ऐतिहासिक >> वतन पर मरने वाले वतन पर मरने वालेजगदीश जगेश
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भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के जीवन पर आधारित उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दोनों क्रांतिकारी तुरंत अपने शिकार को पहचान गए। शाम के साढ़े पाँच बजे
तक जिला परिषद की मीटिंग की कार्रवाही नियमित रूप से चलती रही। एजेंडे के
नौवें बिन्दु पर विचार शुरू हुआ। डगलस जिला परिषद के कागजों पर हस्ताक्षर
कर रहा था और अपनी सम्मति भी देता जा रहा था। कि अचानक सभाभवन गोली चलने
से दहशत-भरी आवाज से गूँज उठा। सभी सदस्य एकदम सकते में आ गए। उन्होंने
देखा, दो युवक डगलस की पीछे की तरफ दाएँ-बाएँ खड़े गोली चला रहे थे। गोली
चलाने वाले तथा डगलस की दूरी एक-डेढ़ गज से ज्यादा नहीं थी।
उनकी हर गोली छूटने की आवाज होती और वह डगलस की तगड़ी पीठ में घुस जाती। कोट के ऊपर एक नया लाल छेद बन जाता। पहली गोली पर वह हलके से चीखा, जिसमें दर्द और पुकार दोनों थी। फिर वह कुछ उठने की कोशिश करता रहा, जो दूसरी गोली तक जारी थी। तीसरी गोली तक स्थिर रहा। पाँचवी गोली लगने के बाद मेज पर मुँह के बल गिरकर निढ़ाल पड़ गया। उसकी यह चीख चार गोलियों तक धीमी होती गई और पाँचवी गोली तक लगता था, वह होशोहवास खो चुका था। प्रभांशु की पाँच गोलियाँ उसे छेदकर घुस गई थीं, प्रद्योत ने एक गोली चलाई, जो चली मगर लगी नहीं। उसकी पिस्तौल अब जाम हो गई थी। जैसे राजगुरु की पिस्तौल सांडर्स को मारने के लिए पहली गोली चलाने के बाद जाम हो गई थी।
उनकी हर गोली छूटने की आवाज होती और वह डगलस की तगड़ी पीठ में घुस जाती। कोट के ऊपर एक नया लाल छेद बन जाता। पहली गोली पर वह हलके से चीखा, जिसमें दर्द और पुकार दोनों थी। फिर वह कुछ उठने की कोशिश करता रहा, जो दूसरी गोली तक जारी थी। तीसरी गोली तक स्थिर रहा। पाँचवी गोली लगने के बाद मेज पर मुँह के बल गिरकर निढ़ाल पड़ गया। उसकी यह चीख चार गोलियों तक धीमी होती गई और पाँचवी गोली तक लगता था, वह होशोहवास खो चुका था। प्रभांशु की पाँच गोलियाँ उसे छेदकर घुस गई थीं, प्रद्योत ने एक गोली चलाई, जो चली मगर लगी नहीं। उसकी पिस्तौल अब जाम हो गई थी। जैसे राजगुरु की पिस्तौल सांडर्स को मारने के लिए पहली गोली चलाने के बाद जाम हो गई थी।
वतन पर मरने वाले
15 अगस्त, 1987—आजादी की चालीसवीं सालगिरह।
मृदुल बहुत उत्साह से दिल्ली आया था। उसकी इच्छा लाल किले के उन्नत प्रचार पर प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय ध्वजारोहण का प्रत्यक्ष दर्शन करना थी। माँ-बाप तथा सखा-मित्रों ने कितना मना किया था दिल्ली आने के वास्ते। अतुल ने तो कहा था—‘जाकर पछताओगे। जैसा टी.वी. पर दिखेगा, उसके मुकाबले सामने कुछ अच्छा न लगेगा। जैसी पूरी किताब का केवल एक पन्ना दिखलाई पड़ा रहा हो।’’
मृदुल ने उसी समय 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर एक पुस्तक समाप्त की थी, जिसमें दिल्ली के अंतिम सम्राट बहादुरशाह जफर तथा उनके परिवार के लोगों के कष्टों का विवरण था। बादशाह के वे शब्द मृदुल के कानों में गूँज रहे थे, मौत जो उन्होंने मौत के पहले रंगून की कैद में लिखे थे—‘‘है कितना बदनसीब जफर दफन के लिए दो गज जमीं भी न मिली कू-ए-यार में। लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दियार में’। पुस्तक में क्रूर फिरंगी सेनापति हडसन तीन शहजादों को सरेआम कत्ल करना और फिर उनके बहते लहू को पीने का हृदयविदारक विवरण था। यही नहीं, साम्राज्यवादी अजेंट नील, हैवलॉक, ह्यूरोज आदि द्वारा भारत के गाँवों एवं नगरों में किए गए अमानुषिक अत्याचार के विवरण पढ़कर मृदुल सिहर उठा था। उसे लगा कि हमने कितनी ऊँची कीमत पर स्वतंत्रता पाई है ! गंगा के दोआब, झाँसी, लखनऊ, कानपुर और राजधानी दिल्ली के अंग्रेजों के कारनामे पढ़कर मृदुल उबल पड़ा था।
मृदुल को देश की माटी की खुशबू जफर के उन शब्दों में गमकती हुई मालूम पड़ा। उसे काकोरी केस के अमर शहीद अश्फाकउल्ला खाँ वारसी के वे शब्द याद आने लगे, जो फाँसी (दिं. 19-12-27) के पूर्व उन्होंने कहे थे—‘कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है। रख दे कोई जरा-सी खाके वतन कफन में’। मृदुल को लगा, सचमुच भारत माता कोई सत्ता है जो वतन के हर दीवाने को बिछड़ते समय कसकने लगती है। शहीदत्रयी भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव ने भी इसी तरह के भाव फाँसी पर झूलने के पहले गाए थे—‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उलफत। मेरी मिट्टी में भी खुशबू-ए-वतन आएगी’। मृदुल को लगा, हर साल 15 अगस्त को उस खुशबू-ए-वतन का वसंत छा जाता है। उस वसंत का उत्कर्ष दिल्ली का लाल किला, जहाँ आतातायी अंग्रेजों ने बादशाह बहादुरशाह ही नहीं बल्कि आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार अफसरों पर भी मुकदमें का नाटक किया था। उसके मन में तीव्र इच्छा हुई कि जीवन में एक बार वह अपनी आँखों से लाल किले पर प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय तिरंगा फहराया जाता जरूर देखेगा।
घर से निकलकर स्टेशन आते ही मृदुल के उत्साह को ठेस लगी। गाड़ी दो घंटे लेट आई। स्टेशन पर पंद्रह मिनट घोषित करके धीरे-धीरे यह समय बढ़ता रहा। गाड़ी में भीड़ इतनी थी कि मुश्किल से वह खड़े होने की जगह बना सका। किसी का सामान छूट गया, किसी का बच्चा। बगल में एक आदमी ने खीजकर कहा—‘‘बेड़ा गर्क 15 अगस्त का ! सब नेता बने मुफ्त में दिल्ली चले जा रहे हैं, जैसे ससुर की गाड़ी हो।’’
मृदुल ने कह तो दिया—‘भाई साहब, मेरे पास टिकट है।’’ किंतु उसने महसूस किया कि सचमुच बहुत लोग बेटिकट चल रहे थे—वह भी बेझिझक एवं अधिकारपूर्ण। दिल्ली पहुँच गए, मगर कोई टी.टी.ई. टिकट चेक करने आया ही नहीं। गाड़ी चलने पर मृदुल ने उससे पूछा था—‘कोई टिकट न ले तो इसमें 15 अगस्त का क्या दोष है ? आपने 15 अगस्त को क्यों कोसा ?’
उन सज्जन ने खीजते हुए गर्दन मोड़कर कहा—‘खाक 15 अगस्त ! नेताओं, चमचों, गुंडों का राज है। आजादी से हमें क्या फर्क पड़ा है ? अंग्रेजों के समय न्याय था। आज तो हमारे भाग्य में है भ्रष्टाचार, महँगाई और गुंडार्गदी।’
मृदुल ने मुस्करा कर कहा—‘भाई साहब, अंग्रेजों के समय का न्याय यही था कि जो आप बोल रहे हैं वह तब बोलते होते तो आज आप भी नेता होते। आज आपके पास चमचे होते। आजादी के चार साल पहले बंगाल में चार लाख लोग मर गए, यही न्याय था उनका ? अंग्रेजों के राज में इतना अकाल पड़ा, इतने मारे गए कि हम सोच भी नहीं सकते।’’
मृदुल की शुरू की बात पर कई लोग हँस पड़े थे। एक ने कह दिया उन सज्जन से—‘‘भाई साहब, आप भी लड़ जाइए चुनाव ! जीत गए तो पीछे चमचे, हार गए तो आगे चमचे।’’
मृदुल बोला—‘‘आजादी का राज गुलामी से कहीं अच्छा है। आज हम बराबरी के अधिकार से बोल तो लेते हैं। नेता तो अंग्रेजों के समय में भी ऐसे ही हतकंडे करते थे, तभी तो अकबर इलाहाबादी ने लिखा है—‘‘दावत उड़ाते हैं वे हुक्काम के साथ। लीडर को बहुत गम है पर आराम के साथ’।’’
एक बार फिर हँसी हुई। मृदुल जब दिल्ली पहुँचा तो वहाँ भी भीड़ बहुत कम थी। सड़क, होटल, सवारियाँ सब भरे हुए थे। उसे एक रिश्तेदारी में ठहरना था। पहले दिन वह कई जगह घूमा। नेशनल स्टेडियम में उसने खिलाड़ियों द्वारा आजादी की मशाल ले जाते देखा। दिल्ली से राजघाट पर भी मशाल का दृश्य उत्प्रेरक था। चारों तरफ तिरंगे लहरा रहे थे; जैसे स्वतंत्रता के फूल हवा में झूम रहे हों। मृदुल ने कानपुर में टीवी. पर 9 अगस्त का प्रोग्राम देखा था। इन्हीं सब बातों से तो वह दिल्ली समारोह देखने आया था। रिश्तेदारों ने भी सवेरे लाल किले जाने के बजाय टी.वी. पर प्रोग्राम देखने को कहा; परंतु उसे यह अजीब लगा कि दिल्ली में आकर भी वह लाल किले का कार्यक्रम वहाँ जा कर न देखे।
जब सवेरे लाल किला पहुँचा तो सूरज निकलने वाला था। तब भी इतने लोग आ चुके थे कि मृदुल को लगा कि यहाँ से मंच काफी दूर था। प्रधानमंत्री की बहुत धुँधली छवि उसे दिखाई देगी। वह एक ओर खड़ा हो गया; थोड़ी देर में पीछेवालों ने शोर किया तो वह बैठ गया। देशभक्ति के गाने बज रहे थे। लाल किले की लाल दीवारें ऐसी लगती थीं जैसे लाल सिपाही राष्ट्र के सजग प्रहरी की भाँति पंक्तिबद्ध हों और उनके सेनापति के उन्नत माथे पर मुकुट की कलगी में तिरंगा लहरा रहा हो, उसे लगा, भारत के नक्शे में तिरंगा झंडा कश्मीर के ऊपर तनकर फहरा रहा हो। लोग दुनिया-भर की बातें कर रहे थे, देश की बात कोई नहीं कर रहा था। अचानक पता चला—शोर हुआ—प्रधानमंत्री आ गए। इस पर फिर हड़कंप मचा। सब लोग खड़े हो गए धक्कमधुक्का होने लगा। मृदुल को भी खड़ा होना पड़ा। जिस समय राष्ट्रध्वज फहराया जा रहा था और राष्ट्रगान हो रहा था, भीड़ में लोग एक तरफ से दूसरी तरफ ठेले जा रहे थे। पता नहीं कौन लोग धकिया रहे थे।
इस रेलमपेल में बूढ़े लोग गिरने लगे। बच्चे दबने लगे। दमघोटू वातावरण में मृदुल का मन देशवासियों की उच्छृंखलता पर घृणा से भर उठा। प्रधानमंत्री ने बोलना शुरु कर दिया था; मगर कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। जब दुनिया इक्कीसवीं शताब्दी की बुलंदियों में प्रवेश कर रही थी मानवता तकनीकी उत्कर्ष पर पहुँच रही थी, उस समय हिंदुस्तानियों के देशप्रेम का यह आलम था। इसे छोड़ दिया जाए तो भी जिन्हें खड़े होने अथवा भीड़ में चलने-फिरने की सामान्य नागरिक की तमीज नहीं। उस देश का भविष्य क्या है ! मृदुल को याद आया—रेल का टिकट लेते समय अनपढ़ गंवार तो कहने पर लाइन में खड़े हो जाएँगे, मगर पढ़े-लिखे अप-टु-डेट जवान जबरन आगे टिकट लेना चाहेंगे अथवा किसी से उनका भी टिकट लेने के लिए रिरियाएँगे; दूसरे नीति-भ्रष्ट करते हैं और अनुरोध पर भी लाइन में खड़ा होना अपमान समझते हैं। जिस देश में अहं का यह तांडव हो उसका विकास क्या होगा !
मृदुल को याद आया, लोगबाग विशेषकर पढ़े-लिखे बस या ट्रेन में किस रेलपेल से घुसते हैं। चमड़ी छिल जाती है, खून निकल आता है अथवा रोते-कलपते बच्चे छूट जाते हैं। सामान बिखर जाता है, टूट जाता है। यही नहीं, रिजर्व डिब्बे तथा टिकट पर नंबर पड़े सिनेमा हॉल में शिक्षित एवं आभिजात्य वर्ग के लोग जिस प्रकार बेतकल्लुफी से गुत्थमगुत्था करते हैं, उसे देखकर तो कोई विदेशी लजा जाएगा। मृदुल को लगा कि एक भारतवासी दूसरे के प्रति कितनी घृणा सँजोए अपने घर से बाहर निकलता है। शायद सहज सामाजिक व्यवहार राष्ट्रीयता की प्रथम कसौटी है। तब हम आप कितने राष्ट्रीय हैं ! डंडाधारी पुलिस ही हमें राष्ट्रीय बनाती है। प्रधानमंत्री का महत्त्वपूर्ण भाषण कौआरोर में मृदुल को सुनाई नहीं पड़ रहा था। भीड़ फेन की तरह खुद को मथ रही थी। कभी रेला इधर आता था, कभी उधर।
मृदुल अपने को भीड़ से निकालना चाहता था, मगर निकाल नहीं पा रहा था। कार्यक्रम के पूर्व तक गनीमत थी, कार्यक्रम शुरू होते ही लोगों को क्या हो गया ! यही करना था तो लोग यहाँ आए क्यों ? मृदुल को याद आया, जब गुलामी के दिनों में शहादत की जगहों की मिट्टी जमा की जाती थी तब तो भीड़ न थी। आज लोग देशभक्ति की भावना से आए थे कि उत्सव का तामझाम देखने ? बाहर निकलने की धुन में मृदुल किनारे तक आ गया था; परंतु खड़ा नहीं हो पा रहा था। कभी इधर गिरता, कभी उधर। सामने पुलिस की पंक्ति थी। वे भीड़ को आँखें तरेरकर डंडे तानकर दौड़े तो भीड़ का आधा अनुशासन स्वतः लौट आया। मृदुल ने गिरते हुए दोनों हाथ जमीन पर टिका लिये थे, जब होमगार्ड के एक जवान ने उसे उठाया।
मारे घबराहट और प्यास के मृदुल को कुछ सूझ नहीं रहा था। उस जवान ने मृदुल को एक ओर कर दिया। तभी दो लोगों ने उसे सहारा दिया और बीच में बल्लियों से घेरकर बनाए रास्ते से बाहर ले आए ठंडी हवा लगने से मृदुल प्रकृतिस्थ हुआ। उन दोनों की ओर मृदुल ने देखा, वे शिक्षित नवयुवक थे। एक ने अपनी बोतल से पानी निकालकर मृदुल को दिया। फिर वे दोनों मृदुल को एकदम पीछे ले गए, जहाँ भीड़ नहीं थी। कुछ हवा लगने पर मृदुल में जान आई। उन दोनों से बोला—‘‘थैंक्यू !’’
उनमें से एक ने कहा—‘‘मैं आपको जहाँ कहें पहुँचा दूँ।’’
मृदुल ने उत्तर दिया—‘‘मैं यह दृश्य देखने कानपुर से आया हूँ, अतः थोड़ी देर तक यहाँ से अच्छी तरह देख लूँ और प्रधानमंत्री की बातें सुन लूँ, फिर जाऊँगा।’’
बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी। दूसरे लड़के ने आश्चर्य से पूछा—‘‘अच्छा, आप भी कानपुर से आए हैं ? हम लोग भी कानपुर से आए हैं।’’
मृदुल ने उन दोनों को गौर से देखा और प्रश्न किया—‘‘ आप लोग कानपुर के लगते नहीं, वहाँ पढ़ने आए हैं ?’’
प्रथम युवक ने सस्मित कहा—‘‘आपने ठीक पहचाना। हम दोनों बंगाल के हैं। मैं मनीष मुखोपाध्याय—कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोध कर रहा हूं। यह मेरा मौसेरा भाई मृण्मय भट्टाचार्य—आई.आई.टी. कानपुर में इंजीनियरिंग पढ़ रहा है। मैं दिल्ली में इंटरव्यू देने आ रहा था, तो कानपुर से इसे भी ले आया कि चलो 15 अगस्त देखेंगे। आप क्या करते हैं ?’’
मृदुल ने उत्तर दिया—‘‘मैं अर्थशास्त्र में एम.ए. फाइनल कर रहा हूँ। (मृण्मय की ओर उन्मुख होकर) मैं क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर में पढ़ता हूं। भाई, खूब, भेंट हुई ! बड़ी खुशी हुई।’’
मनीश और मृण्मय ने भी प्रसन्नता प्रकट की। फिर मृदुल ने मुखरित होकर कहा—‘‘अब हम लोग भी कानपुर लौटेंगे। आपको दिल्ली में कोई और काम तो नहीं। इंटरव्यू हो गया ?’’
मनीश बोला—‘‘ वह तो परसों ही हो गयी। कल होटल का बिल तो हमने 15 अगस्त के उत्सव का अवलोकन करने के लिए बढ़ाया है’’
मृदुल ने सागृह कहा—‘‘ठीक है। मुझे भी कोई काम नहीं। मगर हम लोग 15 अगस्त का पूरा कार्यक्रम देख लें और प्रधानमंत्री का भाषण सुन लें, फिर लौटने का का तय करेंगे।’’
मृदुल बहुत उत्साह से दिल्ली आया था। उसकी इच्छा लाल किले के उन्नत प्रचार पर प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय ध्वजारोहण का प्रत्यक्ष दर्शन करना थी। माँ-बाप तथा सखा-मित्रों ने कितना मना किया था दिल्ली आने के वास्ते। अतुल ने तो कहा था—‘जाकर पछताओगे। जैसा टी.वी. पर दिखेगा, उसके मुकाबले सामने कुछ अच्छा न लगेगा। जैसी पूरी किताब का केवल एक पन्ना दिखलाई पड़ा रहा हो।’’
मृदुल ने उसी समय 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर एक पुस्तक समाप्त की थी, जिसमें दिल्ली के अंतिम सम्राट बहादुरशाह जफर तथा उनके परिवार के लोगों के कष्टों का विवरण था। बादशाह के वे शब्द मृदुल के कानों में गूँज रहे थे, मौत जो उन्होंने मौत के पहले रंगून की कैद में लिखे थे—‘‘है कितना बदनसीब जफर दफन के लिए दो गज जमीं भी न मिली कू-ए-यार में। लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दियार में’। पुस्तक में क्रूर फिरंगी सेनापति हडसन तीन शहजादों को सरेआम कत्ल करना और फिर उनके बहते लहू को पीने का हृदयविदारक विवरण था। यही नहीं, साम्राज्यवादी अजेंट नील, हैवलॉक, ह्यूरोज आदि द्वारा भारत के गाँवों एवं नगरों में किए गए अमानुषिक अत्याचार के विवरण पढ़कर मृदुल सिहर उठा था। उसे लगा कि हमने कितनी ऊँची कीमत पर स्वतंत्रता पाई है ! गंगा के दोआब, झाँसी, लखनऊ, कानपुर और राजधानी दिल्ली के अंग्रेजों के कारनामे पढ़कर मृदुल उबल पड़ा था।
मृदुल को देश की माटी की खुशबू जफर के उन शब्दों में गमकती हुई मालूम पड़ा। उसे काकोरी केस के अमर शहीद अश्फाकउल्ला खाँ वारसी के वे शब्द याद आने लगे, जो फाँसी (दिं. 19-12-27) के पूर्व उन्होंने कहे थे—‘कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है। रख दे कोई जरा-सी खाके वतन कफन में’। मृदुल को लगा, सचमुच भारत माता कोई सत्ता है जो वतन के हर दीवाने को बिछड़ते समय कसकने लगती है। शहीदत्रयी भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव ने भी इसी तरह के भाव फाँसी पर झूलने के पहले गाए थे—‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उलफत। मेरी मिट्टी में भी खुशबू-ए-वतन आएगी’। मृदुल को लगा, हर साल 15 अगस्त को उस खुशबू-ए-वतन का वसंत छा जाता है। उस वसंत का उत्कर्ष दिल्ली का लाल किला, जहाँ आतातायी अंग्रेजों ने बादशाह बहादुरशाह ही नहीं बल्कि आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार अफसरों पर भी मुकदमें का नाटक किया था। उसके मन में तीव्र इच्छा हुई कि जीवन में एक बार वह अपनी आँखों से लाल किले पर प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय तिरंगा फहराया जाता जरूर देखेगा।
घर से निकलकर स्टेशन आते ही मृदुल के उत्साह को ठेस लगी। गाड़ी दो घंटे लेट आई। स्टेशन पर पंद्रह मिनट घोषित करके धीरे-धीरे यह समय बढ़ता रहा। गाड़ी में भीड़ इतनी थी कि मुश्किल से वह खड़े होने की जगह बना सका। किसी का सामान छूट गया, किसी का बच्चा। बगल में एक आदमी ने खीजकर कहा—‘‘बेड़ा गर्क 15 अगस्त का ! सब नेता बने मुफ्त में दिल्ली चले जा रहे हैं, जैसे ससुर की गाड़ी हो।’’
मृदुल ने कह तो दिया—‘भाई साहब, मेरे पास टिकट है।’’ किंतु उसने महसूस किया कि सचमुच बहुत लोग बेटिकट चल रहे थे—वह भी बेझिझक एवं अधिकारपूर्ण। दिल्ली पहुँच गए, मगर कोई टी.टी.ई. टिकट चेक करने आया ही नहीं। गाड़ी चलने पर मृदुल ने उससे पूछा था—‘कोई टिकट न ले तो इसमें 15 अगस्त का क्या दोष है ? आपने 15 अगस्त को क्यों कोसा ?’
उन सज्जन ने खीजते हुए गर्दन मोड़कर कहा—‘खाक 15 अगस्त ! नेताओं, चमचों, गुंडों का राज है। आजादी से हमें क्या फर्क पड़ा है ? अंग्रेजों के समय न्याय था। आज तो हमारे भाग्य में है भ्रष्टाचार, महँगाई और गुंडार्गदी।’
मृदुल ने मुस्करा कर कहा—‘भाई साहब, अंग्रेजों के समय का न्याय यही था कि जो आप बोल रहे हैं वह तब बोलते होते तो आज आप भी नेता होते। आज आपके पास चमचे होते। आजादी के चार साल पहले बंगाल में चार लाख लोग मर गए, यही न्याय था उनका ? अंग्रेजों के राज में इतना अकाल पड़ा, इतने मारे गए कि हम सोच भी नहीं सकते।’’
मृदुल की शुरू की बात पर कई लोग हँस पड़े थे। एक ने कह दिया उन सज्जन से—‘‘भाई साहब, आप भी लड़ जाइए चुनाव ! जीत गए तो पीछे चमचे, हार गए तो आगे चमचे।’’
मृदुल बोला—‘‘आजादी का राज गुलामी से कहीं अच्छा है। आज हम बराबरी के अधिकार से बोल तो लेते हैं। नेता तो अंग्रेजों के समय में भी ऐसे ही हतकंडे करते थे, तभी तो अकबर इलाहाबादी ने लिखा है—‘‘दावत उड़ाते हैं वे हुक्काम के साथ। लीडर को बहुत गम है पर आराम के साथ’।’’
एक बार फिर हँसी हुई। मृदुल जब दिल्ली पहुँचा तो वहाँ भी भीड़ बहुत कम थी। सड़क, होटल, सवारियाँ सब भरे हुए थे। उसे एक रिश्तेदारी में ठहरना था। पहले दिन वह कई जगह घूमा। नेशनल स्टेडियम में उसने खिलाड़ियों द्वारा आजादी की मशाल ले जाते देखा। दिल्ली से राजघाट पर भी मशाल का दृश्य उत्प्रेरक था। चारों तरफ तिरंगे लहरा रहे थे; जैसे स्वतंत्रता के फूल हवा में झूम रहे हों। मृदुल ने कानपुर में टीवी. पर 9 अगस्त का प्रोग्राम देखा था। इन्हीं सब बातों से तो वह दिल्ली समारोह देखने आया था। रिश्तेदारों ने भी सवेरे लाल किले जाने के बजाय टी.वी. पर प्रोग्राम देखने को कहा; परंतु उसे यह अजीब लगा कि दिल्ली में आकर भी वह लाल किले का कार्यक्रम वहाँ जा कर न देखे।
जब सवेरे लाल किला पहुँचा तो सूरज निकलने वाला था। तब भी इतने लोग आ चुके थे कि मृदुल को लगा कि यहाँ से मंच काफी दूर था। प्रधानमंत्री की बहुत धुँधली छवि उसे दिखाई देगी। वह एक ओर खड़ा हो गया; थोड़ी देर में पीछेवालों ने शोर किया तो वह बैठ गया। देशभक्ति के गाने बज रहे थे। लाल किले की लाल दीवारें ऐसी लगती थीं जैसे लाल सिपाही राष्ट्र के सजग प्रहरी की भाँति पंक्तिबद्ध हों और उनके सेनापति के उन्नत माथे पर मुकुट की कलगी में तिरंगा लहरा रहा हो, उसे लगा, भारत के नक्शे में तिरंगा झंडा कश्मीर के ऊपर तनकर फहरा रहा हो। लोग दुनिया-भर की बातें कर रहे थे, देश की बात कोई नहीं कर रहा था। अचानक पता चला—शोर हुआ—प्रधानमंत्री आ गए। इस पर फिर हड़कंप मचा। सब लोग खड़े हो गए धक्कमधुक्का होने लगा। मृदुल को भी खड़ा होना पड़ा। जिस समय राष्ट्रध्वज फहराया जा रहा था और राष्ट्रगान हो रहा था, भीड़ में लोग एक तरफ से दूसरी तरफ ठेले जा रहे थे। पता नहीं कौन लोग धकिया रहे थे।
इस रेलमपेल में बूढ़े लोग गिरने लगे। बच्चे दबने लगे। दमघोटू वातावरण में मृदुल का मन देशवासियों की उच्छृंखलता पर घृणा से भर उठा। प्रधानमंत्री ने बोलना शुरु कर दिया था; मगर कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। जब दुनिया इक्कीसवीं शताब्दी की बुलंदियों में प्रवेश कर रही थी मानवता तकनीकी उत्कर्ष पर पहुँच रही थी, उस समय हिंदुस्तानियों के देशप्रेम का यह आलम था। इसे छोड़ दिया जाए तो भी जिन्हें खड़े होने अथवा भीड़ में चलने-फिरने की सामान्य नागरिक की तमीज नहीं। उस देश का भविष्य क्या है ! मृदुल को याद आया—रेल का टिकट लेते समय अनपढ़ गंवार तो कहने पर लाइन में खड़े हो जाएँगे, मगर पढ़े-लिखे अप-टु-डेट जवान जबरन आगे टिकट लेना चाहेंगे अथवा किसी से उनका भी टिकट लेने के लिए रिरियाएँगे; दूसरे नीति-भ्रष्ट करते हैं और अनुरोध पर भी लाइन में खड़ा होना अपमान समझते हैं। जिस देश में अहं का यह तांडव हो उसका विकास क्या होगा !
मृदुल को याद आया, लोगबाग विशेषकर पढ़े-लिखे बस या ट्रेन में किस रेलपेल से घुसते हैं। चमड़ी छिल जाती है, खून निकल आता है अथवा रोते-कलपते बच्चे छूट जाते हैं। सामान बिखर जाता है, टूट जाता है। यही नहीं, रिजर्व डिब्बे तथा टिकट पर नंबर पड़े सिनेमा हॉल में शिक्षित एवं आभिजात्य वर्ग के लोग जिस प्रकार बेतकल्लुफी से गुत्थमगुत्था करते हैं, उसे देखकर तो कोई विदेशी लजा जाएगा। मृदुल को लगा कि एक भारतवासी दूसरे के प्रति कितनी घृणा सँजोए अपने घर से बाहर निकलता है। शायद सहज सामाजिक व्यवहार राष्ट्रीयता की प्रथम कसौटी है। तब हम आप कितने राष्ट्रीय हैं ! डंडाधारी पुलिस ही हमें राष्ट्रीय बनाती है। प्रधानमंत्री का महत्त्वपूर्ण भाषण कौआरोर में मृदुल को सुनाई नहीं पड़ रहा था। भीड़ फेन की तरह खुद को मथ रही थी। कभी रेला इधर आता था, कभी उधर।
मृदुल अपने को भीड़ से निकालना चाहता था, मगर निकाल नहीं पा रहा था। कार्यक्रम के पूर्व तक गनीमत थी, कार्यक्रम शुरू होते ही लोगों को क्या हो गया ! यही करना था तो लोग यहाँ आए क्यों ? मृदुल को याद आया, जब गुलामी के दिनों में शहादत की जगहों की मिट्टी जमा की जाती थी तब तो भीड़ न थी। आज लोग देशभक्ति की भावना से आए थे कि उत्सव का तामझाम देखने ? बाहर निकलने की धुन में मृदुल किनारे तक आ गया था; परंतु खड़ा नहीं हो पा रहा था। कभी इधर गिरता, कभी उधर। सामने पुलिस की पंक्ति थी। वे भीड़ को आँखें तरेरकर डंडे तानकर दौड़े तो भीड़ का आधा अनुशासन स्वतः लौट आया। मृदुल ने गिरते हुए दोनों हाथ जमीन पर टिका लिये थे, जब होमगार्ड के एक जवान ने उसे उठाया।
मारे घबराहट और प्यास के मृदुल को कुछ सूझ नहीं रहा था। उस जवान ने मृदुल को एक ओर कर दिया। तभी दो लोगों ने उसे सहारा दिया और बीच में बल्लियों से घेरकर बनाए रास्ते से बाहर ले आए ठंडी हवा लगने से मृदुल प्रकृतिस्थ हुआ। उन दोनों की ओर मृदुल ने देखा, वे शिक्षित नवयुवक थे। एक ने अपनी बोतल से पानी निकालकर मृदुल को दिया। फिर वे दोनों मृदुल को एकदम पीछे ले गए, जहाँ भीड़ नहीं थी। कुछ हवा लगने पर मृदुल में जान आई। उन दोनों से बोला—‘‘थैंक्यू !’’
उनमें से एक ने कहा—‘‘मैं आपको जहाँ कहें पहुँचा दूँ।’’
मृदुल ने उत्तर दिया—‘‘मैं यह दृश्य देखने कानपुर से आया हूँ, अतः थोड़ी देर तक यहाँ से अच्छी तरह देख लूँ और प्रधानमंत्री की बातें सुन लूँ, फिर जाऊँगा।’’
बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी। दूसरे लड़के ने आश्चर्य से पूछा—‘‘अच्छा, आप भी कानपुर से आए हैं ? हम लोग भी कानपुर से आए हैं।’’
मृदुल ने उन दोनों को गौर से देखा और प्रश्न किया—‘‘ आप लोग कानपुर के लगते नहीं, वहाँ पढ़ने आए हैं ?’’
प्रथम युवक ने सस्मित कहा—‘‘आपने ठीक पहचाना। हम दोनों बंगाल के हैं। मैं मनीष मुखोपाध्याय—कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोध कर रहा हूं। यह मेरा मौसेरा भाई मृण्मय भट्टाचार्य—आई.आई.टी. कानपुर में इंजीनियरिंग पढ़ रहा है। मैं दिल्ली में इंटरव्यू देने आ रहा था, तो कानपुर से इसे भी ले आया कि चलो 15 अगस्त देखेंगे। आप क्या करते हैं ?’’
मृदुल ने उत्तर दिया—‘‘मैं अर्थशास्त्र में एम.ए. फाइनल कर रहा हूँ। (मृण्मय की ओर उन्मुख होकर) मैं क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर में पढ़ता हूं। भाई, खूब, भेंट हुई ! बड़ी खुशी हुई।’’
मनीश और मृण्मय ने भी प्रसन्नता प्रकट की। फिर मृदुल ने मुखरित होकर कहा—‘‘अब हम लोग भी कानपुर लौटेंगे। आपको दिल्ली में कोई और काम तो नहीं। इंटरव्यू हो गया ?’’
मनीश बोला—‘‘ वह तो परसों ही हो गयी। कल होटल का बिल तो हमने 15 अगस्त के उत्सव का अवलोकन करने के लिए बढ़ाया है’’
मृदुल ने सागृह कहा—‘‘ठीक है। मुझे भी कोई काम नहीं। मगर हम लोग 15 अगस्त का पूरा कार्यक्रम देख लें और प्रधानमंत्री का भाषण सुन लें, फिर लौटने का का तय करेंगे।’’
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