कला-संगीत >> भारतीय चित्रांकन परंपरा भारतीय चित्रांकन परंपरानर्मदाप्रसाद
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अगणित युगों की यात्रा को गिने हुए पृष्ठों में जिस नयनाभिराम और लालित्यमय रूप में इस कृति में सँजोया गया है, वह एक अद्वितीय प्रयास है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय चित्रांकन परंपरा की मनोरमा यात्रा के साक्षी न जाने कितने युग रहे
है। इन युगों के साक्ष्यों से भरपूर इस यात्रा को शब्द-चित्रों के माध्यम
से निहारना हमारे देश की इन्द्रधनुषी विरासत को सिर्फ निहारना भर नहीं है
बल्कि इस विरासत को सौंपनेवाले समृद्ध सांस्कृतिक व्यक्तितत्वों को नमन
करना भी है। इस दृष्टि से अगणित युगों की यात्रा को गिने हुए पृष्ठों में
जिस नयनाभिराम और लालित्यमय रूप में इस कृति में सँजोया गया है, वह एक
अद्वितीय प्रयास है। भारतीय चित्रकला की परंपरा पर यों तो कई ग्रंथ है,
लेकिन यह एक ऐसा पहला ग्रंथ है, जो साहित्य और कला के अनुशासनों के बीच एक
सेतु स्थापित करता है। स्व. रायकृष्ण दास तथा डॉ. वाचस्पति गौरोला ने
हिंदी में इस दृष्टि से जो ऐतिहासिक कार्य किया, यह कृति उस कार्य को
समग्रता में आगे ले जाती है।
सर्वथा अचीन्ही शैली ‘कान्हेरी’ के रचे गए दो सौ सैंतीस वर्ष पुराने सचित्र ‘गीतगोविन्द’ के नयनाभिराम लघुचित्रों की मनोरमा झाँकी इस कृति में सँजोई गई है। इन चित्रों को उनकी सरस व्याख्या के साथ देखना और पढ़ना अपने आप में अलोकिक अनुभव है। यह अनुभव रूप और रस के, रंग और सुगंध के समन्वय का अनुभव है।
इस चित्र तीर्थ-यात्रा में आप एक समृद्ध परमपरा के विकास-यात्रा के दर्शन तो करेंगे ही, उस रामेश्वर को देखकर भी अभिभूति होंगे जो कला और साहित्य के सेतु रूप में इस कृति के तरल भाषा प्रवाह पर एक मनोरमा शिल्प के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है।
सर्वथा अचीन्ही शैली ‘कान्हेरी’ के रचे गए दो सौ सैंतीस वर्ष पुराने सचित्र ‘गीतगोविन्द’ के नयनाभिराम लघुचित्रों की मनोरमा झाँकी इस कृति में सँजोई गई है। इन चित्रों को उनकी सरस व्याख्या के साथ देखना और पढ़ना अपने आप में अलोकिक अनुभव है। यह अनुभव रूप और रस के, रंग और सुगंध के समन्वय का अनुभव है।
इस चित्र तीर्थ-यात्रा में आप एक समृद्ध परमपरा के विकास-यात्रा के दर्शन तो करेंगे ही, उस रामेश्वर को देखकर भी अभिभूति होंगे जो कला और साहित्य के सेतु रूप में इस कृति के तरल भाषा प्रवाह पर एक मनोरमा शिल्प के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है।
समर्पित
समर्थवाग्देवता मंदिर, धुळे के संस्थापक
स्वर्गीय शंकर श्रीकृष्णदेव
की पावक स्मृति को,
जिन्होंने कान्हेरी ‘गीतगोविन्द को संरक्षित कर
भारतीय चित्रांकन परंपरा की
एक महान धरोहर से
कला-जगत् को परिचित कराया और
‘कान्ह देश’ की कमनीय राधा के
कृष्णमय स्वरूप को अविनाशी अमृत के रूप में
विश्व को सौंप दिया।
स्वर्गीय शंकर श्रीकृष्णदेव
की पावक स्मृति को,
जिन्होंने कान्हेरी ‘गीतगोविन्द को संरक्षित कर
भारतीय चित्रांकन परंपरा की
एक महान धरोहर से
कला-जगत् को परिचित कराया और
‘कान्ह देश’ की कमनीय राधा के
कृष्णमय स्वरूप को अविनाशी अमृत के रूप में
विश्व को सौंप दिया।
समारंभ
वह जनवरी 1994 की एक वासंती साँझ थी। उस समय मैं खंडवा में पदस्थ था। अकसर
मौसम के सुखद एहसास आस्था के अनायास जागरण के साक्षी हुआ करते हैं। उस
साँझ भी ऐसा ही हुआ, जब अंजना ने मुझसे आग्रह किया कि साईं बाबा के दर्शन
करने के लिए हमें शिर्डी चलना है। शिर्डी जाने के लिए एक अनुकूल प्रसंग भी
मौजूद था। आदरणीय डॉ. मुरलीधर शहा, जो एक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता
हिंदी सेवी और प्रख्यात विद्वान् हैं, ने मुझे धुळे आने के लिए आमंत्रित
किया था वहाँ उन्होंने डॉ. शिवाजी देवरे और डॉ. विश्वास पाटिल की
शोध-कृतियों का लोकार्पण करने तथा इस अवसर पर हिंदी के समकालीन परिदृष्य
के बारे में व्याख्यान देने हेतु बुलाया था। धुळे से शिर्डी निकट है।
इसलिए यह संयोग एक सुखद अवसर में बदल गया।
दूसरे दिन मैं धुळे पहुँचा और वहां के कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ। कार्यक्रम के बाद अपनी आदत के मुताबिक मैंने वहाँ के विद्वानों से विशेषकर डॉ. शहा से भारतीय लघुचित्रों के संबंध में तथ्य-संग्रह करने लगा। मैं प्रायः हर स्थान पर करता रहा हूँ। यह तथ्य मेरे लिए अत्यंत आश्चर्यजनक लगा, जब डॉ. शहा ने जानकारी दी कि धुळे में दो स्थान ऐसे हैं, जहां अनेक स्थानों में से एक स्थान को ‘समर्थवाग्देवता मंदिर’ के नाम से जाना जाता है और दूसरे स्थान को ‘राजवाड़े संशोधन मंडल’ के नाम से। उन्होंने मुझे बताया कि समर्थवाग्देवता मंदिर में शायद सन् 1892 जब इस मंदिर की नीव पड़ी, से एक सचित्र पोथी हुई है, जिसपर ‘गीतगोविंद लिखा हुआ है। जिस क्षण डॉ. शहा ने मुझे यह जानकारी दी, उस क्षण हुई अनुभूति को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे। बिना किसी विलंब के मैं और रंजना-दोनों तुरंत मंदिर के अंदर गए और उस पोथी को देखा।
साँझ गहरा गई थी और ‘गीतगोविन्द’ के मंगल श्लोक में वर्णित जयदेव के अनुसार चारों ओर मेघ घिर आए थे। उतरते अंधकार में ‘गीतगोविन्द को देखना एक लोकोत्तर अनुभव था। मुझे लगा कि इस अँधेरे ने मुझे प्रकाश से भर दिया हो, चारों ओर आलोक-ही-आलोक फैल गया हो, असंख्य दीपशिखाएँ मन के अमावस से परिपूर्ण धरातल पर जगमगा उठी हों और एक दीपोत्सव अचानक प्रारंभ हो गया हो। वास्तव में हुआ भी यही। हमने जिस पल इस पोथी को देखा, उसी पल से अँधेरे के बीच प्रकाश की मेरी एक यात्रा शुरू हो गई और यह ‘गीतगोविंद’ मेरे लिए सच्ची पूजा का दैवीय स्वरूप बन गया। उसके बाद मैंने निरंतर धुळे की यात्राएं कीं। अपने मित्र और प्रख्यात पत्रकार व फोटोग्राफर जय नागड़ा को अपने साथ ले गया। उन्होंने इस ‘गीतगोविन्द’ की सुन्दर छवियाँ अपने कैमरे से निकालीं। मैंने अपने विभागीय सहयोगी श्री धन्वंतरी अरझरिया से आग्रह किया किया कि वे इस ‘गीतगोविन्द’ के संबंध के अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करें। उन्होंने ये काम बखूबी किया।
सामान्य रूप से ‘गीतगोविन्द’ एक लंबी संस्कृत कविता है, लेकिन इतनी गीतमय कि चाहे उसे चितेरा देखे, नर्तक देखे या संगीतकार देखे उससे गुज़रते समय वह स्वयं गीत हो जाता है। इस काव्य का सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि इसने भारतीय कलाओं के इतिहास में अपने-आपको शीर्ष पर प्रतिष्ठित किया। यह जितना अभिनीत हुआ, गाया गया, चित्रित किया गया या नृत्य में ढाला गया, उतना ही लोकप्रिय होता गया और बजाय इसके कि प्यास बुझती, कंठ उत्तरोत्तर अधिक सूखते चले गए।
सदियों से विद्वज्जन विभिन्न आयामों से इसका परिशीलन करते रहे हैं, इसकी व्याख्याएं होती रही हैं, लेकिन इस काव्य की अविराम यात्रा कहीं थमती नहीं।
यह पुस्तक इसके चित्रांकन पर केंद्रित है और मैंने यह अनुभव किया है कि भारतीय चित्रांकन की परंपरा के बारे में इस ग्रंथ के संदर्भ में विचार करते समय एक महत्त्वपूर्ण आयाम छूट गया है। ‘गीतगोविंद’ को संस्कृत और हिंदी के विद्वानों के व्याख्यायित किया, किंतु उनके दृष्टिपथ में मध्यकाल की राजस्थान और पहाड़ की विभिन्न शैलियों में रचे गए वे मनोहारी लघुचित्र प्रायः नहीं रहे, जिन्हें चितेरों ने पूरे आस्था-भाव के साथ रूपायित किया। दूसरी ओर कला-जगत के विद्वान् जिन्होंने अपनी कला-समीक्षा का आधार विभिन्न शैलियों में रचे गए इन चित्रों को बनाया ‘गीतोगोविंद’ की आत्मा में पूरी तरह नहीं उतरे पाए और यही कारण रहा कि यह अमर काव्य पंडितों के द्वारा अपने ढंग से देखा गया और विश्लेषित किया गया। यह काव्य वास्तव में कला के विभिन्न अनुशासनों और साहित्य की विभिन्न विधाओं के बीच का सेतु-काव्य है, किंतु इस रामेश्वर पर दृष्टि नहीं जा पाई, एक अतंराल बना रहा जो आज भी है। मेरी दृष्टि में अब ये आवश्यक हो गया है कि ‘गीतगोविंद’ के इस सेतु आस्तित्व पर विचार हो। हिंदी और संस्कृत के विद्वान् केवल अष्टपदियों की व्याख्या तक ही सीमित न रहें और कलाविद् इस ग्रंथ के विभिन्न प्रसंगों के आधार पर बनाए गए चित्रों के तकनीकी विश्लेषण तक ही अपने आपको न बाँधे रखें।
वास्तविकता यह है कि इस महान् वैष्णव काव्य के चित्रों को रचनेवाला कलाकार केवल रंगों और रेखाओं के धनी ही नहीं थे। बल्कि वे उस राधा-भाव के भी महान् आराधक थे जो, आजीवन जयदेव की समूची अस्मिता में बसा रहा है।
‘गीतगोविंद के संबंध में एक बड़ा प्रश्न यह उठया जाता है कि क्या यह केवल दैहिक आकर्षण का कव्य है ? मेरी दृष्टि में ‘नहीं’। यह काव्य वास्तव में ऊँची दैवीय अनुभूति का काव्य है। यदि इसे केवल दैहिक आकर्षण तक ही सीमित किया जाय तो यह इस महान् काव्य के प्रति अन्याय होगा। इस प्रश्न का समाधान तो इसके ‘मंगल श्लोक’ में ही मिल जाता है। ‘मंगल’ में नंद राधा को निर्देश देते हैं कि साँझ गहरा रही है, अँधेरा चारों-ओर घिर रहा है, कृष्ण घर का रास्ता भूल जाएगा। इसलिए इस तुम इसके घर पहुँचा आओ। राधा कृष्ण को लेकर उनके वास्तविक घर की ओर चल पड़ती हैं। राधा कृष्ण की ‘परम आह्लादिनी शक्ति’ हैं। बिना उसके संबल के कृष्ण कहीं जा नहीं सकते। केवल इसी शक्ति में इतनी सामर्थ है कि वह कृष्ण को अपने वास्तविक घर तक पहुँचा सके।
इस एक ही प्रसंग के आधार पर यदि इस पूरे काव्य का अवगाहन किया जाए तो दो सतहों का अनुभव होता है। पहली सतह स्पष्ट है और दूसरी सतह दिखाई नहीं देती। यह दूसरी सतह ही इस काव्य के सामर्थ्य को प्रमाणित करती है। इसी आयाम से ‘गीतगोविन्द’ को देखना ज़रूरी है। ‘गीतगोविन्द’ में अभिव्यक्त प्यार कोई छुपा हुआ प्यार नहीं है। वह खुला हुआ निष्कलुष प्यार है और उक्त खुलापन यह संदेश देता है कि प्यार यदि निष्कलुष है तो दैहिक नहीं है, दैवीय है। यह प्यार वहाँ होता है, जहाँ आकर्षण की आकांक्षा नहीं होती। ‘गीतगोविंद’ प्रेम की सच्ची अस्मिता का विलक्षण आख्याता है। जिन विद्वानों ने ‘गीतगोविंद के संबंध में कार्य किया है उन्होंने ‘गीतगोविंद’ के लालित्य पर विशेष ध्यान दिया है। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वानों ने ‘गीतगोविन्द’ पर कार्य किया है। निश्चित ही ये कार्य उनकी साधना की परिणित हैं, लेकिन ‘गीतगोविंद’ के ‘मंगल श्लोक’ का तो यही संदेश है कि अंधकार में प्रविष्ट होने की अंतिम परिणति भोर ही होती है तथा एक प्रसंग-बिंदु ऐसा आता है, जहाँ अंधकार और उषा की कोख से फूटते प्रकाश में कोई अंतर नहीं होता। ‘गीतगोविंद’ के इसी संदेश ने इसे अपार लोकप्रियता दी।
‘गीतगोविंद’ की अष्टपदियाँ चित्रित की गईं, विभिन्न रागों और रागनियों में गाई गईं और नृत्य की विभिन्न शैलियों में उनका नर्तन हुआ। इसका कारण क्या है ? इसका उत्तर बड़ा सरल है; वह यह कि इस काव्य के माध्यम से जयदेव ने राधा और माधव के प्रेम को उसके वास्तविक स्वरूप में इस तरह उजागर किया कि वह विधा और अनुशासन उसे अपने में समेटे लेने के लिए लालायित हो उठा। प्रेम को केन्द्र में रखकर यों तो जाने कितने काव्य रचे गए होंगे, किंतु प्रेम का वह बहुआयामी स्वरूप इन ग्रंथों के माध्यम से सामने नहीं आया जिस स्वरूप में वह ‘गीतगोविंद’ में अभिव्यक्त हुआ। यह तथ्य भी अपने पर बड़ा विलक्षण है कि यह कव्य केवल आभिजात्य वर्ग के बीच ही लोकप्रिय नहीं था। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सामाज के प्रत्येक वर्ग के बीच यह लोकप्रिय रहा यह जन–सामान्य के बीच भी उतना ही लोकप्रिय था, जितना पंडितों और विद्वानों के बीच। यह लोकप्रियता इस तथ्य में निहित थी कि वह प्रेम हरेक का प्रेम बन गया। राधा-माधव का यह प्यार सर्वग्राही प्यार था, बंधंनजयी था, और ऐसा बाँधनेवाला कि बँधन कभी न टूटे नहीं।
दूसरे दिन मैं धुळे पहुँचा और वहां के कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ। कार्यक्रम के बाद अपनी आदत के मुताबिक मैंने वहाँ के विद्वानों से विशेषकर डॉ. शहा से भारतीय लघुचित्रों के संबंध में तथ्य-संग्रह करने लगा। मैं प्रायः हर स्थान पर करता रहा हूँ। यह तथ्य मेरे लिए अत्यंत आश्चर्यजनक लगा, जब डॉ. शहा ने जानकारी दी कि धुळे में दो स्थान ऐसे हैं, जहां अनेक स्थानों में से एक स्थान को ‘समर्थवाग्देवता मंदिर’ के नाम से जाना जाता है और दूसरे स्थान को ‘राजवाड़े संशोधन मंडल’ के नाम से। उन्होंने मुझे बताया कि समर्थवाग्देवता मंदिर में शायद सन् 1892 जब इस मंदिर की नीव पड़ी, से एक सचित्र पोथी हुई है, जिसपर ‘गीतगोविंद लिखा हुआ है। जिस क्षण डॉ. शहा ने मुझे यह जानकारी दी, उस क्षण हुई अनुभूति को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे। बिना किसी विलंब के मैं और रंजना-दोनों तुरंत मंदिर के अंदर गए और उस पोथी को देखा।
साँझ गहरा गई थी और ‘गीतगोविन्द’ के मंगल श्लोक में वर्णित जयदेव के अनुसार चारों ओर मेघ घिर आए थे। उतरते अंधकार में ‘गीतगोविन्द को देखना एक लोकोत्तर अनुभव था। मुझे लगा कि इस अँधेरे ने मुझे प्रकाश से भर दिया हो, चारों ओर आलोक-ही-आलोक फैल गया हो, असंख्य दीपशिखाएँ मन के अमावस से परिपूर्ण धरातल पर जगमगा उठी हों और एक दीपोत्सव अचानक प्रारंभ हो गया हो। वास्तव में हुआ भी यही। हमने जिस पल इस पोथी को देखा, उसी पल से अँधेरे के बीच प्रकाश की मेरी एक यात्रा शुरू हो गई और यह ‘गीतगोविंद’ मेरे लिए सच्ची पूजा का दैवीय स्वरूप बन गया। उसके बाद मैंने निरंतर धुळे की यात्राएं कीं। अपने मित्र और प्रख्यात पत्रकार व फोटोग्राफर जय नागड़ा को अपने साथ ले गया। उन्होंने इस ‘गीतगोविन्द’ की सुन्दर छवियाँ अपने कैमरे से निकालीं। मैंने अपने विभागीय सहयोगी श्री धन्वंतरी अरझरिया से आग्रह किया किया कि वे इस ‘गीतगोविन्द’ के संबंध के अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करें। उन्होंने ये काम बखूबी किया।
सामान्य रूप से ‘गीतगोविन्द’ एक लंबी संस्कृत कविता है, लेकिन इतनी गीतमय कि चाहे उसे चितेरा देखे, नर्तक देखे या संगीतकार देखे उससे गुज़रते समय वह स्वयं गीत हो जाता है। इस काव्य का सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि इसने भारतीय कलाओं के इतिहास में अपने-आपको शीर्ष पर प्रतिष्ठित किया। यह जितना अभिनीत हुआ, गाया गया, चित्रित किया गया या नृत्य में ढाला गया, उतना ही लोकप्रिय होता गया और बजाय इसके कि प्यास बुझती, कंठ उत्तरोत्तर अधिक सूखते चले गए।
सदियों से विद्वज्जन विभिन्न आयामों से इसका परिशीलन करते रहे हैं, इसकी व्याख्याएं होती रही हैं, लेकिन इस काव्य की अविराम यात्रा कहीं थमती नहीं।
यह पुस्तक इसके चित्रांकन पर केंद्रित है और मैंने यह अनुभव किया है कि भारतीय चित्रांकन की परंपरा के बारे में इस ग्रंथ के संदर्भ में विचार करते समय एक महत्त्वपूर्ण आयाम छूट गया है। ‘गीतगोविंद’ को संस्कृत और हिंदी के विद्वानों के व्याख्यायित किया, किंतु उनके दृष्टिपथ में मध्यकाल की राजस्थान और पहाड़ की विभिन्न शैलियों में रचे गए वे मनोहारी लघुचित्र प्रायः नहीं रहे, जिन्हें चितेरों ने पूरे आस्था-भाव के साथ रूपायित किया। दूसरी ओर कला-जगत के विद्वान् जिन्होंने अपनी कला-समीक्षा का आधार विभिन्न शैलियों में रचे गए इन चित्रों को बनाया ‘गीतोगोविंद’ की आत्मा में पूरी तरह नहीं उतरे पाए और यही कारण रहा कि यह अमर काव्य पंडितों के द्वारा अपने ढंग से देखा गया और विश्लेषित किया गया। यह काव्य वास्तव में कला के विभिन्न अनुशासनों और साहित्य की विभिन्न विधाओं के बीच का सेतु-काव्य है, किंतु इस रामेश्वर पर दृष्टि नहीं जा पाई, एक अतंराल बना रहा जो आज भी है। मेरी दृष्टि में अब ये आवश्यक हो गया है कि ‘गीतगोविंद’ के इस सेतु आस्तित्व पर विचार हो। हिंदी और संस्कृत के विद्वान् केवल अष्टपदियों की व्याख्या तक ही सीमित न रहें और कलाविद् इस ग्रंथ के विभिन्न प्रसंगों के आधार पर बनाए गए चित्रों के तकनीकी विश्लेषण तक ही अपने आपको न बाँधे रखें।
वास्तविकता यह है कि इस महान् वैष्णव काव्य के चित्रों को रचनेवाला कलाकार केवल रंगों और रेखाओं के धनी ही नहीं थे। बल्कि वे उस राधा-भाव के भी महान् आराधक थे जो, आजीवन जयदेव की समूची अस्मिता में बसा रहा है।
‘गीतगोविंद के संबंध में एक बड़ा प्रश्न यह उठया जाता है कि क्या यह केवल दैहिक आकर्षण का कव्य है ? मेरी दृष्टि में ‘नहीं’। यह काव्य वास्तव में ऊँची दैवीय अनुभूति का काव्य है। यदि इसे केवल दैहिक आकर्षण तक ही सीमित किया जाय तो यह इस महान् काव्य के प्रति अन्याय होगा। इस प्रश्न का समाधान तो इसके ‘मंगल श्लोक’ में ही मिल जाता है। ‘मंगल’ में नंद राधा को निर्देश देते हैं कि साँझ गहरा रही है, अँधेरा चारों-ओर घिर रहा है, कृष्ण घर का रास्ता भूल जाएगा। इसलिए इस तुम इसके घर पहुँचा आओ। राधा कृष्ण को लेकर उनके वास्तविक घर की ओर चल पड़ती हैं। राधा कृष्ण की ‘परम आह्लादिनी शक्ति’ हैं। बिना उसके संबल के कृष्ण कहीं जा नहीं सकते। केवल इसी शक्ति में इतनी सामर्थ है कि वह कृष्ण को अपने वास्तविक घर तक पहुँचा सके।
इस एक ही प्रसंग के आधार पर यदि इस पूरे काव्य का अवगाहन किया जाए तो दो सतहों का अनुभव होता है। पहली सतह स्पष्ट है और दूसरी सतह दिखाई नहीं देती। यह दूसरी सतह ही इस काव्य के सामर्थ्य को प्रमाणित करती है। इसी आयाम से ‘गीतगोविन्द’ को देखना ज़रूरी है। ‘गीतगोविन्द’ में अभिव्यक्त प्यार कोई छुपा हुआ प्यार नहीं है। वह खुला हुआ निष्कलुष प्यार है और उक्त खुलापन यह संदेश देता है कि प्यार यदि निष्कलुष है तो दैहिक नहीं है, दैवीय है। यह प्यार वहाँ होता है, जहाँ आकर्षण की आकांक्षा नहीं होती। ‘गीतगोविंद’ प्रेम की सच्ची अस्मिता का विलक्षण आख्याता है। जिन विद्वानों ने ‘गीतगोविंद के संबंध में कार्य किया है उन्होंने ‘गीतगोविंद’ के लालित्य पर विशेष ध्यान दिया है। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वानों ने ‘गीतगोविन्द’ पर कार्य किया है। निश्चित ही ये कार्य उनकी साधना की परिणित हैं, लेकिन ‘गीतगोविंद’ के ‘मंगल श्लोक’ का तो यही संदेश है कि अंधकार में प्रविष्ट होने की अंतिम परिणति भोर ही होती है तथा एक प्रसंग-बिंदु ऐसा आता है, जहाँ अंधकार और उषा की कोख से फूटते प्रकाश में कोई अंतर नहीं होता। ‘गीतगोविंद’ के इसी संदेश ने इसे अपार लोकप्रियता दी।
‘गीतगोविंद’ की अष्टपदियाँ चित्रित की गईं, विभिन्न रागों और रागनियों में गाई गईं और नृत्य की विभिन्न शैलियों में उनका नर्तन हुआ। इसका कारण क्या है ? इसका उत्तर बड़ा सरल है; वह यह कि इस काव्य के माध्यम से जयदेव ने राधा और माधव के प्रेम को उसके वास्तविक स्वरूप में इस तरह उजागर किया कि वह विधा और अनुशासन उसे अपने में समेटे लेने के लिए लालायित हो उठा। प्रेम को केन्द्र में रखकर यों तो जाने कितने काव्य रचे गए होंगे, किंतु प्रेम का वह बहुआयामी स्वरूप इन ग्रंथों के माध्यम से सामने नहीं आया जिस स्वरूप में वह ‘गीतगोविंद’ में अभिव्यक्त हुआ। यह तथ्य भी अपने पर बड़ा विलक्षण है कि यह कव्य केवल आभिजात्य वर्ग के बीच ही लोकप्रिय नहीं था। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सामाज के प्रत्येक वर्ग के बीच यह लोकप्रिय रहा यह जन–सामान्य के बीच भी उतना ही लोकप्रिय था, जितना पंडितों और विद्वानों के बीच। यह लोकप्रियता इस तथ्य में निहित थी कि वह प्रेम हरेक का प्रेम बन गया। राधा-माधव का यह प्यार सर्वग्राही प्यार था, बंधंनजयी था, और ऐसा बाँधनेवाला कि बँधन कभी न टूटे नहीं।
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