हमारी विवशता बनती जा रही है। संपूर्ण संसार में हजारों चिकित्सा-पद्धतियाँ विकसित हो चुकी हैं। इनके
साथ-साथ उन्नत चिकित्सकीय यन्त्र एवं उपकरण तथा अद्भुत जीवन रक्षक दवाएँ
विकसित कर ली गई हैं, फिर भी आज का मानव नाना रोंगों से पीड़ित जीवन जीने
को विवश है। अतः इन रोगों का कारण क्या है, यह जानना अत्यावश्यक हो गया
है। इसका प्रमुख कारण है- हमारा असंयमित-असंतुलित आहार।
हमें क्यों खाना चाहिए, कब खाना चाहिए, कितना खाना चाहिए- ऐसे अनेक गम्भीर प्रश्नों का समाधान स्वामी जी ने प्रस्तुत पुस्तक आहार चिकित्सा में बड़ी ही सरल, सुगम व बोधगम्य भाषा में प्रभाव पूर्ण ढंग से किया है। स्वामीजी का मानना है कि दैनिक खान-पान से ही अच्छा उपचार किया जा सकता है। स्वामी जी द्वारा सुझाई गई बातों को अगर आप ध्यान पूर्वक आत्मसात् करेंगे और धैर्य तथा शांति से इनका अनुसरण करेंगें तो निश्चय ही बीमारी होने की नौबत नहीं आएगी।
हमें विश्वास है, प्रस्तुत पुस्तक पाठकों का आहार चिकित्सा संबंधी ज्ञानवर्द्धन तो करेगी ही, उन्हें पूर्णतया स्वस्थ रखने में भी महती भूमिका अदा करेगी।
हमें क्यों खाना चाहिए, कब खाना चाहिए, कितना खाना चाहिए- ऐसे अनेक गम्भीर प्रश्नों का समाधान स्वामी जी ने प्रस्तुत पुस्तक आहार चिकित्सा में बड़ी ही सरल, सुगम व बोधगम्य भाषा में प्रभाव पूर्ण ढंग से किया है। स्वामीजी का मानना है कि दैनिक खान-पान से ही अच्छा उपचार किया जा सकता है। स्वामी जी द्वारा सुझाई गई बातों को अगर आप ध्यान पूर्वक आत्मसात् करेंगे और धैर्य तथा शांति से इनका अनुसरण करेंगें तो निश्चय ही बीमारी होने की नौबत नहीं आएगी।
हमें विश्वास है, प्रस्तुत पुस्तक पाठकों का आहार चिकित्सा संबंधी ज्ञानवर्द्धन तो करेगी ही, उन्हें पूर्णतया स्वस्थ रखने में भी महती भूमिका अदा करेगी।
पहले यह पढ़िए
बुजुर्गों, डॉक्टरों एवं परामर्शदाताओं से
हमें बहुत सी मूल्यवान् बातें
अकसर सुनने को मिलती ही रहती हैं। इनमें से बहुत सी ‘कोड
वर्ड्स’ में होती हैं अर्थात् बीच-बीच में ऐसे शब्द इस्तेमाल
किए जाते हैं जो हमने सुने तो कई बार होते हैं, परंतु उनका समुचित अर्थ
हमें ज्ञात नहीं होता। फिर भी हम उन्हें समझने का सफल अभिनय करते हैं। यदि
न करें तो पढ़े-लिखे मूर्ख कहलाने की नौबत आ जाती है।
अब जैसे ‘संतुलित भोजन’ शब्द बहुधा सुनने में आता है। जो भोजन हमें प्राप्त होता है, उसपर हमारा कोई वश नहीं चलता। वह संतुलित है या असंतुलित, इसको बतानेवाली जानकरियाँ हमें प्राप्त नहीं हुईं। यदि कभी पढ़ी या सुनी भी होंगी तो भला याद किसको रहती हैं ! जीवन में इतने बखेड़े हैं कि यहाँ महत्त्वपूर्ण बातें याद रख पाना भी कठिन है। फिर भला दुनिया भर की बातें कौन याद रखे !
मैंने यह पुस्तक लिखते समय अपने आप को मिडिल स्कूल के प्रारंभिक छात्र जैसे स्तर पर रखकर, हर बात पर शंका और अनेक शब्दों को न समझ पाने जैसी मानसिक स्थिति में लाकर यथाशक्ति प्रश्न उठाए हैं।
लेखक अथवा एक विशेषज्ञ की स्थिति में उन उठाए गए प्रश्नों तथा शंकाओं का समाधान प्रस्तुत किया है। पुस्तक के रूप में ‘विषय’ बहुत लंबा खिंचता है। ज्यादा लंबी बात आपको ‘बोर’ न करे, इसलिए हास्य-विनोद का सहारा भी लिया है; परंतु ये सारे प्रयास विषय को बोधगम्य बनाने तथा आगे बढ़ाने में सहायक हैं।
प्रत्येक ऐसी जानकारी, जो अनिवार्य है, इस पुस्तक में उसका समावेश करने का भरपूर प्रयास मेरी ओर से रहा है। इस पांडुलिपि को पढ़कर अनेक विज्ञ तथा विद्वान् लोगों ने इसकी भरपूर प्रशंसा भी की है। ऐसे विषय पर उपलब्ध अब तक की किसी भी अन्य पुस्तक की तुलना में निस्संदेह आप भी इसे ‘सर्वश्रेष्ठ’ मानकर मुझे एक धन्यवाद पत्र अवश्य ही लिखना चाहेंगे। तो लिखिए न !
आपको कोई शंका है कहीं अपूर्णता प्रतीत होती है, शायद मैं कुछ गलत भी लिख गया होऊँ या आपका कोई प्रश्न है-इन सारी परिस्थितियों में आप अपने प्रश्न के साथ पता लिखा अंतरदेशीय या पोस्टकार्ड भेजते हुए मुझसे पूछने के अधिकारी हैं। पूछिए, आपको उत्तर जरूर मिलेगा !
अनभिज्ञता के कारण धन की कमी से, पहुँच के बाहर होने से हम भारतीयों को उचित उपचार नहीं मिल पाता है। फलस्वरूप अनेक बीमारियाँ ढोते हुए मरना हमारी विवशता या नियति बन गई है। इस मामले में दैनिक खान-पान से ही अच्छा उपचार और भरपूर आत्मविश्वास आपको प्राप्त हो, इसी विश्वास के साथ।
अब जैसे ‘संतुलित भोजन’ शब्द बहुधा सुनने में आता है। जो भोजन हमें प्राप्त होता है, उसपर हमारा कोई वश नहीं चलता। वह संतुलित है या असंतुलित, इसको बतानेवाली जानकरियाँ हमें प्राप्त नहीं हुईं। यदि कभी पढ़ी या सुनी भी होंगी तो भला याद किसको रहती हैं ! जीवन में इतने बखेड़े हैं कि यहाँ महत्त्वपूर्ण बातें याद रख पाना भी कठिन है। फिर भला दुनिया भर की बातें कौन याद रखे !
मैंने यह पुस्तक लिखते समय अपने आप को मिडिल स्कूल के प्रारंभिक छात्र जैसे स्तर पर रखकर, हर बात पर शंका और अनेक शब्दों को न समझ पाने जैसी मानसिक स्थिति में लाकर यथाशक्ति प्रश्न उठाए हैं।
लेखक अथवा एक विशेषज्ञ की स्थिति में उन उठाए गए प्रश्नों तथा शंकाओं का समाधान प्रस्तुत किया है। पुस्तक के रूप में ‘विषय’ बहुत लंबा खिंचता है। ज्यादा लंबी बात आपको ‘बोर’ न करे, इसलिए हास्य-विनोद का सहारा भी लिया है; परंतु ये सारे प्रयास विषय को बोधगम्य बनाने तथा आगे बढ़ाने में सहायक हैं।
प्रत्येक ऐसी जानकारी, जो अनिवार्य है, इस पुस्तक में उसका समावेश करने का भरपूर प्रयास मेरी ओर से रहा है। इस पांडुलिपि को पढ़कर अनेक विज्ञ तथा विद्वान् लोगों ने इसकी भरपूर प्रशंसा भी की है। ऐसे विषय पर उपलब्ध अब तक की किसी भी अन्य पुस्तक की तुलना में निस्संदेह आप भी इसे ‘सर्वश्रेष्ठ’ मानकर मुझे एक धन्यवाद पत्र अवश्य ही लिखना चाहेंगे। तो लिखिए न !
आपको कोई शंका है कहीं अपूर्णता प्रतीत होती है, शायद मैं कुछ गलत भी लिख गया होऊँ या आपका कोई प्रश्न है-इन सारी परिस्थितियों में आप अपने प्रश्न के साथ पता लिखा अंतरदेशीय या पोस्टकार्ड भेजते हुए मुझसे पूछने के अधिकारी हैं। पूछिए, आपको उत्तर जरूर मिलेगा !
अनभिज्ञता के कारण धन की कमी से, पहुँच के बाहर होने से हम भारतीयों को उचित उपचार नहीं मिल पाता है। फलस्वरूप अनेक बीमारियाँ ढोते हुए मरना हमारी विवशता या नियति बन गई है। इस मामले में दैनिक खान-पान से ही अच्छा उपचार और भरपूर आत्मविश्वास आपको प्राप्त हो, इसी विश्वास के साथ।
स्वामी श्री अक्षय आत्मानंद
आहार चिकित्सा
जिन रोगों के बारे में कभी सुना भी नहीं गया
था उन्हें देखना ही नहीं,
भोगना भी हमारी विवशता बनती जा रही है। इस पृथ्वी पर हजारों
चिकित्सा-पद्धतियाँ विकसित हो चुकी हैं। एलोपैथी ने लाखों-करोड़ों रुपए
मूल्य के उन्नत चिकित्सकीय यंत्र एवं उपकरण और अद्भुत दवाएँ विकसित कर ली
हैं, फिर भी आज का मानव रोगों से घिरा जीने को विवश है। आइए, जाँच
करें-कहीं हम ही तो गलती नहीं कर रहे हैं ? हमारे रोगों, कष्टों का कारण
कहीं हम ही तो नहीं हैं ? प्रस्तुत है-आहार चिकित्सा।
बचपन से ही हम सुनते आए हैं कि जीने के लिए भोजन जरूरी है। भोजन-प्राप्ति के लिए कमाना जरूरी है। कमाई के लिए कौशल जरूरी है। कौशल शिक्षा और अभ्यास से ही प्राप्त हो सकता है। हम यह भी देखते आए हैं कि लोग सुबह से शाम तक कमाई के चक्कर में इस कदर पड़े रहते हैं कि उन्हें ठीक से भोजन करने की भी फुरसत नहीं मिल पाती। कुछ लोग गरीबी के कारण उलटा-सीधा खाकर बीमार पड़ रहे हैं तो कुछ रईसी की शान में अनाप-शनाप खाकर डॉक्टरों के भाव बढ़ा रहे हैं।
एक बार मैंने सबसे अधिक रोगियों की भीड़वाले डॉक्टर से जानना चाहा कि उनके रोगियों में अधिकांश किस रोग के शिकार हैं ? उन्हें यह रोग ही क्यों होता है ? क्या आगामी पीढ़ियों को इन कारणों के प्रति सावधान किया जा सकता है ?
चूँकि हम लोगों का वार्त्तालाप एकांत क्षणों में चल रहा था, डॉक्टर मेरा घनिष्ठ मित्र था, अतः वह ठठाकर हँस पड़ा और मुझसे बोला, ‘‘देखो भाई ! आप तो हैं साधु, इसलिए लोगों की सहज श्रद्धा आपको प्राप्त है। मैं तो गृहस्थ भी हूँ और आधुनिक समाज में शान-शौकत के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना चाहता हूँ। यदि तुम्हें अपनी संपन्नता का रहस्य बता दूँगा तो मुझे भी कटोरा लेकर तुम्हारे साथ ही चलना पड़ जाएगा। इसलिए यह खोजबीन बंद करो !’’
मेरा डॉक्टर मित्र हास्य-भाव से ही यह सब कह गया था, परंतु वह यह भी जानता था कि मेरी जिज्ञासा को इतनी आसानी से दबाया नहीं जा सकता। अतः उसने अति चिंतित स्वर में कहा था-
‘‘भारत में लोग गरीबी के कारण मात्र जीवित बने रहने के लिए खाते हैं। उनके खाद्य पदार्थ बासी हैं, उनमें फफूँद या सड़न-गलन आ गई है, कच्चे हैं, अपरिचित हैं, उनमें कोई रोगाणु प्रविष्ठ हो चुके हैं-इन सब बातों पर ध्यान दिए बिना ही खा जाते हैं। जिनके शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता अधिक है, वे जरा ज्यादा देर में तथा जिनमें कम है, वे जरा जल्दी ही बीमार पड़ जाते हैं। जिनके पास खाने को ही पर्याप्त नहीं है, वे भला डॉक्टर की फीस, विभिन्न उपकरणों से जाँच का खर्च अति महँगी दवाओं को खरीदने की क्षमता कहाँ से लाएँ ? फिर दूसरी मानसिकता यह भी है कि यदि इलाज में दो-चार दिन भी लग गए तो उनकी दैनिक मजदूरी के अवसर खो जाएँगे। कल के भोजन के भी लाले पड़ जाएँगे। अतः पहले तो वे इलाज ही नहीं कराते और जब लाइलाज हो जाते हैं तब हम लोगों के पास आते हैं। हम भी क्या करें, अतः उन्हें खैराती अस्पतालों में ‘रेफर’ कर देते हैं। आप तो जानते ही होंगे, स्वामीजी, खैराती अस्पताल आजकल लूट-खसोट और मरीज को तंग कर भगा देने का काम ही अधिक करते हैं।
‘‘शेष बचे लोगों में आर्थिक दृष्टि से मध्यम श्रेणी की ही मेरे यहाँ भरमार है। इनमें से अशिक्षित या अल्पशिक्षित, परंतु सरकारी नौकरियों में जमें लोग, अधिक शिक्षित अच्छी नौकरी या मध्यम श्रेणी के व्यापारी, टुटपुँजिए नेता, मुफ्त में इलाज करनेवाले पत्रकार, वकील आदि ही ज्यादा हैं। इन्हें मुफ्त का खाने को कुछ भी मिले, कितना भी मिले, किसी भी समय मिले, चूकते नहीं हैं, ठूसकर खाते हैं। ये लोग मेहनत के काम जरा कम करते हैं, परंतु आराम और बड़ी-बड़ी बातें करने में बड़े माहिर होते हैं। अतः स्पष्ट है कि इस श्रेणी में भी खान-पान से होनेवाली बीमारियाँ ही अधिक पनपती हैं।
‘‘वैसे तो उच्च श्रेणी के संपन्न या पद-मर्यादावाले लोग भी यदा-कदा मेरे क्लीनिक पर मेहरबानी कर जाते हैं; परंतु अधिक दिनों तक हम लोगों से इलाज करवाना शायद इनकी पद-मर्यादा को गवारा नहीं है। अतः शीघ्र ही मुंबई दिल्ली, बंगलौर आदि स्थानों को रवाना हो जाते हैं। राज की बात तो यह है कि ये लोग भी अपने खान-पान और आचरण के कारण ही बीमार पड़ते हैं। जो वस्तुएँ और आदतें धार्मिक तथा सामाजिक कारणों से वर्जित, हैं, उनका मनमाना प्रयोग करना ही इनकी रईसी और शान है।
‘‘लोग क्या खाते हैं, कितना खाते हैं, कब और कैसे खाते हैं, क्यों खाते हैं-ये सब बड़े गंभीर प्रश्न हैं ! स्वामीजी, जो लोग अपने धर्मग्रंथों की, अपने परमात्मा की, अपने बुजुर्गों की बातों का खुला मजाक उड़ाने का दुस्साहस करते हैं, हठधर्मिता ही जिनका स्वभाव बन चुका है, वे भला आपकी बात सुनेंने और मानेंगे, आप इस मुगालते में क्यों हैं ?
‘‘एक तथ्यपूर्ण बात कहूँ, स्वामीजी ! मेरा यह निष्कर्ष है कि मैं रोगों के चाहे जितने नाम गिनाऊँ या उपचार की चाहे जितनी दवाएँ लिखूँ-सबका मूल कारण है लोगों की मान्यता के अनुसार उनका खान-पान और उनके तौर-तरीके !’’
बचपन से ही हम सुनते आए हैं कि जीने के लिए भोजन जरूरी है। भोजन-प्राप्ति के लिए कमाना जरूरी है। कमाई के लिए कौशल जरूरी है। कौशल शिक्षा और अभ्यास से ही प्राप्त हो सकता है। हम यह भी देखते आए हैं कि लोग सुबह से शाम तक कमाई के चक्कर में इस कदर पड़े रहते हैं कि उन्हें ठीक से भोजन करने की भी फुरसत नहीं मिल पाती। कुछ लोग गरीबी के कारण उलटा-सीधा खाकर बीमार पड़ रहे हैं तो कुछ रईसी की शान में अनाप-शनाप खाकर डॉक्टरों के भाव बढ़ा रहे हैं।
एक बार मैंने सबसे अधिक रोगियों की भीड़वाले डॉक्टर से जानना चाहा कि उनके रोगियों में अधिकांश किस रोग के शिकार हैं ? उन्हें यह रोग ही क्यों होता है ? क्या आगामी पीढ़ियों को इन कारणों के प्रति सावधान किया जा सकता है ?
चूँकि हम लोगों का वार्त्तालाप एकांत क्षणों में चल रहा था, डॉक्टर मेरा घनिष्ठ मित्र था, अतः वह ठठाकर हँस पड़ा और मुझसे बोला, ‘‘देखो भाई ! आप तो हैं साधु, इसलिए लोगों की सहज श्रद्धा आपको प्राप्त है। मैं तो गृहस्थ भी हूँ और आधुनिक समाज में शान-शौकत के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना चाहता हूँ। यदि तुम्हें अपनी संपन्नता का रहस्य बता दूँगा तो मुझे भी कटोरा लेकर तुम्हारे साथ ही चलना पड़ जाएगा। इसलिए यह खोजबीन बंद करो !’’
मेरा डॉक्टर मित्र हास्य-भाव से ही यह सब कह गया था, परंतु वह यह भी जानता था कि मेरी जिज्ञासा को इतनी आसानी से दबाया नहीं जा सकता। अतः उसने अति चिंतित स्वर में कहा था-
‘‘भारत में लोग गरीबी के कारण मात्र जीवित बने रहने के लिए खाते हैं। उनके खाद्य पदार्थ बासी हैं, उनमें फफूँद या सड़न-गलन आ गई है, कच्चे हैं, अपरिचित हैं, उनमें कोई रोगाणु प्रविष्ठ हो चुके हैं-इन सब बातों पर ध्यान दिए बिना ही खा जाते हैं। जिनके शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता अधिक है, वे जरा ज्यादा देर में तथा जिनमें कम है, वे जरा जल्दी ही बीमार पड़ जाते हैं। जिनके पास खाने को ही पर्याप्त नहीं है, वे भला डॉक्टर की फीस, विभिन्न उपकरणों से जाँच का खर्च अति महँगी दवाओं को खरीदने की क्षमता कहाँ से लाएँ ? फिर दूसरी मानसिकता यह भी है कि यदि इलाज में दो-चार दिन भी लग गए तो उनकी दैनिक मजदूरी के अवसर खो जाएँगे। कल के भोजन के भी लाले पड़ जाएँगे। अतः पहले तो वे इलाज ही नहीं कराते और जब लाइलाज हो जाते हैं तब हम लोगों के पास आते हैं। हम भी क्या करें, अतः उन्हें खैराती अस्पतालों में ‘रेफर’ कर देते हैं। आप तो जानते ही होंगे, स्वामीजी, खैराती अस्पताल आजकल लूट-खसोट और मरीज को तंग कर भगा देने का काम ही अधिक करते हैं।
‘‘शेष बचे लोगों में आर्थिक दृष्टि से मध्यम श्रेणी की ही मेरे यहाँ भरमार है। इनमें से अशिक्षित या अल्पशिक्षित, परंतु सरकारी नौकरियों में जमें लोग, अधिक शिक्षित अच्छी नौकरी या मध्यम श्रेणी के व्यापारी, टुटपुँजिए नेता, मुफ्त में इलाज करनेवाले पत्रकार, वकील आदि ही ज्यादा हैं। इन्हें मुफ्त का खाने को कुछ भी मिले, कितना भी मिले, किसी भी समय मिले, चूकते नहीं हैं, ठूसकर खाते हैं। ये लोग मेहनत के काम जरा कम करते हैं, परंतु आराम और बड़ी-बड़ी बातें करने में बड़े माहिर होते हैं। अतः स्पष्ट है कि इस श्रेणी में भी खान-पान से होनेवाली बीमारियाँ ही अधिक पनपती हैं।
‘‘वैसे तो उच्च श्रेणी के संपन्न या पद-मर्यादावाले लोग भी यदा-कदा मेरे क्लीनिक पर मेहरबानी कर जाते हैं; परंतु अधिक दिनों तक हम लोगों से इलाज करवाना शायद इनकी पद-मर्यादा को गवारा नहीं है। अतः शीघ्र ही मुंबई दिल्ली, बंगलौर आदि स्थानों को रवाना हो जाते हैं। राज की बात तो यह है कि ये लोग भी अपने खान-पान और आचरण के कारण ही बीमार पड़ते हैं। जो वस्तुएँ और आदतें धार्मिक तथा सामाजिक कारणों से वर्जित, हैं, उनका मनमाना प्रयोग करना ही इनकी रईसी और शान है।
‘‘लोग क्या खाते हैं, कितना खाते हैं, कब और कैसे खाते हैं, क्यों खाते हैं-ये सब बड़े गंभीर प्रश्न हैं ! स्वामीजी, जो लोग अपने धर्मग्रंथों की, अपने परमात्मा की, अपने बुजुर्गों की बातों का खुला मजाक उड़ाने का दुस्साहस करते हैं, हठधर्मिता ही जिनका स्वभाव बन चुका है, वे भला आपकी बात सुनेंने और मानेंगे, आप इस मुगालते में क्यों हैं ?
‘‘एक तथ्यपूर्ण बात कहूँ, स्वामीजी ! मेरा यह निष्कर्ष है कि मैं रोगों के चाहे जितने नाम गिनाऊँ या उपचार की चाहे जितनी दवाएँ लिखूँ-सबका मूल कारण है लोगों की मान्यता के अनुसार उनका खान-पान और उनके तौर-तरीके !’’
अच्छी सेहत, लंबी आयु
डॉक्टर मित्र की खोजपूर्ण बातें सुनकर मेरा
रोम-रोम सिहर उठा था। भले ही
हठी और दुरभिमानी मेरे इस ग्रंथ को महत्त्व न दें, परंतु जो लोग अपनी
त्रुटियों के दुष्परिणाम भोग चुके हैं और अब भविष्य में उनसे बचना चाहते
हैं, उन्हें समर्पित है यह ग्रंथ।
विश्व की दृष्टि में भारत एक अविकसित-विकासशील राष्ट्र है। यहाँ विश्व की दूसरे क्रम की विशालतम जनसंख्या (लगभग एक अरब) है। साधनों की कमी, भोजन की कमी, अशिक्षा और ऊपर से गरीबी की मार के कारण भारतीय जन बेहाल हैं।
मुगलों और अंग्रेजों के सत्ताकाल में यत्र-तत्र भुखमरी और अकाल के कारण प्रतिवर्ष हजारों आदमी मर जाते थे। स्वतंत्रता के बाद परिस्थितियों में अंतर आया है। अब भूख से कोई बिरला ही मरता है। ज्यादा खाकर मरनेवालों की संख्या भारत की मृत्यु दर को यथावत् बनाए रखने में अवश्यक सफल हुई है।
लोग भुखमरी से मरते हैं या अंधाधुंध खाकर मरते हैं-ये तो किसी न किसी प्रकार मौत का आलिंगन करने को बेकरार लोगों के आँकड़े हैं। जरा विश्व के प्रसिद्धतम उन व्यक्तियों के आँकड़ों पर भी गौर कीजिए, जो सदा स्वस्थ रहे और लंबी आयु तक जीवित रहे।
‘योग चर्चा’ नामक त्रैमासिक पत्रिका के अप्रैल-जून अंक में प्रकाशित हुआ था-
1. अमेरिका के ‘मेलेजोटा’ नामक सज्जन एक सौ सत्तासी वर्षों तक जीवित रहे।
2. इनसे मात्र दो वर्ष कम जीने का रिकार्ड बनाया था हंगरी देश के श्री पीटर्स झोर्टन ने। ये सज्जन एक सौ पचासी वर्ष तक जीवित रहे थे।
3. यॉर्कशायर के हेनरी जेनकिस भी एक सौ इकसठ वर्ष तक स्वस्थ और जीवित बने रहे थे।
4. इनसे सिर्फ एक वर्ष कम जीने के कारण इटली के जोसेफ रीगंटन साहब को भले ही चौथे क्रम पर स्मरण किया जाता है, परंतु उन्होंने एक दूसरा रिकार्ड भी बनाया है। जब रीगंटन साहब एक सौ साठ वर्ष की आयु में मरे तब इनका बड़ा लड़का एक सौ आठ वर्ष का और सबसे छोटा लड़का मात्र आठ वर्ष का था। लगाइए इनके स्वास्थ्य और सक्षमता का अनुमान !
5. इंग्लैंड के थॉमस यार एक सौ बावन वर्ष की आयु तक जीवित रहे थे।
6. परंतु उनसे छह वर्ष कम जीनेवाली भद्र महिला ने एक सौ छियालीस वर्ष की लंबी आयु प्राप्त की थी। प्रकृति ने भी उन पर विशेष कृपा यह की थी कि पूरी तरह दाँत गिर जाने के बावजूद भी उनके मुँह में बार-बार अर्थात् तीन बार दाँत उगा दिए थे।
7. अंतिम विशेष स्मरणीय और लंबी आयु का आनंद भोगनेवाले जोनाथन घरपोट साहब एक सौ उनतालीस वर्ष तक जिए। जब वे मरे तब उनका कुनबा अपने आप में एक मुहल्ला बन चुका था। पुत्र तो उनके सिर्फ सात ही थे, परंतु उन सबके पुत्रों अर्थात् जोनाथन साहब के पौत्रों की संख्या छब्बीस पर पहुँच चुकी थी। क्रम और भी आगे बढ़ चुका था अर्थात् उनके जीवन काल में ही एक सौ चालीस प्रपौत्र भी जन्म ले चुके और उनमें से अनेक पूर्ण वयस्क तथा विवाहित थे।
जाने दीजिए ! आप इस चर्चा को मित्रों में जोर-शोर से मत उछालिएगा, वरना भारत सरकार का परिवार नियोजन मंत्रालय मेरे इस ग्रंथ को ही प्रतिबंधित कर देगा।
विश्व की दृष्टि में भारत एक अविकसित-विकासशील राष्ट्र है। यहाँ विश्व की दूसरे क्रम की विशालतम जनसंख्या (लगभग एक अरब) है। साधनों की कमी, भोजन की कमी, अशिक्षा और ऊपर से गरीबी की मार के कारण भारतीय जन बेहाल हैं।
मुगलों और अंग्रेजों के सत्ताकाल में यत्र-तत्र भुखमरी और अकाल के कारण प्रतिवर्ष हजारों आदमी मर जाते थे। स्वतंत्रता के बाद परिस्थितियों में अंतर आया है। अब भूख से कोई बिरला ही मरता है। ज्यादा खाकर मरनेवालों की संख्या भारत की मृत्यु दर को यथावत् बनाए रखने में अवश्यक सफल हुई है।
लोग भुखमरी से मरते हैं या अंधाधुंध खाकर मरते हैं-ये तो किसी न किसी प्रकार मौत का आलिंगन करने को बेकरार लोगों के आँकड़े हैं। जरा विश्व के प्रसिद्धतम उन व्यक्तियों के आँकड़ों पर भी गौर कीजिए, जो सदा स्वस्थ रहे और लंबी आयु तक जीवित रहे।
‘योग चर्चा’ नामक त्रैमासिक पत्रिका के अप्रैल-जून अंक में प्रकाशित हुआ था-
1. अमेरिका के ‘मेलेजोटा’ नामक सज्जन एक सौ सत्तासी वर्षों तक जीवित रहे।
2. इनसे मात्र दो वर्ष कम जीने का रिकार्ड बनाया था हंगरी देश के श्री पीटर्स झोर्टन ने। ये सज्जन एक सौ पचासी वर्ष तक जीवित रहे थे।
3. यॉर्कशायर के हेनरी जेनकिस भी एक सौ इकसठ वर्ष तक स्वस्थ और जीवित बने रहे थे।
4. इनसे सिर्फ एक वर्ष कम जीने के कारण इटली के जोसेफ रीगंटन साहब को भले ही चौथे क्रम पर स्मरण किया जाता है, परंतु उन्होंने एक दूसरा रिकार्ड भी बनाया है। जब रीगंटन साहब एक सौ साठ वर्ष की आयु में मरे तब इनका बड़ा लड़का एक सौ आठ वर्ष का और सबसे छोटा लड़का मात्र आठ वर्ष का था। लगाइए इनके स्वास्थ्य और सक्षमता का अनुमान !
5. इंग्लैंड के थॉमस यार एक सौ बावन वर्ष की आयु तक जीवित रहे थे।
6. परंतु उनसे छह वर्ष कम जीनेवाली भद्र महिला ने एक सौ छियालीस वर्ष की लंबी आयु प्राप्त की थी। प्रकृति ने भी उन पर विशेष कृपा यह की थी कि पूरी तरह दाँत गिर जाने के बावजूद भी उनके मुँह में बार-बार अर्थात् तीन बार दाँत उगा दिए थे।
7. अंतिम विशेष स्मरणीय और लंबी आयु का आनंद भोगनेवाले जोनाथन घरपोट साहब एक सौ उनतालीस वर्ष तक जिए। जब वे मरे तब उनका कुनबा अपने आप में एक मुहल्ला बन चुका था। पुत्र तो उनके सिर्फ सात ही थे, परंतु उन सबके पुत्रों अर्थात् जोनाथन साहब के पौत्रों की संख्या छब्बीस पर पहुँच चुकी थी। क्रम और भी आगे बढ़ चुका था अर्थात् उनके जीवन काल में ही एक सौ चालीस प्रपौत्र भी जन्म ले चुके और उनमें से अनेक पूर्ण वयस्क तथा विवाहित थे।
जाने दीजिए ! आप इस चर्चा को मित्रों में जोर-शोर से मत उछालिएगा, वरना भारत सरकार का परिवार नियोजन मंत्रालय मेरे इस ग्रंथ को ही प्रतिबंधित कर देगा।
विशेषज्ञों के अभिमत
विश्व-प्रसिद्ध डॉ. मैकफेडन कहते
हैं-‘भूख से जितने लोग नहीं
मरते, उनसे कई गुना लोग अनावश्यक और अधिक खाने से मरते हैं।’
यूनान की एक कहावत है-‘आज तक तलवारों के घावों से जितने लोग नहीं मारे जा सके हैं, उससे ज्यादा तो ‘अधिक खाकर’ मरनेवालों की संख्या है।’
अंग्रेजी में कहावत है-‘अपनी स्वाभाविक मौत से मरनेवाला तो बिरला ही पैदा होता है। ज्यादातर लोग तो ज्यादा खाकर, उलटा-सीधा खाकर, अपना पाचन तंत्र बिगाड़कर शीघ्र मौत के नजदीक पहुँच जाते हैं।’
ऑस्ट्रेलिया के डॉ. हर्न कहा करते थे-‘लोग जितना खाते हैं, उसका एक-तिहाई भी तो पचा नहीं पाते ! पचाने की दवा लेने हमारे पास आते हैं। दवा लेते-लेते तंग आकर मौत की गोद में मीठी नींद सो जाते हैं।
पं. नेहरू ने भारत में खाद्य समस्या पर प्रकाश डालते हुए संसद में कहा था-‘देश में एक ओर तो अन्न की भारी कमी है, दूसरी ओर कुछ लोगों में आवश्यकता से भी अधिक खा लेने की गंदी आदत पड़ चुकी है। दावतों में अधिक लोगों को आमंत्रित करनेवाले ही खाद्य समस्या को विकराल बना रहे हैं।’
भारतीय संत कहते हैं-‘खाने का यह अर्थ तो कदापि नहीं है कि अखाद्य भी खा लिया जाए। क्या मनुष्य राक्षस है, जो दूसरों का हिस्सा भी हड़प जाता है ?’
आयुर्वेदिक कहता है-‘शेर, सूअर, मगर, अजगर आदि ही ऐसे भोंड़े जीव हैं, जो एक बार में ही बहुत सा अपने पेट में ठूस लेते हैं। फलस्वरूप बहुत समय तक आलस्यग्रस्त, उनींदे और निश्चेष्ट पड़े रहते हैं। इनके शरीर की स्फूर्ति शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और ये दीर्घायु भी नहीं बन पाते।’
यूनान की एक कहावत है-‘आज तक तलवारों के घावों से जितने लोग नहीं मारे जा सके हैं, उससे ज्यादा तो ‘अधिक खाकर’ मरनेवालों की संख्या है।’
अंग्रेजी में कहावत है-‘अपनी स्वाभाविक मौत से मरनेवाला तो बिरला ही पैदा होता है। ज्यादातर लोग तो ज्यादा खाकर, उलटा-सीधा खाकर, अपना पाचन तंत्र बिगाड़कर शीघ्र मौत के नजदीक पहुँच जाते हैं।’
ऑस्ट्रेलिया के डॉ. हर्न कहा करते थे-‘लोग जितना खाते हैं, उसका एक-तिहाई भी तो पचा नहीं पाते ! पचाने की दवा लेने हमारे पास आते हैं। दवा लेते-लेते तंग आकर मौत की गोद में मीठी नींद सो जाते हैं।
पं. नेहरू ने भारत में खाद्य समस्या पर प्रकाश डालते हुए संसद में कहा था-‘देश में एक ओर तो अन्न की भारी कमी है, दूसरी ओर कुछ लोगों में आवश्यकता से भी अधिक खा लेने की गंदी आदत पड़ चुकी है। दावतों में अधिक लोगों को आमंत्रित करनेवाले ही खाद्य समस्या को विकराल बना रहे हैं।’
भारतीय संत कहते हैं-‘खाने का यह अर्थ तो कदापि नहीं है कि अखाद्य भी खा लिया जाए। क्या मनुष्य राक्षस है, जो दूसरों का हिस्सा भी हड़प जाता है ?’
आयुर्वेदिक कहता है-‘शेर, सूअर, मगर, अजगर आदि ही ऐसे भोंड़े जीव हैं, जो एक बार में ही बहुत सा अपने पेट में ठूस लेते हैं। फलस्वरूप बहुत समय तक आलस्यग्रस्त, उनींदे और निश्चेष्ट पड़े रहते हैं। इनके शरीर की स्फूर्ति शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और ये दीर्घायु भी नहीं बन पाते।’
कुछ अच्छे सुझाव भी
सर्वाधिक धर्मों, सिंद्धातों और नियमों का
जन्म भारत में ही हुआ है। भारत
के सभी धर्मों की परंपराओं में व्रत-उपवास अनिवार्य हैं। यह सब इसलिए कि
लोग कम खाएँ और स्वस्थ्य तथा दीर्घजीवी बनें।
समय-समय पर पेट को अवकाश देने की अथवा अल्पतम मात्रा में भोजन लेकर पाचन तंत्र के रोगों से अपना बचाव करना एक श्रेष्ठ उपचार विधि है।
गैस, एसिडिटी, अपच, हिचकियाँ आना, आँव पड़ना पेट में अल्सर या कैंसर का होना आदि अनेक रोग अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में खाने से ही होते हैं। अतः गरिष्ठ, तले हुए, तेज मिर्च-मसालों वाले भोजन अपनी खुराक में कम-से-कम लें या फिर बिलकुल न लें। दो-तीन घंटों के अंतर से यदि थोड़ा-थोड़ा भोजन ही किया जाए तो वह आसानी से पच जाता है। यदि व्यस्तता अधिक हो और बार-बार खाने की सुविधा न हो तो दिन में दो बार भोजन करने का नियम बना लें। परंतु इसकी मात्रा भी पेट की क्षमता से कम ही हो।
किसी भी ठोस भोजन को पचने में कम-से-कम चार घंटे अवश्य लगते हैं अतः रात्रि का भोजन सोने से चार घंटे पूर्व ही कर लिया जाए। निद्रा में पाचन क्रिया काफी मंद हो जाती है। अतः भोजन आमाशय में पड़ा-पड़ा या तो सड़ता है। या फिर विषैले तत्त्वों को जन्म देकर रक्त के जरिए पूरे शरीर में फैल जाता है। फलस्वरूप तरह-तरह के रोग जीवन भर आपको परेशान करते रहते हैं।
ईरान के बादशाह बहमन ने एक दिन अपने राजवैद्य से पूछा, ‘‘स्वस्थ बने रहने के लिए प्रतिदिन कितना खाना चाहिए ?’’
राजवैद्य लेत्सुम का उत्तर था, ‘‘मात्र उनतालीस तोला !’’
बादशाह इस उत्तर से हैरान रह गया। वह सोचने लगा, उतने कम भोजन से भला काम कैसे चलेगा ? उसने अपनी शंका लेत्सुम के समक्ष प्रकट कर दी। लेत्सुम ने भी निर्भीक होकर उत्तर दिया, ‘‘स्वस्थ रहने के लिए तो इतना ही भोजन पर्याप्त है। वैसे यदि आप भोजन अपने लिए नहीं बल्कि सिर्फ ढोने के लिए ही करने के शौकीन हैं तो भला आपको कौन रोक सकता है ! आप अपनी रुचि के अनुसार ढोते रहिए !’’
दत्तात्रेय ने अपने जीवन में चौबीस गुरु बनाए थे। उनमें से उनकी एक गुरु तो मछली भी थी। उस मछली ने अपनी जीभ के चटोरेपन से काँटे सहित आटे को उदरस्थ कर लिया था और इस प्रकार अपने प्राण गँवाए थे। दत्तात्रेय ने इससे शिक्षा ग्रहण की थी। ‘जिसका अपनी जीभ के चटोरेपन पर काबू न होगा, वह एक-न-एक दिन बैमौत अवश्य मरेगा !’ यह अनुपम शिक्षा उन्हें उनकी ‘मछली गुरु’ ने दी थी।
सर विलियम टेंपल ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लॉन्ग लाइफ’ में लिखा है-‘जिन्हें अधिक दिनों तक जीने की तमन्ना हो, जो सदैव स्वस्थ और सक्रिय बने रहना चाहते हों, उन्हें चाहिए कि वे अपनी खुराक घटाकर इस मात्रा तक ले आएँ जितनी मात्रा से पेट में भोजन के बाद भी हलकापन ही अनुभव होता रहे !’
अश्वनीकुमार भारत के पहले शल्य चिकित्सक थे। वे मृत मनुष्यों के धड़ पर अश्व का सिर प्रतिरोपित कर उन्हें जीवनदान देने के लिए विख्यात थे। महर्षि च्यवन की वृद्धावस्था को युवावस्था में बदल देने का चमत्कार भी उन्होंने ही किया था।
प्राचीनकाल के महान् स्वास्थ्यवेत्ता बाणभट्ट से अश्वनीकुमारों ने एक बार जानना चाहा था कि नीरोगी कौन ? बाणभट्ट का संक्षिप्त उत्तर था-‘हित भुक मित भुक !’ अर्थात् जो व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए हितकर पदार्थ ग्रहण करता हो और भूख से कम ही खाता हो, वही स्वस्थ और दीर्घायु होता है।
अपने प्रसिद्ध आयुर्वैंदिक ग्रंथ में बाणभट्ट ने लिखा है-
समय-समय पर पेट को अवकाश देने की अथवा अल्पतम मात्रा में भोजन लेकर पाचन तंत्र के रोगों से अपना बचाव करना एक श्रेष्ठ उपचार विधि है।
गैस, एसिडिटी, अपच, हिचकियाँ आना, आँव पड़ना पेट में अल्सर या कैंसर का होना आदि अनेक रोग अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में खाने से ही होते हैं। अतः गरिष्ठ, तले हुए, तेज मिर्च-मसालों वाले भोजन अपनी खुराक में कम-से-कम लें या फिर बिलकुल न लें। दो-तीन घंटों के अंतर से यदि थोड़ा-थोड़ा भोजन ही किया जाए तो वह आसानी से पच जाता है। यदि व्यस्तता अधिक हो और बार-बार खाने की सुविधा न हो तो दिन में दो बार भोजन करने का नियम बना लें। परंतु इसकी मात्रा भी पेट की क्षमता से कम ही हो।
किसी भी ठोस भोजन को पचने में कम-से-कम चार घंटे अवश्य लगते हैं अतः रात्रि का भोजन सोने से चार घंटे पूर्व ही कर लिया जाए। निद्रा में पाचन क्रिया काफी मंद हो जाती है। अतः भोजन आमाशय में पड़ा-पड़ा या तो सड़ता है। या फिर विषैले तत्त्वों को जन्म देकर रक्त के जरिए पूरे शरीर में फैल जाता है। फलस्वरूप तरह-तरह के रोग जीवन भर आपको परेशान करते रहते हैं।
ईरान के बादशाह बहमन ने एक दिन अपने राजवैद्य से पूछा, ‘‘स्वस्थ बने रहने के लिए प्रतिदिन कितना खाना चाहिए ?’’
राजवैद्य लेत्सुम का उत्तर था, ‘‘मात्र उनतालीस तोला !’’
बादशाह इस उत्तर से हैरान रह गया। वह सोचने लगा, उतने कम भोजन से भला काम कैसे चलेगा ? उसने अपनी शंका लेत्सुम के समक्ष प्रकट कर दी। लेत्सुम ने भी निर्भीक होकर उत्तर दिया, ‘‘स्वस्थ रहने के लिए तो इतना ही भोजन पर्याप्त है। वैसे यदि आप भोजन अपने लिए नहीं बल्कि सिर्फ ढोने के लिए ही करने के शौकीन हैं तो भला आपको कौन रोक सकता है ! आप अपनी रुचि के अनुसार ढोते रहिए !’’
दत्तात्रेय ने अपने जीवन में चौबीस गुरु बनाए थे। उनमें से उनकी एक गुरु तो मछली भी थी। उस मछली ने अपनी जीभ के चटोरेपन से काँटे सहित आटे को उदरस्थ कर लिया था और इस प्रकार अपने प्राण गँवाए थे। दत्तात्रेय ने इससे शिक्षा ग्रहण की थी। ‘जिसका अपनी जीभ के चटोरेपन पर काबू न होगा, वह एक-न-एक दिन बैमौत अवश्य मरेगा !’ यह अनुपम शिक्षा उन्हें उनकी ‘मछली गुरु’ ने दी थी।
सर विलियम टेंपल ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लॉन्ग लाइफ’ में लिखा है-‘जिन्हें अधिक दिनों तक जीने की तमन्ना हो, जो सदैव स्वस्थ और सक्रिय बने रहना चाहते हों, उन्हें चाहिए कि वे अपनी खुराक घटाकर इस मात्रा तक ले आएँ जितनी मात्रा से पेट में भोजन के बाद भी हलकापन ही अनुभव होता रहे !’
अश्वनीकुमार भारत के पहले शल्य चिकित्सक थे। वे मृत मनुष्यों के धड़ पर अश्व का सिर प्रतिरोपित कर उन्हें जीवनदान देने के लिए विख्यात थे। महर्षि च्यवन की वृद्धावस्था को युवावस्था में बदल देने का चमत्कार भी उन्होंने ही किया था।
प्राचीनकाल के महान् स्वास्थ्यवेत्ता बाणभट्ट से अश्वनीकुमारों ने एक बार जानना चाहा था कि नीरोगी कौन ? बाणभट्ट का संक्षिप्त उत्तर था-‘हित भुक मित भुक !’ अर्थात् जो व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए हितकर पदार्थ ग्रहण करता हो और भूख से कम ही खाता हो, वही स्वस्थ और दीर्घायु होता है।
अपने प्रसिद्ध आयुर्वैंदिक ग्रंथ में बाणभट्ट ने लिखा है-
‘अन्नेन कुक्षैर्ध्दावंशी पाने
नेक प्रपूरयेत।
आश्रय पवनादीना चतुर्थमवशेष येत।।
आश्रय पवनादीना चतुर्थमवशेष येत।।
-अर्थात् पेट का आधा भाग अन्न-आहार से भरते
ही भोजन रोक दे। कुछ समय के
बाद पेट का एक-तिहाई भाग पानी से भरे। शेष चौथाई भाग पवन (वायु) के लिए
रिक्त रहने दे। जो व्यक्ति इस प्रकार ‘मिताहार’ और
‘हिताहार’ करेगा, उसका तन और मन सदैव स्वस्थ तथा
सक्षम बना रहेगा।
उपर्युक्त सुझावों के बाद भी लोगों की समझ में अपने ही हित की बात इतनी आसानी से थोड़े ही आ सकेगी। महाभारत युद्ध के लिए कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने मरने-मारने के लिए तत्पर होकर डट चुकी थीं। ठीक उस समय ही अर्जुन को ‘मोह-तिमिर’ ने घेर लिया। बेचारे श्रीकृष्ण तरह-तरह से अर्जुन को उसके कर्तव्यों का बोध करा रहे थे, लेकिन अर्जुन था कि समझने का नाम ही नहीं ले रहा था।
जब मूढ़ बने अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण जैसे महान् पुरुष ‘गीता’ के अठारह अध्यायों की शिक्षा देकर भी पसीने-पसीने हो चुके थे तो फिर मुझ जैसा साधारण साधक तो केवल प्रयास ही कर सकता है। समझना या न समझना तो आपका एकदम निजी मामला है।
उपर्युक्त सुझावों के बाद भी लोगों की समझ में अपने ही हित की बात इतनी आसानी से थोड़े ही आ सकेगी। महाभारत युद्ध के लिए कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने मरने-मारने के लिए तत्पर होकर डट चुकी थीं। ठीक उस समय ही अर्जुन को ‘मोह-तिमिर’ ने घेर लिया। बेचारे श्रीकृष्ण तरह-तरह से अर्जुन को उसके कर्तव्यों का बोध करा रहे थे, लेकिन अर्जुन था कि समझने का नाम ही नहीं ले रहा था।
जब मूढ़ बने अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण जैसे महान् पुरुष ‘गीता’ के अठारह अध्यायों की शिक्षा देकर भी पसीने-पसीने हो चुके थे तो फिर मुझ जैसा साधारण साधक तो केवल प्रयास ही कर सकता है। समझना या न समझना तो आपका एकदम निजी मामला है।
पाचन-भोजन, शारीरिक क्रिया
सब लोगों ने तो डॉक्टरी विद्या पढ़ी नहीं है
और न सभी ने बायोलॉजी (शरीर
विज्ञान) का सूक्ष्म अध्ययन ही किया है। अतः पाचन और भूख से संबंधित
बारीकियों को समझ पाना सबके लिए आसान भी नहीं है। आइए, फिर भी हलकी-फुलकी
जानकारी ले लें।
हमारे भीतर दो सूचना-केंद्र हैं। जरूरत पड़ने पर एक कहता है-‘खाओ !’ दूसरा कहता है अब मत खाओ।’
ये दोनों ही सूचनाएँ हमारे भीतर से आती हैं। जब हमें भूख लगती है तब हमारे पाचनतंत्र में जैविक-रासायनिक प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। यह क्रिया हमारे आमाशय और आँतों में एक विशेष प्रकार का संकुचन और फैलाव प्रारंभ कर देती है। बस, हमें लगने लगता है कि अब भूख लगी है। हास्य-विनोद की भाषा में इसे ही ‘पेट में चूहे’ दौड़ाना’ कहा जाता है।
एक दूसरी जैविक-रासायनिक प्रक्रिया भी हमारे पाचनतंत्र में होती है। इस प्रक्रिया से ‘सेराटोनिन’ नामक एक रसायन जब ठीक मात्रा में स्रावित होने लगता है तब हमें संदेश मिलता है-‘अब भोजन से हाथ खींच लो।’
कुछ अलग तत्त्वों से परिपूर्ण आहार लेने पर कभी-कभी ये सूचना केंद्र भी गड़बड़ा जाते हैं; यह आकस्मिक गड़बड़ी हमारे आहार को नियंत्रित नहीं होने देती।
उदाहरणार्थ, एक आदमी ने चार रोटियाँ खाईं और उसे तृप्ति हो गई। यदि वह प्रोटीनयुक्त आहार लेता तो चूँकि प्रोटीन सेरोटोनिन रसायन के स्राव को मंद बना देता है, अतः उसे कोई सूचना ही नहीं मिलती कि खाओ या नहीं; बस पेट में पदार्थ समाने की जो सीमा है, वही पेट भरा होने की सूचना मान लेनी पड़ती।
यदि व्यक्ति कार्बोहाइड्रेट्स युक्त पदार्थ खाता है तो सेरोटोनीन भी पर्याप्त मात्रा में निकलकर सूचित कर देता है और व्यक्ति को भी तृप्ति महसूस होती है। अर्थात् वह अनाज और दालें खाता है तो सही समय पर ही उसे तृप्ति महसूस होने लगती है। यदि वह फल और सब्जियाँ खाता है तो पर्याप्त खा चुकने के बाद भी उसे अपना पेट खाली ही लगता है। सेरोटोनिन का समुचित स्राव न होना ही इसका कारण है।
हमारे भीतर दो सूचना-केंद्र हैं। जरूरत पड़ने पर एक कहता है-‘खाओ !’ दूसरा कहता है अब मत खाओ।’
ये दोनों ही सूचनाएँ हमारे भीतर से आती हैं। जब हमें भूख लगती है तब हमारे पाचनतंत्र में जैविक-रासायनिक प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। यह क्रिया हमारे आमाशय और आँतों में एक विशेष प्रकार का संकुचन और फैलाव प्रारंभ कर देती है। बस, हमें लगने लगता है कि अब भूख लगी है। हास्य-विनोद की भाषा में इसे ही ‘पेट में चूहे’ दौड़ाना’ कहा जाता है।
एक दूसरी जैविक-रासायनिक प्रक्रिया भी हमारे पाचनतंत्र में होती है। इस प्रक्रिया से ‘सेराटोनिन’ नामक एक रसायन जब ठीक मात्रा में स्रावित होने लगता है तब हमें संदेश मिलता है-‘अब भोजन से हाथ खींच लो।’
कुछ अलग तत्त्वों से परिपूर्ण आहार लेने पर कभी-कभी ये सूचना केंद्र भी गड़बड़ा जाते हैं; यह आकस्मिक गड़बड़ी हमारे आहार को नियंत्रित नहीं होने देती।
उदाहरणार्थ, एक आदमी ने चार रोटियाँ खाईं और उसे तृप्ति हो गई। यदि वह प्रोटीनयुक्त आहार लेता तो चूँकि प्रोटीन सेरोटोनिन रसायन के स्राव को मंद बना देता है, अतः उसे कोई सूचना ही नहीं मिलती कि खाओ या नहीं; बस पेट में पदार्थ समाने की जो सीमा है, वही पेट भरा होने की सूचना मान लेनी पड़ती।
यदि व्यक्ति कार्बोहाइड्रेट्स युक्त पदार्थ खाता है तो सेरोटोनीन भी पर्याप्त मात्रा में निकलकर सूचित कर देता है और व्यक्ति को भी तृप्ति महसूस होती है। अर्थात् वह अनाज और दालें खाता है तो सही समय पर ही उसे तृप्ति महसूस होने लगती है। यदि वह फल और सब्जियाँ खाता है तो पर्याप्त खा चुकने के बाद भी उसे अपना पेट खाली ही लगता है। सेरोटोनिन का समुचित स्राव न होना ही इसका कारण है।
भोजन का शरीर पर प्रभाव
प्राकृतिक चिकित्सकों के एक सेमिनार में एक
चिकित्सक ने अपने दीर्घकालीन
परीक्षणो के बाद एक अद्भुत रहस्योद्घाटन किया था,
‘‘मधुमेह की बीमारी का एक कारण ज्यादा पापड़ खाना भी
है।’’ अब तक हमने सुना था कि चीनी, चीनी से बने
पदार्थ, अधिक आलू, चावल, सकला, गाजर आदि खाना मधुमेह को आमंत्रण देना है;
परंतु पापड़ भी मधुमेह का कारण है-यह सुनकर हम चौंके।
उस प्राकृतिक चिकित्सक ने बताया कि पापड़ को अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए उसमें सब्जी और खाने का सोड़ा अधिक मात्रा में मिला दिया जाता है। इन दोनों प्रकार के क्षारों और लवण से मिलकर एक ऐसा तत्त्व निर्मित हो जाता है, जो अग्न्याशय (पैंक्रियाज) की झिल्ली को अस्त-व्यस्त कर देता है। फलस्वरूप ‘इंसुलिन’ हार्मोन का निर्माण नहीं हो पाता। बस, इसी से व्यक्ति के रक्त और मूत्र में शक्कर की मात्रा बढ़ जाती है।
आज शिक्षा, सभ्यता और सुविधाओं का मनमाना दुरुपयोग किया जा रहा है। माना कि हम सदैव स्वस्थ रहें-यही सबसे मूल्यवान् बात है। शायद यही मूल्यवत्ता हमें स्वास्थ्य का बहुत अधिक ध्यान रखने के लिए उकसाती रहती है।
श्रम और समझदारी के कार्यों में हमारी रुचि नहीं है। अतः डॉक्टरों और दवाओं के सहारे अपने आपको जिंदा रखने का एक फैशन-सा चल पड़ा है। मेरे एक रिश्तेदार हमारे यहाँ कुछ दिन मेहमान हुए थे। वे खूब खाते थे और दिन भर खाते थे, परंतु दिन में अनेक बार गोलियाँ और कैप्सूल भी चने की तरह चबाते ही रहते थे। उनको बार-बार पानी से दवाएँ निगलते देखकर मैंने पूछ ही लिया, ‘‘यह कौन सी और किस रोग की दवा खाते हैं आप ?’’
उन अतिथि महोदय का उत्तर बड़ा ही हास्यास्पद था। कहने लगे, ‘‘ये बीकासूल कैप्सूल्स हैं; शरीर में ताकत लाते हैं। मैं दिन में चार-पाँच कैप्सूल्स अवश्य ही खा लेता हूँ। क्या करूँ, भाई, काम बहुत करना पड़ता है तो उतनी ताकत भी तो चाहिए।’’
मैंने उन्हें परामर्श दिया, ‘‘मैंने आपको कुछ एंटीबायोटिक्स भी लेते देखा है। इनके दुष्प्रभावों को क्षीण करने के लिए तो दिन में एक ही बीकासूल पर्याप्त है। फिर इतने ज्यादा क्यों ?’’
अतिथि महोदय का उत्तर कुछ रूखा और क्रोधयुक्त था, ‘‘अपनी डॉक्टरी अपने पास ही रखो ! मैं अपने पैसों से दवा लेता हूँ। जरूरत से ज्यादा होगी तो शरीर उन्हें अपने आप बाहर निकाल देगा। आप इतने परेशान क्यों होते हैं ?’’
यदि आप भी ज्यादा दवाएँ लेते हैं तो समझ लीजिए कि आप नई-नई असाध्य बीमारियों के साथ ही अपनी मौत को भी दावत दे रहे हैं। अधिक नमक, मिर्च-मसाले, चटपटी व तली वस्तुएँ खाने में निस्संदेह बहुत अच्छी लगती हैं, परंतु इनके दुष्प्रभावों को शरीर से बाहर निकालने में आपके गुरदों को इतना अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा कि एक दिन गुरदे ही फेल हो जाएँगे।
इस प्रकार आपकी अति से त्रसित होकर यकृत, पित्ताशय, ग्रहणी, आँतें, मलाशय मूत्राशय, उंडुकपुच्छ (अपेंडिक्स), प्रोस्टैट ग्रंथि आदि भी एक-न-एक दिन या तो हड़ताल कर देंगे या त्यागपत्र देकर मौन हो जाएँगे।
उस प्राकृतिक चिकित्सक ने बताया कि पापड़ को अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए उसमें सब्जी और खाने का सोड़ा अधिक मात्रा में मिला दिया जाता है। इन दोनों प्रकार के क्षारों और लवण से मिलकर एक ऐसा तत्त्व निर्मित हो जाता है, जो अग्न्याशय (पैंक्रियाज) की झिल्ली को अस्त-व्यस्त कर देता है। फलस्वरूप ‘इंसुलिन’ हार्मोन का निर्माण नहीं हो पाता। बस, इसी से व्यक्ति के रक्त और मूत्र में शक्कर की मात्रा बढ़ जाती है।
आज शिक्षा, सभ्यता और सुविधाओं का मनमाना दुरुपयोग किया जा रहा है। माना कि हम सदैव स्वस्थ रहें-यही सबसे मूल्यवान् बात है। शायद यही मूल्यवत्ता हमें स्वास्थ्य का बहुत अधिक ध्यान रखने के लिए उकसाती रहती है।
श्रम और समझदारी के कार्यों में हमारी रुचि नहीं है। अतः डॉक्टरों और दवाओं के सहारे अपने आपको जिंदा रखने का एक फैशन-सा चल पड़ा है। मेरे एक रिश्तेदार हमारे यहाँ कुछ दिन मेहमान हुए थे। वे खूब खाते थे और दिन भर खाते थे, परंतु दिन में अनेक बार गोलियाँ और कैप्सूल भी चने की तरह चबाते ही रहते थे। उनको बार-बार पानी से दवाएँ निगलते देखकर मैंने पूछ ही लिया, ‘‘यह कौन सी और किस रोग की दवा खाते हैं आप ?’’
उन अतिथि महोदय का उत्तर बड़ा ही हास्यास्पद था। कहने लगे, ‘‘ये बीकासूल कैप्सूल्स हैं; शरीर में ताकत लाते हैं। मैं दिन में चार-पाँच कैप्सूल्स अवश्य ही खा लेता हूँ। क्या करूँ, भाई, काम बहुत करना पड़ता है तो उतनी ताकत भी तो चाहिए।’’
मैंने उन्हें परामर्श दिया, ‘‘मैंने आपको कुछ एंटीबायोटिक्स भी लेते देखा है। इनके दुष्प्रभावों को क्षीण करने के लिए तो दिन में एक ही बीकासूल पर्याप्त है। फिर इतने ज्यादा क्यों ?’’
अतिथि महोदय का उत्तर कुछ रूखा और क्रोधयुक्त था, ‘‘अपनी डॉक्टरी अपने पास ही रखो ! मैं अपने पैसों से दवा लेता हूँ। जरूरत से ज्यादा होगी तो शरीर उन्हें अपने आप बाहर निकाल देगा। आप इतने परेशान क्यों होते हैं ?’’
यदि आप भी ज्यादा दवाएँ लेते हैं तो समझ लीजिए कि आप नई-नई असाध्य बीमारियों के साथ ही अपनी मौत को भी दावत दे रहे हैं। अधिक नमक, मिर्च-मसाले, चटपटी व तली वस्तुएँ खाने में निस्संदेह बहुत अच्छी लगती हैं, परंतु इनके दुष्प्रभावों को शरीर से बाहर निकालने में आपके गुरदों को इतना अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा कि एक दिन गुरदे ही फेल हो जाएँगे।
इस प्रकार आपकी अति से त्रसित होकर यकृत, पित्ताशय, ग्रहणी, आँतें, मलाशय मूत्राशय, उंडुकपुच्छ (अपेंडिक्स), प्रोस्टैट ग्रंथि आदि भी एक-न-एक दिन या तो हड़ताल कर देंगे या त्यागपत्र देकर मौन हो जाएँगे।
भोजन का मानसिक प्रभाव
वैसे तो भारत की एक बहुत पुरानी कहावत
है-‘जैसा खाए अन्न, वैसे
होए मन !’ प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों का निष्कर्ष केवल
कपोल-कल्पित तो हो नहीं सकता, परंतु अब तक इसके ठोस प्रमाण भी तो नहीं
जुटाए जा सके हैं। इसे एक कथा द्वारा कुछ इस प्रकार समझाया गया है-
एक बार एक राजर्षि एक राजा के यहाँ अतिथि हुए। आदर-सत्कार के साथ राजा द्वारा उन्हें भोजन कराया गया। भोजन के कुछ ही घंटों बाद ऋषि की मनोवृत्ति में अंतर आ गया और वह राजा का हार चुरा बैठे। बाद में उनकी चोरी प्रकट भी हो गई। अब राजा बड़े धर्मसंकट में पड़ गया कि ऋषि पर दोषारोपण कैसे करे ? इस पर काफी सोच-विचार के बाद राजदरबार के विद्वानों ने राय दी, ‘‘महाराज, अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है। कहीं राजकोष का यह अन्न ही दोषपूर्ण न हो, अतः इसकी न्यायिक जाँच कराई जाए।’’
न्यायिक जाँच से पता चला कि जिस अन्न से ऋषि का भोजन बनाया गया था, वह एक चोर से बरामद किया गया था।
यह कहानी उपर्युक्त कहावत को स्पष्ट करने के स्थान पर और भी उलझा देती है, अनेक शंकाओं-कुशंकाओं को जन्म देती है। कहावत तथ्यपूर्ण न हो, यह मान लेना हमारे संस्कारों का खुला उल्लंघन है। अतः हम सत्य की खोज में आधुनिक वैज्ञानिकों के नवीनतम अनुसंधानों का ही सहयोग ले रहे हैं।
वैज्ञानिकों परीक्षणों से पता चला है कि यदि हमारे दैनिक भोजन में लौह तत्त्व की कमी हो तो हमारा स्वभाव चिड़चिड़ा और क्रोधी हो जाता है। इस परिवर्तन का कोई स्पष्ट कारण समझ में नहीं आता; परंतु भोजन में लौह तत्त्व की उचित पूर्ति होते ही हम पुनः शांत और हँसमुख हो जाते हैं।
ज्यादा मिर्च-मसाले और तीक्ष्ण स्वादवाले पदार्थ खानेवालों के मन में धैर्य का अभाव पाया जाता है। गरिष्ठ भोजन करनेवाले आलसी और निकम्मे पाए जाते हैं। कुछ ऐसे विटामिंस भी हैं जिनकी कमी हो जाने पर केवल हमारा शरीर ही नहीं, बल्कि मन भी बुरी तरह प्रभावित होता है। निस्संदेह इस क्षेत्र में और भी वैज्ञानिक परीक्षणों तथा प्रयोगों की जरूरत है। तभी उपर्युक्त कहावत की सत्यता को ठीक से समझा जा सकेगा।
हमारा निष्कर्ष तो मात्र इतना ही है कि हमारे भोजन में उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सभी तत्त्वों का संतुलन और समावेश हो। किसी तत्त्व विशेष का अधिक मात्रा में आहार ही ‘असंतुलित आहार’ कहलाता है।
सबसे बड़ी व्यावहारिक कठिनाई तो यह है कि सामर्थ्य होते हुए भी हम चटोरेपन के कारण ही संतुलित आहार की अनदेखी कर देते हैं। दूसरी ओर गरीबी या मजबूरी भी हमें संतुलित आहार से वंचित रखती है। जिन्हें अपने आहार के संतुलन की पर्याप्त जानकारी ही नहीं मिली, शिक्षा ही नहीं मिली, वे बेचारे भी इससे वंचित हैं।
दूसरी कठिनाई इस व्यवहार-जगत् में यह है कि सदैव नाप-तौलकर, तत्त्वों की मात्रा का परीक्षण कर हम अपने भोजन का निर्धारण नहीं कर पाते। इसका एक विकल्प है-हम ऐसा न खाएँ जो हमारी मानसिक चेतना और शारीरिक क्षमताओं को नष्ट करे। हमारा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य, हमारा आचरण जिससे संतुलित रहे वैसा ही हम खाएँ।
विशेष-जिन्हें अपने स्वभाव में अकारण चिड़चिड़ापन और क्रोध प्रतीत हो अथवा अफारा या अपच हो, वे यदि भोजन के बाद थोड़ा सा जीरा चबा लें तो लौह तत्त्व की पूर्ति हो जाएगी।
एक बार एक राजर्षि एक राजा के यहाँ अतिथि हुए। आदर-सत्कार के साथ राजा द्वारा उन्हें भोजन कराया गया। भोजन के कुछ ही घंटों बाद ऋषि की मनोवृत्ति में अंतर आ गया और वह राजा का हार चुरा बैठे। बाद में उनकी चोरी प्रकट भी हो गई। अब राजा बड़े धर्मसंकट में पड़ गया कि ऋषि पर दोषारोपण कैसे करे ? इस पर काफी सोच-विचार के बाद राजदरबार के विद्वानों ने राय दी, ‘‘महाराज, अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है। कहीं राजकोष का यह अन्न ही दोषपूर्ण न हो, अतः इसकी न्यायिक जाँच कराई जाए।’’
न्यायिक जाँच से पता चला कि जिस अन्न से ऋषि का भोजन बनाया गया था, वह एक चोर से बरामद किया गया था।
यह कहानी उपर्युक्त कहावत को स्पष्ट करने के स्थान पर और भी उलझा देती है, अनेक शंकाओं-कुशंकाओं को जन्म देती है। कहावत तथ्यपूर्ण न हो, यह मान लेना हमारे संस्कारों का खुला उल्लंघन है। अतः हम सत्य की खोज में आधुनिक वैज्ञानिकों के नवीनतम अनुसंधानों का ही सहयोग ले रहे हैं।
वैज्ञानिकों परीक्षणों से पता चला है कि यदि हमारे दैनिक भोजन में लौह तत्त्व की कमी हो तो हमारा स्वभाव चिड़चिड़ा और क्रोधी हो जाता है। इस परिवर्तन का कोई स्पष्ट कारण समझ में नहीं आता; परंतु भोजन में लौह तत्त्व की उचित पूर्ति होते ही हम पुनः शांत और हँसमुख हो जाते हैं।
ज्यादा मिर्च-मसाले और तीक्ष्ण स्वादवाले पदार्थ खानेवालों के मन में धैर्य का अभाव पाया जाता है। गरिष्ठ भोजन करनेवाले आलसी और निकम्मे पाए जाते हैं। कुछ ऐसे विटामिंस भी हैं जिनकी कमी हो जाने पर केवल हमारा शरीर ही नहीं, बल्कि मन भी बुरी तरह प्रभावित होता है। निस्संदेह इस क्षेत्र में और भी वैज्ञानिक परीक्षणों तथा प्रयोगों की जरूरत है। तभी उपर्युक्त कहावत की सत्यता को ठीक से समझा जा सकेगा।
हमारा निष्कर्ष तो मात्र इतना ही है कि हमारे भोजन में उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सभी तत्त्वों का संतुलन और समावेश हो। किसी तत्त्व विशेष का अधिक मात्रा में आहार ही ‘असंतुलित आहार’ कहलाता है।
सबसे बड़ी व्यावहारिक कठिनाई तो यह है कि सामर्थ्य होते हुए भी हम चटोरेपन के कारण ही संतुलित आहार की अनदेखी कर देते हैं। दूसरी ओर गरीबी या मजबूरी भी हमें संतुलित आहार से वंचित रखती है। जिन्हें अपने आहार के संतुलन की पर्याप्त जानकारी ही नहीं मिली, शिक्षा ही नहीं मिली, वे बेचारे भी इससे वंचित हैं।
दूसरी कठिनाई इस व्यवहार-जगत् में यह है कि सदैव नाप-तौलकर, तत्त्वों की मात्रा का परीक्षण कर हम अपने भोजन का निर्धारण नहीं कर पाते। इसका एक विकल्प है-हम ऐसा न खाएँ जो हमारी मानसिक चेतना और शारीरिक क्षमताओं को नष्ट करे। हमारा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य, हमारा आचरण जिससे संतुलित रहे वैसा ही हम खाएँ।
विशेष-जिन्हें अपने स्वभाव में अकारण चिड़चिड़ापन और क्रोध प्रतीत हो अथवा अफारा या अपच हो, वे यदि भोजन के बाद थोड़ा सा जीरा चबा लें तो लौह तत्त्व की पूर्ति हो जाएगी।
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