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पाकिस्तान जिन्ना से जेहाद तक

एस.के.दत्ता, राजीव शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2639
आईएसबीएन :81-7315-441-4

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पाकिस्तान की विरासत पर आधारित पुस्तक....

Pakistan Jinna Se Jehad Tak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जिन्ना ने कभी भी ‘जेहाद’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया-उनके अनुयायियों ने किया-परन्तु उन्होंने ऐसी राजनीति को बढ़ावा दिया, जिसे प्रचलित परिदृश्य में ‘जेहाद’ का नाम दिया जा सकता है। अगस्त 1946 के उनके सीधी कार्यवाही कार्यक्रम ने उनके अन्दर स्थित ‘जेहाद’ को उभारा। कई रूपों में जिन्ना भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्रमुख ‘जेहादी’ थे। उनकी द्विराष्ट्र संबंधी राजनीति की अवधारणा ने उन्हें अकेले दम पर मुसलिम राष्ट्र पाकिस्तान का निर्माण करने में मदद दी। इस प्रक्रिया में उन्होंने उससे अधिक मुसलमान भारत में छोड़ दिये जितने पाकिस्तान में हैं। नए राष्ट्र ने अपने निर्माता के व्यक्तित्व की विशेषता-भारतीयों के लिए अंधविश्वास- को ग्रहण किया,  जो धीरे-धीरे भारत के लिए घृणा में बदलती गई।

जिन्ना के बाद पाकिस्तान ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया। जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत के साथ हजारों वर्ष तक युद्ध करने की इच्छा जाहिर की तो जिया उल-हक ने राजीव गाँधी से कहा कि उनके देश के पास भी परमाणु बम है। अब स्वनिर्वाचित कमांडो राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ कश्मीर के घिसे हुए रिकॉर्ड को दुहरा रहे हैं और भारत को बम से डरा रहे हैं। मुशर्रफ धीरे-धीरे लेकिन दृढ़ता से उसमें योगदान कर रहे हैं, जो पाकिस्तान के निर्माण के बाद सबसे बड़ा खतरा रहा है-यानी सभ्यताओं का टकराव।

अपने विषय का गहन अध्ययन करके लिखी गई यह पुस्तक शोधपरक पुस्तक ‘पाकिस्तान : जिन्ना से जेहाद तक’ समकालीन स्थितियों का विश्लेषण करती हैं और भावी रणनीति परिदृश्य पर बड़ी सूक्ष्मता से दृष्टि-निक्षेप करते हुए अनेक अव्यक्त-अनजाने पहलुओं, घटनाओं और रहस्यों को उजागर करती है।


आमुख


12 जनवरी, 2002 को दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में जनरल परवेज मुशर्रफ ने घोषणा की कि कश्मीर पाकिस्तानियों के खून में हैं। हालाँकि यह अच्छी भाषण-कला का उदाहरण हो सकता है, परंतु तथ्य सर्वथा भिन्न है। वास्तव में सिंध और बलूचिस्तान के पाकिस्तानी लोग कश्मीर के मामले में उतने ही उदासीन हैं जितना दक्षिण भारतीय वन दस्यु वीरप्पन अमेरिकी घटनाओं पर होगा। जिन्ना से लेकर मुशर्रफ तक सभी पाकिस्तानी शासक निरंतर यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि पाकिस्तान भारतीयों, विशेषकर उत्तर भारतीयों, के खून में दौड़ता है। क्या यह बात भारत सरकार को पाकिस्तान में वह सब करने की अनुमति देती है, जो पाकिस्तान पंजाब, जम्मू-कश्मीर और भारत के अन्य भागों में करता रहा है ? निश्चित रूप से नहीं। और यदि कभी भारत सरकार ने यह निर्णय कर लिया कि पाकिस्तान को उसकी भाषा में ही जवाब देना है तो पाकिस्तान के लिए अपना अस्तित्व बचाना बहुत ही कठिन हो जाएगा। भारत दो दशकों से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सीमा-पार आतंकवाद के हमलों को झेलता आ रहा है। यदि भारत पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं को उनकी ही दवाओं का स्वाद चखा दे तो पाकिस्तान चूर-चूर हो जाएगा।

किसी राष्ट्र की बुनियाद ही जब नफरत पर रखी गई हो तो उसे परिपक्व राजनीतिज्ञों की आवश्यकता होती है, जो अगली पीढ़ी के बारे में सोंचे न कि क्षीण दृष्टिवाले राजनेताओं की, जो केवल अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं। यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ हमेशा सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों और जनरलों का गठजोड़ देखने को मिलता है, जो देश की सेवा से अधिक सत्ता में अपना स्थान स्थायी बनाने में रुचि रखते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हर वर्तमान पाकिस्तानी शासक पिछले शासकों की निंदा करता है और उन्हें दोषी ठहराता है। ‘पाकिस्तान जिन्ना से जेहाद तक’ में ऐसे बहुत से उदाहरण और तथ्य दिए गए हैं कि किस प्रकार पाकिस्तानी शासकों ने अपने पूर्ववर्ती शासक को धोखा दिया है और प्रतिशोध में अपने पूर्ववर्ती को फांसी देने तक से भी नहीं हिचका है। यह तथ्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि लगभग सभी पाकिस्तानी शासकों का दु:खद अंत हुआ है। सबसे उल्लेखनीय उदाहरण कायदे-आजम मुहम्मद अली जिन्ना का दुःखद अंत है। उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण से अपने मोहभंग के बारे में लियाकत अली खान को बताया था। कभी-कभी जिन्ना से नेहरू के पास वापस जाने और अतीत को भूलकर फिर से साथ आने का अनुरोध करने की इच्छा भी प्रकट की थी।

यह भारत और पाकिस्तान की प्रकृति की एक मूलभूत भिन्नता है। भारत में महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय नेताओं जैसे-महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, जाकिर हुसैन, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, बी.आर.अंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और राजीव गांधी की जन्मतिथि तथा पुण्यतिथियाँ सम्मान के साथ मनाई जाती हैं, इस बात पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि नई दिल्ली में किस राजनीतिक दल की सरकार है। किंतु पाकिस्तान में स्थिति इसके विपरीत है। इसकंदर मिर्जा, नवाज शरीफ आदि नेताओं को सत्ताच्युत करके देश से निकाल दिया गया। पाकिस्तान के सबसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी दे दी गई। जनरल जिया उल-हक जिन्होंने पाकिस्तान पर सबसे लंबे समय तक शासन किया, की मृत्यु एक रहस्यमयी विमान दुर्घटना में हुई, जिसे व्यापक पैमाने पर एक षड्यंत्र माना जाता है। इनमें से किसी भी नेता की याद पाकिस्तानी जनता के दिल में बसी हुई नहीं है। उनकी जन्म तिथि या पुण्य तिथि अतीत की बात है और वे किसी को याद नहीं रहते।

और उनमें से सबसे महान् कायदे-आजम मुहम्मद अली जिन्ना को उस देश के मुल्ला और जनरल शायद ही याद करते हैं जिस देश को उन्होंने लगभग अकेले निर्मित किया। बँगलादेश ने उन्हें कोई सम्मान नहीं दिया, यहाँ तक कि उनके पोट्रेट भी सरकारी दफ्तरों से हटा दिया गए।

‘पाकिस्तान: जिन्ना से जेहाद तक’ पाठकों को अतीत की एक संक्षिप्त और सुगम यात्रा पर ले जाने का एक प्रयास है। यह पुस्तक बताती है कि किस प्रकार पाकिस्तान का अतीत उसके वर्तमान से अभिन्न है और कई रूपों में भविष्य का संकेत देता है। पाकिस्तान आश्चर्यजनक निरंतरता के साथ अतीत के भविष्य बनने का विचित्र मामला है। हमने पाकिस्तान के नीति-नियामकों के जीवन के दिलचस्प उदाहरण देकर अपनी किस्मत और पाकिस्तान की नियति से उनकी संबद्धता दिखाने का प्रयास किया है। पुस्तक में पाकिस्तान के महत्त्वपूर्ण नेताओं पर विशेष अध्ययन के साथ ध्यान केंद्रित किया गया है : जैसे-जिन्ना, इसकंदर मिर्जा, अयूब खान, याहया खान, जुल्फिकार अली भुट्टो, जिया उल-हक और अंत में परवेज मुशर्रफ-जिनपर विशेष फोकस दिया गया है। यह पुस्तक तर्क देती है कि सन् 1946 का जिन्ना का ‘सीधी काररवाई’ का कार्यक्रम जनरल मुशर्रफ के शासन की जेहादी मानसिकता से भिन्न नहीं था। हालाँकि जिन्ना ने कभी भी ‘जेहाद’ शब्द का उच्चारण नहीं किया, पाकिस्तान के निर्माण के आखिरी चरण के दौरान उनके नजदीकी लेफ्टिनेंटों ने खुलकर जेहाद का आह्वान किया।

पाकिस्तान के अपने अध्ययन के बल पर हमने जनरल मुशर्रफ के पतन की भविष्यवाणी भी की है। इतिहास, विशेषकर पाकिस्तान का इतिहास हमें बताता है कि लोग तलवार के बल पर शासन करते हैं, वे उसी से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। क्या उक्त भविष्यवाणी हमारी उम्मीदों पर खरी उतरेगी ? क्या कभी कश्मीर समस्या को मैत्रीपूर्ण तरीके से हल किया जा सकेगा ? क्या भारत और पाकिस्तान के बीच चौथा प्रत्यक्ष युद्ध होगा-और क्या वह परमाणु संघर्ष में बदल सकता है ? ऐसे प्रश्नों पर भी चर्चा इस पुस्तक में की गई है। भारतीय  होने के कारण, पक्षपात की बात उभरने की संभावना के कारण हमने पाकिस्तानियों द्वारा लिखे गये हजारों पृष्ठों को छान डाला। और अंततः यह श्रमसाध्य कार्य तीन वर्षों में पूरा हुआ। अब यह निर्णय पाठकों को करना है कि हम अपने प्रयास में सफल हुए या विफल।

हम दोनों यह महत्त्वपूर्ण कार्य अपनी-अपनी पत्नियों-कृष्णा और प्रतिमा के बिना पूरा नहीं कर पाते। हम श्री पी.के.राजन को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने पांडुलिपि को टाइप किया। पाकिस्तान पर सभी उपलब्ध पुस्तकों की जानकारी देने के लिए यू.एस.आई.पुस्तकालय के स्टाफ के सदस्यों, विशेषकर रेणु गुप्ता के हम आभारी हैं।
हम ‘द ट्रिब्यून’ के संपादक श्री हरि जयसिंह तथा चीफ ऑफ ब्यूरो श्री टी.आर.रामचंद्रन के भी आभारी हैं।

-एस.के.दत्ता
-राजीव शर्मा



1
मुसलिम भारत की संकल्पना



कहा जाता है कि ईश्वर अतीत को नहीं बदल सकता, लेकिन इतिहासकार ऐसा कर सकता है। यह कथा पाकिस्तान तथा उसके निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना के संदर्भ में उचित प्रतीत होती है। दुर्भाग्यवश इतिहासकारों ने ‘मुसलिम भारत’ की अवधारणा पर फोकस नहीं किया है, जो पाकिस्तान आंदोलन से काफी पहले प्रतिपादित की गई थी। वह एक शक्तिशाली संकल्पना थी, जिसने उपमहाद्वीप के मुसलमानों की बुद्धि पलट दी। यह अवधारणा अब भी प्रच्छन्न है और इसपर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।

क्या जिन्ना पाकिस्तान के निर्माता थे ?



क्या मुहम्मद अली जिन्ना पूरी तरह पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार थे ? एम.के.अकबर ने लिखा कि जिन्ना ने भारत को दो राष्ट्रों में विभाजित किया। ऐसा बयान यह जाहिर करता है कि जिन्ना के बिना पाकिस्तान का निर्माण नहीं हो पाता। यह किस हद तक इतिहास की सही व्याख्या है ? क्या जिन्ना एक व्हिस्की पीनेवाले और सुअर का मांस खानेवाले मुसलमान थे, जिन्होंने एक खूबसूरत पारसी महिला से विवाह किया था और जो एक अलग राष्ट्र के लिए मुसलमानों की इच्छाओं तथा आशाओं को आकार देने में सक्षम थे ? भारतीय दृष्टिकोण जिन्ना को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करता है।
इस मुद्दे का दूसरा दृष्टिकोण जानने के लिए पाकिस्तानी लेखकों तथा विद्वानों द्वारा इस संदर्भ में किए गए शोध-कार्य का अध्ययन जरूरी है। कुछ एकतरफा है तो कुछ संतुलित हैं। कुल मिलाकर वे दिलचस्प हैं। चलिए देखते हैं कि पाकिस्तान अपने निर्माण के इतिहास को किस प्रकार देखता है।

भारत पर मुसलमानों ने आठ सौ वर्षों तक और अंग्रेजों ने लगभग दो सौ वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार लगभग एक हजार वर्षों तक हिंदू अपने ही देश में सत्ता से बाहर रहे। इस बीच हिंदुओं ने यह महसूस करना शुरू कर दिया कि बहुसंख्यकों पर अल्पसंख्यकों का यह प्रभुत्व जल्दी ही समाप्त होगा। उधर मुसलमानों ने सोचा कि आठ सौ वर्षों तक देश पर शासन करने के कारण उन्हें देश की शासन-व्यवस्था में उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। इन दो विरोधी मानसिकताओं ने स्वतंत्रता-संघर्ष को आकार दिया दोनों समुदायों के कुछ बुद्धिमान लोगों ने सामाजिक न्याय पर आधारित एक समानतावादी समाज, लोकतंत्र तथा आर्थिक विकास की आधुनिक अवधारणा द्वारा प्रेरित एक धर्मनिरपेक्ष तथा अखंड भारत की स्थापना, प्राचीन बंधनों से महिलाओं की मुक्ति और कृषि व औद्योगिक क्रांतियों के बाद पश्चिमी देशों को विकसित होने में मदद करनेवाली आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृति के साथ भारत के निर्माण द्वारा हिन्दू-मुसलमान मतभेदों को समाप्त करने का सपना देखा।

कई पाकिस्तानियों के दिमाग में स्थित हिंदू मनोचित्र को गांधी पर बनाई गई सट एटनबरो की फिल्म से बढ़ावा मिला, जिसमें एक कठोर चेहरेवाले जिन्ना को खलनायक की तरह पेश किया गया है। उन्हें अक्खड़ और कठोर बताया गया है। जबकि गांधी को एक संत की तरह पेश किया गया है। जो झोपड़ियों में रहते हैं, सुख-सुविधा के साधनों से दूर हैं और संध्या की प्रार्थनाओं में ईश्वर तथा अल्लाह से मार्गदर्शन और दया की इच्छा करते हैं। पाकिस्तानी लेखकों के मत में, इस फिल्म के अनुसार जिन्ना का नेहरू और गांधी से व्यक्तित्व का टकराव था।2
पाकिस्तानी लेखकों के अनुसार, गांधी पर बनी इस फिल्म ने जिन्ना और पाकिस्तान की छवि को विश्व स्तर पर बहुत क्षति पहुंचाई हैं, क्योंकि यह फिल्म पूरे विश्व में देखी गई। सर एटनबरो को कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने गांधी की छवि को तब और भी ऊँचा उठाया, जब उन्होंने कहा, ‘आनेवाली पीढ़ियाँ शायद  ही इस बात पर यकीन करेंगी कि ऐसा कोई हाड़-मांस का व्यक्ति वास्तव में मौजूद था। इस फिल्म की ऐसी प्रतिक्रिया ने अकबर, एस.अहमद को जिन्ना पर ऐसी ही फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। वह फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नहीं हो पाई।

एंड्रयू रॉबर्ट आदि कुछ शोधकर्ताओं ने इस दिशा में कुछ कार्य किया है।
उन्होंने जिन्ना के बारे में कहा है कि पूर्व के सितारे का पुनः उदय हुआ है। वास्तविकता यह है कि बँगलादेश जो पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा रहा था, में जिन्ना का नाम सम्मानपूर्वक नहीं लिया जाता था। उनके नामवाली सड़कों और स्थानों का नामकरण पुनः किया गया और अब वह मात्र विभाजित पाकिस्तान के राष्ट्रपिता के रूप में याद किए जाते हैं। उनके सख्त चेहरोंवाली तसवीरें सिर्फ पाकिस्तान के उच्च पदाधिकारियों के कार्यालयों में टाँगी गई हैं। पाकिस्तानियों के लिए यह जानना अत्यंत आश्चर्यजनक था कि ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के सन् 1977 के अंक में यह बताया गया कि ‘मुहम्मद अली जिन्ना की पूरी जीवनी अभी लिखी जानी बाकी है।’ अजीज बेग कहते हैं, ‘यह एक दु:खद ऐतिहासिक त्रुटि है कि जिन्ना को वह स्थान नहीं दिया गया है, जिसके वह अधिकारी हैं।

गांधी पर अब तक चार सौ से अधिक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। यह विचार बेग को निराश करता है। जबकि गाँधी की प्रतिमाएँ विश्व के कई देशों में ऊंचे आधार-स्तंभों पर लगी हुई हैं, जिन्ना की कोई प्रतिमा किसी महत्त्वपूर्ण स्थान पर नहीं है। इस प्रकार, पाकिस्तानी यह महसूस करते हैं कि जिन्ना को इतिहास में अपना अधिकारसम्मत स्थान नहीं मिला। इतिहासकार जिन्ना को गांधी के समकक्ष नहीं मानते। ये दोनों व्यक्ति भिन्न दृष्टिकोणों वाले गुजराती थे। गांधी ने मानव-एकता, ईश्वर के एकत्व और अहिंसा का मार्ग दिखाया, जबकि जिन्ना का मिशन धर्म के आधार पर अलगाव, भारतीय राष्ट्रीयता के केंद्र का विनाश और एक अस्पष्ट रूप में इसलामी एकता था।

अब पाकिस्तनी इतिहासकार जिन्ना को इस उपेक्षित स्थान से बाहर निकालकर उन्हें एक सजीव तथा सक्रिय व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए उतावले हैं। पाकिस्तान में किसी भी निष्ठावान् लेखक द्वारा जिन्ना का आलोचनात्मक विश्लेषण करना देशद्रोह माना जाता है। इसके परिणामस्वरूप ऐतिहासिक तथ्यों को उपेक्षित किया गया, गलत कथनों को सम्मिलित किया गया। तथ्यों के उपहास का एक उदाहरण बेग का यह कथन है कि 16 अगस्त 1946 को हिंदुओं तथा सिखों ने मुसलमानों के व्यापक संहार की योजना बनाई थी। उन्होंने कहा कि जब ढाका में जिन्ना ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित किया तो एक हिंदू के नेतृत्व में युवाओं के एक गुट ने ‘नहीं, नहीं, नहीं’ का नारा लगाना आरंभ कर दिया। जब जिन्ना ढाका विश्वविद्यालय के हॉल से जा रहे थे तो हिंदू छात्रों ने फिर से बंगाली नारे लगाते हुए प्रदर्शन किया। उनके इस कथन में कोई सच्चाई नहीं है। तथ्यों का ऐसा तोड़-मरोड़ क्या संस्थान के हित में है ? बेग ने यह पुस्तक जिया के शासन-काल में उनकी वरदहस्त पाकर लिखी थी।

अकबर एस.अहमद ने काफी शोध के बाद जोखिम उठाते हुए ‘जिन्ना पाकिस्तान एंड इसलामिक आइडेंटिटी’ नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने हर संभव सूत्रों से दस्तावेज एकत्रित किए। उन्होंने सहजता से स्वीकार किया कि ‘जिन्ना का अध्ययन इतिहास के घावों को कुरेदना है।’4 वास्तव में ऐसा ही है, क्योंकि पाकिस्तान आंदोलन भारत के दो बड़े समुदायों के बीच स्थित नफरत का उदाहरण था। देश के विभाजन के समय लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा, और सभ्यता के सभी नियमों का उल्लंघन करते हुए मानव-उत्पीड़न, वंचन, सांप्रदायिक हत्याएँ, बलात्कार और बर्बरता के निर्लज्ज रूप देखने को मिले। बीस लाख निर्दोष लोगों ने अपनी जानें गँवाईं। इस प्रकार पाकिस्तान का जन्म गहरी नफरत और कड़वाहट के बीच हुआ, जो सकारात्मक व्यक्तिगत संबंधों के बावजूद अब भी मौजूद है।

जिन्ना कैसा पाकिस्तान चाहते थे ? विडंबना यह है कि जिन्ना का दृष्टिकोण और पाकिस्तान को समर्थन दे रहे अधिकतर मुसलमानों का दृष्टिकोण समान नहीं है। इसमें जमीन से जुड़ें मुसलिम नेतृत्व (विशेषकर उत्तर प्रदेश व बिहार के नेताओं) का भी संबंध है। पाकिस्तान के संबंध में जिन्ना के विचारों की अस्पष्टता पाकिस्तान आंदोलन की मजबूती थी और कमजोरी भी। पाकिस्तान को प्राप्त करने के संबंध में इस अनिश्चिता पर ही जिन्ना पनपे


मुसलिम पहचान की तलाश



जिन्ना का विश्लेषण करने से पहले पाकिस्तानियों के दृष्टिकोण में मुसलिम समस्या के आरंभ पर दृष्टिकोण करना उपयोगी होगा। इतिहासकार अकबर एस. अहमद लिखते हैं, ‘सामान्य भारतीय मुसलमान के दिमाग में तीन आदर्श पुरुष थे-महमूद गजनवी (अफगान), औरंगजेब और जिन्ना। महमूद गजनवी ने भारत में मंदिरों की तोड़-फोड़ की, जिनमें सोमनाथ मंदिर को उसने कई बार क्षति पहुँचाई। यह दस शताब्दी पहले की बात है। उसका एकमात्र योगदान पूजा स्थलों को नष्ट करना था। मुसलमान उसे एक नायक के रूप में देखते हैं। उसके बाद महान् मुगल सम्राट औरंगजेब आता है, जिसने भारत का राजनीतिक एकीकरण तो किया, परंतु साथ-ही-साथ मुसलिम कानून के तहत हिंदुओं पर ‘जजिया’ कर लगाया और उनपर अत्याचार किए। उनका एक अन्य आदर्श पुरुष है मुहम्मद बिन कासिम, जिसने मात्र सत्रह वर्ष की आयु में सिंध पर विजय प्राप्त की और मुहम्मद गोरी, जिसने तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत पर आक्रमण किया। इन विदेशी आक्रांताओं के हिंदू-विरोधी कार्यों के लिए उन्हें पाकिस्तान में सम्मान के साथ देखा जाता है। स्थानीय सिंधियों तथा पंजाबियों के उनसे संघर्ष को कोई महत्व नहीं दिया गया। नासमझ मुसलमान सिकंदर को भी मुसलमान मान लेते हैं, जबकि उस समय इसलाम का उदय भी नहीं हुआ था।

इसके विपरीत हिंदुओं के तीन ऐतिहासिक नायक हैं-सिंकदर, अशोक, और अकबर। इन तीनों ने भारत के नैतिक अध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक शक्ति को प्रशंसा की दृष्टि से देखा। अशोक ने शांति तथा अहिंसा का उपदेश दिया। अकबर और शाहजहाँ ने हिंदुओं तथा मुसलमानों में एकता का प्रयास किया। शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र और सिंहासन के उत्तराधिकारी दारा शिकोह ने संस्कृति के इस मिश्रण को प्रदर्शित किया। दारा शिकोह का एक महान् योगदान उपनिषदों को फारसी में अनूदित करना था। औरंगजेब ने दारा शिकोह को मरवा दिया, जो नीतिसम्मत इसलाम के अनुसार एक बड़ा अपराध है। यदि औरंगजेब के स्थान पर दारा शिकोह ने भारत पर शासन किया होता तो भारतीय इतिहास कुछ और ही होता।
अपने आदर्श पुरुष की तलाश में मुसलमानों को जिन्ना का व्यक्तित्व उस खाँचे में फिट लगा। और अंततः उसे मुसलिम लीग की राजनीति में खींच लिया गया। अपने ‘कीड़े खाए हुए’ पाकिस्तान को प्राप्त करने के लिए जिन्ना ने मुसलिम लीग को प्लेटफॉर्म बनाया। इस प्रकार, पाकिस्तान के निर्माण के इतिहास को अधिकतर मुसलमानों की इस मूलभूत मानसिकता के संदर्भ में समझना चाहिए। ‘यह विचित्र प्रतीत हो सकता है परंतु वे (मुसलिम नायक) आक्रामक इसलाम के प्रतीक रूप में मुसलमानों को लोकनायक हैं।’ एक अन्य संदर्भ में लेखक यह स्वीकार करता है कि ‘हिंदुत्व का चमत्कार उत्तरजीविता का है, ‘क्योंकि हिंदुत्व एकाश्मवादी नहीं है और इसलाम तथा ईसाइयत की तरह ईश्वर को एक मानते हुए उसके कई रूप स्वीकार कर लेता है।5

इसलाम का भी एक उदारवादी चेहरा है जो सूफी संतों (जैसे-मुईनुद्दीन चिश्ती तथा अमीर खुसरो) ने अभिव्यक्त किया, जिन्होंने आध्यात्मिक स्तर पर हिंदू और मुसलमान को एक माना। सूफीवाद और भक्ति ईश्वर के प्रति निष्ठा तथा प्रेम के एक ही केंद्रीय विषय की दो धाराएँ हैं। आध्यात्मिक स्तर पर यह समझ अब भी विद्यमान है, परंतु राजनीतिक स्तर पर यह स्थिति नहीं है। सन् 1857 के बाद शिक्षित मुसलमानों को लगा कि ब्रिटिश हिंदुओं के अधिक पक्ष में है। मुसलिम समुदाय एक व्यापक निष्कर्ष पर पहुंचा कि ‘मुसलिम सभ्यता आत्महत्या करती-सी प्रतीत हो रही थी, जिससे स्पेन में हुई मुसलमानों की दुर्गति की याद आती थी, जहाँ शताब्दियों के सुदृढ़ शासन के बाद भी वे लुप्त हो गए।’ मुसलमानों को लगा कि ब्रिटिश लोग विद्रोह के दौरान महिलाओं व बच्चों सहित ब्रिटिशों की हत्याओं के लिए मुसलमानों को उत्तरदायी समझते हैं। उन्हें (मुसलमानों को) तुरंत इतिहास से बाहर कर दिया जाता और वे विस्मृति के गर्त में डूब जाते।6 इसलिए सर सैयद अहमद आदि लोगों ने ब्रिटिश समर्थक बनकर और स्वयं को स्वतंत्रता आंदोलन से अलग करके ब्रिटिश राज को प्रसन्न करने का प्रयास किया।7

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