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थोड़ी सी जगह दें

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2603
आईएसबीएन :81-7721-057-2

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सन् 2003 में प्रकाशित निबंध-रचनाओं का संकलन...

Thodi Si Jagah De

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंग्रेज इस देश में थोड़ी सी जगह लेकर व्यापार करने आए, उसी के साथ इतने प्रकार के प्रपंच यहाँ आए, जिनमें केवल सद्भावना भरी थी। उन सद्भावनाओं की आड़ लेकर पहले से सभ्य देश को फिर से सभ्य बनाना चाहा। सभ्य बनाने का यदि किसी ने विरोध किया तो उसे असभ्य कहकर बेदखल करना शुरू किया। महामति डलहौजी की जय हो कि रियासत-पर-रियासत व्यापारी कंपनी के कब्जे में होती चली गईं। उन्हें थोड़ी सी जगह चाहिए थी।
 
बाबागिरी के आख्यान बस इस थोड़ी सी जगह से शुरू होता है। घूमते-घामते किसी गाँव में पहुँचे। रामजी, थोड़ी सी जगह चाहिए भजन करने के लिए, पेड़ के नीचे एक छोटी सी झोपड़ी बना लूँ। झोपड़ी बनी और उसमें गीता  की एक पुस्तक रख दी गई। झोपड़ी बनी तो झोपड़ी में कुछ अन्न भी आया, अन्न का स्वाद चूहों ने लेना शुरू किया तो जायका बदलने के लिए ‘गीता’ पोथी के कुछ पन्ने भी कुतरे। चूहे के उपद्रव से बचने के लिए बाबाजी ने बिल्ली पाली। बिल्ली के दूध के लिए गाय पाली। गाय के लिए चारा चाहिए। थोड़ी सी जमीन चारे के लिए और चाहिए। थोड़ी सी जमीन चारे के लिए और मिली। फिर चारा काटने के लिए सेवक भी चाहिए। उसके लिए भी थोड़ी जायदाद चाहिए। खेती शुरू हुई और विस्तार हुआ तो व्यवस्था के लिए माईराम की जरूरत पड़ी। माईराम भी आ गईं। यह सब देखते-देखते घटित हो गया।
यह सन् 2003 में प्रकाशित निबंध-रचनाओं का संकलन है। संकलन को परोसते समय कोई विशेष उत्साह नहीं है, क्योंकि एक तो आज के जीवन के सरोकारों में साहित्य ही घुसपैठिया है और उस घुसपैठिए में निबंध तो घुसपैठिया-दर- घुसपैठिया है। इस मामले में आलोचक कवि कथाकार तथा नाटककार सभी एक ही तरह भीतर-ही-भीतर कुनमुनाते हैं कि हम लोगों के बीच में निबंधकार कहाँ से आ गया ! चार सवारों के पीछे-पीछे यह पाँचवाँ कहाँ से आ गया ! जबकि पाँचवाँ सवार ही दम के साथ कहता है कि हम पाँचों सवार दिल्ली जा रहे हैं। मुझसे तुरंत कहा जाए कि बताओ, यह कौवाँ निबंध-संग्रह है, तो बता नहीं पाऊंगा। अपनी कृति को सहेजनेवालों में नहीं हूँ, इसलिए नहीं कि कृतियों की संख्या अधिक है, इसलिए कि मैं अपनी कृतियों से आत्म-सम्मोहित नहीं हूँ। दूसरे भी हजार काम रहते हैं। कृति तो कृति बनने तक की चिंता है, उसके बाद कवि की चिंता मैं नहीं करता।

बहरहाल, अब तो दुस्साहस कर ही दिया है कि यह संकलन प्रकाशक को दे दूँ तो कुछ संकलन के बारे में भी कहना ही होगा। सफाई के रूप में नहीं, न जुर्म कबूलने के रूप में। बस, उन आलोचकों की सुविधा के लिए जो पुस्तक के बारे में कुछ लिखना चाहते हैं। उन्हें बतलाना चाहूँगा कि इसमें दो प्रकार के निबंध हैं। कुछ हैं जो कुछ पत्रिकाओं के संपादकों के आग्रह से विवश होकर लिखे हुए हैं, कुछ हैं जो ‘साहित्य अमृत’ के संपादक की विवशता है। पूरा संग्रह ही एक तरह से विवशता है। संग्रह ही क्यों, जीवन भी तो एक विवशता ही है। इतनी डोर हैं जो आदमी को बाँधे हुए हैं और उन्हीं के खिंचाव में आदमी खिंचता रहता है। कभी-कभी कई खिंचाव एक साथ आते हैं तो उलझन भी होती है; पर उसे लगता है कि उसकी अपनी कोई गति ही नहीं है और इन डोरों को तोड़ना भी चाहें तो टूटनेवाले नहीं, कोई टूट भी जाए तो तुरंत कोई दूसरी डोर प्रबल हो जाएगी। इसलिए अपने को छोड़ देना चाहिए, जिधर खिंचे उधर खिंचते जाएँ। बस खिंचने का स्रोत मन में अंकित करते रहें। कहीं से छूटें, छूटते जाएँ और छूटने पर भी पिछले खिंचाव को भूल न सकें।

आदमी की इस नियति की अनुभूति न होती तो साहित्य रचा ही नहीं जाता। कम-से-कम जिस विधा का रचनाकार मैं हूँ उस विधा का साहित्य तो नहीं ही रचा जाता। उन असंख्य डोरों के प्रति जिन्होंने मुझे खींचा, जिन्होंने मुझे छोड़ा, आभार व्यक्त करते हुए मैं नेपथ्य का परदा खींच रहा हूँ। प्रयोग आपके सामने है।

-विद्यानिवास मिश्र

काशी: मरने के लिए नहीं, न मरने के लिए


काशी के बारे में जन-विश्वास यही है कि यहाँ जो मरता है, मृत्यु के समय बाबा विश्वनाथ उसके कान में राम मंत्र देते हैं। वही मंत्र तारक होता है, काशी में मरने से मुक्ति हो जाती है। लोग संदेह करते हैं, फिर शुभ-अशुभ कार्यों का फल भोगे बिना कैसे मुक्ति होगी ? मेरे ननिहाल में एक पंडित थे-पार्थिव राम त्रिपाठी। मैंने उनकी चर्चाएँ कथा-पुरुष के रूप में ही सुनी हैं। मेरे ननिहाल सहगौरा में वे आख्यान बन गए थे। बड़े प्रतिभाशाली, निष्ठावान्, सरस और विनोदी पंडित थे। मृत्यु का समय आया तो पालकी मँगाई गई काशी के लिए। किंतु पंडितजी ने कहा कि वहाँ मुक्ति अवश्य मिलेगी, पर वहाँ पहले भैरवी चक्र में व्यक्ति को डाल दिया जाता है। मुझे काशी नहीं जाना। आगे उन्होंने कहा कि मैंने कोई अशुभ कर्म किया नहीं, मैं क्यों भैरवी चक्र में पेराने के लिए काशी जाऊँ। मुझे प्रयाग ले चलो। कालिदास ने भी लिखा है कि गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर देह छोड़ने पर देह का कोई बंधन नहीं रहता-

गंगा यमुनयोर्जल सन्निपाते तनु त्यजाम्नम्स्ति शरीर बंन्ध:।

मेरे गुरुजी कहते थे कि कभी यहाँ प्रयाग में ऐसी धारणा थी कि यहाँ शरीर त्यागे अर्थात् स्वेच्छा से शरीर छोड़े तो मुक्ति होती है। इसलिए कुछ लोग यहाँ यमुना में कूदकर आत्महत्या भी करते हैं। इसीलिए यहीं कुमारिल भट्ट ने गुरुनिंदा का प्रायश्चित किया था और अपने को भूसे की आग में जलाकर शरीर-त्याग किया था। प्रयाग में गंगा से मेरा वर्षों संवाद रहा है। आज भी प्रयाग की गंगा मुझे बुलाती रहती है, संगम का भाव बुलावा रहता है। पर जब मैं अध्यापन की सेवा से मुक्त हो रहा था तो मेरे मन में आ गया था कि जीवन का शेष भाग काशी में ही बिताएँगे। इसके लिए एक छोटा सा मकान भी मेरे लिए लिया गया। मैंने इस बात पर बहुत विचार किया है कि काशी में मरने पर मुक्ति की भावना की व्यापकता का आधार क्या है ! बहुत समय पहले संपूर्णानंदजी ने सुनाया था कि लाओस के बूढ़े राजा भारत आए थे, फिर काशी आए थे। उन्होंने संपूर्णानंदजी से पूछा कि ‘क्या अब भी लोग ऐसा मानते हैं कि यहाँ मरने से मुक्ति होती है ?’ बाबूजी ने कहा कि ‘कुछ लोगों का तो यह दृढ़ विश्वास है।’ लाओस के राजा ने कहा कि ‘कि ‘मैं भी उन्हीं लोगों में से हूँ।’ बाबूजी अचकचा गए—कहाँ लाओस, कहाँ काशी। उन्हीं राजा ने कहा कि मेरे नगर वियेन चांग से सटकर मेकांग नदी बहती है। वह काशी की याद दिलाती है शायद माँ गंगा का ही परिवर्तित रूप मेकांग है। उसका भी पाट बड़ा चौड़ा है। लगभग चार दिन में उस नदी के किनारे से आनेवाली हवा में उस नदी की बूँदें मुझ पर पहुँची है। उस दक्षिण-पूर्व एशियाई गंगा का स्पर्श मैंने पाया है। बाबूजी ने अपनी बात उसमें जोड़ी थी कि काशी की भूमि में कुछ बात ऐसी तो जरूर है कि आदमी अनुभव करता है कि यहाँ रहते ही अपनी बंधी हुई परिस्थिति से मुक्ति मिल जाती है। मुक्ति कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिसे पाया जाता है, मुक्ति तो आस-पास की हवा में तैरती रहती है। यह साँस के ऊपर है कि इस तैरनेवाले तत्त्व को ग्रहण कर ले और मरते ही अनुभव करे-क्यों मैं सब में रहता हूँ या फिर सबसे अलग हूँ ? अलग होकर मैं कुछ परिभाषित अनाम नहीं हूँ, मैं सगुण सकारात्मक फक्कड़पन की अनुभूति हूँ। इसलिए काशी के बारे में यह धारणा मरकर ही मुक्ति पाने तक सीमित नही हैं। जीते-जी मृत्यु को नकारनेवाली धारणा है, जहाँ अहर्निश चौबीस घंटे चिता जलती रहती है। वहाँ मृत्यु जीवन की एक लीला बनकर रह जाती है। वह जीवन का अंत नहीं बनती। काशी के बारे में कहा जाता है कि-

मरणं मंगल यत्र वियूतिर्यत्रभूषणम्।
ओषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणों हरि:।।

-जहाँ पर मरना मंगल है, चिताभस्म जहाँ आभूषण है। गंगा का जल ही ओषधि है और वैद्य जहाँ केवल नारायण हरि हैं।

काशी विश्वनाथ की ही नगरी नहीं है, उसके आराध्य नारायण की भी नगरी है। इसे प्राचीनकाल में ‘हरिहर धाम’ कहते थे। यहाँ के प्राचीनतम मंदिर हैं बिंदुमाधव और बाबा विश्वनाथ के मंदिर। बिंदुमाधव का मंदिर ही आज माधवराव का धौरहरा हो गया है। यह नगरी इसलिए मुक्तिधाम है कि यह परमपिता परमेश्वर की अनन्य भक्ति का धाम है। बाबा विश्वनाथ ‘नम: शिवाय’ का मंत्र नहीं देते, ‘रामाय नम:’ का मंत्र देते हैं। यह विश्वास एक विशाल बोध से अनुप्राणित है। जो काशी में मरने का सौभाग्य नहीं पाते, वे भी अंतिम इच्छा रखते हैं कि काशी में दाह संस्कार हो। वह भी न हो तो उनकी भस्मी यहाँ की गंगा में प्रवाहित हो, उनके पार्थिव जीवन का विलय गंगा के जीवन में हो, वह क्षुद्रता से उबरकर विशालता में विलीन हो, यही मृत्यु से अभय की इच्छा का अर्थ है। स्व. द्विजेंद्रलाल राय की गंगा को संबोधित प्रसिद्ध कविता है, जिसका भावार्थ है-‘माँ कल्लोलिनी गंगा ! मेरे कानों में तुम्हारा ही कल-कल अंतिम वेला में सुनाई दे। आँखों को तुम्हारे ही जल का विस्तार दिखाई पड़े। मैं सर्वांग से तुझमें आत्मसात् हो जाऊँ।’ यह उत्कट इच्छा हिंदू मन के जीने की इच्छा से जुड़ी हुई है। गंगा का जल जीवन की अनंतता का विस्तार ही है और काशी की गंगा का जल उत्तरवाहिनी गंगा का जल है, इसलिए यह ऊर्ध्वमुखी जीवन के साथ जुड़ने का निमंत्रण देता है। उत्तरवाहिनी गंगा कुछ अन्य स्थलों पर भी है, पर इतनी लंबी दूर तक नहीं है जितनी लंबी दूरी तक काशी में है और जिस रूप में अर्द्धचंद्र का आकार काशी में गंगा बनाती है वैसा भी कहीं नहीं। गंगा अपनी धार बदलती हैं, पर काशी में सहस्राब्दियों से टिकी हुई हैं।

इस काशी के कई नाम है-अविमुक्त क्षेत्र, महाश्मशान, आनंदकानन, हरिहरक्षेत्र और इसका आभ्यंतर भाग ही वाराणसी है जिसकी एक सीमा असी, वरुणा और गंगा है और बाहरी सीमा पंचकोसी है। महाश्मशान कहने का तात्पर्य ही यही है कि यहाँ केवल शरीर ही भस्म नहीं होता, शरीर के साथ जुड़ी हुई सारी-की-सारी वासनाएँ क्षार हो जाती हैं। उन वासनाओ के त्रिगुणात्मक बंधन भी क्षार हो जाते हैं। यह क्षार ही जब शिव के ललाट का भस्म बनता है तो शिव-सारूप्य प्राप्त हो जाता है। अब्दुल रहीम खानखाना ने इसी शिव-सारूप्य की कामना की थी। उनके मन में यह भाव उठा-

अच्युतचरण तरंगित शिवसिर मालति माल।
हरि ने बनायो सुरसरी को जै इंदवभाल।।

-मेरा शरीर जब छूटे तो विष्णुरूप न देना, क्योंकि विष्णु के पद-नख से गंगा निकलती है। मुझे शिवरूप देना, ताकि तुम मेरे सिर पर विराजो और चंद्रमा की अमृतकला तुम्हारी छाया में रहे।

प्रश्न यह है कि क्या केवल विश्वनाथ ही कृपा करते हैं और केवल काशी में ही, कहीं अन्यत्र नहीं ? क्या दूसरा मोक्ष-क्षेत्र नहीं है ? मोक्ष-क्षेत्र तो काशी के अलावा छह और पुरियाँ-अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, कांची, अवंतिका और द्वारिकापुरी है; पर काशी का मोक्ष इसलिए विशेष है कि यहाँ मोक्ष एक विशेष प्रक्रिया से मिलता है। काशी में जीव भैरवी चक्र में डाला जाता है और भैरवी चक्र में पड़कर वह समस्त योनियों के सुख-दु:ख के कोल्हू में पेरा जाता है। उसका समस्त सृष्टि के साथ अपने आप तादात्म्य हो जाता है। इसलिए उसे जो मोक्ष मिलता है वह प्रकाश रूप में मिलता है। काशी का अर्थ ही प्रकाश है, शुद्ध चैतन्य का प्रकाश। उस प्रकाश में कोई छाया नहीं है। उस प्रकाश की भी कोई छाया नहीं है। भैरवी चक्र का अर्थ समस्त भेदों का अतिक्रमण है और यही परमज्ञान है। काशी में जो जीवन का अंतिम क्षण बिताने की इच्छा रखते हैं वे एक ओर जीवन की अनंतता में विलयन की कामना से गंगा प्रवाह से एकाकार होना चाहते हैं, दूसरी ओर स्वरूप का साक्षात् ही नहीं करना चाहते, स्वरूप में स्थित होना चाहते हैं और वह स्वरूप प्रकाश रूप ही है। उसे कोई शुद्ध विद्या कह ले, कोई पराशक्ति कह ले, कोई शिव-शक्ति सामंजस्य कह ले, ज्योति रूप रस कह ले, कोई अंतर नहीं पड़ता।

एक अनुश्रुति है, इतिहास की दृष्टि से सही न हो, पर उसका फलितार्थ स्पष्ट ही है। गोरखनाथ ने कई शरीरों को छोड़ा और कई शरीरों से सिद्धि प्राप्त की। उन सिद्धियों को उन्होंने शिला का रूप दे दिया। वह उनके लिए बोझ हो गई। सोचा, किसी योग्य पात्र में न्यस्त कर दूँ और इनसे मुक्त हो जाऊँ, नहीं तो मैं भी शिला ही बन जाऊँगा। कोई योग्य पात्र नहीं मिला, काशी आए। गंगातट पर मधुसूदन सरस्वती दिख गए। गोरखनाथजी उनके पास पहुँचे। कहा, ‘यह शिला मैं तुम्हें देना चाहता हूँ। कई शरीरों से प्राप्त सिद्धियाँ इसमें हैं। इसे तुम्हें सौंपकर मुक्त होना चाहता हूँ।’ पहले तो मधुसूदन सरस्वती ने कहा, कि ‘महाराज’ आपकी बड़ी कृपा; पर मुझे सिद्धि चाहिए ही नहीं। तब गोरखनाथजी ने अनुरोध किया, मैं नहीं दे दूँगा तो फँसा रहूँगा। ये सिद्धियाँ मेरे गले में सिल की तरह लटकी रहेंगी। मधुसूदन सरस्वती ने सादर उस शिला को लिया और तुरंत गंगा में विसर्जित कर दिया। गुरु गोरखनाथ को लगा, यह तो मुझे पहले कर देना चाहिए था। पर यह सूझा काशी-तटवासी मधुसूदन सरस्वती को, काशी में रहनेवालों को सिद्धि नहीं चाहिए। पिछली कई शताब्दियों में यहाँ साधक हुए, उन्होंने अपने को सिद्ध नहीं कहा। वे साधकता को ही जीवन का परम प्रयोजन मानते थे। वे चाहे रामानंद हों, अपने को राम की बहुरिया माननेवाले कबीर हों, प्रभु को चंदन और अपने को पानी माननेवाले रैदास हों, श्रीराम के चरणों में निरंतर प्रीति माँगनेवाले तुलसीदास हों, सारी चाहों को केवल श्रीकृष्ण की चाह की धारा में बोरने वाले मधुसूदन सरस्वती हों, श्री-विद्या के साधक भास्कर राय हों, गुरुओं के गुरु तैलंग स्वामी हों, अद्भुत उल्लास के साधक लाहिरी महाशय हों, सूर्य-विद्या के आराधक स्वामी विशुद्धानंद हों, उनके शिष्य महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज हों, नित्यानंद में समाहित माँ आनंदमयी हों, परम परमहंस स्वामी करपात्री हों, दूसरी ओर औघड़ बाबा कीनाराम हों, राम-नाम के साधक काष्ठ जिह्वा स्वामी हों, ज्ञान साधक स्वामी मनीष्यानंद हों-ये सभी विभूतियाँ काशी-तट की निरंतर साधना के ज्योतिपुंज हैं। काशी भुक्ति, मुक्ति, सिद्धि सबरा परिहार करनेवाली नगरी है। इसलिए यहाँ मरने का अर्थ जीवन की अछोर अनंतता से सात्म होना है, मरना नहीं है। जीवन की लीला को समेटना है, पर समेटकर उसे अनंतता का कण बनाना है।

काशी में प्रतिदिन के व्यवहार में भी यह बात प्रतिबिंबित होती है कि उत्तम-से-उत्तम भोग का सेवन कर सकते हैं और सेवन करें तो भी कुछ खास नहीं लगता। यहाँ सुस्वादु-से-सुस्वादु व्यंजनों के अनेक प्रकार बनते हैं, ठंडाई के सैकड़ों प्रकार होते हैं, जाड़े में प्रातरास के अनेक प्रकार होते हैं, पहनावे में कीमती से-कीमती जरी के वस्त्र होते हैं, सोने के वरक में पान लपेटे जाते हैं। झकाझक सफेद चद्दर पर नूपुरों की झंकार होती है, बजरे पर गरमियों में चैती के स्वर के साथ तैरना होता है, पर उसी के साथ-साथ एक गमछा डालकर भस्म लगाकर’ बस-बम महादेव की ध्वनि में समा जाना भी होता है। जिस क्षेत्र का राजा फक्कड़ उस क्षेत्र का निवासी भी फक्कड़ होने में ही रईसी मानता है। शिवरात्रि में शिव की बरात में विकलांगता का प्रदर्शन होता है और ऐसा कि उसके आगे रोम का कार्निवाल मात खा जाता है। यहाँ उत्सव का उन्माद भी नियंत्रित होता है। ऐसी जिंदगी में रमना तभी संभव है जब दुर्दुम्य जिजीविषा हो।

कैसे कहें कि काशी मरने की नगरी है। जीने का स्वाद काशी जानती है, मरने को नकारना काशी जानती है, अमरता को भी ठेंगा दिखाना काशी जानती है।

जहँ बस संभु भवानि


बाबा तुलसीदास बचपन में इधर-उधर बिललाते फिरे, फिर चित्रकूट के क्षेत्र में गए। वहाँ बनने तो गए गृहस्थ, बन गए वैरागी। जाने कहाँ से घूमते-घामते अयोध्या पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ‘रामचरितमानस’ संवत् 1631 में लिखना शुरू किया। पर बाबा अयोध्या में बस नहीं सके। उन्हें फिर चित्रकूट की याद आई और अयोध्याकांड लिखते-लिखते चित्रकूट पहुँच गए। उनके समकालीन रहीम ने लिखा ही है-‘चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस, जापर विपदा पड़त है सो आवत एहि देस।’ इसी चित्रकूट में उन्होंने कलि की कुचाल चीन्ही। सीधे शब्दो में कहें तो उन्होंने छलमय जीवन के थोथेपन का प्रत्यक्ष अनुभव किया और वे खड़िया-तिलकवाली छोटी सी पोटली भी वहीं फेंककर काशी आ गए। किष्किंधाकांड का प्रारंभ करने के पहले उन्होंने काशी में रहने के अपने तरीके से एक उत्पत्ति दी-

‘मुक्ति ज्ञान महि जानि ज्ञान खानि अघ हानिकर।
जहँ बस संभु भवानि सो सेइय कासी करुन।।’

काशी ऐसी धरती है जिसमें मुक्ति जन्म लेती है। यह धरती ज्ञान की खान है। और पाप की गठरी यहाँ लुट जाती है। यहाँ पर शंभु-भवानी कैलास के ऐश्वर्य का सब मोह छोड़-छाड़कर बस गए हैं। बाबा महाश्मशान में धूनी रमाते हैं और जगदंबा-सदाबरत खोले हुए हैं। तुलसी बाबा को लगा कि अब काशी छोड़ कहीं नहीं जाना है। भारतवर्ष की जितनी यात्राएँ हैं, उन सबके रास्ते कभी-न-कभी काशी की ओर मुड़ते ही हैं। चाहे यह यात्रा विद्या-प्रेमियों की हो, चाहे कवियों की हो, मुनियों की हो, कलावंतों की हो, साधकों की हो, व्यापारियों की हो, भिखारियों की हो, बड़े-बड़े महाराजाओं की हो, नव-बधुओं की हो, परित्यक्ता विधवाओं की हो-सबकी राहें काशी में मिल जाती हैं। यही नहीं, धूर्तों, ठगों, दलालों की काशी ही अंतिम गति है। जिसको सब छोड़ देते हैं उसको काशी ग्रहण कर लेती है, जिसे सब नकार देते हैं उसे काशी समर्थन देती है। जिसको सब आदर देते हैं उसको काशी तृण बराबर नहीं समझती। बाबा ने जिंदगी में बहुत सहा, अपने काम से बहुत रोए-बिललाए भी; पर काशी में आते ही जैसे चमत्कार हो गया। उन्होंने ललकार की भाषा बोलनी शुरू की, काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारि न सोऊ। तुलसी सरनाम गुलाम हैं राम को, जाको सचे सो कहे कुछ ओऊ।’’ और राम के दरबार में जो पट्टा मिला था उसे भी उन्होंने एक तरह से फेंक दिया और राम से ही कहा कि तुम्हारे रहते ही मेरी ऐसी दुर्गति हो रही है, समुद्र को पी जानेवाले अगस्त्य का वंशज गोपद में डूब रहा है।

पाँयपीर, पेटपीर, बाहुपीर, मुँहपीर
जरजर सकल सरीर पीर मई है।
देव, भूत, पितर, करम, खल, काल, ग्रह
मोहिं पर दवरि दयानक सी दई है।
हौं तो बिन मोल ही बिकानो बलि बारे ही तें
ओट राम-नाम की ललाट लिखि लई है।
कुंभज के किंकर बिकल बूड़े गोखुरनि
हाय राम राम ! ऐसी हाल कहूँ भई है ?

यह एक तरह से अपने आराध्य को ही चुनौती है। इसको पढ़ने पर ही तुलसी का तेज कुछ कुछ समझ में आएगा कि वे केवल राम के दास ही नहीं हैं, वे राम के सामने भक्त के अधिकार की माँग लेकर ऐसे खड़े हैं कि राम उनके आगे पानी-पानी हो जाएँ। यह काशी में आने का ही परिणाम है। काशी में उन्हें अभय मिला हुआ है। काशी ने उन्हें कष्ट दिए हैं तो साथ ही कष्ट सहने की अपार क्षमता भी दी है।

इसी काशी में जब मैं पड़ता था तो आना-जाना तो होता रहता था, पर यहाँ बसेरा लेना सन् 1968 में शुरू हुआ। काशी में आने के पहले बहुत विदेश जाना हुआ पर काशी में जब तक प्रोफेसर रहा तब तक काशी ने बाँध रखा था। उस समय मैंने काशी के बारे में सुना, आज अपने उस समय के मित्रों को स्मरण करता हूँ, गुरुजन को स्मरण करता हूँ और बरसों बाद जब घूम-फिरकर काशी आने का मन उदग्र होता है तो काशी का मुझे एक अलग साक्षात् अनुभव होता रहता है। यह अनुभव न श्रुति में है, न स्मृति में, यह प्रत्यक्ष है। इन तीनों को मैं एक साथ बटना चाहता हूँ तो मुझे लगता है कि कहीं-न-कहीं तीनों मिलकर त्रिवेणी की रचना करते हैं। इस त्रिवेणी का विस्तार न केवल प्रयाग से काशी तक है बल्कि एक लंबे अध्ययन काल से अध्यापन काल और अध्यापन काल से अवकाश काल तक है। काशी में रहते हुए पहले तो उतना आना-जाना देश के बाहर नहीं हुआ जितना देश के भीतर, पर जब मैं अध्यापन से विश्राम लेकर आया और काशी में कुछ अंतराल देकर दो विश्वविद्यालयों का कुलपति रहा उस समय एकाएक विदेश-यात्राओं की संख्या में अपूर्वकल्पित वृद्धि हुई। आज काशी की बात करना चाहता हूँ तो वे अंतराल भी बीच-बीच में मन में आ जाते हैं। ये अंतराल केवल देश के ही नहीं, समय के भी हैं। और उन अंतरालों से काशी का अनुभव वैसे ही तीव्रतर होता है। जैसे बड़े शिखरवाले मंदिर छोटे-छोटे उर श्रृंगों से और अधिक उत्तुंग दिखते हैं वैसे ही काशी भी इन अंतरालों के कारण कुछ और अधिक ऊँचे उठती जाती है, कुछ और अधिक गहरे पैठती जाती है। काशी में अकेले मेरी यात्राएं ही नहीं समाई हुई हैं, इस देश के इतिहास की यात्राएं भी समाई हुई है। लोग भले ही कहें कि काशी पश्चिम से पूर्व की ओर खिसकती चली आई है, स्वयं काशी राजघाट से दक्षिण और दक्षिण खिसकती चली आई है, पर वस्तुत: गंगा का अर्द्धचंद्राकार तट और दीर्घ ऊ का आकार जुड़ा रहता है। अर्द्धचंद्र में बिंदु के रूप में मणिकर्णिका है। दीर्घ ऊ का ऊपरवाला हिस्सा आज का पक्का मुहाल है उसी का एक हिस्सा आनंदवन है, महाश्मशान है, विश्वेश्वर है, उस ऊ का नीचेवाला छोर सारनाथ में रहता है और उसकी दीर्घयात्रा का मोड़ संकटमोचन तक जाता है। इस काशी के आकार-प्रकार में परिवर्तन पर परिवर्तन हुए काशी ध्वस्त हो-होकर पुनर्निमित हुई। इसके महाश्मशान की सार्थकता सिर्फ यही नहीं है कि इस महाश्मशान में जलने पर जो राख बनती है वह विभूति बन जाती है, अपितु काशी के साथ जो आत्मसात् होता है वह अपने-अपने क्षेत्र में विभूति बन जाता है। काशी के बारे में प्रसिद्ध है कि ऐसा कोई भी समय नहीं आएगा कि काशी में कोई मूर्धन्य साधक न हो, मूर्धन्य विद्वान न हो, मूर्धन्य कलाकार न हो, मूर्धन्य रचनाकार न हो, मूर्धन्य वंचक न हो, मूर्धन्य पाखंडी न हो, मूर्धन्य अवधूत न हो, मूर्धन्य जौहरी न हो-यह हो सकता है कि वह काफी समय तक प्रकट न हो, छिपा हो, यह हो सकता है कि उसकी कीमत लोग उसके समय में न आँक सकें, पर ऐसे मूर्धन्य व्यक्तियों की श्रृंखला ही वस्तुत: काशी है। काशी अपनी विविधता में बेजोड़ है और विविधता में जीकर रमने की वृत्ति में भी बेजोड़ है, रमकर एकदम विरक्त होने में भी बेजोड़ है।




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