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प्रवासी मन

रेणु राजवंशी गुप्ता

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2640
आईएसबीएन :81-88266-28-0

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केवल ‘सहानुभूति’ नहीं, ‘सह-अनुभूति’ की सांस्कृतिक कविताएँ हैं-श्रीमती रेणु गुप्ता की कविताएँ...

Pravasi Man

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सारी कविताओं को पढ़ लेने के पश्चात यह कहने का मन कर रहा है कि रेनू जी की कविताएँ मरूथल की रेनू (रेत) नहीं है वरन वह रेनु हैं जो गंगा के प्रवाह में गंगाजल के नीचे रहती है और जो भी इस गंगाजल में डुबकियाँ लगाता है उसका मन होता है कि वह अपने पाँवों को छूनेवाली ठंडी रेत (रेनु) को छुए उसे हृदय से लगाकर भाव-जगत को समृद्ध करे और माथे से लगाकर विचार और विवेक को जाग्रत करने का आशीर्वाद ग्रहण करे। रेनू गुप्ता स्वयं भावुक हैं, अतः उनकी रचनाओं में उनके भावुक मन की छलकन भी दिखाई देती है। यह छलकन ही रचना और रचनाकार दोनों की अवमूल्य निधि कही जाती है। यह निधि जब सहृदय पाठक या श्रोता तक पहुँचती है तो उसकी सम्पत्ति बन जाती है। यही कारण है कि रेनू गुप्ता की कविताएँ पाठक या श्रोता को अपनी सी लगेंगी। क्योंकि उनकी कविताएँ केवल सहानुभूति की कविताएँ नहीं है। वरन ‘सह- अनुभूति की कविताएं भी हैं। मुझे विश्वास है कि ये कविताएँ पाठकों को पसंद तो आएँगी ही, साथ ही उनके लिए कोई प्रेरक विचार भी प्रदान करेंगी।

डॉ.कुँअर बेचैन


बात सन् 1993 की है। अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति, अमेरिका ने हास्य-व्यंग्य के प्रसिद्ध कवि-लेखक तथा जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में हिंदी-विभागाध्यक्ष डॉ.अशोक चक्रधर को तथा मुझे दस शहरों में कविता-पाठ के लिए बुलाया था। हम लोगों ने वहां के कुछ और शहरों में भी कविता-पाठ किया। न्यूयॉर्क, रोचेस्टर, डलास, ऑस्टीन, ह्यूस्टन, नेशविल आदि नगरों में अपने कार्यक्रम दिए और इन्हीं कार्यक्रमों में एक कार्यक्रम रेणु गुप्ताजी ने भी संयोजित किया था। दुर्भाग्य से हम लोग पूरा प्रयास करने के बाद भी उनके कार्यक्रम में नहीं पहुँच सके। ‘प्लेन’ के ‘स्टैंडवाई टिकट’ ने धोखा दिया। अमेरिका के ‘वीक एंड्स’ जितने व्यस्त होते हैं उतने शायद ही कहीं होते हों। सारा अमेरिका समुद्र-तटों की ओर भागता है। ऐसा लगता है कि अमेरिका के व्यक्ति व्यक्ति न रहकर एक भागती हुई नदी बन गए हों, ऐसी नदी, जिसके हृदय में समुद्र से मिलने की इच्छा बलवती रहती है। ‘प्लेन’ में पहले उन्हें चढ़ना था जिन पर सीधा ‘कन्फर्म’ टिकट था।

 हम पर ‘स्टैंडवाई’ टिकट था, इसलिए हमारा ‘चांस’ तो तब बनता जब कोई ‘पैसेंजर’ न जा रहा हो। किंतु ऐसा हुआ नहीं और परिणाम यह हुआ कि प्रोग्राम में तो दोपहर को पहुंचना था और हम रात तक बीच में ही उस ‘एयरपोर्ट’ पर अटके रहे जहाँ से दूसरा जहाज पकड़ना था। दिल पर चोट लगी। अमेरिका की पूरी यात्रा में यह दिन हमारे लिए सबसे कष्ट का दिन था। हम वचनबद्धता को टूटती नहीं देखना चाहते थे, किंतु विवशता ही कहाँ रहे यदि वह दूसरे को उसके अनुसार काम करने की छूट दे दे। डॉ.अशोक चक्रधर और मैंने फोन पर अपनी विवशता रेणुजी को बताई, किंतु उधर रेणुजी की अपनी परेशानी ! उन्होंने बड़ी संख्या में श्रोता आमंत्रित कर रखे थे, मंच सजा रखा था, माइक तैयार थे, घड़ी की सुइयाँ कार्यक्रम प्रारंभ होने के समय को छू रही थीं और हम सैकड़ों मील दूर हवाई अड्डे पर अटके हुए। हमें अपनी विवशता पर झुँझलाहट थी और रेणुजी को इस बात पर कि उन्होंने ऐसा कार्यक्रम ही क्यों संयोजित किया, जिसके संयोजन के कारण या यों कहें जिसके न हो पाने के कारण उन्हें श्रोताओं के सम्मुख हँसी का पात्र बनना पड़ा। इधर, वह दु:खी थीं और उधर हम खामोश आँखों से रो रहे थे।

....बस तब ही स्नेहमयी रेणु गुप्ताजी से हमारा वाक्-परिचय हुआ, साक्षात्कार हुआ तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दिल्ली में वे हैं, इसका सुखद आश्चर्य हुआ। जिनके केवल ‘शब्द’ सुनते आए हों उनसे साक्षत्कार भी हो जाए, तो यह घटना केवल घटना नहीं रहती वरन् एक प्यारा सा संस्मरण बन जाती है। ऐसा ‘संस्मरण’ जिसको शब्द-चित्रों में बांधना कठिन हो जाता है।

...फिर अभी दो माह पहले अचानक टेलीफोन की घंटी बजी। मैं टेलीफोन की ओर भागा...सुना...मैं रेणु गुप्ता बोल रही हूँ, अमेरिका से। एक कविता-संग्रह तैयार किया है, आपको भूमिका लिखनी है।’ मैंने उत्तर दिया-‘मुझे प्रसन्नता होगी, यदि आपकी पुस्तक की भूमिका मैं लिख सका। आप पांडुलिपि भेज दीजिए।’..और उन्होंने तुरंत पांडुलिपि भेज दी।
अब पांडुलिपि मेरे सामने है। एक-एक अक्षर पढ़ चुका हूँ। मुझे लगता है कि यह ‘पांडुलिपि’ वह ‘पांडु’-‘लिपि’ है, जिसमें ‘पांडु-पुत्रों’ का कौरवों की अनीति और न्याय के प्रति किया गया विद्रोह है। मुझे ‘पांडुलिपि’ पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगता रहा कि जैसे रचनाओं की प्रत्येक पंक्ति कृष्ण की बाँसुरी हो और शब्द वे छिद्र हों जिनसे होकर कान्हा के अंतस् की स्वर-लहरियाँ एक नया संगीत बिखेरती चल रही हों। कभी इसी ‘पांडुलिपि’ के शब्द अपने वर्तुल आकार में शंख जैसे लगने लगते हैं, वे शंख जिनकी गूँज कभी तो मंदिर की आरती की स्वर्ण-वेला का आभास देती है और कभी युद्ध-स्थल में खड़े ‘न्याय’ का ‘अन्याय’ के विरुद्ध किया गया जय घोष ! रेणु की कविताएँ मानव-मूल्यों की प्रतिस्थापना की कविताएँ हैं। उनके मान-मूल्य सांस्कृतिक परिवेश में पले-बड़े हुए हैं। ये मानव-मूल्य संस्कृति के ही पर्याय हैं।...और यह संस्कृति का रूपांतरण है।

रेणु गुप्ता का मानना है कि बिलकुल उचित ही है कि भाषा स्वयं में अपने भाषा-भाषियों की संस्कृति को समोए रखती है। यही कारण है कि उन्होंने अपनी पुस्तक किसी और को समर्पित न करते हुए ‘हिंदी’ को समर्पित की है। समर्पण उसे ही किया जाता है जिसे हम बहुत बड़ा मानते हैं, बहुत आदर देते हैं या बहुत प्यार करते हैं। रेणुजी हिंदी को बहुत बड़ा मानकर उसे आदर भी देती हैं और उसके प्रति अपने हृदय का प्यार भी समर्पित करती हैं। वे हिंदी के प्रति ‘सहानुभूति’ नहीं, वरन् ‘सह-अनुभूति’ रखने की वकालत करती हैं। वे केवल कपोल-कल्पनावाली कवयित्री नहीं है, वरन् सीधी-सीधी बात करते हुए हिंदी अपनाने की वरीयता को रेखांकित करती हैं। अपने संग्रह की पहली कविता ‘यदि हिंदी से है तुम्हें प्यार’ में वे हवाओं में बात नहीं करतीं, वरन् हिंदी के प्रयोग और उसके प्रसार की विधियाँ भी बताती हैं, जिनमें भारतीयों का आपस में हिंदी बोलना, दर्शनीय स्थलों पर हिंदी नाम खोजना, हिंदी के ‘लेबल’ वाले सामान को ही खरीदना आदि है। वे मानती हैं कि ‘बूंद-बूंद से घड़ा भरता है’। उनकी इच्छा है कि हम हिंदी-भाषी एक सागर बन जाएँ और सारी वसुंधरा पर अपना विस्तार प्राप्त करें। वैसे ही प्रत्येक भाषा को सम्मान देने के पक्ष में हैं, किंतु अपनी हिंदी भाषा के तिरस्कार के मूल्य पर कदापि नहीं।

पांडुलिपि के आगे के पृष्ठों पर जैसे ही नजर पड़ती है, मैं और भी गहरे चिंतन से जुड़ जाता हूँ। कवयित्री ने अपने मन की माला के अनेक ‘मनकों’ में से कुल सात ‘मनकों’ को रेखांकित करते हुए उन्हें व्याख्यायित भी किया है। ये मन के सात विभाजन नहीं, वरन् ‘सात समंदर’ हैं या फिर ‘सात आसमान’। इनमें रेणु गुप्ता के मन की भाव-भंगिमाओं एवं उनके व्यक्तित्व की विभिन्न परतों के दृश्यांकन हैं। ये परतें हैं-हिंदू मन, कवि मन, प्रेमी मन, प्रकृति मन, ममता मन, जीवन मन, छुटपुट मन।

‘हिंदू मन’ शीर्षक के अंतर्गत सारी कविताएं रेणु गुप्ता के उस हृदय की छटपटाहट है जो ‘वास्तविक हिंदू’ की खोज में लगी हैं। उन्हें हिंदू होने पर गर्व है, किंतु वह हिंदू जिसका घर ‘धूप-दीप-चंदन’ से  सुरभित रहता है, जो ‘हैलो’ के स्थान पर ‘नमस्कार’ कहना पसंद करते हैं, जिनके बच्चों में अग्रजों के चरण-स्पर्श करने का संस्कार मिलता है, जो भोजन से पहले ध्यान-मंत्र का उच्चारण करते हैं, जिनके घर में ‘रामायण’ वेद ‘गीता’ और तुलसी के ‘मानस’ का गायन होता रहता है, जो कर्मयोगी होता है तथा आठों प्रहर यमनियम का पालन करता है। रेणु गुप्ताजी के मन की डिक्शनरी में ‘हिंदू’ शब्द सांप्रदायिक नहीं, वरन् उस एक संस्कृति का परिचायक है, जो युगों-युगों से समस्त संसार को अपने चिंतन और व्यवहार से आकर्षित एवं लाभान्वित करती रही है। आज भी हिंदू केवल ‘काशी के घट’ ‘यमुना के तट’ और ‘द्वारिका के तट’ में ही सिमटकर नहीं रह गया है, वरन् वह ‘फीजी का गिरमिटिया’ ‘यमुना का खेतिहर’, ‘मॉरीशस का कृषक’, ‘अफ्रीका का व्यापारी, ‘अमेरिका का बौद्धिक’, ‘और इंग्लैड का धनिक’ बनकर सारे संसार में शान से खड़ा है। रेणु गुप्ता ने भारत को भारत की पहचान देनेवाले अवयवों का भी बहुत श्रद्धा से वर्णन किया है, फिर चाहे वह राम मंदिर हो या बदरीनाथ का मंदिर या फिर कुछ और...। वे आज हिंदुओं से रुष्ट हैं, जिन्होंने अपनी संस्कृति को उतना महत्व देना छोड़ दिया है जितना दिया जाना चाहिए था तथा जो अपनी संस्कृति की रक्षा करने में भी अक्षम होते जा रहे हैं। रेणु गुप्ता केवल आज के हिंदुओं की अकर्मण्यता को ही वांछित नहीं कर रहीं, वरन् वे युगों-युगों से सोए हिंदुओं की खबर भी लेती हैं-


‘कैसा है यह हिंदू मन
सोया है यह युगों-युगों से
क्या हुई कभी इसकी निद्रा भंग ?’


वे चाहती हैं कि हिंदुओं की नींद टूटे। रेणुजी अपने समय की ज्वलंत घटनाओं पर भी दृष्टि डालती रहती हैं और उनपर भी अपनी काव्यात्मक टिप्पणियाँ देती चलती हैं। ये टिप्पणियाँ कभी-कभी और कहीं-कहीं बहुत तिक्त भी हो जाती हैं। जैसे ‘कला के नाम पर हुसैन’ शीर्षक कविता में एक जागरुक रचनाकार और कलाकार की उस सोच व उस विद्रोह को व्यक्त किया है, जो चित्रकार हुसैन ने माँ सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाई थी। एक बात मैं भी यहाँ कहना चाहता हूँ कि कलाकार को ‘शीशे’ और ‘दर्पण’ का अंतर तो पता ही होना चाहिए। ‘शीशा (काँच) पारदर्शी होता है और ‘दर्पण’ वह शीशा होता है जिसके पीछे ‘पॉलिश’ चढ़ी होती है। कलाकार की दृष्टि पारदर्शी हो यह अच्छी बात है, किंतु उसकी रचना तो ‘पॉलिश्ड’ ही होनी चाहिए। वह समाज का ‘दर्पण’ तो बने, ‘शीसा’ नहीं। कला ‘नग्नता’ को दबाने का, उसे छुपाने का काम करती है। जहाँ ‘नग्नता’ दिखाई दे वहां परदा खींचने का काम कलाकार का अपना दायित्व है। यहाँ मैं अपना ही एक शेर उद्धत करना चाहता हूँ-

‘रोशनी करने का मतलब यह नहीं होता कि तुम जिसको परदा चाहिए, उसको भी बेपरदा करो !’
रेणु गुप्ताजी ने ठीक ही कटाक्ष किया है, क्योंकि संस्कृति और सभ्यता एक प्रकार से वे परदे ही हैं, जो उन दृश्यों पर पड़े रहते हैं, जिन्हें ‘लोक’ स्वीकार नहीं करता। रेणुजी कबीर की तरह हिंदुओं पर भी साफ-साफ टिप्पणी करती हैं। बाह्माडंबरों, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों में बँधे हुए हिंदुओं पर वे व्यंग्य करते हुए कहती हैं-


‘अनेक धर्मों के भार से दबा हुआ
भ्रमित धर्म-गुरुओं से भटकाया हुआ
भ्रष्ट शासन से तड़पाया हुआ
अपने ही बांधवों से चोट खाया हुआ
जीवन की हर मार से पीड़ित
यह सामान्य नागरिक नहीं,
यह हिंदू है...!’


‘पांडुलिपि का दूसरा वर्ग है-‘कवि मन’। इस वर्ग में रेणुजी ने कवि के मन के भीतर की उन सभी तरंगों को पहचाना है, जिनमें कोई भी रचनाकार भीगता रहता है, नहाता रहता है, डूबता-उतराता रहता है और तैरकर किनारे आ खड़ा होता है। उन्हें मालूम है कि कुछ लोग केवल कागज पर ही पंडित हैं। कुछ लोग शब्दों के ही व्यापारी हैं, कोई भगवान् की दुकान सजाए बैठा है और भावों का व्यापार कर रहा है। किंतु रेणु गुप्ता शब्द की साधना को महत्व देती हैं। वे रचना के क्षणों में, एकांत के क्षणों में, आत्मलीनता के क्षणों में स्वयं को पूरे संसार के साथ बाँधे रखती हैं। वे कभी भी अकेली नहीं होतीं। शब्द सहारा बनकर उनके पास खड़े रहते हैं, वे शब्द तो तरंग बनते हैं फिर ऊर्जा और फिर ऊर्जा से शब्द बनने की ओर लौट आते हैं। शब्द ही उनके मन के आँगन को गीला कर देते हैं और वे ही उनके गात को पुलकित करने में सक्षम हैं। शब्द ही उनके हाथों को कर्म से जोड़ते हैं और शब्द ही उनके पैरों को गति देते हैं। उनकी दृष्टि में-

‘समय ही बनते हैं, समय का साक्ष्य
शब्द ही होते हैं, अभिव्यक्ति का सच’


शब्द को ब्रह्म कहा गया है, क्योंकि वह भी ब्रह्म की तरह सर्वव्यापक है, सूक्ष्म है और सार्वकालिक है। रेणु गुप्ताजी ने काव्य के संदर्भ में शब्द की इस महत्वपूर्ण भूमिका को गहराई से समझा है।
‘प्रेमी मन’ इस संग्रह की पांडुलिपि का तीसरा आयाम है। जिसमें रेणुजी ने प्रेम के एहसास को, उसकी प्रतीति को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए उसकी सौंदर्यमयी तथा आनंदमयी छटा को भी सामने लाने का प्रयास किया है। वे कहती भी हैं-


जीवन है नदी
प्यार नदी में बहता पानी
जिस नदी में जितना गहरा पानी
उतनी ही हरी-भरी
उसकी जिंदगानी !


सचमुच ‘प्यार’ में शब्दों के अर्थ गौण हो जाते हैं, अर्थों की व्याख्या गौण हो जाती है, और केवल मौन ही प्रेम को मुखरित करता है। ऐसे में न तो अंधकार का भय रहता है और न प्रकाश से सरोकार, केवल स्पर्श ही मन की संपदा का दर्शन करा देते हैं, वे बता देते हैं-‘हम तुम कौन हैं ?’-प्यार अब मौन है। रेणुजी इन सुहाने स्पर्शों के संबंध में कहती भी हैं-


‘स्पर्श तुम्हारा/बन जाता विरोधी मेरा/
हिम में अग्नी की फैलाता ज्वाला
कभी अपनी ओर खींचता/तो कभी दूर धकेलता/
विकर्षण में भी/होता कैसा आकर्षण
स्पर्श तुम्हारा/मेरे प्यार का समर्पण !’


प्रेम है तो उसे साथ स्मरण होगा ही। कितनी ही पुरानी यादें गरदन उठा-उठाकर अपनी उपस्थिति का एहसास हमें कराती रहती हैं। रेणुजी भी इन स्मृतियों से जुड़कर अनेक दृश्यों का अवलोकन कर लेती हैं-


‘वो दिन है याद मुझे...
ताजी रची मेहँदी की गरमी से
हथेली पसीजा करती थी
हथेली में डूबी प्रियतम की आँखें डोला करती थीं !’


....इतना ही नहीं उन्हें वे दिन भी याद हैं जब साथ-साथ चलते कदम लयबद्ध हो उठते थे और अँगुलियों के सायाम संघर्षण से तन-मन विद्युतमय हो जाते थे। प्रेम में समर्पण ही सबसे बड़ी धरोहर है। अत: कवयित्री कह उठती हैं-


‘वो दिन है याद मुझे
बिना प्रश्न किए हम
सबकुछ सौंप दिया करते थे
विश्वास की कलम से उत्तर ही उत्तर लिख दिया करते थे।...’


सचमुच प्रेम वह रस है, जिस रस को किसी ने पी लिया तो वह हो गया दरिया और बिना चखे यह दरिया रेत का टीला है।
पुस्तक का चौथा आयाम है-‘प्रकृति मन’। इस शीर्षक के अंतर्गत आनेवाली कविताओं में कवयित्री के प्रकृति-प्रेम की झलक मिलती है। प्रकृति उसकी सहचरी है, ऐसी सहचरी जिसकी छटा निराली है। वह न कभी थकती है और न कभी हारती है। समय की लहरें उसके चेहरे पर झाँइयाँ भी नहीं डाल पाती हैं। रेणुजी ने प्रकृति को ‘परसोनिफाई’ (Personify) किया है। उसका मानवीयकरण करते हुए वे सूरज को उसके माथे की लाल बिंदिया बताती हैं और इंद्रधनुष को सात रंगों की माला। शीत को उसकी श्वेत चुनरिया, ग्रीष्म को सुनहली चोली, बसंत को रँगीला लहँगा और पतझर को सुरमई साड़ी कहकर उसके रूप को सजाती हैं। शाम के सूर्यास्त की लाली को उसके पाँवों में लगा हुआ आलता (महावर) मानती हैं। रेणु की दृष्टि में प्रकृति सदा सुहागिन है। रेणुजी ने प्रकृति के व्यवहारों को मानव-संस्कृति से जोड़कर उसे और भी गरिमा प्रदान कर दी है। वे प्रकृति के संवेदनशील रूप से भी परिचित हैं, तब ही वे ‘पतझर के बाद’ कविता के प्रारंभ में ही एक संस्कार की झलक देते हुए कह उठती हैं-


‘कल तक थी यहाँ/रंगों की होली
जिसमें गूँज रही थी/यौवन की ठिठोली
आज मानो बेटी की बिदाई में/भरे हुए नयन हैं।’


प्रकृति कितनी उदार है कितनी संवेदनशील है, कितनी मानव की मित्र है, इस बात को कवयित्री ने ‘जंगल मुझे रहा पुकार’ कविता में पूरी निष्ठा से गुंफित किया है। वे कहती हैं-


‘जंगल मुझे रहा पुकार
क्यों खड़ी हो ठगी-ठगी-सी
पैर क्यों हो गए हैं जड़
आओ मेरे आलिंगन में
मिटा दूँ तुम्हारे हृदय-क्लेश
पेड़ों का पत्ता-पत्ता
बुला रहा मुझे पुकार !
जंगल मुझे रहा पुकार!!’


‘जंगल’ ‘उपवन’ नहीं है। वह अपनी अस्त-व्यस्तता और ऊबड़-खाबड़पने में भी मानव के क्लेशों को दूर करने की चाह और सामर्थ्य, दोनों ही रखता है, फिर मनुष्य इतना व्यवस्थित होकर भी ऐसा क्यों है कि दूसरों के दु:खों को दूर करने की चाह भी नहीं रख पाता ! प्रकृति हमें हर कदम पर जीने का ढंग सिखाती है, मगर हम सीखते ही नहीं। संघर्ष में भी कैसे अपनी अस्मिता को बचाए रखा जा सकता है यह बात किसी पेड़ से सीखी जा सकती है। मेरा ही एक शेर इस भाव-भूमि पर देखें-


‘कोई उस पेड़ से सीखे मुसीबत में अड़े रहना,
कि जिसने बाढ़ के पानी में भी सीखा खड़े रहना।’


रेणुजी भी प्रकृति से बहुत कुछ सीखती हैं। वे प्रकृति के अनेक रुपों से कोई-न-कोई सबक अवश्य लेती हैं। वे कहती भी हैं-


‘मैंने खोजा जीने का अर्थ/टूटी डालियों में
सात रंगों को देखा/पतझड़ के सूखे पत्तों में
आते-जाते मौसम ने/दीं जीवन की परिभाषाएँ।’


‘सावन’ कविता में वे कहती हैं-‘छुआ भर ही तो था सावन की हवा ने/पेड़ पल भर में हरे हो गए।’ और इसी एहसास ने उन्हें उनके आंगन में ही एक उत्सव का सृजन कर दिया-


‘आज था मदन-उत्सव मेरे आँगन में
नंदवन, सुंदरवन, वृंदावन/
मेरी वाटिका में जीवंत हो गए।’


इसी प्रकार ‘रंग’ कविता में भी प्रकृति के अनेक रंगों को मानवीय व्यवहारों से जोड़कर एक नई छटा प्रदान की है।
संग्रह का पाँचवाँ आयाम है-‘ममता मन’। इस वर्ग में रेणुजी ने बेमिसाल बातें कही हैं। एक माँ के हृदय को, ममता से परिपूर्ण मन को जिन शब्दों में चित्रित किया है, जिन कोणों से देखा है, वे अद्वितीय हैं। ‘माँ’ केवल ‘माँ’ है, ममत्व की प्रतिमूर्ति इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। यह ममत्व ही बच्चों के प्रति व्यवहार की नई दिशाएँ खोलता है। उनसे माँ को कोई शिकायत नहीं। उनका हर व्यवहार, उनकी अपनी इच्छा यह ही सर्वोपरि। माँ का बच्चों से खुद बँधे रहकर उनको मुक्त कर देना ही माँ की सच्ची प्रतिमा है। तब ही वह कहती हैं-तुम्हें बाँध लिया था मैंने अपने आँचल में/लेकिन बँध गई मैं अपने ही बंधन में/तुमने रेशमी डोर तोड़कर/स्वयं को स्वतंत्र कर लिया/मैंने तुम्हें आज मुक्त कर दिया/जाओ बेटे मैंने तुम्हें आज मुक्त कर दिया। ‘उनसे’ कुछ न चाहना और ‘उनको’ ही चाहना माँ की अस्तिमा की सच्ची पहचान है। रेणुजी इस बात को कितने सुंदर शब्दों में व्यक्त कर देती हैं-


‘तुम करना इनका/स्वागत सत्कार/
परंतु करना नहीं/व्याकुल हो
इंतजार
ये आते रहें अपनी इच्छा से/
ना हो कोई बंधन या प्रतिकार
ये बच्चे हैं मेहमान घर के....
ये बच्चे हैं मेहमान घर के
आज आए हैं कल चले आएँगे
जाकर फिर लौट आएँगे
और मिलकर चले जाएँगे।...’


रेणु गुप्ता बच्चों में भारतीय संस्कार और यहाँ की मिट्टी की महक भर देना चाहती हैं। चाहे जन्मदिन हो या कोई और अवसर, वे उपहार में यदि कुछ देना चाहती हैं तो वे वस्तुएँ या वे विचार, जो सांस्कृतिक रूप में कहीं-न-कहीं भारत से जुड़े हैं। विदेश में रहते हुए भी अपने मन-मस्तिष्क में, अपने रोम-रोम में, हृदय की प्रत्येक धडकन में, साँस-साँस में अपने देश की मिट्टी की सुगंध को जिस रूप में रेणुजी ने सँजोया है और इसी सुगंध को अपने बाद की पीढ़ी को सौंपने की उमंग जैसी उनमें दिखाई देती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। भारतीय रीति-रिवाजों को कविता के शब्दों में जिस खूबसूरती के साथ उन्होंने पिरोया है, उसकी छटा देखते ही बनती है-


‘नूतन जीवन-प्रवेश के अवसर पर दूँ मैं ऐसा उपहार
जिसका कभी न घटे आकार !
रामायण-महाभारत के प्रति/गीता का तत्व-ज्ञान
मंदिर-दीया-बाती/संतों का जीवन-सार
भारत की माटी का टुकड़ा/गंगाजल भरी गागर
नानी का बनाया पहला झबला/दादी का दिया झुनझुना
पहली जीती हुई तुम्हारी ट्रॉफी/मामा की शादी में पहनी शेरवानी
फोटो भरा तुम्हारा एलबम/तुम्हारी नीली जाकेट
मेरे द्वार से तुम्हारे घर की दहलीज दिखती रहे स्पष्ट
मैं रखूँगी द्वार सदैव खुले/तुम आते रहना बेखटक।’


इसी वर्ग में रेणुजी की ‘माँ’ कविता भी माँ की तरह ही बड़ी सहज, सरल, ममत्वपूर्ण, विचारोत्तेजक और भावपूर्ण है। अनेक गुणों को गिनाते हुए भी रेणुजी ‘माँ’ के व्यक्तित्व को एक ही ‘टेक’ पर लाकर छोड़ती हैं और वह ‘टेक’ या ‘ध्रुवपंक्ति’ जो बार-बार ‘री-टेक’ की गई है, वह यह है-माँ सिर्फ माँ होती है।’ कैसी बड़ी और अनुपमेय शक्ति है ‘माँ’। बड़ी रचना वही होती है जिसे पढ़ते हुए अनायास किसी अन्य की पंक्तियाँ भी याद आती चलें। मुझे भी ‘माँ’ के संबंध में कही गई अपनी ही कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-


‘तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है
कि जैसे याद की खुशबू किसी हिचकी से आती है
बदन से तेरे आती है मुझे ऐ माँ ! वही खुशबू
जो एक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है।’

रेणु गुप्ता कहती हैं-

‘माँ सिर्फ माँ होती है...।
माँ न मान न अपमान
माँ न ज्ञान न अज्ञान
एक विशुद्ध भाव,
माँ सिर्फ माँ होती है।..।


पुस्तक के छठा भाग है-‘जीवन मन! ’ इस शीर्षक के अंतर्गत आनेवाली कविताओं में जीवन-दर्शन एवं अध्यात्म को  विभिन्न प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया गया है।







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