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व्यक्ति समाज और संस्कार

रामाश्रय राय

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2588
आईएसबीएन :81-88139-44-0

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इसमें अत्याधुनिक चिंतन को आमने-सामने रखकर संस्कार जैसी परंपरा-प्राप्त अवधारणा का विशद विवेचन....

Vyakti samaj aur sanskar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘व्यक्ति समाज और संस्कार’ पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें अत्याधुनिक चिंतन को भी आमने-सामने रखकर संस्कार जैसी परम्परा प्राप्त अवधारणा का विशद विवेचन किया गया है और संस्कार के पीछे जो विश्व दृष्टि है वह किस प्रकार पश्चिम की-विशेष करके ग्रीष्म के चिन्तन की दृष्टि से प्रथक है, इसका तर्कपूर्ण विवेचन किया गया है। इसमें पाँच अध्याय हैं- विषय प्रवेश संस्कार का आधुनिक अवगम व्यक्ति और समाज, उत्तम जीवन का संस्कार, संस्कार की सार्थकता। लेखन के जीवन-पद्धति की श्रेष्ठता को आँकने समझने के लिए जो तीन प्रमुख कारण दिये गये हैं- व्यक्ति के आन्तरिक जगत् में व्यवस्था, व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन में भिन्न उद्देश्यों की समानता एवं मांगलिक समीकरण और सामुदायिकता की भावना का संरक्षण-इन तीनों दृष्टियों में मानव जीवन के संस्कार की अपरिर्हाता स्पष्ट हो जाती है। इसमें निष्कर्ष है कि कि परम दिव्य सत्ता से संबद्ध सूत्र तोड़कर स्थूल वास्तविकता के अधः स्तर की स्वायत्तवता की माँग की जाती है तो आत्मा रूग्ण हो जाती है। आज यही रूग्णता की स्थित है। भारतीय दर्शन आत्मा-रूपांतरण का आग्रह करता है। यहाँ पर स्वायत्तता की माँग नहीं है, यहाँ निरंतर आत्ममंथन की माँग है। यह माँग ब्रह्म के और अन्तर्जगत् के परस्पर संवाद से ही पूर्ण होती है।

भूमिका


डॉ. रामाश्रय राय मेरे चालीस वर्ष से अधिक के पुराने मित्र हैं। उन्होंने बर्कले विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की थी। उसी समय मैं उस विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापक होकर गया था। उन्होंने पश्चिमी चिंतन को गहरे तरीके से आत्मसात् किया। अंत में उन्हें पश्चिम से मोहभंग हुआ और उन्होंने अपनी परंपरा में प्राप्त वैचारिक सामग्री का आकलन करना शुरु किया। उन्होंने सतही तुलनात्मक अध्ययन न करके तात्त्विक विश्लेषण ऐसी वैचारिक अवधारणाओं का किया, जो भारतीय होते हुए भी सर्वकालीन और सर्वजनीन है। उन्होंने अंग्रेजी और हिन्दी में अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। वे निरंतर मेरे संपर्क में रहे, इसलिए उनकी विचार-यात्रा के सोपानों से मैं परिचित हूँ। मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे संस्कार की अवधारणा पर और संस्कार के द्वारा व्यक्ति और समाज के बीच किस प्रकार का सेतु निर्मित होता है, इसपर श्रद्धानिधि के तत्त्वाधान में तीन व्याख्यान दें। उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार किया और तीन सुचिंतित व्याख्यान गोरखपुर विश्वविद्यालय में श्रद्धानिधि के सहयोग से दिए। इस व्याख्यान माला को उन्होंने पुस्तकाकार रूप दिया है।

इसमें पाँच अध्याय हैं-विषय प्रवेश, संस्कार का आधुनिक अवगम, व्यक्ति और समाज, उत्तम जीवन और संस्कार, संस्कार की सार्थकता। इस लघु आकार की पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें अत्याधुनिक चिंतन को भी आमने-सामने रखकर संस्कार जैसी परंपरा-प्राप्त अवधारणा का विशद विवेचन किया गया है और संस्कार के पीछे जो विश्व-दृष्टि है, वह किस प्रकार पश्चिम की, विशेष करके ग्रीस के चिंतन की, दृष्टि से पृथक है, इसका तर्कपूर्ण विवेचन किया गया है। डॉ. राय ने जीवन पद्धति की श्रेष्ठता को आँकने-समझने के लिए जो तीन प्रमुख कारक दिए हैं- व्यक्ति के आंतरिक जगत् में व्यवस्था, व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन में भिन्न उद्देश्यों की समीचीनता एवं मांगलिक समीकरण और सामुदायिकता की भावना का संरक्षण-इन तीनों दृष्ठियों में मानव जीवन में संस्कार की अपरिहार्यता स्पष्ट हो जाती है। डॉ. राय का निष्कर्ष कि परम् दिव्य सत्ता में संबद्ध सूत्र तोड़कर स्थूल वास्तविकता के अध: स्तर की स्वायत्तता की माँग की जाती है तो आत्मा रुग्ण हो जाती है। आज यही रुगण्ता की स्थिति है।

भारतीय दर्शन आत्म-रूपांतरण का आग्रह करता है, यहाँ पर स्वायत्तता की माँग नहीं है। यहाँ निरंतर आत्ममंथन की माँग है, यह माँग बाह्य और अंतर्जगत् के परस्पर संवाद से ही पूर्ण होती है। श्री राय का यह साहस पूर्ण निष्कर्ष है कि ‘‘धर्म अशरीर, अमूर्त होता है, वह रूप धारण करता है धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा, जिनमें संस्कारों को एक विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अत: शुद्ध तथा सत्यानुव्रती जीवन का अर्थ उसकी प्रत्येक क्रिया को अनुष्ठान में परिवर्तित करना है और जब ऐसा होता है तब अनुष्ठान या यज्ञ कोई सामाजिक व्यवस्था का आधार और संपोषक तत्त्व बन जाता है।’’
ऐसी उत्तम विचारवीथिका के लिए मैं अपने मित्र श्री रामाश्रय राय का हृदय से आभारी हूँ। वे मुझसे छोटे हैं, अत: धन्यवाद न देकर आशीर्वाद देता हूँ कि वे इसी प्रकार के विचारों के अपार क्षीरसागर को मथकर नए-नए जीवनदायी अमृत-कलश निकालते रहें।

विद्यानिवास मिश्र

प्रस्तावना


मैंने परिस्थितिवश संस्कार के संबंध में लिखना स्वीकार कर तो लिया, परन्तु तर्क-बुद्धि इतस्तत: करने लगी। वैसे कारण तो बहुत से थे, परन्तु इनमें से दो का उल्लेख समीचनी है। प्रथम, मेरी शिक्षा-दीक्षा इस निर्णय के बिलकुल ही प्रतिकूल रही है। मेरी-शिक्षा पाश्चात्य दृष्टि में आरोपित ज्ञान-निर्मित की विधाओं से अनुप्रेरित, अनुप्राणित रही है। इसके आधार पर ही मेरे कर्म जीवन का प्रमुख कार्य पठन-पाठन पर टिका रहा है और यह कहने की जरूरत नहीं कि इस दृष्टि में संस्कार के प्रति कोई संवेदना नहीं, सद्भावना नहीं है। इसलिए संस्कार के संबंध में कुछ लिखने का निर्णय आकाश-कुसुम जैसा ही है; अर्थात् तैरने की कला न जानते हुए सागर अवतरण के दुस्साहस जैसा ही है।

दूसरे, संस्कार पर कुछ कहने की, लिखने की प्रबल आकांक्षा होते हुए भी मेरी कठिनाई यह थी कि परंपरानुशासित परिवार में जन्म और भरण-पोषण तो अवश्य हुआ, परन्तु परंपरा से, परंपरा के मूल में आरोपित भारतीय जीवन-दृष्टि, परंपरा की प्रकृति आदि से मेरा रंचमात्र भी परिचय नहीं, उनका कोई अवगम नहीं। इस स्थिति में संस्कार के विषय में कुछ साधिकार कह पाना, लिखा पाना संस्कार के सतही ज्ञान से संभव नहीं। इसके लिए तो गहन-गंभीर अध्ययन, मनन आदि आवश्यक हैं। परन्तु इस ज्ञान का मुझमें सर्वथा अभाव था और इसकी उपलब्धि के लिए मुझे कोई साधना भी अनुपलब्ध था।
परन्तु निर्णय तो कर ही लिया; इस निर्णय को कार्यरूप देने के लिए बेचैनी भी बहुत थी। इस निर्णय के मूल में दो प्रमुख कारक हैं। प्रथम, पाश्चात्य जीवन-दर्शन से अभिप्रेरित-आधारित व्यक्ति की अस्मिता एवं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि का ताना-बाना, इस सभी से उद्भूत, अभिभूत जीवन की विषयताओं, विसंगतियों का अनुभव प्राप्त करने के बाद मन में एक अनिवार्य प्रश्न उठा। यह प्रश्न था- पाश्चात्य जीवन-दृष्टि को अंगीकृत करने के बाद हमने क्या पाया, क्या खोया ?

जो हमने पाया, उसके प्रति वितृष्णा हुई और जो हमने खोया, उसका कोई ज्ञान नहीं। अत: हमने क्या पाया और क्या खोया, इसका लेखा-जोखा लेने के लिए अपनी परंपरा का अवगम आवश्यक है। इस लेखा-जोखा के आधार पर ही हम उस जीवन-दृष्टि, जिसमें परंपरा आरोपित है, अनुप्राणित है, का परिचय पा सकते हैं, उसका सम्यक् मूल्यांकन कर सकते है।
प्रत्येक परंपरा के दो पक्ष होते हैं-एक अमूर्त और दूसरा मूर्त। परंपरा का जो अमूर्त रूप है, उसकी अभिव्यक्ति हमारे सोचने और कार्य करने की प्रणालियों में हुई है और इन दोनों का अभूतपूर्व सम्मिश्रण एवं संयोजन एक महत्त्वपूर्ण रूप से संस्कारों में हुआ है। हमारे जीवन के, जीवन और मरण के दो कूलों के बीच प्रवाहित हो रही जीवन धारा के प्रमुख मोड़ों पर संस्कारों का संपादन होता है। इन संस्कारों के संपादन का हमारे अस्तित्व के भौतिक, सामाजिक और अध्यात्मिक पक्षों के साथ बहुत गहरा संबंध है। अत: परम्परा के सम्यक् बोध के लिए संस्कारों का अवगम होना परमावश्यक है।

अत: इस अनुभूति से प्रभावित होकर संकारों के अध्ययन का काम बहुत ही आवश्यक तो लगा, परन्तु कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा। संस्कृत का आधा-अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बाधा थी। गृह्य सूत्रों में संस्कारों के चरणबद्ध विवरण तो जरूर मिलते हैं, परन्तु इसका खुलासा नहीं होता कि संस्कार का संपादन हमारे लिए क्यों आवश्यक है, इसके मूल में कौन सी दृष्टि है और इस दृष्टि का हमारे वैयक्तिक और सामाजिक जीवन से क्या संबंध है, इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। संस्कारों पर अनेक भाष्य भी मिलते हैं और विवरणात्मक, परिचयात्मक लेखन की भी कमी नहीं है। परन्तु इनसे भी कोई अधिक सहायता नहीं मिलती। संस्कारों का प्रचलन, चाहे जिस रूप में भी हो, पश्चिमी और अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं में भी है। संस्कारों का समाज-शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन भी हुआ है। इन सभी का परिचय पाने के बाद भारतीय समाज में प्रचलित संस्करों का अभिज्ञान और विशिष्टता की अनुभूति प्रखर होती है।

इन सभी बातों को लेकर ही इस पुस्तक का लिखना संभव हो सका है। पुस्तक कैसी है, इसका निर्णय तो सुधी पाठक ही कर सकते हैं। इस पुस्तक की तैयारी के प्रक्रम में मैंने जो ऋण बटोरे हैं, उनका लेखा-जोखा तो करना ही होगा। प्रथम, मैं पं. कमलेश दत्त् त्रिपाठी का अनुगृहीत हूँ, जिन्होंने मेरे निर्णय के बीज को अंकुरित-पल्लवित होने में बड़ी सहायता की है।
दूसरे, जिस शोध-कार्य पर यह पुस्तक आधारित है, उसके लिए इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर दि आर्ट्स, नई दिल्ली के आर्थिक सहायता प्रदान की। मैं इस सेंटर का आभार स्वीकार करता हूँ।

तीसरे, मैं राँटी ड्योढ़ी, मधुबनी के उस कुलीन क्षेत्रीय परिवार का ऋणी हूँ, जिसके प्रत्येक सदस्य ने मुझे स्नेहदान देकर हमारे श्रम को सार्थक बनाया। चौथे, मेरे ऊपर बहुत अनुग्रह रहा है मेरे अग्रज तुल्य पं. विद्यानिवास मिश्र का, जिन्होंने श्रद्धा-विधि-यति, गोरखपुर के तत्वाधान में संस्कार पर व्याख्यान देने का आदेश दिया। उन्हीं व्याख्यानों का पुस्तकाकार रूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। मैंने सदा ही उनका आशीर्वाद ही पाया है, उसी की कामना और अंत में, मैं महेश्वर मिश्र का अनुगृहीत हूँ, जिन्होंने गोरखपुर में मेरे आतिथ्य में कोई कसर नहीं छो़ड़ी।
संस्कारों के विवेचन में मैंने अवश्य ही कई भूलें की होंगी। मैं इन भूलों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ और इनका सारा उत्तरदायित्व लेता हूँ।

-रामाश्रय राय

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