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राजनैतिक >> असत्यमेव जयते

असत्यमेव जयते

ज्ञान सी जैन

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :210
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2612
आईएसबीएन :81-7721-069-6

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प्रस्तुत है भविष्य के एक प्रधानमंत्री की आत्मकथा.....

Asatyameva Jayate a hindi book by Gyan Chandra Jain - असत्यमेव जयते (ज्ञान सी जैन)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत व्यंग्य उपन्यास असत्यमेव जयते भविष्य की एक प्रधान मंत्री की आत्म कथा है जो इस शक्ति शाली और वैभव-संपन्न पद तक पहुँचने और फिर इस पद से चिपके रहने से नाना प्रकार की घृणित चालबाजियों, हथकंडों तथा तिकड़मों व अनीतियों का सहारा लेता है। यह उपन्यास भारतीय राजनीति के भविष्य की एक पूर्वाभास है। हालाँकि लेखक ने इसके कथानक को सन् 2010 से 2020 तक के काल में ही दृश्यबद्ध किया है, परन्तु इसका आरंभ तो अभी से हो चुका है। वर्तमान में राजनीतियों के व्यवहार एवं चरित्र में यह साफ दिखाई देता है।

इसकी कथा वस्तु व्यंग्यात्मक तथा कटु सत्यों पर आधारित, मन-मस्तिष्क को कचोटनेवाली एवं हास्यपूर्ण है। कथानक के पात्र, स्थान एवं घटनाक्रम-सभी कल्पना पर आधारित हैं। इसमें हमारे देश की वर्तमान राजनीति के रंग रूप का जीवन्त, परन्तु काल्पनिक व्यंग्यात्मक चित्रण हैं। परोक्ष रूप से इसमें अनेक गंभीर मुद्दे उठाए गये हैं, जैसे-राजनीतिक दलों की अधिक संख्या दल-बदल, अनगिनत समितियों का गठन, राजनीति पर अपराधीकरण, नेताओं तथा सरकारी अफसरों की बे-लगाम विदेशी यात्राएँ, सार्वजनिक धन की बरबादी, धर्मनिरपेक्षता की छद्म व्याख्या आदि।
यह व्यंग्य उपन्यास मनोरंजन के साथ-साथ पाठकों के मन-मष्तिष्क में विभिन्न प्रकार के प्रश्नों की फसल उगाकर उन्हें सोचने के लिए विवश भी करता है।


भूमिका


प्रस्तुत उपन्यास ‘असत्यमेव जयते’ महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘माई एक्सपेरीमेंट्स विद ट्रुथ’ (सत्य के साथ मेरे प्रयोग) का सुखद स्मरण करवाती है। यह समानता उपन्यास के नाम तक ही सीमित है। आगे इसकी परस्पर तुलना की कोई संभावना नहीं है।

इस उपन्यास के लेखक पद्मश्री ज्ञान चंद जैन पेशे से एक पुराने अनुभवी इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर हैं। विगत चालीस वर्षों में इन्होंने इलेक्ट्रॉनिकी व टेक्नोलॉ़जी पर अनेक पुस्तकें लिखी तथा प्रकाशित की हैं, जो लोकप्रिय भी हुई हैं। इसके अतिरिक्त जीवन, रहन-सहन, प्रेम, शिक्षा विवाह, प्रबंध विज्ञान तथा अन्य विभिन्न रुचिकर विषयों पर भी इनके द्वारा शब्दबद्ध, अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। प्रस्तुत पुस्तक इनके व्यक्तित्व का एक नया आयाम पाठकों के समक्ष प्रदर्शित करती है। पुस्तक की विषय-वस्तु से अलग इनका चेहरा एक संवेदनशील नागरिक के रूप में उभरकर सामने आता है, जिस पर मातृभूमि की वर्तमान शोचनीय स्थिति से उत्पन्न व्यथा और क्षोभ की गहरी छाप है।

पुस्तक की कथावस्तु वर्तमान राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य का जीता-जागता परंतु काल्पनिक व्यंग्यात्मक वर्णन है। यह ‘दीन’ नामक एक भारतीय युवा की आत्मकथा है। अभावों से घिरे परिवार में ‘दीन’ प्रधानमंत्री बनने की इच्छा सँजोए हुए है।

इस उपन्यास में लेखक निकट, अतीत तथा आज के कुछ बहुचर्चित समझे जानेवाले राजनीतिज्ञों का सजीव चित्रण करने में अत्यंत प्रशंसनीय ढंग से सफल हुए हैं। किसी जीवित व्यक्ति की संवेदनशीलता पर प्रहार न हो इसके प्रति सचेत रहकर और कानून के दायरे का पालन करते हुए इन्होंने अपनी पुस्तक के कथानक को भविष्य के सन् 2010-2020 के मध्य घटित होनेवाली घटनाओं पर आधारित किया है। इसके अतिरिक्त इन्होंने यह भी सूचित कर दिया है कि कथा के पात्र काल्पनिक हैं तथा उनका जीवित या मृत, किसी व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है।
लोकतंत्र में इससे अधिक दूसरी पीड़ादायी स्थिति और क्या हो सकती है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अपने आचरण के कारण जनता के बीच अपनी प्रतिष्ठा स्वयं ही खो बैठते हैं। राजनीतिज्ञ भी इस तथ्य को नहीं झुठला सकते कि हाल के कुछ वर्षों में जनता के बीच उनकी प्रतिष्ठा को काफी गहरा आघात लगा है।

आज की राजनीति किसी भी दृष्टि से त्याग तथा लोक सेवा से प्रेरित नहीं है। यह आज धंधा बन चुकी है। आज चारों ओर नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, संस्थाएँ छिन्न-भिन्न हो रही हैं तथा सामाजिक शिष्टाचार के मानदंडों में गिरावट आ गई है। वैसे, इन सभी सामाजिक बुराइयों के लिए केवल राजनीतिज्ञों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा। बुराइयों की जड़ें गहरी हैं-सभी व्यवसायों तथा वर्गों के लोग न्यूनाधिक रूप में इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसमें हम और आप भी हैं। हमें अपना सिर इस बात के लिए शर्म से झुका लेना चाहिए कि देश के युवाओं के समक्ष ऐसे झूठे आदर्श हमने पेश किए हैं। अपनी वर्तमान लालच और विलासिता की तुष्टि के लिए हमने भावी पीढ़ी का भविष्य दाँव पर लगा दिया है।
पुस्तक में सभी हास-परिहासों के प्रसंगों के बीच कहीं न कहीं लेखक की संवेदनशीलता तथा मौलिक व्यथा भी व्याप्त है। यदि लेखक ने किसी वास्तविकता को तीखी स्पष्टवादिता तथा व्यंग्योक्तियों के सहारे प्रस्तुत किया है तो यह उनकी गंभीर चिंताओं का परिणाम है।

श्री जैन ने परोक्ष रूप में अनेक गंभीर मुद्दे उठाए हैं, जैसे-राजनीतिक दलों का बाहुल्य दल-बदल अनगिनत समितियों का गठन, ‘धर्मनिरपेक्षता के नारे के सहारे वोट बटोरने की साजिश, राजनीति का अपराधीकरण, राजनीतिज्ञों और सरकारी अफसरों की बेलगाम विदेश-यात्राओं पर होनेवाली सार्वजनिक धन की बरबादी तथा इन सबके अतिरिक्त हमारे आपके बीच की सामाजिक विसंगतियाँ।
पाठकों को आद्यंत बाँधे रखने की अपूर्व क्षमता इस उपन्यास के कथानक में है। पाठकों के मन मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के प्रश्नों को जन्म देकर उन्हें सोचने के लिए भी यह मजबूर कर देता है। संपूर्ण पुस्तक में प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रांसगिक उद्धरण भी उल्लिखित हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि पुस्तक सभी पाठकों के लिए रुचिकर सिद्ध होगी।

डॉ. सुभाष सी. कश्यप
पूर्व महासचिव, लोकसभा;
सदस्य, संविधान-पुनरीक्षण राष्ट्रीय आयोग


1
मेरा आरंभिक जीवन



यह कहानी है शून्य, अर्थात् बेकारी से आरंभ होकर भारत का शासक बनने तक की। एक विचित्र ऐतिहासिक सफलता की दास्तान। भाग्य की देवी मुझपर इतनी अधिक प्रसन्न हुईं कि मैं शोहरत, धन और सत्ता की ऊँचाइयों पर चढ़ता चला गया। दूसरे शब्दों में-ख्याति और सत्ता प्राप्ति दोनों ही दृष्टियों से मैं अत्यंत भाग्यवान् सिद्ध हुआ। वैसे, सचाई यह है कि मैं निकम्मा तथा काहिल था। भाग्य के विचित्र खेलों ने मेरे सभी स्वप्नों को यथार्थ की कड़ी में पिरो दिया। भाग्य ने मेरे घर के द्वार खटखटाए और मुझे भारत का शासक बना दिया। भाग्य के घूमते चक्र ने मुझे कूड़े के ढेर पर से उठाकर इस महान् पद पर पहुँचा दिया, वह भी लेशमात्र परिश्रम किए बिना।

मेरी कहानी अत्यंत अनूठी और अतुलनीय है। अपने कुछ मित्रों के जोर देने पर मैंने अपना पूरा वृत्तांत लिखने का निश्चय किया है, ताकि अन्य महात्वाकांक्षी लोग, जो अपने ‘सौभाग्य’ से मूर्ख भी हैं और अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विफल हो चुके हैं, मेरे वृत्तांत से कुछ लाभ उठा सकें और किसी प्रकार की चाकरी किए बिना इस महान् देश की राजनीति के शिखर पर पहुँचने में सफल हो सकें। बहुत पहले जनमे मलूकदास नामक कवि आखिर गलत थोड़े ही कह गए हैं-


अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।


प्रारंभ में मैं एक साधारण सा व्यक्ति ही था, जिसका कोई उज्जवल भविष्य नहीं था। न तो मैं महान् लोगों के घर में पैदा हुआ था और न ही मैंने किसी योग्यता या परिश्रम के बलबूते महानता हासिल की थी। ऐसा भी नहीं था कि मेरे माता या पिता के स्वर्गवास के बाद महानता मेरे ऊपर थोपी गई हो। मेरा तो विवाह भी किसी महान् परिवार में नहीं हुआ था। फलतः मैं महानता के इस अंतिम मापदंड से वंचित रह गया था। मैं तो अत्यंत साधारण व्यक्तियों से भी गया-गुजरा था। फिर भी, महत्त्वपूर्ण और मशहूर बन जाने का लोभ मुझमें तब तक हिलोर मारता रहा, जब तक भाग्य की देवी ने मुझे सचमुच महान् नहीं बना दिया।

मुश्किल से अपना गुजर बसर कर पाने के बावजूद मैं भारत का प्रधानमंत्री बनने की कल्पना में हमेशा खोया रहता था। मैं चाहता था कि प्रधानमंत्री नहीं तो कम से कम मंत्री तो बन ही जाऊँ, ताकि जनता के खर्चे पर एक विशाल कोठी में खूब ठाठ-बाठ और तड़क भड़क से रह सकूँ। वास्तविकता तो यह थी कि यह सोचते रहने और खयाली पुलाव बनाते रहने के अलावा मैंने इसके लिए किसी प्रकार का कोई प्रयत्न कभी किया नहीं। ‘मुझे एक बड़ा आदमी बनना ही चाहिए’-ऐसा मैं हमेशा सोचता रहा, मगर इस विचार का कारण क्या था, इसका स्पष्ट ज्ञान मुझे नहीं है। इन इच्छाओं का जन्म कब, कैसे और क्यों हुआ, इसका पता लगाने के लिए तो एक आयोग बैठाना बेहतर होगा। इतने आयोगों के बीच वैसे एक और सही। क्या फर्क पड़ता है।

रोजमर्रा की जिंदगी के झंझटों से बचना मेरे लिए संभव नहीं था, वरना मैं तो उन लोगों में से था, जो अपने हाथ-पैरों को हिलाना भी गुनाह समझते हैं। मैं पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ता था, उन्हें पढ़ते समय मेरे कलेजे में हूक उठती थी कि जब हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे का नाम इनमें छपता है तो मेरा क्यों नहीं छप सकता ? इसीलिए मैं चाहता था कि मेरा भी नाम और फोटो इन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो। इस इच्छा ने महान् बनने की मेरी महाकामना को हमेशा जगाए रखा। अपनी कल्पना की इस जबरदस्त उड़ान में मैं हमेशा यहाँ तक कल्पना करता रहता था कि मेरे चारों ओर सुरक्षा गार्ड खड़े हैं और मैं अपने मित्रों तथा संबंधियों से घिरा हुआ हूँ। न जाने कितने लोग दर्शनों के लिए मेरे इर्द गिर्द मक्खियों की तरह मँडरा रहे हैं। मेरी कल्पना की उड़ान यहीं नहीं थमी। मैंने मान लिया कि मैं बड़े आराम और ऐश्वर्य (ऐश्वर्य रॉय नहीं) के साथ एक सरकारी आवास में फोकट में रह रहा हूँ, जहाँ हर सुविधा है-वातानुकूलित कमरे हैं, मुफ्त टेलीफोन हैं, अधीनस्थ कर्मचारी हैं और साथ ही ढेर-सी ऐसी आमदनी भी है, जिस पर मुझे आय-कर नहीं देना पड़ता।

और तो और, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा समाचार चैनलों के कई पत्रकार और कैमरामैन मुझसे मिलने के लिए प्रतीक्षारत एवं आतुर रहते हैं।
चलिए मैं शुरू करता हूँ अपने स्कूली दिनों से। पढ़ाई-लिखाई का मेरा रिकॉर्ड तो काफी चर्चित था, इस मायने में कि मैं सामान्य विद्यार्थियों की श्रेणी में भी नहीं गिना जाता था। मैं तो उस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा था, जिसे कुछ ईर्ष्यालु लोग ‘गुंडा’ कहते हैं। परंतु यह ‘गुण’ भी मेरी भयानक प्रवृतियों की ओर झुकाव का लेशमात्र ही परिचय देता था। मैं तो स्कूल में, सड़कों पर और गलियों में होनेवाले झगड़ों में आगे बढ़कर भाग लिया करता था। अध्यापकों और विद्यार्थियों को आए दिन धमकाते रहना मुझे जरूरी सा लगता था, वरना मुझे पूछता ही कौन ! अपनी ‘ख्याति’ को सेहरा पहनाने के लिए यही कहना काफी होगा कि मैं सभी प्रकार की बदकारियों और कुकर्मों में इस तरह डूबा हुआ था कि जुआरियों, नशेड़ियों तस्करों आदि के गिरोह के किसी भावी नेता का भावी सहयोगी बनने की प्रतिभा मुझमें देखने लगे थे।

मेरे पिताजी एक निर्धन किसान थे। उन्होंने मुझसे बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँध रखी थीं। वह चाहते थे कि मैं किसी ऐसे लाभकारी सरकारी विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हो जाऊँ, जहाँ रिश्वत के रूप में मैं मोटी रकम पाऊँ, ताकि परिवार को पीस देनेवाली गरीबी को पाँवों तले रौंदा जा सके। वह मुझे अकसर इस बात पर लताड़ा करते थे कि मैं अपने कर्तव्य को भूलकर लड़ाई-झगड़ों (जिन्हें मैं ‘समाज-सेवा’ कहता था) में अपना समय बरबाद करता हूँ। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं एक कक्षा में आसानी से प्रवेश तो कर लेता था (क्योंकि स्कूल का प्रत्येक अध्यापक मुझसे भयभीत रहता था), लेकिन अन्य छात्रों की तरह मैं उसमें से सरलतापूर्वक निकल नहीं पाता था। फिर भी के.के.डी.पी. (खींच-खाँचकर दसवीं पास) हो गया।

उस वर्ष दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा थी। उसमें मेरे उत्तीर्ण होने की संभावनाएँ बहुत कम थीं; परंतु मेरा भाग्य देखिए, परीक्षा हॉल में परीक्षा निरीक्षक के रूप में जो शिक्षक तैनात किया गया था, वह मेरा रिश्तेदार निकला। बस, फिर क्या था ! उसने मुझे पुस्तकों के बल पर ‘जस देखा, तस लेखा’ के गुण का विकास करने की सुविधा प्रदान कर दी। इतना ही नहीं, जिन प्रश्नों के उत्तर मैं पुस्तकों में नहीं ढूँढ़ पाया उन उत्तरों को ढूँढ़ने में मेरी मदद भी की।
कुछ दिनों के पश्चात् स्कूल में अध्यापकों तथा विद्यार्थियों के विस्मय का ठिकाना नहीं रहा जब मैं माध्यमिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। मेरे पिताजी तो गाँव भर में मस्ती से नाचने लगे। वह मेरी सफलता पर बहुत प्रसन्न थे। मेरे भाइयों ने भी मेरी कुशाग्र बुद्धि की प्रशंसा के पुल बाँध दिए, क्योंकि भाइयों चाचाओं, भतीजों और दूसरे संबंधियों के एक विशाल परिवार में मैं अकेला ऐसा सदस्य था, जिसने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और वह भी प्रथम श्रेणी के लहराते अंकों से।

मेरे पिताजी इसलिए भी अत्यधिक प्रसन्न थे कि बुरी लतों के बावजूद मैं परीक्षा में प्रथम श्रेणी में आया था। मेरी माँ ने भी मेरी योग्यता पर गर्व जताया और मेरी भरपूर प्रशंसा की। मेरी रिकॉर्ड तोड़ सफलता से आनंदित होकर पिताजी ने मेरे आगे पढ़ने की इच्छाजाहिर की। हमारे गांव में तो कोई कॉलेज या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय था नहीं। इसलिए उन्होंने कुछ धन किसी से उधार लिया और पास ही के एक कस्बे में स्थित कॉलेज में मेरा नाम लिखवा दिया। उस कॉलेज में उच्चतर माध्यमिक स्तर की पढ़ाई भी होती थी।

बस, मुझे कॉलेज में प्रवेश करने भर की देर थी। मैं अपने पुराने असली रंग में आ गया। कॉलेज में होनेवाले सभी झगड़े-फसादों में मैं सबसे आगे रहता। एक बार तो ऐसा हुआ कि मैंने विद्यालय की कुछ छात्राओं पर गंदी फब्तियाँ कसीं और उनके साथ छेड़छाड़ की। इतना भी नहीं करता तो कॉलेज में आने का फायदा क्या होता ? कॉलेज के एक अध्यापक ने यह बात नहीं समझी। उन्होंने जब मेरे भद्दे व्यवहार के लिए मुझे डाँट पिलाई तो मैंने बजाय कुछ सबक सीखने के उस अध्यापक को ही दिन-दहाड़े वहीं पर ‘सबक’ सिखा दिया। बस, प्रधानाचार्य ने मुझे तुरंत कॉलेज से निष्कासित कर दिया। तब तो मेरे परिवार, खासकर मेरे पिताजी के दुःख का ठिकाना नहीं रहा, जब मैं वापस गाँव आ गया और अपने पुराने धंघों में लग गया।

मेरी इन हरकतों से मेरे पिताजी ताबड़तोड़ प्रयत्न करके मेरे लिए नौकरी खोजने में लग गए, ताकि मैं सुधर जाऊँ और अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करने लगूँ। तभी मेरा भाग्य दुबारा मुझपर मुसकरा उठा । मेरा पिताजी के दूर के रिश्ते के भाई, जो एक मशहूर शराब-तस्कर थे, मंत्री बन गए। मेरे पिताजी उनपर बार बार जोर देने लगे कि वह जल्दी मेरी नौकरी लगवा दें। अपने पिताजी के साथ जाकर मैं उस मंत्री चाचा से मिला। उन्होंने मेरे विषय में पूछताछ की और फिर मुझसे कहा कि मैं एक अदद बी.ए. की डिग्री हासिल करके उनसे दोबारा मिलूँ।

डिग्री हासिल करना मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल था। मैंने अपने कॉलेज के कुछ पुराने मित्रों से संपर्क किया। उन्हें सारी बात बताई तो उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति से मुझे मिलवा दिया, जो जाली डिग्रियों का धंधा करता था। मैंने उससे तीन हजार रुपए में बी.ए. (ऑनर्स) की डिग्री खरीद ली। मैं अत्यंत प्रसन्न था कि चलो, बिना पढ़े लिखे ग्रेजुएट बन गया। इस जाली डिग्री को लेकर मैं अपने मंत्री चाचा के पास पहुँचा। कई बार उनके पास जाकर बार बार कहने और प्रार्थना करने पर उन्होंने मेरी नौकरी डाकतार विभाग में क्लर्क के पद पर लगवा दी।


2
नौकरी डाकघर की



डाक विभाग में क्लर्क के पद पर नियुक्ति होते ही मेरा पद-स्थापन दिल्ली के एक डाकघर में कर दिया गया। वहीं से आरंभ हुआ मेरे कैरियर का सफर। उस गंदे अँधेरेनुमा डाकघर में बैठकर काम करने से मेरा जीवन मानो नीरस सा बन गया। जीवन की सभी खुशियाँ मानो छिन सी गईं। मेरा काम था दिन भर कांउटर पर बैठकर डाक-टिकटों की बिक्री करना, मनीऑर्डर लिखना और पंजीकृत डाक वसूलना। काउंटर के सामने लगी ग्राहकों की लंबी-लंबी पंक्तियां तो राशन की दुकान पर लगी पंक्ति की तरह बढ़ती ही जाती थीं और उनके साथ ही बढ़ती जाती थी। मेरी व्यथा। मैं करता भी क्या ? दक्षिणा (रिश्वत) आदि लेकर पुण्य कमाने या सरकारी बाबुओं के जन्मजात अधिकार का उपभोग करने, यानी आराम से कुछ घंटे गप हाँकने या पसरे रहने का अवसर भी नहीं मिलता था। हमारे डाकघर का पोस्टमास्टर किस्मत का मारा एक सच्चा और ईमानदार व्यक्ति था। लगभग प्रतिदिन वह मुझे डाँटता ही रहता कि मैं यहाँ वहाँ कई जगहों पर गलती करता रहता हूँ और डाकघर में आनेवाले ग्राहकों से किसी न किसी बहाने रुपए ऐंठने के चक्कर में भी रहता हूँ।

मेरी नौकरी सरकारी थी, लेकिन पुलिस विभाग की नौकरी की तरह असरकारी (प्रभावकारी) नहीं थी, रोब दाब नहीं था। फिर भी सुरक्षित थी। इसी सुरक्षा को देखते हुए मेरे पिताजी के पास मेरे लिए सैकड़ों रिश्ते आने लगे। ऐसे ही मेरे अभावी दिनों में एक भावी ससुरजी ने मुझसे एक प्रश्न सीधा पूछ ही लिया, ‘‘यह बताओ, हर महीने रिश्वत में कितना कमा लेते हो ?’’ मैं उनके इस प्रश्न से भौंचक्का रह गया और शरमाया भी; लेकिन लाचारी में ब्रह्मचारी बनना हम भारतवासियों की गौरवमयी परंपरा रही है। उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए मैंने कहा, ‘‘जी मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ। घूस नहीं लेता।’ बस, उन्हें तो मानो ग्यारह सौ वोल्ट का करंट लग गया। वह तुरंत ससुर नहीं, बल्कि असुर बनकर खड़े हो गए और मुँह में लिए समोसे का टुकड़ा थूककर बोले, ‘‘मैं अपनी बेटी को नरक में नहीं डालूँगा।’’ और फिर वे तुरत चले गए। वे तो चले गए। लेकिन ऐसे उच्चाकांक्षी लोग मेरे यहाँ आते रहे और मेरा सही उत्तर सुनकर वैसे ही निराश लौटते रहे।

मैं भी अब निराश हो चला था। सोचा कि मिथिला क्षेत्र में लगनेवाले दूल्हे के मेले में मैं भी आसन जमा दूँ, लेकिन फिर सोचा कि वहाँ मेरे सिर पर सेहरा बाँधनेवाला कोई मिल ही जाएगा-इसकी क्या गारंटी है। इसलिए मन मसोसकर बैठा रहा। खैर, यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं खिंची। मैंने शुरू में बताया है न कि भाग्य की देवी मुझ पर प्रसन्न रही हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। आखिरकार एक व्यक्ति अपनी पुत्री का विवाह मुझसे करने के लिए राजी हो गया, यह सोचकर कि मैं कम से कम नौकरी में लगा तो हुआ हूँ। बात यह थी कि उन सज्जन के चार शिक्षित पुत्र बिना किसी काम धंधे के घर मैं बैठे थे। इसीलिए उनका विवाह नहीं हो रहा था। नतीजा यह हुआ कि मेरा विवाह हो गया। लड़की का नाम था-रोटी देवी। रोजी तो पहले ही मिली हुई थी, अब रोटी भी मिल गई। इस प्रकार मैं उन सौभाग्यशाली युवा हिंदुस्तानियों में से एक हो गया, जिन्हें रोजी और रोटी दोनों मिल जाती हैं।

रोटी देवी मेरी पत्नी बनकर आई तो हैसियत के अनुसार अपने साथ दहेज भी ले आई। दहेज में जो अन्य चीजें थीं, सो तो थीं ही, एक स्कूटर भी था। स्कूटर मुझे बहुत पसंद था, क्योंकि इससे पहले मेरे पास थी केवल एक साइकिल और वह भी बीस वर्ष पुरानी। उसके ब्रांड का नाम था ‘रोड क्वीन’ अर्थात् ‘सड़क की रानी’, मगर वह इतनी घिसी पिटी थी कि सड़क की रानी मानकर उसे सड़क पर घिसने की बजाय मैंने उसे सड़क की नौकरानी मानकर घर के एक कोने में रख दिया।
घर के काम काज और फिर डाकघर में काम करने के बाद मैं बेहद थक जाता था। आप समझ लीजिए कि मेरा जीवन एकदम नीरस था। मनोरंजन करने का न मेरे पास कोई साधन था और न ही कोई अवसर की गाड़ी बस यों ही घिसट रही थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई इतनी भर ही होती कि रजिस्ट्री या मनीऑर्डर के पते पढ़ लेता था और उन्हें भेजनेवालों को दी जानेवाली परची लिख लेता था। एक दिन अपने पोस्टमास्टर के सुझाव पर मैंने एक समाचार पत्र रोज खरीदकर पढ़ना शुरू किया। इस प्रकार मुझे कुछ पढ़ने की आदत पड़ी।

डाकघर में काम के क्षणों में अपने मित्रों सहकर्मियों के साथ मैं देश की वर्तमान स्थिति पर चर्चा करता। डींगें मारते हुए मैं कहता कि देश पर शासन कर रहे किसी भी नेता से कहीं अधिक योग्य मैं हूँ तथा इस देश को उनसे कहीं अधिक भली प्रकार उन्नति के रास्ते पर ले जा सकता हूँ। मैं रुआँसा होकर कहता कि देश के मेरे जैसे एक भावी योग्य कर्णधार को डाकघर में बैठा दिया गया है। किसी को इस बात की चिंता भी नहीं है। मैं खुलेआम यह कहता कि यदि दूसरे देश में ऐसा होता तो वहाँ आन्दोलन हो जाता।
मैं उन लोगों से कहीं अधिक योग्य नेता हूँ, जिन्हें अपना भाषण भी ठीक-ठीक लिखना या पढ़ना नहीं आता। यह सब सोचकर मैं हताश और गमगीन हो जाता।

तभी एक दिन मुझे लगा कि मेरी किस्मत शायद पलटने वाली है। हुआ यों कि मेरे मंत्री चाचा ने चुनाव लड़ा। उसमें जीतकर वे संसद-सदस्य यानी एम.पी. बन गए। केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री के पद पर उन्हें सादर आसीन कराया गया। मेरे तो पौ बारह हो गए। मैंने डटकर उनके निवास स्थान पर आना जाना आरंभ कर दिया। अब चूँकि मैं उनका कुछ सगा-संबंधी था। इसलिए मैं उनके बँगले में बिना रोक-टोक भीतर तक चला जाता। चारों ओर सुरक्षा जाल था, मगर भला मुझ जैसे नजदीकी रिश्तेदार को कौन रोकता ! मैंने बहुत पास से उनके रहन-सहन का जायजा लेना शुरू कर दिया। मैंने देखा कि उनसे भेंट करनेवालों में बहुत से लोग अपने साथ भारी-भरकम सूटकेस भी लाते थे, मैं उनकी पत्नी यानी अपनी चाची की उनके घरेलू काम-काज में भी सहायता करता था। यह मेरे लिए बड़ी प्रसन्नता की बात थी कि चाची मेरी फुरती, लगन तथा मेहनत से अति प्रसन्न थीं।




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