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तीन नाटक

नाग बोडस

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2579
आईएसबीएन :81-85828-71-1

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महिलावादी विमर्ष के पांरपरिक ढाँचों और बंधनों से संघर्ष करती महिलाएँ.....

Teen Natak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक में सम्मिलित तीनों नाटकों के कथ्य, इनके शिल्प तथा भाषायी उपयोग अलग-अलग तरह के हैं। पर इसके बाबजूद इनकी दृष्टि और इनके डिक्शन से नाटककार के हस्ताक्षर पहचाने जा सकते है।
वसीयत में परंपरा और जीवन के अंर्तसंबंध तथा अंतर्विरोध रेखांकित हैं। नाटक के भाषा-विनोद और इसकी मनोरंजन स्थितियों से गुजरते हुए हमारा मानवीय जीवन की त्रासदियों से साक्षात्कार होता है। भाषा के तीखेपन, अभिव्यक्ति की स्पष्ट तथा शब्दों के व्यंग्यात्मक उपयोग से नाटक दिलचस्प और रंजक बना है।
दलित नाटक ही इस नाटक का राजनीतिक होना घोषित करता है। नाटक में जातियों में बँटी अवसरवादी राजनीति को कलात्मक मंचीय मुहावरों में व्याप्त किया गया है। तीन प्रमुख बिंब-(1) पोशाकों में जकड़े रहना, (2) लाश तथा (3) नाटक के ही पात्रों के चरित्रों के रूप में आना नाटक को कलात्मक विशिष्टता प्रदान करता है। आकार में छोट तीसरे नाटक तोता झूठ नहीं बोलता में लेखक ने मंचीय विस्तार के लिए पर्याप्त जगह रखी है। सर्कस के जीवन में स्त्री-विमर्ष भी एक पहलू है।
असल में महिला वादी विमर्श के संकेत इन तीनों ही नाटकों में देखे जा सकते हैं। पारंपरिक ढाँचों और बन्धनों से संघर्ष करती इनकी महिलाएँ अपनी जड़ों से काटन को भी नकारती हैं।


पात्र-परिचय

 

 

    आत्मा   पोपट लाल की आत्मा
  पौरुष      पोपटलाल का सबसे बड़ा बेटा
अंगद        पोपटलाल का दूसरा बेटा
कार्तिक      पोपट लाल का तीसरा बेटा
माँ         पोपट लाल की विधवा
अरुंधती     पोपटलाल की बेटी
प्रह्लाद        अरुंधती का पति
रत्नमाला      पौरुष की पत्नी
कमलिनी       अंगद की पत्नी
सेवकराम      पौरुष का नौकर
मूर्तिकार       अंगद का परिचित
युवक-1
युवक-2        चौपड़ खेलने आये युवक
केवट         अंगद का नौकर
रमापति        एक व्यापारी
प्रमुख आचार्य    संदीपन के प्रमुख
छात्र-1
छात्र-2
छात्र-3      सांदीपन के छात्र
अन्य छात्र
राजा   अंगद का सहयोगी
मणि  कार्तिक का सखा
व्यक्ति-1
व्यक्ति-2
व्यक्ति-3  कार्तिक को मारनेवाले
         शिव भगवान् शिव

 

एक

 

 

सौ वर्ष या इससे पहले का समय।
(स्वर्गीय पोपटलाल का घर। उसे मरे चौदह दिन हुए हैं तथा उसकी मृत्यु से संबंधित सभी कर्मकांड पूरे हो चुके हैं। घर में पुराने किस्म की सजावट। एक ओर कई किताबें करीने से लगी हुईं। पोपटलाल की आत्मा तूफान की तरह तेज नाच करती हुई आती है। वह गरदन तक तंग सफेद रंग के कपड़े पहने हुए है।)
आत्मा : (कुछ देर तक नाच करने के बाद दर्शकों से) चौदह दिन पहले मैं विद्या प्रकाशन का मालिक पोपटलाल था। अब पोपटलाल की आत्मा हूँ। मरने के सभी कर्मकांड पूरे करने और गंगा पूजन करने के बाद यह घर और इसके लोग शुद्ध हो गये हैं, सो इधर चला आया हूँ वह तो अच्छा है, ये लोग मुझे देख नहीं रहे और मेरी आवाज भी नहीं सुन रहे। वरना भूत-भूत कहते भाग खड़े होते।

विद्या प्रकाशन के अलावा पोपटलाल के पास गुडीगुडा का फलों का बगीचा, गल्लीडेरा की एक पत्थर की खदान और यह कोठी थी। लेकिन विद्या प्रकाशन की बात ही और थी। बडे़-बड़े विद्वानों से मेल-जोल रहा। उन्हीं की सलाह से बच्चों के अच्छे-अच्छे नाम रखे। वरना अपना नाम तो पोपटलाल तो किसी पक्षी खानदान का...(मुसकराता है) खूब पैसा कमाया। और खूब बच्चे पैदा किए। तीन मर गए और चार जिंदा हैं। ये चारों अपनी माँ पर गए हैं या भगवान जाने किस पर। मैंने बड़ी-बड़ी कोशिशें कीं; ये मेरी चाह, मेरी आदतों के हिसाब से ढलें, बड़ी-बड़ी सीखे दीं, लेकिन सब बेकार !...(राज की बात बतलाते हुए) कभी-कभी तो शक होता था, ये अपने ही हैं या (आहत मुसकान) खैर, जाने दीजिए, अब सबकुछ छूटने पर क्या !..एक रात ऐसे ही परेशान था कि खयाल आया, आखिर अपन ने भी बच्चों को पाला है। बड़ा किया है। उनपर अपनी भी छाप छूटनी चाहिए। सो सोच-समझकर एक वसीयतनामा लिख दिया। उसी को खोलने अभी सब इकट्ठा हो रहे हैं।...लेकिन देर क्यों ?...(गाली देने की कोशिश) ह...ह...र..र..(गाली न निकलने पर) क्या बात है ? गाली नहीं निकल रही है ?...(पौरुष, अंगद, कार्तिक का प्रवेश) चलो आ रहे हैं। लेकिन केवल तीनों भाई हैं ! बाकी कहाँ मर गए ?...(गाली देने की कोशिश) ह...ह...हरा...रा...(गाली न निकलने पर) फिर गाली नहीं निकली !...ये हो क्या रहा है ?...तो क्या आत्माओं के मुँह से गाली नहीं निकलती ? क्या पता न ही निकलती हो।

अंगद : मैं सोचता हूँ, बापू की एक मूर्ति बनवाऊँ। पत्थर की। उनका इतना बड़ा काम रहा।....एक मूर्ति तो होनी चाहिए !
पौरुष : जरूर होनी चाहिए। मगर मैं उसे विद्या प्रकाशन में नहीं रखूँगा।
कार्तिक : क्यों भैया ?
पौरुष : (टालते हुए) ऐसे ही। घर पर रखेंगे। बैठक में !
कार्तिक : विद्या प्रकाशन में उनके प्राण थे, पौरुष भैया !
पौरुष : (ताव में) उनके प्राण मैंने फूँके हैं। बापू की चलती तो कब का बन्द हो गया होता !
(आत्मा आश्चर्य से उसकी ओर देखती है।)
अंगद : मतलब ?
कार्तिक : (अंगद से) अंगद भैया ! छोड़ो।
अंगद : नहीं-नहीं। पता तो पड़े।...(पौरुष से) हाँ पौरुष ?

पौरुष : (हल्का गुस्सा) बापू ने फटीचर लेखकों की किताबें छापीं। एक संस्करण तीन-तीन सालों में बिकता था। लेखक का मेहनताना मगर पहले ही दे दिया जाता था...(लेखक की नकल उतारते हुए) बड़ी तंगी में हूँ पोपटलालजी ! अगर कुछ रकम मिल जाती तो...?...(खुद की तरह) और पोपटलालजी ?...(बापू की नकल उतारकर) हाँ-हाँ। अवश्य।... मुनीमजी जरा पंकजी का हिसाब तो देखिए।... किंतु पंकजी ! अगली पांडुलिपि कब दे रहे हैं ? जरा जल्दी दीजिए। (खुद की तरह तिरस्कार से) हँ, एक कचरा पांडुलिपि और।
कार्तिक : पौरुष भैया ! बापू ने विद्वान् लेखकों को छापा !...(कमरे की किताबें दिखलाकर) क्या इनमें का एक भी लेखक फटीचर कहा जा सकता है ?
आत्मा : शाबाश बेटा ! तू ही अपने बाप को ठीक से समझ सका।... (गुस्सा) ये ह...ह,...हरा-रा-रा...(खीजकर) गाली नहीं निकलेगी ईईई !
(इस बीच पौरुष तिरस्कार से ‘हं’ कहता है।)

पौरुष : विद्वानों को चूम-चाटकर धंधा नहीं चलता, कार्तिक। बापू ने बिकाऊ लेखक कितने छापे  ? सब मैंने छापे ! मेरी छापी कितबों के पहले संस्करण, चार-छह महीनों में खत्म !...और फिर कई किस्से हैं ! सुनो।...बाहर का एक पुस्तक विक्रेता सैकड़ों किताबें खरीदने बैठा है। बीच में ही एक औरत अदा से मटकती हुई आती है। बापू की बाँछें खिल जाती हैं। बेचारे पुस्तक विक्रेता को ऐसे ही छोड़कर (बापू की नकल उतारकर) आइए देवीजी ! स्वागत है ! इस बार कुछ नई किताबें निकाली हैं...ये देखिए। इत्मीनान से देखिए। घर ले जाइए। अच्छी लगें रखिए, न लगें लौटा दीजिए। अच्छा आप लस्सी लेंगी या शरबत ?...चलिए आपको तीस फीसदी कम दाम में दे देंगे !...(खुद की तरह) और देवीजी पाँचों किताबें लेकर  चल देती हैं। पूरे दो महीने में एक-एक कर लौटाती हैं। पर बापू के चेहरे पर एक शिकन नहीं। उलटे..(बापू की नकल) अजी जल्दी क्या थी ? आ जातीं। आपको कुछ और दुर्लभ किताबें दिखलाता हूँ।...अरे पौरुष ! एक गिलास बढ़िया लस्सी तो लाना। तू ही जाना। केवड़ा डलवाके !...(खुद की तरह) उधर पौरुष लस्सी बनवाता है और इधर बापू देवीजी से घुल-घुलकर गुफ्तगू करने लगते हैं।
कार्तिक : देवीजी गुणी पाठक होंगी।

पौरुष : (कटाक्ष) एक वह थी और एक तू है !...कार्तिक ! किताबों के चक्कर में तूने अपनी जिंदगी बरबाद कर दी। अगर इतना वक्त बगीचे के काम में लगाता तो चार गुना कमाता। छोड़ उस टुच्ची नौकरी की तनखा के तू घर में एक कौड़ी भी लाता है ?..(शेखी) मैंने शहर-शहर जाकर विद्या प्रकाशन का दो-दो साल तक का बकाया वसूला ! आज इसे इलाके का सबसे बड़ा प्रकाशन बनाया है !
आत्मा : अबे तो बुनियाद किसकी थी ? साख किसने बनाकर रखी थी ? अलग से काम करता और बढ़ाता, तब समझता ! (खुद से) बहुत बड़ी भूल हुई ! वसीयत लिखने के पहले इस कपूत को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए था। काश ! अभी भी अपनी वसीयत को बदल पाता ?
अंगद : (पौरुष से) तुम्हारी मेहनत, लगन के हम सभी कायल हैं। मगर बापू की मौत के चौदह दिन बाद ही ऐसे..?
पौरुष : क्या मैं इतना भी नहीं समझता ?...(जोर देकर) न चाहते हुए भी मैंने बापू के सभी क्रिया-कर्म मुस्तैदी से पूरे किए। पर बापू ने खुद..(गुस्सा) उन्हें वसीयत लिखने की क्या जरूरत थी ? वक्त जरूरत से हम बँटवारा कर लेते, या न भी करते !..मैं जानता हूँ, उन्होंने मुझे कभी पसंद नहीं किया। और कहे देता हूँ, वसीयत में कुछ भी हो, अगर मेरे साथ अन्याय हुआ तो इसे बिलकुल नहीं मानूँगा।

आत्मा : (कुढ़कर) ये दोगला है ! मुझपर शक करता है।...गुस्सा तो ऐसा आ रहा है कि इस ह...रा...रा...(खीजकरक) गाली ! क्यों नहीं निकल रही ?...(कोशिश) हरा...रा..!..(निराश) नहीं निकलेगी..क्या कर सकता हूँ ? आत्मा के मुँह से गाली निकलती ही नहीं होगी। जैसी प्रभु की इच्छा।...(सोचकर एकदम चमककर) अब समझ में आया। भगवान् बार-बार इस भूतल पर अवतार क्यों लेते हैं !...स्वर्ग में गाली नहीं दे पाते होंगे। और यहाँ आकर जी-भर के दे लेते होंगे ! राम ने रावण को, कृष्ण ने कंश को जमकर गालियाँ दी होंगी !
(माँ, रत्नमाला, कमलिनी, अरुंधती, प्रह्लाद का प्रवेश। माँ के हाथ में एक कपड़ा लिपटा लिफाफा है।)
माँ : (तारीफ) पौरुष ने अपने पिता के सभी कर्मकांड विधि विधान से पूरे किए। इसकी मर्जी नहीं थी, तब भी...वाह पौरुष ! मन को संतोष मिला।

आत्मा : (चिढ़कर) इसके काम से संतोष ? इसे जूते मार !...(वर्णन करते हुए) मैं भी पहले भुलावे में था। इस कपूत ने जैसे ही कर्मकांड करने की हामी भरी, मेरा तो चित्त प्रसन्न हो गया। और इसी वास्ते जब दसवें दिन के श्राद्ध के बाद इसने कौओं के लिए पिंड बाहर रखे, तो मैंने एक कौए से कहा, भैया जा, फौरन दहीवाला पिंड छू ले। उसने छू लिया। पर आज जो कुछ इससे मालूम हुआ, अगर तब मालूम रहता तो कसम से ! दो दिन तक पिंड न छुलवाता। इसे तड़पाता ! रूलाता ! नाक रगड़वाता। एक के बाद एक कई दान करवाता !..(माँ के पास जाकर) अच्छा दारी ! सही-सही बतला ! ये मेरा औलाद है या तूने किसी के साथ मुँह काला किया था ?

(इस बीच अन्य लोग पौरुष की ओर उत्सुकता से देखते हैं, या किताबें देखते हैं या कमरा ठीक करते हैं।)
पौरुष : तारीफ ठीक है। पर भगवान् अब और कोई मौका न दे,  क्रिया-कर्म का ! भड्डरी पंडित के चौक से ज्यादा घिनौनी जगह श्मशान भी नहीं होती, अरू ! सब जगह कीचड़, राख। गीली जमीन पर बैठना। अन्न का घिनौना इस्तेमाल और उस पाखंडी पंडित का अछूत समझना।...(नकल उतार कर) इधर न छुओ ! उधर न जाओ। अरे ! तुमने उँगली छुला दी ! अब फिर से नहाना पड़ेगा। अंधे हो ? (खुद की तरह) गुस्सा तो ऐसा आता था कि साले को बार-बार छुऊँ और बार-बार नहलावाऊँ !

माँ : मरनेवाले की आत्मा के सामने हम अछूत ही होते हैं, पौरुष ! और वे कीचड़, राख आदि...हमारे पापों के चिन्ह हैं। अशुद्ध अन्न, गीली जमीन का आसन हमारी कुरबानियाँ हैं। क्रिया-कर्म भी हमें अपना घमंड मिटाने के सीख देते हैं कि हे स्वर्गवासी ! तुम्हारी पवित्रता के सामने हम तुच्छ और अछूत ही हैं।
आत्मा : (आश्चर्य) भई कमाल है ! मेरे शरीर छोड़ते ही, यह तो विद्वान् बन गई !
प्रह्लाद : माँ ! मेरा रहना जरूरी न हो तो मैं निकलूँ ?
माँ : बहुत जरूरी है। (लिफाफा निकालकर उस पर लिखा हुआ पढ़ती है।)
मेरे सभी कर्मकांड पूरे होने के बाद, मेरे शादीशुदा दोनों बेटों, बहुओं, मेरी बेटी, जमाई, मेरे कुँवारे बेटे और मेरी घरवाली के सामने इसे खोला और पढ़ा जावे तब तक न खोला-पढ़ा जावे, जब तक कि ये सभी एक जगह मौजूद न हों। (लिफाफा खोलकर वसीयतनामा पौरुष को देते हुए) लो पढ़ो।

आत्मा : (आत्मा बीच में वसीयतनामे को लपकने की कोशिश करती है, पर छू नहीं पाती। खीजकर) धत्तेरे की ! इस ह...रा...रा...को नहीं।
पौरुष : (हिचकिचाते हुए) मैं...मैं...क्यों (वसीयत लेकर) चलो ठीक है। (पढ़ता है) मेरे बेटों-बेटी में आपस में बड़ा प्रेम है।
(आत्मा ‘झूठ-झूठ’ कहती है।) लेकिन जायदाद संबंधों में मनमुटाव लाती है। इसलिए बिना किसी मोह, विद्वेष के और अपनी स्वतंत्र इच्छा से अपनी जायदाद का बँटवारा करता हूँ। मैं विद्या प्रकाशन पौरुष को...
अंगद : (पौरुष से) अब तो खुश ?
आत्मा : नहीं ! ये लालची कभी खुश नहीं हो सकता।

पौरुष :(अंगद को घूरकर देखने के बाद पढ़ना जारी रखता है) गल्ली-डेरा की पत्थर की खदान अंगद को और गुडीगुडा का फलों का बगीचा कार्तिक को देता हूँ। बेटी अरुंधती के विवाह में मैंने काफी धन दिया इसलिए उसे अब पच्चीस तोले सोना और पच्चीस हजार नगद देता हूँ।
अरुंधती  : (लडयाते हुए) क्या बापूऊऊऊ ! मुझे इत्ता चाहते थे और मुझे ही इत्ता कम !
आत्मा : हाँ बेटी ! सब गलत हो गया।
पौरुष : (आगे पढ़ते हुए) घर की कोठी मैं अपनी घरवाली को देता हूँ। अपने बाद वह इसे जैसे चाहे वैसे दे। बाकी पैसा और जेवरात सबमें बराबर-बराबर बँटें।
प्रह्लाद : जैसी बुढ़ऊ की मरजी।...(जाने को होता है।)
आत्मा : अभी कहाँ चले छैला ? असली बात तो अभी आनी है।

पौरुष : प्रह्लाद बैठो !  आगे और है। (प्रह्लाद के रुकने पर) मेरी इच्छा है मेरे बाद मेरी संतान मेरी याद जिंदा रखे। इसके लिए दीवार पर तस्वीर टाँगना और साल में एक बार श्राद्ध करना काफी नहीं। एक-दो साल में तसवीर बासी हो जाती है और श्राद्ध एक ढकोसला। मेरी संतान मेरी याद अपने शरीरों में, अपने दिलों में रखे। और इसलिए मेरे सभी बेटी-बेटे मेरी एक-एक आदत अपनावें, जो सरल न हो, और मरते दम तक यह आदत निभावें।
अंगद : इस उम्र में अब आदत अपनाना ? बापू ने ये फालतू का चक्कर डाल दिया।
पौरुष : सरासर ज्यादती है !
आत्मा : वाह बेटा ! बाप का माल समझ के फोकट में ही लूटना चाहते हो ?
कमलिनी : भावना की बात है ! कोई जबरदस्ती तो है नहीं ?
पौरुष : ऐसा नहीं है। आगे सुनो। (पढ़ता है) जो कोई मेरी शर्त न माने  उसे जायदाद से एक कौड़ी न मिले और उसका हिस्सा बाकी लोगों की मिल्कियत हो।
आत्मा : (मजा लेकर) मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं।

माँ: आप लोग जब उनका एक-एक सद्गुण अपनाओगे, उनकी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी।
अरुंधती  : देखो माँ ! सद्गुण का इस वसीयत में जिक्र नहीं। गुणी-अवगुणी जैसे थे, वे हमारे प्यारे पिता थे।
 आत्मा : (सकपकाकर) ये लड़की चाहती क्या है ?
रत्नमाला : वाह ! बहन तो भाइयों से भी दो कदम आगे निकली !
(माँ को छोड़ अन्य हँसते हैं।)
कार्तिक : (खीजकर) अब जब अपनानी ही है तो जल्दी-जल्दी एक-एक अपनाओ और छुट्टी करो।
प्रह्लाद : किसीको न अपनानी हो तो ? (अरुंधती से) तुम्हें तो जायदाद से कुछ खास मिला भी नहीं है ?
अरुंधती  : मैं तो अपनाऊँगी। अपने प्यारे बापू को याद नहीं करती रहूँगी क्या ?
प्रह्लाद : जैसी तुम्हारी मरजी !...कुछ नियम-वियम भी बना लिये जाएँ।
जिसके बाद में बखेड़ा खड़ा न हो।
रत्नमाला : आप ही सुझाओ फिर नियम ?

प्रह्लाद : अगर सब राजी हों तो ?...(सबसे सहमत होने पर) सीधे-सरल नियम हों। माँ एक-एक आदत बतलाती जाएँ और आपमें से एक उसे मानता जाए उम्र के हिसाब से। बीच में चर्चा के दौरान कोई आदत निकले तो उसे भी ले लें। जिक्र होने के बाद कोई आदत छोड़ी न जाए। एक तो इसका अन्त नहीं होगा और दूसरे उससे बापू का अपमान भी होगा। हाँ, एक को नापसंद होने पर दूसरा अगर उसे लेना चाहे तो यह मंजूर हो। बाकी एक शर्त तो बापू ने ही रखी है। आदत सरल न हो। ऐसी हो जो बंधन डाले, कुछ तकलीफ दे। जैसे घड़ी-घड़ी बालों पर हाथ फेरना या बार बार ‘मतलब, मतलब’ बोलना-ऐसी आदतों को न माना जाए। स्वर्गवासी बुजुर्ग के लिए कुछ कुर्बानी देकर, उसके लिए कुछ तकलीफ झेलकर ही हम उसका अहसान मान सकते हैं।
(सब लोग समर्थन करते हैं।)
आत्मा : ( खुश होकर) वाह रे जमाई राजा ! क्या खूब बजाया बाजा !
माँ : एक-एक आदत के लिए उन्हें बड़ी तकलीफ होती थी। अब वे तुममे अपनी तकलीफ माँग रहे हैं।
प्रह्लाद : तो शुरू कीजिए, माँ !

माँ : भगवान् शंकर की पूजा। हमारे इष्ट देव हैं। बिना नागा पक्के नेम से रोज सुबह पाँच से आठ, पूरे तीन घंटे वे पूजा करते थे। गरमी-सर्दी सब ऋतुओं में। गम, खुशी, शादी, जनेऊ, मुंडन हो तो भी। बुखार  बीमारी में भी। इसलिए कभी लंबे सफर पर नहीं गए। नुकसान उठाया सालों बाहर का बकाया नहीं मिला, पर उनकी पूजा नहीं चूकी। इसलिए महादेव प्रसन्न रहे और तुम सबको काबिल बनाया।
रत्नमाला : (पौरुष से) इसे फौरन अपनाओ। हमेशा हमेशा कमाई की चिन्ता में रहते हो, तीन घंटे तो उससे फुरसत मिलेगी !
आत्मा : (पौरुष के कुछ देर चुप रहने पर) इसपर जबरदस्ती करो ! (पौरुष से) तीन घंटे जब बैठोगे, बेटा ! तब समझ में आएगा तुम्हारा बाप...अगर तुम उसे बाप समझो तो...नेम नियम का कितना पक्का था।
रत्नमाला : (चुप क्यों हो फौरन हाँ करो ! माँ खुश हैं, जो तुम्हारे लिए इत्ती अच्छी आदत निकाली।
पौरुष : (खीजकर) मुझे सोचने का मौका दोगी या नहीं ? 
रत्नमाला : (औरों से) लो सुनों ! ये भी कोई नफा-नुकसान, जोड़-घटाई का सौदा है, जो भूल-चूक की चिन्ता कि जाए ?...(पौरुष से) देखो, नफा भी बढ़ेगा। कुल देवता खुश होंगे, मन को शांति मिलेगी, धंधे में और गहराई से ध्यान लगेगा।
पौरुष : (खीजकर) पकड़ी !...जिद की भी हद होती है।
(रत्नमाला खुश होती है)
अरुंधती : पूजा क्या पाँच की जगह सात बजे से शुरू नहीं हो सकती ?
प्रह्लाद : ऐसा क्यों ?

अरुंधती  : (भोलेपन से) बस, एक मुश्किल होगी। सात बजे तक तो पौरुष भैया टट्टी-फट्टी से फारिग हो पाते हैं (परेशानी दिखाते हुए) कहीं पूजा के बीच में लग आई तो ?
अंगद : तो क्या हुआ ? जाएँ...वहाँ भी जप चालू रखें..ऊँ नमः शिवाय। ऊँ नमः शिवाय।
अरुंधती : (कमलिनी के कान में) साक्षात दर्शन करते हुए। (हँसती है।)
कमलिनी : अरूदीदी ?...निर्लज्ज !
रत्नमाला : इतनी बड़ी हो गई पर ठिठोली को आदत  नहीं गई।
अरुंधती :  रतनभाभी ! मेरी आदत की बात मेरे मरने के बाद। अभी तो हम बापू की पूजा की-हाँ, याद आया। एक बार अंगद ने कहा था, गीता अगर ज्ञान है तो उसे पढ़ने के लिए संडास से अच्छी जगह और नहीं। वहाँ जैसी एकाग्रता होती है, वैसी,...(आत्मा सहित सभी स्तब्ध होते हैं।)
अंगद : शैतान अरुंधती ! अपनी बात मेरे नाम से खपा रही है ?
(माँ को मजाक अच्छा नहीं लगता। उठकर जाने लगती है।)
पौरुष : क्या हुआ माँ ?

माँ : तुम लोग बड़े हो। बाल-बच्चोंवाले हो। करो हँसी-ठठ्ठा। मैं क्या कहूँ ?
अरुंधती  : (भड़ककर) क्या मतलब है माँ ?...क्या हमेशा उदास ही रहें ? बापू की मौत उम्र से हुई है। चौदह दिन तक पूरी मर्यादा से हम दुःखी रहे। अब और कब तक रहें  ?
माँ : तू ठीक कहती है, बेटी। पर मुझ पगली को यह सब सुहाता नहीं है।
रत्नमाला : बापू की मौत से माँ के लिए खालीपन आया है। अब वे इसे उनके स्नेह की, उनके विश्वास की यादों से भर रही हैं। (माँ से) है न माँ ?
 माँ : (विचलित होकर) विश्वास क्या और अविश्वास क्या ? (झिझक) उनके साथ एक लंबी जिंदगी गुजारी है। दुःखी-सुखी जैसी भी थी, बीती जिंदगी ही मेरी सखी है।
(प्रह्लाद चौंकता है।)
अरुंधती  : (भड़ककर) ऐसा कहकर तुम मुझे मुजरिम बना रही हो, माँ ! क्या मुझे अपने प्यारे बापू  के मरने का दुःख नहीं है ?...(जोर देकर) तुम्हें भी बापू की मौत पर से अपना ध्यान हटाना होगा।... अरे हम पर ध्यान दो ! हम उनकी याद अपने शरीरों में बसा रहे हैं।

आत्मा : (अरु के पास जाकर) बहुत बढ़िया कहा। शाबास बेटी !
प्रह्लाद : (जो अब तक विचारमग्न था) माफ करना माँ ! अभी आपने बापू के विश्वास-अविश्वास को लेकर जो कहा, उससे मेरे मन में...
माँ : (बीच में टोककर) क्या मैंने ऐसा कुछ कहा ? नहीं, नहीं ! मेरे उनके बीच ऐसा कुछ नहीं था।
प्रह्लाद : देखिए आप...?
माँ : ऐसे ही मुख से निकल गया होगा, भैया...वे बहुत ही ऊँचे (झिझक) उनके विचार बहुत-बड़े ऊँचे रहे। हमारा जीवन अच्छा, बहुत अच्छा था। और आप लोगों से कुछ छिपा थोड़े ही है।
रत्नमाला : इतना तो मैं कह सकती हूँ , माँ को बापू की तंबाखू खाने की आदत बिल्कुल पसंद नहीं थी। वे इससे बहुत दुःखी रहती थीं।
अरुंधती : (माँ राहत से समर्थन में कुछ कहे इससे पहले ही तपाक से) तंबाकू खाने की आदत मेरी हुई । (सब लोग स्तब्ध होते हैं) अपने प्यारे बापू की याद मैं अपने मुख में बसाकर रखूँगी।
आत्मा : (विचलित) अरे, अरे ! ये लड़की तो...!
 माँ : (विनीत, आहत) तेरे हाथ जोड़ती हूँ, बेटी ! तू कुल की मर्यादा का लिहाज...
अरुंधती : (बीच में टोककर) मैं जानती हूँ, कुलीन औरतें क्या-क्या करती हैं। और माँ ! तुम किस कुल की बात कर रही हो ? तुम्हारे कुल की तो मैं अब रही नहीं।   
 

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