विविध >> सफलता आपकी मुट्ठी में सफलता आपकी मुट्ठी मेंसंजय चड्ढा
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मनुष्य जीवन में सफलता पाने के गुणों का वर्णन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मनुष्य जीवन प्रकृति द्वारा दिया हुआ एक अद्भुत वरदान है। यह हमारा
विशेषाधिकार नहीं है, इसलिए हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि वस्तुओं
का संग्रह ही जीवन नहीं है और न सिर्फ बहुत ज्यादा धन कमा लेना ही सफलता
है। जीवन की सच्ची सफलता सच्चे अर्थों में मन की शान्ति और चिंतामुक्त
वातावरण में ही छुपी हुई है।
जीवन के कुछ दूसरे मायने भी हैं। जीवन सदा ऐसे जीना चाहिए जैसे सागर में पानी का बहाव, जिसको सिर्फ चलते जाना है और सिर्फ आगे बढ़ना है। लेकिन भयमुक्त और चिन्ता-रहित, तभी हम उसे सफल जीवन कह सकते हैं। इस अहसास को बाँटने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है, ताकि हम ध्यान दे सकें कि जीवन का अर्थ क्या है और सफलता का मार्ग क्या है !
जीवन के कुछ दूसरे मायने भी हैं। जीवन सदा ऐसे जीना चाहिए जैसे सागर में पानी का बहाव, जिसको सिर्फ चलते जाना है और सिर्फ आगे बढ़ना है। लेकिन भयमुक्त और चिन्ता-रहित, तभी हम उसे सफल जीवन कह सकते हैं। इस अहसास को बाँटने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है, ताकि हम ध्यान दे सकें कि जीवन का अर्थ क्या है और सफलता का मार्ग क्या है !
सफलता का सार
सफलता का अर्थ एक रहस्य है, जिसका सबके साथ एक जैसा संबंध नहीं है। हम
अपने निजी अनुभव से ही इसको महसूस कर सकते हैं। सिर्फ बहुत ज़्यादा पैसा
कमा लेना ही जीवन की सफलता नहीं है। जीवन की सच्ची सफलता सच्चे अर्थों में
मन की शांति और चिंतामुक्त वातावरण में ही छुपी हुई है।
जीवन प्रकृति का दिया हुआ एक वरदान है, जो हमें अकारण मिला है। यह हमारा विशेषाधिकार नहीं है, इसलिए हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि वस्तुओं का संग्रह ही जीवन नहीं है। जीवन के कुछ दूसरे मायने भी हैं। जीवन सदा ऐसे जीना चाहिए जैसे सागर में पानी का बहाव, जिसको सिर्फ चलते जाना है और सिर्फ आगे बढ़ना है। लेकिन भयमुक्त और चिंतारहित, तभी उसे हम सफल जीवन कह सकते हैं। इस अहसास को बाँटने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है, ताकि हम ध्यान दे सकें कि जीवन का अर्थ क्या है और सफलता का मार्ग क्या है !
जीवन प्रकृति का दिया हुआ एक वरदान है, जो हमें अकारण मिला है। यह हमारा विशेषाधिकार नहीं है, इसलिए हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि वस्तुओं का संग्रह ही जीवन नहीं है। जीवन के कुछ दूसरे मायने भी हैं। जीवन सदा ऐसे जीना चाहिए जैसे सागर में पानी का बहाव, जिसको सिर्फ चलते जाना है और सिर्फ आगे बढ़ना है। लेकिन भयमुक्त और चिंतारहित, तभी उसे हम सफल जीवन कह सकते हैं। इस अहसास को बाँटने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है, ताकि हम ध्यान दे सकें कि जीवन का अर्थ क्या है और सफलता का मार्ग क्या है !
-संजय चड्ढा
1. मस्तिष्क की हलचल
बचपन के बाद हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह खड़ा होता है कि कैसे हम
जीवन में सफलता पाएँगे और वह भी उस परिस्थिति में जहाँ हर आदमी एक-दूसरे
से आगे बढ़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है। हमारा विश्वास डगमगाने
लगता है और मन कमजोर होने लगता है। इतिहास गवाह है कि अगर मन में उमंग हो,
दृढ़ इच्छाशक्ति हो, लेकिन अपने पर भरोसा न हो तो भी सफलता हाथ लगने वाली
नहीं, जैसे अगर नाव हो चप्पू न हो तो नदी पार करना असंभव है। चाहे कितना
ही बड़ा नाविक आ जाए, अपने पर भरोसा, उमंग और संकल्प ही नाव को पार
लगाएगा; क्योंकि करोड़ों लोगों में से कोई विरला ही तेनसिंह और यूरी
गागरिन जैसे साहसी होते हैं, जो इतिहास रचते हैं, नहीं तो व्यक्ति अपने एक
सीमित दायरे में ही अपना जीवन व्यतीत कर देता है और दोष देता रहता है कि
भाग्य साथ नहीं देता। मेरे ग्रह मेरी मदद नहीं कर रहे हैं और मेरा समय
अच्छा नहीं चल रहा है। किंतु न इसमें ग्रहों का दोष है और न ही भाग्य का,
सबकुछ आप पर निर्भर करता है। अगर अच्छी फसल उगानी है तो अच्छी खेती करनी
ही पड़ेगी। समय और ग्रह अच्छी फसल नहीं दे सकते। सिर्फ मेहनत ही रंग लाती
है।
2. लक्ष्य और समय
जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण दो चीजें है-लक्ष्य और समय, जिनके तालमेल से
हम सफलता का द्वार खोल सकते हैं। सबसे पहले हमें अपने लक्ष्य को पहचानना
चाहिए, क्योंकि कभी-कभी सारा जीवन यों ही गुजर जाता है और हम अपने लक्ष्य
को नहीं पहचान पाते, परिणामस्वरूप सफलता प्राप्त नहीं होती। लक्ष्य के
बिना किए गए सारे कार्य ऐसे हैं जैसे हवा में मारा गया तीर। जैसे लक्ष्य
साधे बिना कोई शिकार नहीं कर सकता, चाहे तीर चलाने में कितना ही समय और
परिश्रम लग जाए; किन्तु यही तीर अगर लक्ष्य साधकर चलाया जाए तो निश्चित ही
लक्ष्य सधेगा। इसलिए सफलता की बुलंदी पर लक्ष्य को सीढ़ी बनाकर ही चढ़ा जा
सकता है। जब लक्ष्य की पहचान हो जाए तो अगला प्रश्न खड़ा होता है कि उसे
कैसे पाया जाए, तब हमें सबसे ज़्यादा आवश्यकता होती है वह है-एकाग्रता।
जैसे द्रोणाचार्य की परीक्षा में पाँच पांडवों में से चार को सिर्फ
चिड़िया ही दिखाई पड़ी, जबकि अर्जुन को सिर्फ चिड़िया की आँख दिखाई पड़ी,
क्योंकि आँख ही लक्ष्य था और इतिहास साक्षी है कि अर्जुन संसार का सबसे
बड़ा धनुर्धर सिद्ध हुआ।
अत: एकाग्रता मूलमंत है-अपने लक्ष्य पर विजय पाने के लिए। लेकिन एक बात हमें हमेशा याद रखनी चाहिए कि कभी-कभी एकाग्रता के बावजूद हम लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाते और हमारा प्रयास विफल हो जाता है। लेकिन जैसे एक चीटी कई बार गिरने के बावजूद ऊँचाई पर चढ़ना नहीं छोड़ती और आखिर में सफल हो जाती है, ऐसे ही मनुष्य को भी विफल होने पर निराश नहीं होना चाहिए और चीटी की तरह लगातर प्रयास जारी रखना चाहिए, ताकि हर प्रयास के बाद लक्ष्य से दूरी कम हो जाए। यह अटल सत्य है कि हर प्रयास हमें आगे बढ़ाता और विश्वास दिलाता है कि हम सफल होंगे, जैसा पर्वतारोही भयंकर तूफान में भी सिर्फ आगे बढ़ने की ही सोचता है, न कि नीचे आने की। विपरीत परिस्थिति में वह जहाँ है वहीं ठहर जाता है, ताकि जब तूफान शांत हो जाए तो वह वहीं से पुन: आगे की यात्रा शुरू करे। विपरीत परिस्थिति सबसे ज्यादा उत्साह को कम करती है, क्योंकि अगर परिस्थितियाँ ज्यादा समय तक विपरीत रहें तो यह धारणा बलवती होने लगती है कि अब लक्ष्य पर पहुँचना संभव नहीं।
और फिर शुरू होता है ग्रहों और कुंडलियों का खेल। लोग समझाने लगते हैं कि तुम्हारे ग्रह ठीक नहीं हैं, किसी ज्योतिष को दिखाओ और उपाय पूछो या अपनी कुंडली किसी पंडित को दिखाओ इस संकट का समाधान करवाओ। जब यह स्थिति आ जाती है तो मन अपनी एकाग्रता खोने लगता है और ऐसा महसूस होने लगता है कि जब इतने लोग कह रहे हैं तो हो सकता है कि यह सच हो और मैं गलत होऊँ और जब असफल सिद्ध हो रहे हैं तो लोगों की बातों को बल मिलता है कि मेरा भाग्य ठीक नहीं है या ग्रहों का योग ठीक नहीं है और फिर पंड़ितों या ज्योतिषियों के पास जाने में बुराई भी क्या है ? मन भटकने लगता है और हमारी एकाग्रता नष्ट हो जाती है, जिससे मन लक्ष्य से भटक जाता है। स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे लंबी रात में लगातार आँखें खोलने पर भी रोशनी की चमक नहीं दिखाई पड़ती। ऐसा लगने लगता है कि अब और परिश्रम करना हमारे बस की बात नहीं। तब ठीक उसी समय संयम की आवश्यकता होती है और अगर संयम नहीं रखा गया तो आप अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ना स्थगित कर सकते हैं, जो कि बहुत निराशा जनक स्थिति होगी और फिर यह स्थिति धीरे-धीरे निराशा की ओर ले जाएगी, जो कि पतन की पहली निशानी है। अपने लक्ष्य के बारे में सोचने पर भी डर लगने लगता है और उसकी यही कोशिश होती है कि उसके सामने चर्चा भी न की जाए, क्योंकि वह घबराने लगता है। इसलिए व्यक्ति को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि चाहे कोई भी परिस्थिति बने, मैं उसका सामना डटकर करूँगा और उससे भागूँगा नहीं, क्योंकि भागकर हम जाएँगे भी कहाँ, जहाँ जाएँगे वहीं हमारा अतीत हमारे साथ जाएगा। और हम अतीत से पीछा छुड़ाएँगे भी कैसे ! हर गुजरनेवाला दिन हमारी जिंदगी के इतिहास में शामिल होता जाता है, फिर असफलता से डरना कैसा ?
चाहे कितनी भी असफलता का सामना क्यों न करना पड़े, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हर रात के बाद नया सवेरा लेकर आता है। कोई भी रात चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो, वह अवश्य समाप्त होगी, क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। दिन के बाद रात और रात के बाद फिर दिन, सुख के दु:ख, फिर दु:ख के बाद खुशी-ये नियम प्रकृति ने इसलिए बनाए हैं, ताकि लोगों में हमेशा विश्वास की नींव मजबूत बनी रहे, नहीं तो जीना ही असंभव हो जाएगा। अगर हमें यह लगे कि दु:ख का अंत ही नहीं होगा और सुख कभी आएगा ही नहीं तो हमारी जिंदगी सिमट जाएगी, क्योंकि हम जैसा सोचते हैं उसका वैसा ही प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। आप देखेंगे कि जब किसी भी स्थिति में डरे हुए होते हैं या फिर गुस्से में होते है तो हमारा शरीर वैसा ही नहीं होता जैसा डर और गुस्से से पहले था, वह बिल्कुल बदला हुआ होता है, कभी-कभी तो उससे पसीना भी निकलने लगता है, इसलिए दु:ख या विपरीत परिस्थिति में घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि यह कुछ समय के लिए है और इसका बदलना निश्चित है।
अत: एकाग्रता मूलमंत है-अपने लक्ष्य पर विजय पाने के लिए। लेकिन एक बात हमें हमेशा याद रखनी चाहिए कि कभी-कभी एकाग्रता के बावजूद हम लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाते और हमारा प्रयास विफल हो जाता है। लेकिन जैसे एक चीटी कई बार गिरने के बावजूद ऊँचाई पर चढ़ना नहीं छोड़ती और आखिर में सफल हो जाती है, ऐसे ही मनुष्य को भी विफल होने पर निराश नहीं होना चाहिए और चीटी की तरह लगातर प्रयास जारी रखना चाहिए, ताकि हर प्रयास के बाद लक्ष्य से दूरी कम हो जाए। यह अटल सत्य है कि हर प्रयास हमें आगे बढ़ाता और विश्वास दिलाता है कि हम सफल होंगे, जैसा पर्वतारोही भयंकर तूफान में भी सिर्फ आगे बढ़ने की ही सोचता है, न कि नीचे आने की। विपरीत परिस्थिति में वह जहाँ है वहीं ठहर जाता है, ताकि जब तूफान शांत हो जाए तो वह वहीं से पुन: आगे की यात्रा शुरू करे। विपरीत परिस्थिति सबसे ज्यादा उत्साह को कम करती है, क्योंकि अगर परिस्थितियाँ ज्यादा समय तक विपरीत रहें तो यह धारणा बलवती होने लगती है कि अब लक्ष्य पर पहुँचना संभव नहीं।
और फिर शुरू होता है ग्रहों और कुंडलियों का खेल। लोग समझाने लगते हैं कि तुम्हारे ग्रह ठीक नहीं हैं, किसी ज्योतिष को दिखाओ और उपाय पूछो या अपनी कुंडली किसी पंडित को दिखाओ इस संकट का समाधान करवाओ। जब यह स्थिति आ जाती है तो मन अपनी एकाग्रता खोने लगता है और ऐसा महसूस होने लगता है कि जब इतने लोग कह रहे हैं तो हो सकता है कि यह सच हो और मैं गलत होऊँ और जब असफल सिद्ध हो रहे हैं तो लोगों की बातों को बल मिलता है कि मेरा भाग्य ठीक नहीं है या ग्रहों का योग ठीक नहीं है और फिर पंड़ितों या ज्योतिषियों के पास जाने में बुराई भी क्या है ? मन भटकने लगता है और हमारी एकाग्रता नष्ट हो जाती है, जिससे मन लक्ष्य से भटक जाता है। स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे लंबी रात में लगातार आँखें खोलने पर भी रोशनी की चमक नहीं दिखाई पड़ती। ऐसा लगने लगता है कि अब और परिश्रम करना हमारे बस की बात नहीं। तब ठीक उसी समय संयम की आवश्यकता होती है और अगर संयम नहीं रखा गया तो आप अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ना स्थगित कर सकते हैं, जो कि बहुत निराशा जनक स्थिति होगी और फिर यह स्थिति धीरे-धीरे निराशा की ओर ले जाएगी, जो कि पतन की पहली निशानी है। अपने लक्ष्य के बारे में सोचने पर भी डर लगने लगता है और उसकी यही कोशिश होती है कि उसके सामने चर्चा भी न की जाए, क्योंकि वह घबराने लगता है। इसलिए व्यक्ति को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि चाहे कोई भी परिस्थिति बने, मैं उसका सामना डटकर करूँगा और उससे भागूँगा नहीं, क्योंकि भागकर हम जाएँगे भी कहाँ, जहाँ जाएँगे वहीं हमारा अतीत हमारे साथ जाएगा। और हम अतीत से पीछा छुड़ाएँगे भी कैसे ! हर गुजरनेवाला दिन हमारी जिंदगी के इतिहास में शामिल होता जाता है, फिर असफलता से डरना कैसा ?
चाहे कितनी भी असफलता का सामना क्यों न करना पड़े, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हर रात के बाद नया सवेरा लेकर आता है। कोई भी रात चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो, वह अवश्य समाप्त होगी, क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। दिन के बाद रात और रात के बाद फिर दिन, सुख के दु:ख, फिर दु:ख के बाद खुशी-ये नियम प्रकृति ने इसलिए बनाए हैं, ताकि लोगों में हमेशा विश्वास की नींव मजबूत बनी रहे, नहीं तो जीना ही असंभव हो जाएगा। अगर हमें यह लगे कि दु:ख का अंत ही नहीं होगा और सुख कभी आएगा ही नहीं तो हमारी जिंदगी सिमट जाएगी, क्योंकि हम जैसा सोचते हैं उसका वैसा ही प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। आप देखेंगे कि जब किसी भी स्थिति में डरे हुए होते हैं या फिर गुस्से में होते है तो हमारा शरीर वैसा ही नहीं होता जैसा डर और गुस्से से पहले था, वह बिल्कुल बदला हुआ होता है, कभी-कभी तो उससे पसीना भी निकलने लगता है, इसलिए दु:ख या विपरीत परिस्थिति में घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि यह कुछ समय के लिए है और इसका बदलना निश्चित है।
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