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चिकित्सा व्यवस्था पर व्यंग्य

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2620
आईएसबीएन :81-7315-148-2

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चिकित्सा जगत् की विसंगतियों का पर्दाफाश करने का यथार्थ परिचय...

Chikitsa Vyavstha Par Vyang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अस्पताल हो और वह भी सरकरी तो उसका अपना अलग आनंद है। बस शर्त यह है कि आपमें इस अद्भुत पर्यटन-स्थल में आनंद लेने की क्षमता अवश्य हो। ‘क्षमता’ शब्द यहाँ हमारे विचार में अधिक उपयुक्त नहीं है, अँग्रेजी का स्टेमना अधिक उपयुक्त सटीक एवं सार्थक है। वह जो किसी शायर ने कहा था-‘सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ’ तो उसका संकेत निश्चित रूप से अस्पताल की ओर ही था और सैर से उसका मतलब भ्रमण नहीं था, जनरल वार्ड की शय्या से ही था। तो शायर कहना चाहता था कि यदि आपने किसी अस्पताल के जनरल वार्ड में दो-चार दिन रहकर दुनिया की सैर नहीं की है तो समझ लीजिए, आपने कुछ नहीं किया।

जिस प्रकार डॉक्टरों में विविध रोग विशेषज्ञ होते हैं ठीक उसी प्रकार मरीजों में भी अस्पताल विशेषज्ञ होते हैं। वे जानते हैं कि अस्पताल तक जाने, डॉक्टर तक पहुँचने तथा इलाज करवाने की सबसे बढ़िया विधि क्या है ? इसलिए हमारी सलाह है कि आप जब भी बीमार हों, इन सिद्धहस्थ अस्पतालों विशेषज्ञों की सेवाएँ अवश्य प्राप्त करें।
हम सोचने लगे हैं कि अस्पतालों के गुण अवगुण की जाँच अवश्य होनी चाहिए, सो हमने आज कुछ अस्पताल विशेषज्ञों को आमंत्रित किया है, ताकि हम और आप उनके अनुभवों के लाभ उठा सकें और जान सकें कि सुनी-सुनाई और अनुभव की हुई में क्या अंतर होता है।

चिकित्सा जगत् की विसंगतियों का पर्दाफाश करते ये व्यंग्य आपको भोगे यथार्थ का परिचय कराएँगे और तब आप इनकी धार से घायल होने का मात्र अभिनय नहीं कर पाएँगे।

भूमिका
कुछ अस्पताल विशेषज्ञ


अस्पताल हो और वह भी सरकारी, तो उसका अपना अलग ही एक आनंद है। बस, शर्त यह है कि आपमें इस अद्भुत पर्यटन स्थल में आनंद लेने की क्षमता हो। ‘क्षमता’ शब्द हमारे विचार में यहाँ अधिक उपयुक्त नहीं है, अंग्रेजी का शब्द ‘स्टैमना’ अधिक सटीक एवं सार्थक है। वैसे भी आज हमारी भाषा को उस विदेशी ठप्पे के इंजिन की भाँति होना चाहिए, जिसमें कुछ देशी, कुछ विदेशी पुरजे जुड़े रहते हैं; और जिसके टिकाऊ होने की गारंटी उपभोक्ताओं को नि:शुल्क दी जाती है। जब से भारत सरकार ने अपनी नई आर्थिक नीतियों के अंतर्गत विदेशी पूँजी के लिए अपने द्वार खोलने की उदारता दिखाई है, भाषा में भी, ‘खुलेपन’ को समय की आवश्यकता मानकर स्वीकार किया जा रहा है। क्योंकि यदि ऐसा न किया गया तो खतरा है कि हम भाषा के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ जाएँगे और जब पिछड़ जाएँगे तो विकसित देशों के पिछलग्गू नहीं बन सकेंगे, और जब पिछलग्गू नहीं बन सकेंगे तो पछताने के अलावा और कोई ढंग का काम नहीं कर सकेंगे। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम यहाँ क्षमता की जगह ‘स्टैमना’ शब्द प्रयोग करें और कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा लेकर भानमती का कुनबा जोड़ने का प्रयास करें, क्योंकि अस्पताल भी, दरअसल एक तरह के भानमती के कुनबे ही हैं, जो भांति-भांति के प्राणियों को अपने प्रांगण में लिये दुनिया का वास्तविक चित्र हमारे सामने पेश करते रहते हैं। वह जो किसी शायर ने कहा था-‘सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ,’ तो उसका संकेत स्पष्ट रूप से अस्पताल की ओर ही था। दुनिया से उसका अभिप्राय था सरकारी चिकित्सालय। और सैर से उसका मतलब भ्रमण नहीं था, जनरल वार्ड की शय्या से था। आप इसे बेड भी कह सकते हैं, क्योंकि भाषायी इंजिन में विदेशी पुरजे जोड़ने की मजबूरी जो है हमारी-आपकी। तो शायर कहना चाहता था कि यदि आपने किसी अस्पताल के जनरल वार्ड में दो चार दिन बेड पर लेटकर दुनिया की सैर नहीं की, तो समझ लीजिए कि आपने कुछ नहीं किया। न दुनिया को देखा, न समझा, न परखा। बस, जीवन-भर यह कहावत सिद्ध करते रहे-

खिचड़ी खाई दिन बहलाए,
लौट के बुद्धू घर को आए।

वैसे खिचड़ी का मजा भी अस्पताल के जीवन ही में है। घर पर वह भी नहीं। वहां जो खिचड़ी पकती है, उसकी बात ही और है। मान लीजिए कि आप ‘अतिसार’ से पीड़ित हैं और ज्यों-त्यों करके किसी-न-किसी तरह अस्पताल की भीड़ में से अपना रास्ता बनाते हुए डॉक्टर तक पहुँचने में सफल हो गए और डॉक्टर के अधरों से यह शब्द सुनने तक जीवित रह गए कि ‘यह गोली खाओ और खिचड़ी खाओ’ तो समझ लीजिए कि आप दुनिया के उन गिने-चुने भग्यवानों में से हैं, जिन पर भगवान की विशेष कृपा होती है। अब यह बात और है कि गोली के नाम पर आपके हाथ में केवल एक परची है और खिचड़ी के नाम पर परमपिता परमेश्वर का नाम। क्योंकि बाजार से गोली और बनिए से खिचड़ी लेने तक आप कहाँ होंगे, इस लोक में या उस लोक में, कोई नही जानता। डॉक्टर तक पहुँचने, परची लेने और घर लौटने तक आप पाएँगे कि आप अपने परमप्रिय जीवन का एक-तिहाई भाग अस्पताल की भेंट चढ़ा चुके हैं और अब स्वयं उसकी भेंट चढ़ने ही वाले हैं।

अस्पतालों में प्राय: दो प्रकार के रोगी पाए जाते हैं। एक इनडोर, दूसरे आउटडोर। क्षमा कीजिए, भाषा के देशी इंजिन में अब फिर विदेशी पुरजे जोड़ने की मजबूरी आ पड़ी है। सो इन दोनों ही श्रेणी के रोगियों में एक विशेषता समान है। प्रतीक्षा करते रहने की असीम शक्ति। आप बेड पर हों या पंक्ति में, यदि आप प्रतीक्षा नहीं कर सकते तो अस्पताली जीवन का आनंद भी नहीं ले सकते। हमारा विचार है कि दुनिया के किसी बड़े-से-बड़े प्रेमी ने अपनी प्रेयसी का इतना इंतजार शायद ही कभी किया हो, जितना अस्पताल का रोगी कभी डॉक्टर और कभी नर्स के दर्शन के लिए करता है। वह अकसर अपने धैर्य की परीक्षा देता रहता है। यह प्रतीक्षा उस समय महंगाई की तरह छलाँग लगाकर और चार हाथ आगे बढ़ जाती है, जब कोई किस्मत का मारा रोगी अपने आपको आउटडोर से इनडोर पेशेंट में परिवर्तित करने का मन बना लेता है। उसे बेड पाने के लिए पहले अपना नाम वेटिंग लिस्ट में अंकित कराना होगा और फिर यमदूत से हाथ जोड़कर प्रार्थना करनी होगी कि वह कृपा करें और किसी भले-चंगे रोगी को जीवन से छुटकारा दिलाकर एक अदद बेड खाली दें। वैसे यह काम यमदूत से बेहतर डॉक्टर भी अंजाम दे सकते हैं। जैसे ही बेड खाली होगा, आप कुछ-न-कुछ तिकड़म करके आउटडोर से इनडोर पेशेंट बनकर चैन की बंसी बजा सकते हैं। चैन की यह बंसी पहले आप बजाएँगे और फिर हमेशा के लिए आपसे छुटकारा पाने वाले आपके परिवारीजन।

हमारे एक मित्र हैं, जो आत्महत्या करनेवालों को कायर नहीं, मूर्ख मानते हैं। उनका कहना है कि सलफास खाकर या फांसी के फंदे से लटककर जान देना तो सबसे बड़ी मूर्खता है। बीमार बनो, अस्पताल जाओ और सदा-सदा के लिए छुट्टी पाओ। न कानून का लफड़ा न पोस्टमार्टम का झंझट। आप मरना चाहते है तो अस्पताल पहुंच जाइए। आप मारे जरुर जाएंगे, चाहे बिन मौत के मारे जाएँ। अपने मित्र के इस कथन में हमें ईमानदारी कुछ कम ही दिखाई देती है। लेकिन इतनी बात जरूर सच है कि यदि आप जीवन को भागते भूत की लँगोटी की तरह झपट लेना चाहते हैं तो अस्पताल में इसके लिए आपको कुछ दान-दक्षिणा और कुछ भेंट-पूजा करनी ही पड़ेगी। सब जानते हैं कि खाली हाथ मुँह तक नहीं जाता। जब यह हाथ डॉक्टर का हो और खाली हो तो फिर वह आपकी नाड़ी तक क्यों जाएगा आप खुद ही ठंडे दिल से सोचकर फैसला करें।
वैसे हम कोई अस्पताल विशेषज्ञ नहीं है। किंतु जानते हैं कि जिस प्रकार डॉक्टरों में हृदय रोग विशेषज्ञ, दंतरोग विशेषज्ञ, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ, हड्डी रोग विशेषज्ञ आदि-आदि होते हैं, ठीक उसी प्रकार मरीजों में बहुत से अनुभवी अस्पताल रोग विशेषज्ञ भी होते हैं। ऐसे सज्जन जानते हैं कि अस्पताल तक जाने, डॉक्टर तक पहुँचने, इलाज करवाने की सबसे बढ़िया विधि क्या है। यदि आपने उनकी सेवाएँ प्राप्त नहीं की तो समझ लीजिए कि आपने अस्पतालों के स्वर्ग का दरवाजा गोदरेज का ताला लगाकर अपने लिए बंद कर लिया। तब आप रोगियों की भीड़ में यों घुसेंगे, जैसे मेले में भटका हुआ यात्री। इसलिए हमारी सलाह है कि जब भी आप बीमार हों, इन सिद्धहस्त अस्पताल विशेषज्ञों की सेवाएँ जरूर लें।

हमारा एक मत यह भी है कि पुराने रोगियों को, जहाँ तक संभव हो, इनडोर पेशेंट ही बनना चाहिए, आउटडोर नहीं; क्योंकि आउटडोर तो किसी भी समय आउट हो सकता है, या किक-आउट किया जा सकता है, पर इनडोर नहीं। आप मानें या न मानें, लेकिन वास्तविकता यह है कि जिस तरह पुराने अपराधियों के लिए अस्पताल का फ्री बेड सबसे बढ़िया जगह है। इस सिद्धांत को मानते हुए यह नुगता भी ध्यान में रखना चाहिए कि जिस प्रकार जेल से कुछ दिन के लिए छूटनेवाला पुराना अपराधी समाज के लिए मृतप्राय होता है, ठीक इसी तरह पुराना मरीज अगर अस्पताल से छुट्टी पाकर बाहर आ जाए तो वह स्वयं अपने लिए मृतप्राय होता है। इसलिए जहाँ तक संभव हो, पुराने रोगियों को अस्पताल का बेड उस समय तक घेरकर रखना चाहिए, जब तक अस्पताल का पचपन वर्षी ‘वार्ड-ब्वाँय’ उनकी ठंडी देह को खींचकर शवगृह की शोभा न बना दें। कई जानकारों का यह भी कहना है कि अगर कोई रोगी कारोबारी प्रवृत्ति का है तो उसे अपना ‘बेड’ पगड़ी पर उठाने की बिलकुल वैसी ही सुविधा है, जैसी किसी किराएदार को अपना मकान सबलैट करने की। हम नहीं जानते कि अस्पताल बेड के लिए होनेवाली ‘पगड़ीबाजी’ में कितनी सच्चाई है, क्योंकि जब से भारत की आधुनिक सभ्यता ने पुराने ढंग की सम्मानसूचक पगड़ी को धता बताई है, हमने विभिन्न प्रकार की पगड़ियों के बारे में सोचना ही छोड़ दिया है। अब हम न किसी से पगड़ी लेते हैं और न किसी को पगड़ी देते हैं।

अस्पताल की बात कलम से कागज पर उतर ही रही थी कि अचानक हमारे एक मित्र आ धमके। हमने उनकी ओर देखा तो लगा, बहुत खीजे हुए हैं। हमने हाल पूछा तो बोले, ‘‘भई अस्पतालों का हाल इन दिनों जितना खराब हुआ है, शायद ही पहले कभी हुआ हो-’’ हमने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा कि, ‘‘श्रीमानजी, हम तो आपका हाल पूछ रहे थे, अस्पताल का नहीं। लगता है, आपने गलत सुना।’’ फट ही तो पड़े यह सुनकर हमारे मित्र। बोले-‘‘अरे भैया, अस्पताल के हाल से जुड़ा है हमारा हाल। जब तक अस्पताल का हाल नहीं जानोगे, तब तक हमारा हाल कैसे जान पाओगे ?’’
हमने सावधान होकर उनकी ओर देखा। हम प्रतीक्षा करने लगे कि अस्पताल के माध्यम से वह कब अपना हाल या विवरण देने पर आते हैं। इससे पहले कि हम कुछ पूछते, वह खुद ही बोले-‘परसो हमारे मित्र के संबंधी का मर्डर हो गया। कल सुबह उसका शव करीब के जंगल में पड़ा मिला।’’

वह कुछ रुककर बोले-‘‘पुलिस के घटनास्थल पर पहुँचने, लाश को अपने कब्जे में लेने, पंचनामा भरने, शव को सील करने, रिपोर्ट दर्ज करने, मृतक का रक्त और घटनास्थल की मिट्टी सील करने जैसे बहुत से कामों में काफी समय लग गया। पुलिस से संबंधित औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद जब मृतक का शव पोस्टमार्टम घर तक पहुँचा तो दोपहर का एक बज चुका था। हम भागे-भागे अस्पताल पहुंचे और काफी दौड़-धूप करने के बाद यह पता लगाया कि पोस्टमार्टम के लिए किस डॉक्टर की ड्यूटी लगी है आज ज्ञात हुआ, ड्यूटी हमारे मित्र डॉक्टर भट्ट की है। डॉक्टर भट्ट को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बस यों समझ लीजिए कि हमारा भट्ठा बैठने लगा। कभी पता चलता, वार्ड में हैं कभी कोई कहता, सी.एम.ओ. ऑफिस में है। जब भागते-भागते थक गए तो ज्ञात हुआ कि अभी-अभी लंच के लिए घर गए हैं। हम भागे, ताकि डाइनिंग टेबल पर जाने से पहले-पहले उन्हें दबोच लें। सो हमने उन्हें कोठी में घुसते हुए घेर ही लिया। पहले तो गुर्राए, बाद में शिकार को देखकर भाँप गए। ढीले पड़ गए। बोले-‘कैसे आना हुआ इस समय ?’

‘‘हमने अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा, ‘शव पोस्टमार्टम के लिए तैयार है। हम चाहते हैं कि तीन बजे तक काम निपट जाए तो दिन-दिन में मृतक का दाह-संस्कार हो जाए।’ अत्यंत रुखाई से बोले डॉक्टर भट्ट, ‘यह कैसे हो सकता है जी असंभव, बिलकुल असंभव। खाना खाकर थोड़ा आराम करूँगा। आते-आते पाँच तो बज ही जाएँगे। दो घंटे तो चीर-फाड़ करने और रिपोर्ट तैयार करने में लग ही जाते हैं।’
‘‘हमने सुना तो पसीने छूट पड़े। इसका मतलब था, शव को रात-भर रखना पड़ेगा। कल सुबह कहीं जाकर दाह-संस्कार होगा। हमने पुन: अपने मित्र डॉक्टर भट्ट से प्रार्थना की। पहले वह कुछ देर सोचते रहे, फिर पूछा-‘एक्सप्रेस सर्विस चाहिए ? हमने कहा, ‘हाँ जी।’

‘‘एक्सप्रेस गाड़ी का टिकट ज्यादा लगता है, लगता है कि नहीं ? कभी बैठे हो किसी एक्सप्रेस ट्रेन में ?’ डॉक्टर ने कई सवाल एक साथ खींच मारे। हमने सहमति में सिर हिलाया तो बोले, ‘एक्सप्रेस सर्विस का टिकट लगेगा।’ हमने कहा-‘मुरदे का मामला है, डॉक्टर साहब!’ यह सुनकर डॉक्टर खीज गया। बोला-‘मुरदे का नहीं, मामला जिंदे का है। सुविधा तो जिंदे को चाहिए, मुरदे को नहीं। और यह कहकर डॉक्टर ने अपने हाथ की पहली उँगली उठाई। हमने सौ रुपए निकालकर एक्सप्रेस सर्विस का टिकट खरीदा और पोस्टमार्टम घर आए।’ इतना कहकर हमारे मित्र ने पूछा-‘देखा आपने, कितना खराब हाल हो गया है अस्पताल का-जिंदा तो जिंदा, मुरदे को भी नहीं छोड़ते।’

अपने मित्र की दु:खद कहानी सुनकर हमारा दिल पसीजा ! लेखनी तो उनके आते-आते पहले ही रुक गई थी। अब हम सोचने लगे कि अस्पतालों के गुण-अवगुण की जाँच अवश्य होनी चाहिए। सो हमने कुछ अस्पताल विशेषज्ञों को आमंत्रित करने का निश्चय किया, ताकि आप और आप जैसे अन्य लोग उनके अनुभवों का लाभ उठा सकें और जान सकें कि सुनी-सुनाई और अनुभव की हुई में क्या अन्तर होता है।

-गिरिराजशरण अग्रवाल

एक अस्पताल यह भी
ईश्वर शर्मा


पूरा देश अस्पताल का ही विस्तृत संस्करण है। मरीज अपनी समस्याएँ लेकर आते हैं। डॉक्टरों की लापरवाही और आपसी खींचतान से मर्ज दूर होने के बजाय बढ़कर नासूर हो जाता है।
डॉक्टरों की प्रतिष्ठा के अनुरूप रोग भी गंभीर हो जाता है। मेरे एक मित्र को हलकी-सी सर्दी-खाँसी हुई। उसने मोहल्ले के एक साधारण डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने दो-चार टेबलेट दीं और मर्ज ठीक हो गया। एक अन्य परिचित को वैसी ही सर्दी-खांसी हुई। वह एक प्रतिष्ठित चिकित्सक के पास चला गया। डॉक्टर को मर्ज और मरीज से अधिक अपनी प्रतिष्ठा का खयाल रखना पड़ता है वह भी यदि दो-चार टेबलेट देकर समस्या दूर कर देता तो उस साधारण डॉक्टर और उसमें क्या फर्क रह जाता।

ख्यातिप्राप्त डॉक्टर ने अपने मरीज के इलाज में अपनी प्रतिष्ठा का पूरा खयाल रखा। इलाज से पहले मर्ज की जड़ तक पहुँचने की कोशिश की। थूक, पेशाब, खून की अलग-अलग जाँच और छाती का एक्स-रे करवाकर टी.बी. जैसी गंभीर बीमारी के लक्षण न होने की तसल्ली कर ली। तब कहीं जाकर एक सप्ताह बाद गर्वपूर्वक मरीज से कहा-चिंता की कोई बात नहीं। साधारण खांसी, सर्दी हैं। एक-दो दिन में ठीक हो जाएगी।
फिर भी मरीज को चिकित्सक की प्रतिष्ठा के अनुरूप दवाइयाँ लेनी पड़ीं। इंजेक्शन तो वहीं लगा दिया गया। कैप्सूल और पीने की दवाओं की लंबी परची का भुगतान अलग करना पड़ा। डॉक्टर की घोषणा के अनुसार मर्ज से एक-दो दिन में आराम हो गया। डॉक्टर की ख्याति और बढ़ गई।
सही चिकित्सक साधारण-से-साधारण मर्ज में भी गंभीर लक्षणों की संभावना का ध्यान रखते हैं। मर्ज दिखने में कितना ही साधारण हो, उसकी जड़ें खोजने की कोशिश करते हैं।

यही हो रहा है देश में।
ग्रामीण भैयाजी के पास आते हैं। कहते हैं-‘‘गाँव तक सड़क नहीं बनी है। बड़ी अड़चन होती हैं।’’
भैयाजी पूछते हैं-‘‘गाँव कितने सालों से हैं ?’’
ग्रामीण बताते हैं-‘‘पुरखों के जमाने से बना हुआ है, सरकार।’’
भैयाजी आश्वस्त हो जाते हैं। वे जड़ें खोजते हैं-फिर इतने सालों से सड़क क्यों नहीं बनी ? जरूर कोई गंभीर कारण है।
ग्रामीण चिंतित होकर कहते हैं-‘‘ऐसी बात नहीं है, सरकार ! कोई ध्यान ही नहीं देता। जो भी आते हैं, उनके पास हम अपनी गुहार लगाते हैं।’’
भैयाजी और अधिक निश्चिंत हो जाते हैं। कहते हैं-हूँ...अलग-अलग लोगों से इलाज करवाओगे तो रोग कैसे ठीक रहेगा ! मेरे पास अब आए हो जब समस्या बढ़ गई है। इतने साल की समस्या ठीक होते भी अब समय लगेगा।
भैयाजी ने मर्ज की जड़ तक पहुँचने के लिए क्लिनिकल इनवेस्टीगेशन शुरू किया-
‘‘गाँव में कितनी जनसंख्या है ?’’

‘‘लगभग एक हजार, सरकार !’’
‘‘कौन-कौन सी जाति के लोग रहते है ?’’
‘‘ज्यादा करके हरिजन आदिवासी, हुजूर ?’’
‘‘वोट किसको देते हो ?’’
‘‘जो मांगने आता है, उसी को दे देते हैं, सरकार !’’
‘‘तभी मर्ज गंभीर हो गया है। लंबा इलाज करना पड़ेगा।’’
लंबा इलाज शुरू हो गया। खून, पेशाब के परीक्षण का दौर प्रारंभ हुआ। भैयाजी ने कहा-‘‘पंचायत, चुनाव में हमारे आदमी का साथ दो, रोड बन जाएगी।’’
भैयाजी का उम्मीदवार जीत गया।
फिर सहकारी संस्थाओं का चुनाव सामने आ गया। और फिर संगठन के चुनाव आ गए। परीक्षण चलता रहा। मर्ज गंभीर होता गया।

कई वर्षों बाद ग्रामीण फिर भैयाजी के पास आए। वही बीमारी-‘‘सड़क अब तक नहीं बनी, सरकार !’’
भैयाजी के चेहरे पर आंतरिक संवेदनाओं के भाव उतर आए। उन्होंने कहा-‘‘यह सड़क बननी ही नहीं चाहिए। सड़क बनने से आदिवासियों की मौलिक संस्कृति नष्ट हो जाएगी और उसे शहर की दूषित हवा लग जाएगी। शहरी सभ्यता से हमें आदिवासी संस्कृति को बचाए रखना है।’’
ग्रामीण अब किसी बड़े चिकित्सक की तलाश में हैं।
यह अस्पताल है। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल में लाया जाता है। मरीज अंतिम साँसें गिन रहा है। लोग चाहते हैं, तत्काल उपचार शुरू हो जाए।
चिकित्सक पूछता है-‘‘थाने में रिपोर्ट हुई या नहीं ?’’

लोग कहते हैं-‘‘थाने में रिपोर्ट भी हो जाएगी..पहले मरीज का इलाज शुरू करो।’’
चिकित्सक जवाब देता है-‘‘नहीं,...पहले थाने में रिपोर्ट करो। नियम से बाहर काम नहीं किया जाएगा।’’
मरीज तड़प रहा है। नियम आड़े आ गया है। इस देश में जब किसी समस्या को उलझाए रखना है, तो पच्चीसों नियम निकल आते हैं, जिन्हें सुलझाने में वर्षों लग जाते हैं। पहले नियम सुलझे, फिर समस्या सुलझेगी।
मुझे तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि नियम समस्याओं को उलझाने के लिए ही बनाए जाते हैं।

देश में बेरोजगारी, दहेज, गरीबी, महँगाई, अंत्योदय की समस्याओं के नियम अभी सुलझाए जा रहे हैं। कई समस्याएँ अभी परीक्षण के दौर से गुजर रही हैं। गोरखलैंड मर्ज की जड़ें, टटोलने का प्रयास हो रहा है। थूक, पेशाब, खून का परीक्षण जरूरी है। असम की समस्या बहुत क्रानिक थी। किसी तरह ऑपरेशन कर उलटे-सीधे टाँके लगा दिए गए हैं। मवाद अभी भी रिस रहा है। नगालैंड का मर्ज भी बढ़कर नासूर हो गया है। एक अंग काटकर मर्ज दूर करने का प्रयास किया गया है। कश्मीर में कई बार दवाइयाँ बदलने के बाद भी जब रोग दूर नहीं हुआ तो पेथेडीन का इंजेक्शन लगाकर मरीज को शिथिल कर दिया गया है। झारखंड समस्या, भाषा का मर्ज कैप्सूल दवाइयों में ही टल जाता है, लेकिन गंभीर मर्ज हो गया है पंजाब का।
मरीज ऑपरेशन टेबल पर लेटा हुआ है। कांग्रेस, भाजपा, जपा, लोकदल के चिकित्सक उसे घेरे खड़े हैं। चिकित्सक ऑपरेशन टेबल पर बहस में लगे हैं कि क्या उपचार किया जाए ?

एक चिकित्सक विरोध करता है-‘‘नहीं, इसमें खून अधिक बह जाने का खतरा है।’’
पहला कहता है-‘‘नहीं काटेंगे तो जहर पूरे शरीर में फैल जाएगा।’’
तीसरा कहता है-‘‘थोड़ा सा चीरा लगाकर मवाद निकाल दो और ड्रेसिंग कर दो।’’
चौथा कहता है-‘‘यह इलाज तो पहले भी कई बार हो चौथा कहता है-‘‘यह इलाज तो पहले भी कई बार हो चुका है..जख्म बढ़ता ही जा रहा है।’’
चिकित्सक एकमत नहीं हो पा रहे हैं। इलाज सभी चाह रहे हैं। लेकिन तय नहीं कर पा रहें है कि ऑपरेशन करके उस अंग को काट दें या प्रभावशाली दवाइयों की खुराक अभी देते रहें।
मरीज ऑपरेशन टेबल पर तेजी से तड़प रहा है। यही होता है अस्पताल में।


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