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दीया तले अँधेरा

अरविंद तिवारी

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2633
आईएसबीएन :81-85827-71-0

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शिक्षा की आन्तरिक व्यवस्था पर आधारित उपन्यास....

Diya Tale Andhera

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘छात्रों, तुम नकल से पास होते हो या मेहनत से ?’
‘सर, नकल से।’
‘वेरी गुड ! मैं भी नकल से पास हुआ था।’
‘हिप-हिप हुर्रे !’
छात्र शांत हो गए।
‘आप लोग हिंदी का पीरियड पढ़ते हैं, अंग्रेजी पढ़ते हैं, फिर वाणिज्य क्यों नहीं पढ़ते ?’
‘सर, हम वाणिज्य ट्यूशन से पढ़ रहे हैं।’
‘पर मैं तो ट्यूशन नहीं करता !’
‘आप करो भी तो कौन पढ़ेगा !’

‘ठीक है, ठीक है, लेकिन तीसरे कालांश में आप अपनी उपस्थिति अवश्य देंगे। नहीं तो सोच लो, परीक्षा में मैं सहायता नहीं करूँगा।’
‘सर, ये तो बताइए, तीसरे पीरियड में हम करेंगे क्या ?’
‘मैं पढ़ाऊँगा, उसे समझना।’
‘क्या स्टेपनी साथ लाएँगे ?’
अर्जुनदेव जब पढ़ाते थे तो एक कॉपी से नकल किया करते थे। वाणिज्य में अकाउंटेंसी के सवाल उन्हें आते नहीं थे, इसलिए उन्हें पढ़ाने के लिए वाणिज्य-भूगोल मिला था। उन्होंने उसे भी बिना नोटबुक की सहायता से कभी नहीं पढ़ाया था। छात्र शोर मचाने लगे। जिसकी मरजी में जो....

इसी पुस्तक से


आज की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने आदमी को कितना विवश बना दिया है, यहाँ की हर संस्था अपना मौलिक स्वरूप खोकर किनती निकृष्ठ बन गई है, विशेषकर शिक्षा संस्थान किस तरह पदलोलुप शिक्षकों के अखाड़ें बन गए हैं, इसी को प्रस्तुत उपन्यास में व्यंग्य के माध्यम से, शिक्षा की आंतरिक व्यवस्था पर चोट करते हुए, दिखाया गया है।

एक


यह एक विचित्र संयोग ही था कि श्मशान घाट के ठीक सामने सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल बना हुआ था। कस्बे में जब कोई स्कूल का पता पूछता तो लोग कहते, ‘सीधे श्मशान घाट चले जाओ।’ पूछनेवाला एक बार तो हक्का-बक्का रह जाता और किसी अन्य व्यक्ति से स्कूल के बारे में पूछने लगता। दस-बीस व्यक्तियों से पूछने का कार्यक्रम संपन्न करने के बाद वह आश्वस्त हो जाता कि श्मशान घाट के पास स्कूल है या स्कूल के पास श्मशान घाट। आगंतुक दोनों के निर्माताओं की दूरदर्शिता की प्रशंसा करता और स्कूल में प्रवेश कर जाता। लेकिन इस पक्के श्मशान घाट पर उतने मुरदे नहीं जलाए जाते थे, जितने कस्बे के दक्षिणी किनारे के तालाब पर बने हुए कच्चे श्मशान घाट पर। स्कूल के सामने का श्मशान घाट कम मुरदे जलाकर भी मास्टरों को ललचाता रहता था। अनेक अवसरों पर मास्टरों ने महसूस किया था-श्मशान घाट उन्हें आमंत्रण दे रहा है। अनेक बार श्मशान घाट पर इन अध्यापकों ने मैकाले के भूत को देखा था।

इतना आकर्षक श्मशान घाट होते हुए भी अभी तक चलते स्कूल में किसीकी मौत नहीं हो पाई थी। दूसरे शब्दों में, स्कूल और श्मशान घाट अच्छे पड़ोसियों की भाँति मधुर संबंध कायम नहीं कर पाए थे। स्कूल के इतिहास के अनुसार, छात्रों ने अनेक बार मास्टरों की गंभीर पिटाई की थी और वार्षिक परीक्षाओं के दौरान हर वर्ष वे ऐसा करते आए; लेकिन गुरु दक्षिणा में कहीं-न-कहीं अवश्य कमी रहती आई थी। हर बार पीड़ित मास्टर श्मशान घाट पहुँचने से वंचित रह जाता था। ऐसा भी नहीं था कि छात्रों ने प्रयास छोड़ दिए हों। उनका प्रयास अभी भी यही था कि कोई मास्टर चलते स्कूल में शहीद हो और उसे वे अपने हाथों से इस श्मशान घाट पर जलाकर, स्कूल के पास-उसके होने की सार्थकता सिद्ध कर दें। श्मशान घाट से स्कूल और छात्रों को कई फायदे थे। जब कोई मुरदा जलने लगता तो छात्र और अध्यापक दार्शनिक हो जाते थे और स्कूल की छु्टटी कर दी जाती थी। वैसे भी, करमपुर हायर सेकेंडरी स्कूल की परंपरा रही है कि टीचिंग और नॉन टीचिंग, कुल सौ व्यक्तियों के स्टाफ में, यदि किसी का दूर का रिश्तेदार भी मर जाए तो स्कूल बंद हो जाया करता था। इस प्रकार, स्टाफ और श्मशान घाट के संयुक्त प्रयास से पूरे वर्ष में कुल पचास दिन ही पढ़ाई हो पाती थी जिसे शिक्षा विभाग में एक वर्ष का ‘शिक्षा सत्र’ कहा जाता था।

मुरदे जलाने के अलावा श्मशान घाट अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों का केन्द्र था। जब स्कूल चलता था, तब छात्र श्मशान घाट पर जुआ खेलते, चरसवाली सिगरेट पीते और कभी-कभी दारू पीने के देशभक्तिपूर्ण कार्य भी आयोजित कर लिया करते थे। जिन दिनों परीक्षाएँ होतीं, उन दिनों यह श्मशान घाट ‘नकल कराओ अभियान’ का आधार शिविर बन जाया करता था। यहाँ बैठकर गुंडेनुमा छात्र विषय-अध्यापकों को मुरगा बनाकर उनसे पेपर हल करवाया करते थे और फिर उन्हें पूरी अध्यापकीय अस्मिता के साथ, मुरगे से पुन: अध्यापक बनाकर छोड़ देते थे। श्मशान घाट से पुलिस भी दूर रहती थी, छात्रों ने भूत होने की अफवाह फैला रखी थी।

शिक्षकों, खासकर महिला शिक्षकों को लेकर, श्मशान घाट पर अनेक विचारोत्तेजक गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं, जो नई शिक्षा नीति को सफल बनाने में अपना योगदान दे रही थीं। श्मशान घाट के चबूतरे के चारों ओर स्कूल की अनेक समस्याएँ एवं उनके कारगर समाधान लिखे हुए थे। समाधान अश्लील वाक्यों में लिखे होने के कारण काफी प्रभावी बन पड़े थे। अनेक छात्र-छात्राओं ने प्रेम में मरने-जीने की कसमें इसी श्मशान घाट को साक्षी मानकर खाई थीं; परंतु उनमें से एक भी जोड़ा आज तक न तो साथ-साथ जी सका और न मर सका। श्मशान घाट को आज भी उस प्रेमी युगल का इंतजार है, जो साथ-साथ मरकर उसके घाट पर जल सके।

स्कूल भवन विशाल था तथा परंपरागत स्कूलों की भाँति उसका पलस्तर दीवारें छोड़ रहा था। स्कूल की दीवारें देखकर यह आसानी से कहा जा सकता था कि नई शिक्षा नीति हो या पुरानी, स्कूलों को बदलना असंभव है। करमपुर हायर सेकेंडरी स्कूल को राजकीय स्कूल होने के कारण हर वर्ष रख-रखाव और मरम्मत के लिए विभाग से मोटी ग्रांट प्राप्त होती थी-जो कमीशन के जरिए प्रधानाचार्य के निजी मकान में लग जाती थी। स्कूल के भी दो-चार कमरे मरम्मत को प्राप्त हो जाते थे, ताकि सरकारी पैसे का सदुपयोग होना सिद्ध हो सके। इस कार्य में ऑडिट पार्टी हमेशा प्रधानाचार्य को सहयोग करती थी।
स्कूल के मुख्य गेट के ऊपर स्कूल के नाम का जो बोर्ड लगा था, उसे न दूर से पढ़ा जा सकता था और न नजदीक से। फिर भी, श्मशान घाट के सामने होने से-इस बात का दावा किया जा सकता था-पुरातत्व विभाग के महत्त्व जैसी, जो बिल्डिंग दिखाई दे रही है, वह करमपुर हायर सेकेंडरी स्कूल की बिल्डिंग है। यह स्कूल राज्य के बहुत पुराने स्कूलों में से एक था।
स्कूल में घुसते ही पहला कक्ष, जिसके ऊपर उपप्रधानाचार्य लिखा हुआ था, स्टाफ रूम के नाम से जाना जाता था। यह ऐतिहासिक महत्त्व का कक्ष था। स्टाफ की कृपा से उपप्रधानाचार्य को प्रधानाचार्यवाले कमरे में ही बैठना पड़ता था। स्टाफ रूम-उर्फ उपप्राधानाचार्य रूप-इतना छोटा था कि उसमें किसी भी पारी के सभी अध्यापक नहीं समा सकते थे। वैसे, करमपुर हायर सेकेंडरी स्कूल में ऐसा कभी संभव नहीं हुआ, जब एक भी पारी के अध्यापकों की उपस्थिति शत-प्रतिशत रही हो। वह कमरा स्टाफ रूम ही था-इस बात का प्रमाण उस कमरें में खिड़की की जाली को काटकर बनाई गई ‘विडों’ से मिल जाता था। जाली में इतना बड़ा छेद कर लिया गया था कि चाय का गिलास आसानी से आ-जा सकता था। सिगरेट भी उसी विंडो से सप्लाई हो जाती थी। अध्यापक को इसलिए रिसोर्सफुल पर्सन कहा जाता है।

करमपुर का यह सौभाग्य था कि उसके इस स्कूल में ‘सारे जहां से अच्छा’ स्टाफ लगा हुआ था। इस समय जो प्रधानाचार्य कार्यरत थे, उनका नाम कृपाराम था। कृपाराम यों तो जाति से बढ़ई (खाती) थे, परंतु अपने नाम के आगे शर्मा लगाकर ब्राह्मण हो गए थे और इस प्रयास में थे कि उनके खानदान के लोग बढ़ईगिरी का काम छोड़कर कथा-भागवत आदि बाँचने लगें। इसके लिए उन्होंने कस्बे में एक सत्संग भवन भी खोल रखा था, जिसमें वे स्वयं प्रवचन देते थे। इस सत्संग भवन में उनके खानदान के अलावा उनके स्टाफ के चमचेनुमा भक्त उपस्थित रहते थे।

स्कूल दो पारियों में चलता था। प्रथम पारी में कक्षा छह से दस तक के छात्र पढ़ते थे और द्वितीय पारी में, ग्यारहवीं-बारहवीं के। पहली पारी को उपप्रधानाचार्य रोशनलालजी सँभालते थे। रोशनलालजी जयपुर के थे और बोलने में ‘छै’ का प्रयोग करते थे। जैसे कोई उनसे पूछे, आपके पिता जीवित हैं तो वे उत्तर में कहते थे-छै। उनके इस ‘छै’ को लेकर तरह-तरह के चुटकुले वैसे ही प्रचलित हो गए थे, जैसे सक्रिय शिक्षा संस्थानों में शिक्षा पद्धति को लेकर हो जाया करते हैं।
कुछ दिनों तक रोशनलालजी अपने लिए निर्धारित उपप्रधानाचार्य कक्ष, अर्थात् स्टाफ रूम में बैठते रहे। कुछ दिनों तक स्टाफ भी उनके साथ बैठता रहा। उनको चाय पिलाई गई और कम-से कम गालियों का प्रयोग किया गया; लेकिन कुछ दिनों बाद सिगरेट का धुआँ उनके ऊपर छोडा जाने लगा। जब इन शाकाहारी उपायों से रोसनलालजी नहीं घबराए तो कुछ सामिष तरीके अपनाए गए। शारीरिक शिक्षक एक दिन प्रात:काल ही दारू पीकर आ गए और उपप्रधानाचार्य की टेबल पर लेटकर धारावाहिक रूप से उनका नाम लेकर भारी-भारी गालियाँ देने लगे। वास्तव में उस दिन शारीरिक शिक्षक ने अपनी समस्त क्षमताओं का परिचय दे दिया था-जिनके लिए वे जाने जाते थे। शारीरिक शिक्षक वर्तमान शिक्षा प्रणाली में प्रधानाचार्य और उपप्रधानाचार्य के लिए थानेदार का काम करता है और छात्र इस थानेदार के ऊपर के अफसर कहे जाते हैं। सिविल पुलिस में धाँधली हो सकती है, शैक्षिक पुलिस में नहीं।

दो दिन बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि उपप्रधानाचार्य को अपने लिए निर्धारित कक्ष छोड़ना पड़ा और प्रधानाचार्य से नए कक्ष की माँग करनी पड़ी। प्रधानाचार्य किसी अन्य कमरे का दुरुपयोग करना नहीं चाहते थे, अत: रोशनजी को उन्होंने अपने कमरे में ही बैठने का आदेश दे दिया। रोशनजी की स्थिति ऐसी हो गई कि उनकी बगलवाली कुरसी पर कभी साइकिल पंक्चर जोड़नेवाला व्यक्ति बैठा मिलता तो कभी कोई खद्दरधारी अपराधी नेता। एक बार तो रोशनलालजी को लगा कि उनका घोर अपमान किया जा रहा है, फिर यह सोचकर कि वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन इन्हीं प्रधानाचार्य के करकमलों से भरा जाएगा, वे चुप लगा गए। लोक सेवा आयोग से शिक्षा सेवा के लिए चयनित होने के बाद ऐसे अनेक अवसर आए थे, जब रोशनलालजी को मक्खी निगलने का साहसिक कार्य हँसते-हँसते करना पड़ा। इसीलिए कहा जाता है-शिक्षक त्यागी होते हैं। अगला प्रमोशन बाकी चल रहा था, ऐसे में प्रधानाचार्य से पंगा लेना बुद्धिमानी की श्रेणी में नहीं आता था। रोशनलाल बुद्धिमान बनकर उपनिदेशक पद तक पहुँचने के सपने देखने लगे थे।

प्रधानाचार्य कृपाराम पंद्रह वर्षों में ही अध्यापक से प्रधानाचार्य की कुरसी पर जा बैठे थे-अपनी प्रतिभा के कारण। इस बीच, वे कुछ वर्षों के लिए डेपुटेशन पर मध्य प्रदेश में नवोदय विद्यालय के प्रधानाचार्य भी रह आए थे। उनका शिक्षा अधिकारी के पद पर चयन, अभी तक रहस्यमय बना हुआ था। बताते हैं कि एक प्रश्न के जवाब के कारण उनका चयन हो गया था। अनेक राज्यों में ‘मुदालियर कमीशन’ की अनुशंसा पर ‘मल्टीपर्पस हायर सेकेंडरी स्कूल’ खोले जा चुके थे, लेकिन ये स्कूल उपकरणों के अभाव में वर्षों से कागजों पर चल रहे थे। वैसे, आजादी के बाद से हमारे देश में विकास कार्य कागजों पर अधिक दिखाई देते रहे हैं। कागजी नीबू की तरह कागजी विकास इस देश की सेहत के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हुआ।

लोक सेवा आयोग के एक सदस्य ने कृपाराम से पूछा-‘‘आपको एक हायर सेकेंडरी स्कूल का संस्था प्रधान बना दिया जाए और कोई अतिरिक्त स्टाफ, उपकरण आदि न दिए जाएँ तो आप उस हायर सेकेंडरी स्कूल को मल्टीपर्पस हायर सेकेंडरी स्कूल कैसे बना दोगे ?’’
कृपाराम ने सहज होकर (जो उनकी प्रतिभा का एकमात्र परिचायक गुण है) उत्तर दिया-‘‘मैं उस विद्यालय के नाम पट्ट पर हायर सेकेंडरी के स्थान पर चॉक से मल्टीपर्पस हायर सेकेंडरी स्कूल लिखवा दूंगा।’’
इंटरव्यू लेनेवाले सदस्य कृपाराम की ‘विट पावर’ पर लट्टू हो गए और उनका चयन मेरिट लिस्ट में दूसरे स्थान पर कर लिया गया।
अब कृपाराम की कार्य-पद्धति बता रही थी कि उनका चयन शिक्षा जगत् के लिए कितना लाभकारी सिद्ध हुआ।
विद्यालय परिसर में जो मंच बना है, उसके निर्माण की कहानी भूतपूर्व प्रधानाचार्य नागजी से जुड़ी हुई है। नागजी ने कस्बे में भारी चंदा इकट्ठा किया था। पाँच लाख रुपए एकत्रित कर बीस हजार में ऑडिटोरियम के स्थान पर एक मंच बनवा दिया। शिकायतें हुईं तो उन्होंने अपना तबादला करवा लिया। जाँच ठंडे बस्ते में पड़ गई (जो शिक्षा विभाग की एक शानदार परंपरा है) इस मंच को नाग मंच के नाम से जाना गया। यह नागजी का स्मारक भी कहलाता है।

स्कूल के मध्य भाग में नई बिल्डिंग है, जिसमें कक्षा नौ से बारह तक के कक्षा-कक्ष हैं। इसी भाग में सभी विभागों के कक्ष तथा प्रधानाचार्य कार्यालय एवं पुस्तकालय भी हैं। यहीं, बरामदे के अंतिम छोर पर एक स्थान है, जिसे मुक्ताँगन क्लब कहा जाता है। मुक्ताँगन क्लब के आगे बंगलेनुमा दो क्वार्टर्स बने हैं, जिनमें से एक में रामदीन मास्साब और दूसरे में प्रधानाचार्य कृपाराम रहते थे। ये दोनों व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहते थे। दोनों परिवारों में घनिष्ठ संबंध थे और पद, रंग, उम्र आदि का कोई भेद-भाव नहीं था। रामदीन मास्साब तृतीय ग्रेड अध्यापक थे, परंतु उनके रहन-सहन के स्तर में प्रधानाचार्य जैसी तड़क-भड़क देखी जा सकती थी। रामदीनजी स्कूल में बने हुए पाँच कमरों के हॉस्टल वार्डन थे और यही कारण था कि उन्हें यह क्वार्टर मिल गया था। रामदीन मास्साब के यहाँ आटा-सब्जी परंपरागत तरीके से हॉस्टल के मेस में से सप्लाई हो जाती थी। इस कारण से भी उनका स्तर ऊँचा था, परंतु कुछ अध्यापकों की घ्राण शक्ति के अनुसार, रामदीन मास्साब के ऊँचे स्तर का कारण कुछ गोपनीय प्रकार का था, जो स्टाफ के समस्त सदस्यों के साथ-साथ कुछ दादा टाइप के विद्यार्थियों को भी मालूम था।

प्रधानाचार्य कृपारामजी प्रत्येक रविवार को स्टाफ के उन सदस्यों को चाय पर आमंत्रित करते थे, जो अपनी पत्नी के साथ आ सकते थे। कृपारामजी ऐसी चाय पार्टियों पर खुलकर खर्च करते थे और वे चाहते थे चाय पर आईं अध्यापकों की घरवालियाँ उनके साथ खुलें। नई शिक्षा नीति के लिए वे स्वस्थ वातावरण बना रहे थे। कृपाराम अंग्रेजी के व्याख्याता रह चुके थे और रिफ्रेशर कोर्स के लिए लंदन भी जा चुके थे। वहीं से शराब और शबाब का शौक ले आए थे। कुछ दिनों तक तो स्थानीय परिवेश में वे ‘मिस फिट’ रहे। फिर कुछ परिस्थितियाँ उनके अनुकूल बनती गईं। कुछ वे परिस्थितियों के अनुकूल बने, जैसे मैकाले की शिक्षा नीति भारत के अनुकूल बन गई (या बनाई गई) थी।
चाय पार्टियों में रामदीन मास्साब की पत्नी और बड़ी बेटी कृपाराम की पत्नी के साथ पूरा सहयोग करती थीं। सुबह से ही नाना प्रकार के व्यंजन तैयार कर लिये जाते थे और चाय पार्टी ठीक ग्यारह बजे प्रारंभ हो जाती थी। रोचक बात यह थी कि कृपाराम को विभिन्न प्रकार की डिलिशस डिशेज बनाने का शौक था। वे अपने अधीन अध्यापकों की पत्नियों को किचन में ले जाकर विधियों को समझाया करते थे। इसी बीच ड्राइंगरूम में उनकी पत्नी अध्यापकों के साथ गपशप करती रहती थीं। चाय पार्टी का सार तत्त्व यही था।

तीन वर्षों तक चाय पार्टी चलती रही, फिर अध्यापकों में से कुछ विभीषण का पार्ट अदा करने लगे (यह भी शिक्षकों की परंपरा है) और इस रोचक चाय पार्टी की खबरें स्थानीय अखबार ‘हवा का झोंका’ में छप गईं। अखबार लोकल हो या राष्ट्रीय अच्छी-बुरी घटनाओं को प्रभावित करता है। खबरों के मामले में कुछ लोकल अखबार हमेशा आपराधिक दृष्टिकोण अपनाते हैं, अत: कृपाराम ने चाय पार्टी कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दी। चाय पार्टी स्थगित होने के बाद कुछ विभीषणनुमा अध्यापक चाय पार्टी के संस्मरण सुनाकर महफिलों को जीवंत बनाते रहे।


: दो :



करमपुर हायर सेकेंडरी स्कूल के पूर्वी भाग में जो भवन बना था, वह ऐतिहासिक महत्त्व का भग्नावशेष कहा जा सकता था। इसी भवन में कक्षा छह से आठ तक के सात सेक्शनों की पढ़ाई होती थी। मास्टर लेखराज और कामतानाथ में अंदरूनी ईर्ष्या चली आ रही थी। दोनों ही अध्यापक ट्यूशन के धंधे में अपना-अपना वर्चस्व बनाने की कोशिश में लगे थे। लेखराज ने ट्यूशनें पढ़ाकर तेल मिल खोल ली थी, जबकि कामतानाथ का पुत्र संगमरमर के पत्थरों का व्यापार करने लगा था। कामतानाथ अपने घर पर दस बैच निकालते थे, उधर लेखराज घर-घर जाकर ट्यूशन पढ़ाते थे। लेखराज ने तगड़े आसामी पकड़ रखे थे।

मौसम कुछ सुहावना-सा हो गया था। बादल धूप-छाँव उत्पन्न करते हुए आसमान में तैर रहे थे। इस पुरानी बिल्डिंग में, जिसे बँगलादेश भी कहा जाता था, देश के भविष्य का निर्माण कार्य जोरों से चल रहा था। निर्माण स्वतंत्र तथा स्वत: हो, इसके लिए अध्यापकगण अपनी-अपनी कक्षाओं के बाहर खड़े होकर कक्षाओं में कठिन परिश्रम से अध्यापन करने का प्रमाण दे रहे थे।

‘‘बीजेपी की सरकार तबादलों के मामले में बहुत पीछे है’’, लेखराज मास्टर ने जूते से एक पत्थर को किक लगाते हुए ऐसे कहा जैसे वे सहायक सामग्री के साथ कोई पाठ पढ़ा रहे हों।
कामतानाथ ने नहले पर दहला मारते हुए कहा-‘‘अगर नियमानुसार तबादले कर दिए जाएँ तो बड़े-बड़े दिग्गजों को शहर छोड़कर गाँव भागना पडे़ और उनकी तेल मिलें बंद हो जाएँ।’’
लेखराज वार नहीं झेल पाए, उन्होंने विषयांतर करते हुए कहा-‘‘आज बरसात होगी।’’
‘‘साइंस के हिसाब से ये बादल बरसनेवाले नहीं है।’’ कामतानाथ ने साइंस पढ़ी थी और लेखराज को विज्ञान का विद्यार्थी न होने का बहुत रंज था। उन्होंने कहा-‘‘साइंस की भविष्यवाणियाँ सही नहीं होती हैं। आज बरसात होगी और अभी होगी।’’

कामतानाथ दूसरी तरफ देखने लगे। लेखराज को कामतानाथ फूटी आँख भी नहीं भाते थे और साइंस तथा बरसात ने इस समय उनके सीने में आग लगा दी थी। अध्यापकीय ट्रेनिंग के दौरान प्राप्त शिक्षा को वह बहुत पहले ताक पर रख चुके थे, अत: बाएँ पैर का जूता उतारा और कामतानाथ की कनपटी पर दे मारा। यह प्लास्टिक का जूता था, थप्प की आवाज के साथ कामतानाथ की कनपटी पर उसी तरह लगा जैसे कभी-कभी सरकार बढ़े हुए महँगाई भत्ते को प्रोविडेंट फंड में जमा कर लेती है।

कामतानाथ की कनपटी पर जूता गुरुत्वाकर्षण के कारण अधिक देर तक नहीं रुक सका और नीचे गिर गया। कक्षा के छात्रों ने इस घटना को गौर से देखा और गुरुत्वाकर्षण को समझा। कामतानाथ ने आग्नेय नेत्रों से लेखराज को देखा तो लेखराज ने दूसरा जूता भी फेंक दिया। यह भी निशाने पर सही लगा और इस दूसरे जूते ने भी यही साबित किया, लेखराज अगर तीरंदाजी प्रतियोगिता में भाग लेते तो कुशल तीरंदाज बन गए होते। लेखराजजी आज पुराने और फटे हुए प्लास्टिक के जूते जिस उद्देश्य से पहनकर आए थे, उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया था। शिक्षा जगत् में यह प्रथम शैक्षिक प्रयोग था, जिसमें शत-प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त हो गया था।

दोनों जूते कामतानाथजी को सप्रेम भेंट करने के बाद लेखराज नंगे पाँव भागते हुए स्कूल की सीमा से बाहर निकल गए। कुछ दूर तक गालियों के साथ-साथ कामतानाथ ने उनका पीछा किया, फिर लेखराज को भगोड़ा और कायर समझकर पीछा छोड़ दिया और छात्रों के लिए निर्धारित पेयजल व्यवस्था के पास पहुँचकर मुँह धोया। उनकी इच्छा हुई, जूता लगने के बाद कनपटी की वर्तमान स्थिति का आकलन करने के लिए दर्पण देखा जाए; लेकिन स्कूल परिसर में कहीं दर्पण उपलब्ध नहीं था। साइंसवाली सुमन मैडम के पर्स में छोटा-सा मिरर था; लेकिन कामतानाथ की हिम्मत नहीं हुई कि सुमन मैडम से शीशा माँग सकें। उसके लिए थ्रू प्रॉपर चैनल, अर्थात् कृपाराम के मार्फत जाना पड़ता। नई शिक्षा प्रणाली हो या वर्तमान स्थिति के आकलन से ही भविष्य की योजनाएँ बनती हैं। कामतानाथ वर्तमान का आकलन नहीं कर पाए।
लेखराज द्वारा प्लास्टिक के जूतों के सर्वश्रेष्ठ उपयोग की घटना के बाद बँगलादेश विंग, अर्थात् जहाँ कक्षा छह से आठ तक के विद्यार्थी पढ़ते थे, सन्नाटे में समा गई। जैसी पढ़ाई जूतोंवाली घटना के दिन हुई, वैसी पढ़ाई इस विंग में पहले कभी नहीं हुई। छात्र स्तब्ध थे-मास्टरों को हो क्या गया है ! वे न केवल पढ़ाई की औपचारिकता पूरी कर रहे थे, बल्कि एक-एक बिंदु को स्पष्ट कर रहे थे। जो मास्टर मिनट-मिनट पर तंबाखू या सिगरेट का सेवन करते थे, वे आज कोई नशा नहीं कर रहे थे।
छात्र मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे-जूतोंवाली घटना रोज घटे।

उधर, कामतानाथजी मुँह धोकर सीधे प्रधानाचार्य कक्ष की ओर दौड़े। इस भाग-दौड़ में उनकी धोती की लाँग खुल गई। वे लाँग ठीक करने के लिए प्रधानाचार्य कक्ष से बाहर आए और ठीक करने के बाद फिर प्रधानाचार्य कक्ष में घुस गए। धोती की लाँग ने उनका गुस्सा और बढ़ा दिया।
प्रधानाचार्य कृपाराम ने पूरी घटना को धैर्यपूर्वक सुना। घटना उन्हें बड़ी रोचक लगी। जब कामतानाथ घटना सुनाते-सुनाते उत्तेजित होने लगे, तब कृपाराम ने उन्हें ढाढ़स बँधाया और चपरासी को चाय लेने भेज दिया। उत्तेजित व्यक्ति को वे इसी तरह शांत किया करते थे। चपरासी चाय लाने में एक घंटा अवश्य लेता था, अत: या तो उत्तेजित व्यक्ति शांत होकर चला जाता था या फिर वह चाय का मानस बनाकर केवल चाय की प्रतीक्षा करने लगता था। अनेक बार ऐसा होता था कि लंबी प्रतीक्षा के उपरांत भी चाय उसी प्रकार नहीं मिल पाती थी, जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम को पढ़ने के बाद नौकरी नहीं मिलती।

कामतानाथ ने मेज ठोंकते हुए कहा-‘‘प्रिंसिपल होने के नाते आपको तुरंत एक्शन लेना चाहिए। आज जूता मारा है, कल पत्थर मारेगा और परसों गोली। आप इसको रिलीव करके जिला अधिकारी कार्यालय भेज दीजिए। यह कार्य अभी और इसी वक्त होना चाहिए।’
इतना कहकर कामतानाथ कुरसी पर शांत होकर बैठ गए और हिसाब लगाने लगे कि यदि लेखराज का तबादला करमपुर से बाहर हो जाए तो प्रतिमाह दो हजार की ट्यूशन और बढ़ जाएगी।
प्रधानाचार्य कृपारामजी ने कामतानाथ जी को सलाह दी कि आप पुलिस कार्रवाई ही कर दें तो अच्छा रहेगा। हमने रिलीव कर दिया और जिला शिक्षा अधिकारी ने उन्हें फिर से यहाँ भेज दिया (जिसकी शत प्रतिशत संभावना है) तो हमारी इंसल्ट हो जाएगी।

पुलिस के नाम से कामतानाथ घबराते थे। दो वर्ष पहले पुलिस ने उन्हें बहुत तंग किया था। उनके भाई ने मंदिर की जमीन पर कब्जा करके, उन्हें भी इस साजिश में शामिल होने की बात थाने में कह दी थी। जैसे-तैसे जेल जाते-जाते बच पाए थे। तभी से कामतानाथ जी पुलिस से एक ‘साइजेबल डिस्टेंस’ बनाए हुए थे।
उन्होंने कृपाराम की मेज पर फिर मुक्का ठोंका। हालाँकि इस बार उन्हें चोट आई, फिर भी आवाज बुलंद करते हुए बोले-‘‘हम आपकी छत्रच्छाया में नौकरी करते हैं तथा उसी छत्रच्छाया में स्कूल परिसर में पिटे हैं और आप पुलिस में जाने के लिए कह रहे हैं। आपको तुरंत विभागीय कार्रवाई करनी पड़ेगी। मैं आमरण अनशन करूँगा।’’





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