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सागर स्वामी

भा.वा. आठवाले

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2576
आईएसबीएन :81-85828-97-0

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इसमें मराठा वीरों के साहस व वीरता का वर्णन...

Sagar Swami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज हमने अपने देश के इतिहास के अनेक पराक्रमी वीरों को भुला दिया है। आंग्रे वीर भी उन्हीं पराक्रमियों में हैं। जिन आंग्रे वीरों ने अपने साहस व वीरता से भारत के पश्चिमी सागर तट पर अपने देश की रक्षा प्राणों की बाजी लगाकर तथा अडंमान-निकोबार तक अपनी धाक जमाई, उन्हें आज बहुत कम लोग जानते हैं।

इस पुस्तक ‘सागरस्वामी’ में लेखक ने ‘आंग्रे’ विषय से सम्बन्धित विभिन्न स्थानों पर बिखरी पड़ी संदर्भ सामग्री में जो भी सामग्री-पत्र, अभिलेख दस्तावेज उपलब्ध हुए, उनका सूक्ष्मता से अध्ययन कर उसके महत्त्वपूर्ण भाग की रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। इस खोजपूर्ण जानकारी को पाठकों तक पहुँचाना ही इस ग्रंथ-रचना का मुख्य उद्देश्य है।

आशा है, यह अनुसंधानपरक जानकारी जिज्ञासु पाठकों को मराठा शक्ति से अधिकाधिक परिचित करा उनके ज्ञान में वृद्धि करेगी तथा आंग्रे वीरों से उनका वास्तविक परिचय करने में सफल होगी।

ग्रंथ पढ़ने से पहले


‘सागरस्वामी’ ग्रंथ हिंदी भाषी पाठकों के हाथों में देते समय एक बात कहनी पड़ेगी कि मैं रसोइया नहीं, केवल परोसिया हूँ। किंतु हिंदी में इसे प्रस्तुत करने का सारा श्रेय हिंदी के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक श्रीमोरेश्वरजी तपस्वी को है, जिन्होंने बहुत ही आस्था जताते हुए इसे हिंदी का जामा पहनाया।

इस ग्रंथ में कोई नई बात नहीं रखी है। किसी प्रकार का नया अनुसंधान या नया विचार भी इसमें नहीं है। ‘आंग्रे’ विषय से संबद्ध विविध स्थानों पर बिखरी पड़ी संदर्भ सामग्री में जो भी सामग्री—पत्र, अभिलेख, दस्तावेज उपलब्ध हुए, उनका बारीकी से अध्ययन कर उसके महत्त्वपूर्ण भाग को पाठकों तक पहुँचाना ही इस ग्रंथ रचना का उद्देश्य है। अतः मैंने तो एक परोसिया का ही काम किया है।

ऐसा करने के पीछे क्या दृष्टिकोण रहा है उसे थोड़ा स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ। हकीकत यह है कि जिन आंग्रे वीरों ने अपनी भीमपराक्रम के द्वारा भारत के पश्चिमी सागर तट और परिणामतः अपने देश की रक्षा प्राणों की बाजी लगाकर एवं अंडमान तथा निकोबार तक अपनी धाक जमाई, उन आंग्रे वीरों के बारे में देश को लगभग न के बराबर जानकारी है। अठारहवीं सदी में अंडमान और निकोबार मराठा नौसेना के मुख्यालय-से थे और कान्होजी आंग्रे उस सेना के सरखेल यानी सेनापति थे।
उन दिनों जिस क्षेत्र में आंग्रे का राज्य फैला था, वहाँ आज आंग्रे का नामोनिशान नहीं है, और न ही उनके स्वामित्व की रत्ती भर जमीन है। उनका नाम भी आज शायद ही कोई नहीं जानता है। उनके कार्य को भला फिर कौन जानता होगा ? उनके किलों की आज बड़ी दुर्दशा है, इतनी कि खंडहर भी शायद उससे बेहतर हालत में होंगे।

यद्यपि आंग्रे सरदारों की राजधानी अलीबाग थी, उनकी शक्ति का केंद्र असल में विजयदुर्ग या घेरिया किला ही ही था। इसीलिए शत्रुओं के प्रखर हमले इसी किले पर हुए और अंग्रेजशाही का अर्थात् मराठा नाविक-सत्ता का भी दुर्भाग्यपूर्ण अंत इसी किले में हु्आ !

कभी वैभव के शिखर पर विराजमान रहे इस किले की आज की दुर्दशा देखकर जी कसमसा जाता है।
हमने इतिहास के अनेक पराक्रमी वीरों को भुला दिया  है, उसी तरह आंग्रे वीरों को भी हम भूल गए हैं ! उन पराक्रमी वीरों की बजाय हम अपने जीवनकाल में अपने ही स्मारक तैयार करने में मग्न हो गए हैं !
आज जिन चंद लोगों के आंग्रे के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी है, उनमें से अधिकांश लोगों की जानकारी कान्होजी आंग्रे से प्रारंभ होकर कान्होजी आंग्रे तक ही समाप्त हो जाती है। उनका मानना है कि आंग्रे यानी केवल कान्होजी आंग्रे। उनके बाद कोई आंग्रे हुए ही नहीं !

इस भयंकर अज्ञान को देखते हुए आज की पीढ़ी को  आंग्रे घराना और उसके द्वारा किए गए कार्य की जानकारी, संक्षेप में ही सही, देने के उद्देश्य से मैं इस ग्रंथ की रचना करने को प्रवृत्त हुआ।
ग्रंथ की पृष्ठ संख्या बहुत अधिक न हो और यह बोझिल न हो जाए इसका ध्यान रखते हुए आंग्रे घराने से संबंधित सभी तफसील एवं घटनाओं को यहाँ नहीं दिया गया है।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती रोहिणी ने सबसे पहले मुझे श्री ढबू का लिखा ‘कुलाबाकर आंग्रे सरलेख’ ग्रंथ पढ़ने को दिया। पहले ही मैं मानो अभिभूत हो गया। फिर मैंने उसे बार-बार, न जाने कितनी बार पढ़ा। विजयदुर्ग देख आने की प्रबल जिज्ञासा उसके कारण जाग गई। हम तीनों—मैं पत्नी रोहिणी तथा सुपुत्र डॉ. सुनील—कई बार विजयदुर्ग जाकर उस किले से गुफ्तगू करते रहे।

मन में प्रबल इच्छा जाग उठी कि इस महापराक्रमी आंग्रे घराने का कोई उत्तराधिकारी, कोई वंशज मिले। सौभाग्य से उन्हीं दिनों राजमाता विजयाराजे सिंधिया के सावंतवाड़ी आने का कार्यक्रम घोषित हुआ। समाचार में यह भी पढ़ा कि उनके साथ सरदार आंग्रे भी आ रहे हैं। इसलिए देवगढ़ (हमारा निवास स्थान) से कई सौ कि.मी. दूरी पर स्थित सावंतवाड़ी में जाकर हमने उनसे भेंट की। उनके सौजन्य से हम अभूभूत हो गए।

हमने कोशिश की सरदार आंग्रे हमारे यहाँ पधारें। उन्हें उस समय तो आने की फुरसत नहीं थी, किंतु बाद में दो-तीन वर्ष तक हम निरंतर अपनी बात दोहराते रहे, पत्राचार किया, सपरिवार हमारे यहाँ पधारे।
हम उन्हें विजयदुर्ग ले गए। गिर्ये में वे संभाजी आंग्रे की समाधि के सामने खड़े हुए तो एकदम भावविभोर हो गए। उनके गद्गद चेहरे पर उतरती भाव छटाएँ देखते ही बनती थीं। मेरा अहोभाग्य है कि उस ऐतिहासिक क्षण का मैं साक्षी हूँ और अपने आपको धन्य मानता हूँ।
आंग्रेशाही के अंत के बाद विगत दो-ढाई सौ वर्षों में इस क्षेत्र की भूमि को किसी आंग्रे का पदस्पर्श तक नहीं हुआ था। सरदार बालासाहब आंग्रे को विजयदुर्ग ले जाकर वह ऐतिहासिक कार्य मेरे द्वारा किया गया, इसका परम संतोष मुझे है।

उसके बाद तो ग्वालियर से बालासाहब आंग्रे बार-बार हमारे यहाँ आए और अब तो वे हमारे परिवार के ही हो गए हैं। उन्होंने मेरे द्वारा एकत्रित आंग्रे जनों की जानकारी देखी और घंटों बैठकर उसे बारीकी से पढ़ा। कुछ अनमोल सुझाव दिए तथा कुछ संशोधनपरक सूचनाएँ भी दीं। उनके सभी सुझावों तथा सूचनाओं का समावेश करने के बाद ही यह ग्रंथ पूरा हुआ है।

हमारा इतिहास जहाँ स्वार्थ त्याग का है वहीं वह स्वार्थ का भी है। पराक्रम का है तो उसी प्रकार दुर्बलता का भी है। देशभक्ति का भी है और देशद्रोह का भी। विश्वास के साथ विश्वासघात का भी है और फूट के साथ एकता का भी है। वैसे ही सम्मति और गृहकलह का भी है।

इतिहास का यथार्थ चित्रण निश्चय ही हमारे लिए पथ प्रदर्शक होता है। कहते हैं कि ‘इतिहास अपने को दोहराता है।’ आज भी हम अपने ‘ऐसे’ इतिहास को स्वयं को दोहराता पाते हैं। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना है कि ‘इतिहास’ अपने आपको भले दोहराता रहे, किंतु वह दोहराना ‘अच्छे’ इतिहास का हो !
देशद्रोह विश्वासघात, गद्दारी, गृहकलह, सत्ता, लिप्सा, स्वार्थ-परायणता के इतिहास को मत दोहराने दो !

मेरा मानना है कि ‘सागरस्वामी’ ग्रंथ का इतना उपयोग भी मेरे परिश्रम को सार्थक बना देगा ! किंतु इसके लिए आवश्यकता है कि हम अपने इतिहास से सबक लेने को तैयार हों।

आभार मानने तो हैं, किंतु समस्या है कि किन-किनके प्रति आभार प्रकट करूँ ? कारण, इस ग्रंथ को रचने के काम में अनेक लोगों ने विभिन्न प्रकार से सहायता की है। सर्वप्रथम धर्मपत्नी श्रीमती रोहिणी तथा सुपुत्र डॉ. सुनील मेरे अपने आत्मीय होते हुए भी मेरे आभार के पात्र हैं। ये दोनों लगातार इस ग्रंथ के लिए मेरे पीछे न पड़े होते तो शायद यह काम पूरा हो ही नहीं पाता। उन्होंने काफी साधन सामग्री इसके लिए मेरे सम्मुख लाकर रख दी थी।
सरदार बालासाहब आंग्रे ने तो इस ग्रंथ के संदर्भ में काफी ध्यान दिया और सभी तरह से सहायता की। उन्हीं की प्रेरणा और योजना से श्री मोरेश्वर तपस्वीजी जैसे कुशल अनुवादक इसे हिंदी में प्रस्तुत करने के लिए उपलब्ध हो सके। अतः बालासाहब आंग्रे और श्री तपस्वीजी दोनों के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करना चाहता हूँ।
देवगढ़ महाविद्यालय के ग्रंथालय में उपलब्ध कुछ संदर्भ इस ग्रंथ की रचना में काफी उपयोगी रहे हैं।
मैं सबका कृतज्ञतापूर्वक आभार मानता हूँ।

डॉ. भा.वा. आठवले


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