हास्य-व्यंग्य >> अपने अपने लोकतंत्र अपने अपने लोकतंत्रअश्विनी कुमार दुबे
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रोचक हास्य-व्यंग्य...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इसमें एक हाईकमान होता है, जो कभी नहीं चुना जाता । वह सिर्फ होता है,
ब्रह्म की तरह शर्व शक्तिमान। वह कहाँ से आता है और किस प्रकार हाईकमान
कहलाने लगता है, यह कोई नहीं जानता ; परन्तु शक्ति उसकी असीम है। वह सरकार और पार्टी में राई को पर्वत और पर्वत को राई आसानी से बना सकता है। एक दफे जो व्यक्ति, जिस पार्टी में हाई कमान हो गया सो हो गया। फिर उसका पाँव अंगद का पाँव, जिसे उठाना तो दूर कोई माई का लाल हिला तक नहीं सकता। यह
हाईकमान का लोकतंत्र है, जिसमें लोक भी वही है और तंत्र भी वही।
एक कार्य समिति का लोकतन्त्र का होता है। वहाँ विचारों के बादल कभी दिखाई नहीं देते। हाँ, आदेशों की फुहार जरूर झरती है। यों किसी भी पार्टी की कार्य समिति हाईकमान के प्रभामंडल से कभी मुक्त नहीं होती। उसे मुक्त होना भी नहीं चाहिए अन्यथा उसके सदस्यों का जीवन असुरक्षित हो जाएगा। वैसे कागज पर लोकतन्त्रिक परम्पराओं का पूर्ण पालन होता है। प्रस्ताव आते हैं। उन पर बहसें होती है लोग टीका टिप्पणी करते हैं। परन्तु होता वही है जो मन्जूरे हाईकमान होता है। यही सार्थक और मूल्यवान् लोक तांत्रिक आदर्श है। वैसे कार्य समिति लोकतान्त्रिक आदर्श हैं कार्य समिति उच्च अधिकार समिति और ऐसी ही बड़ी-बड़ी समितियाँ को देखकर लगता है, कि हमारे देश में लोकतन्त्र की जड़े बहुत गहरी और मजबूर हैं।
यह गौरव की बात हैं कि हमारे मुल्क में भी पैंतीस प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। वे कहाँ अगूठा लगाते है, उन्हें पता नहीं है। हमारी पूरी कोशिश है कि विचार न जन से, सोच पैदा न हो और मत सदा दिग्भ्रमित रहे। लोक कहीं भी जाए, परन्तु तंत्र सदा हमारे हाथ में रहे।
एक कार्य समिति का लोकतन्त्र का होता है। वहाँ विचारों के बादल कभी दिखाई नहीं देते। हाँ, आदेशों की फुहार जरूर झरती है। यों किसी भी पार्टी की कार्य समिति हाईकमान के प्रभामंडल से कभी मुक्त नहीं होती। उसे मुक्त होना भी नहीं चाहिए अन्यथा उसके सदस्यों का जीवन असुरक्षित हो जाएगा। वैसे कागज पर लोकतन्त्रिक परम्पराओं का पूर्ण पालन होता है। प्रस्ताव आते हैं। उन पर बहसें होती है लोग टीका टिप्पणी करते हैं। परन्तु होता वही है जो मन्जूरे हाईकमान होता है। यही सार्थक और मूल्यवान् लोक तांत्रिक आदर्श है। वैसे कार्य समिति लोकतान्त्रिक आदर्श हैं कार्य समिति उच्च अधिकार समिति और ऐसी ही बड़ी-बड़ी समितियाँ को देखकर लगता है, कि हमारे देश में लोकतन्त्र की जड़े बहुत गहरी और मजबूर हैं।
यह गौरव की बात हैं कि हमारे मुल्क में भी पैंतीस प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। वे कहाँ अगूठा लगाते है, उन्हें पता नहीं है। हमारी पूरी कोशिश है कि विचार न जन से, सोच पैदा न हो और मत सदा दिग्भ्रमित रहे। लोक कहीं भी जाए, परन्तु तंत्र सदा हमारे हाथ में रहे।
गणेशजी के नाम एक चिट्ठी
चिर स्मरणीय गणेशजी,
सादर प्रणाम !
आजादी के बहुत साल पहले ही लोकमान्य तिलकजी
ने गणनायक के रूप में आपको
भलीभाँति पहचान लिया था। भारत के गणतंत्र का नायक कैसा हो, इसकी छवि
उन्होंने आपमें देखी थी। तिलकजी और उनके जैसे लोग यदि आजादी के बाद जीवित
रहते तो जरूर भारत का गणनायक आपके समान ही होता। परंतु हर्ष की बात है कि
नई पीढ़ी ने वह घिसा-पिटा आदर्श नहीं अपनाया जो पूर्ववर्ती पीढ़ी ने
स्थापित किया था।
तिलकजी चाहते थे कि भारत का गणनायक आपके समान विघ्न-विनाशक हो। अब यदि विघ्नहीन रहें तो जीने का क्या मजा ! इसलिए हमारे नये नेताओं ने रोज नई समस्याएँ पैदा कीं। आजादी के बाद देश ने इतनी प्रगति की कि आज देश में समस्याओं की दलदल है। चारों ओर समस्याएँ-ही-समस्याएँ, विघ्न-ही-विघ्न। नेता प्रसन्न हैं। पुरानी पीढ़ी की परिकल्पना थी कि देश का गणनायक विघ्न-विनाशक हो। हमने विघ्न पैदा करनेवाले गणनायक बनाए। यह प्रगति है।
आप गणदेवता हैं। आपको अपने गणों के दु:खों की, तकलीफों की बहुत चिंता रहती है। आप खुद दु:खी रहकर अपने गणों का दु:ख दूर करते हैं। हमने तसवीरों में, मूर्तियों में साफ-साफ देखा है कि आपके हाथ में लड्डू हो, न हो, परंतु आपके वाहन चूहे के हाथ में लड्डू जरूर होता है। चूहा आखिरी प्राणी है। आपको उसकी चिंता है। समाज के अंतिम प्राणी को जब तक लड्डू न मिल जाए, आप भोजन ग्रहण नहीं करते। यह आदर्श है गणदेवता का। हमारे गणदेवता दूसरी तरह से सोचते हैं। उन्हें पहले अपनी चिंता है। समाज का आखिरी आदमी भूखा है, नंगा है और फटेहाल है; परंतु उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं। ज्यादा हुआ तो वे अपने पुत्रों, सालों और रिश्तेदारों के लिए लड्डू की व्यवस्था जरूर कर देते हैं। आजादी के बाद देश में लड्डुओं का बँटवारा ऊपर-ही-ऊपर हो रहा है। आखिरी आदमी ‘चूहा’ दु:खी है, परेशान है। वह टुकुर-टुकुर आशा भरी निगाहों से अपने गणेशजी को, जिन्हें वह सदा अपनी पीठ पर लादे रहता है, देख रहा है। उधर गणेशजी भूखे चूहे की पीठ पर लदे बड़े मजे से मोतीचूर के तर लड्डू उड़ाए जा रहे हैं।
गणेशजी, आप बुद्धि और विवेक के धनी हैं। हमारे गणनायक को भी वैसा ही होना चाहिए था; परंतु वे इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें पढ़ने-लिखने का समय ही नहीं मिलता। यों भी अब देश में राज करने के लिए बुद्धि और विवेक की जरूरत नहीं रही। अब जरूरत है तिकड़म की, गुटबाजी और वोट बैंक की। इसलिए हमारे गणदेवता बुद्धि और विवेक को बलाए ताक रखकर रात-दिन वोटों की चिंता में लगे रहते हैं। वोट उनके हैं तो वे गणपति हैं। वोट दूसरे के हो जाएँगे तो वह गणपति हो जाएगा। बुद्धि और विवेक का धनी कोई गणेश आज शिखर पर दिखाई नहीं देता।
गणेशजी, आपकी नाक बहुत लंबी है। हर गणनायक की होनी चाहिए। नाक बहुत संवेदनशील होती है। नाक की घ्राण शक्ति से हमें हर खतरे का पूर्वाभास हो जाता है। नाक हमें तुरंत बता देती है कि आगे ऐसा है, या वैसा है। इसलिए नाक का परिपुष्ट होना जरूरी है। नाक मान-सम्मान का प्रतीक है। नाक है तो सबकुछ है। जिसकी नाक ही कट गई उसके पास फिर क्या बचा ! इसलिए हमने लंबी नाक वाले गणेशजी को प्रथम वंदनीय माना। इधर बिना नाकवाले लोगों की संख्या बढ़ी है। कुछ लोग सुबह गणेशजी की पूजा करते हैं। खेलों में नाक कटवाने की परंपरा हमारी पुरानी है। कभी फुटबॉल में तो कभी हॉकी में हम अपनी नाक कटवाते रहते हैं। ओलंपिक खेलों से लौटकर तो हमें अपने चेहरों को टटोलकर देखना होता है कि कहीं नाक का निशान भी बचा है कि वह भी मिट गया। नाक कटवाने की दिशा में हमने कीर्तिमान स्थापित किया है। आजकल नए-नए घोटालों के समाचार आ रहे हैं। जिन्हें हम लंबी नाकवाला समझते थे पता चला, वे तो बहुत पहले ही कटा चुके हैं। इधर नकली नाक से काम चला रहे थे। आजकल लंबी नाकवाले को देखकर यह भ्रम होता है कि कहीं इसकी नकली तो नहीं है।
गणेशजी, आपको यह लिखते हुए मुझे बेहद दु:ख हो रहा है कि आपके देश में, जहाँ नाक की महिमा में चार चाँद लगाए थे वहाँ अब नाक की प्रतिष्ठा बिलकुल कम हो गई है। हमारे गणनायक अब बिना नाक के सुखपूर्वक जी रहे हैं।
गणेशजी, आपके कान बड़े हैं। दूर किसी भी कोने में कोई दु:खी रोता है, कराहता है या चीखता है तो आपके कान उसकी आवाज तुरंत सुन लेते हैं। आपके कान सजग हैं, संवेदनशील हैं; दु:खी और पीड़ित जन की पुकार वे तत्काल सुनते हैं। गणनायक के कान यदि बड़े न हों तो वह अपने देश के करोड़ों दलितों, पीड़ितों और दुखियों की पुकार कैसे सुन पाएगा। आजकल कान में रुई डालने का फैशन है। हमारे गणनायक अपने कानों में रुई घुसेड़े जनता की समस्याएँ सुनते हैं। एक बड़े नेता कान में मशीन लगाते हैं। पिछले दिनों कर्मचारियों का एक डेलीगेशन अपनी समस्याओं के लिए उनसे मिलने गया। उन्होंने बड़े प्रेम से बैठाया। चाय भी पिलाई। फिर कान की मशीन निकालकर टेबल पर रखते हुए बोले, ‘कहिए, आपकी क्या समस्या है ?’
बड़े कान हों तो उनपर जूँ रेंग सकती है। जूँ को रेंगने के लिए भी तो कुछ जगह चाहिए। जिनके कान पिद्दी-से हैं उनपर भला क्या जूँ रेंगेगी ! अधिकांश लोगों के कान तो यों ही बहुत छोटे हैं, फिर उनमें वर्षों से मैल जमा हुआ है। वे अपनी बीवी की समस्याएँ नहीं सुन पाते तो देश की समस्याएँ क्या सुनेंगे। कुछ लोग, जो अपने कानों में कड़वा तेल डाले रहते हैं, उलटा सुनते हैं। उनसे कहो कि फलाँ जगह बाढ़ आ गई है तो वे अपने चहेते अफसरों को सूखा राहत फंड का इंचार्ज बनाकर वहाँ भेज देते हैं।
गणेशजी, आप तो अपने कानों से दीन-दुखियों की बातें सुनते थे। हमारे गणनायक अपनी प्रशंसा, अफवाहें एवं विरोधियों की आलोचना के सिवा और कुछ नहीं सुनते।
गणेशजी, आपके जैसा मातृभक्त संसार में और कौन मिलेगा। माता की आज्ञा पालने के लिए आप अपने पिता महादेव से भिड़ गए। सिर कटा दिया, परंतु आपने मातृ आज्ञा का उल्लंघन न होने दिया। आप जननी के परम सेवक हैं। भारत माता की सेवा के लिए हमें ऐसे ही जननायक चाहिए। ‘सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर झुका सकते नहीं।’ परंतु हमारे ही देश में रक्षा सौदों में घपले उजागर हुए। हमारे जननायकों ने खुशी-खुशी मातृभूमि का बँटवारा स्वीकार कर लिया था।
जब सारे देवता ब्रह्मांड की परिक्रमा करने के लिए दौड़ रहे थे तब आपने माता-पिता की परिक्रमा करके प्रथम पूज्य होने का अधिकार पाया। हमारे नेता प्रथम पूज्य तो होना चाहते हैं, परंतु अपने माँ-बाप का अपमान करके। पिछले दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए कुछ नेताओं की प्रतिकूल टिप्पणियाँ समाचारपत्रों में छपीं। कुछ ने तो उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहे जाने पर अपना विरोध व्यक्त किया। इस प्रकार गणनायक माता-पिता से नहीं, सिर्फ अपने आपसे प्रेम करते हैं।
आजाद भारत के नव गणतंत्र के लिए गणदेवता का प्रतीक चुना गया था। ऋद्धि-सिद्धि अगल-बगल हों; लंबी नाक, लंबे कानवाला, विद्या और विवेक का धनी हमारा गणनायक हो; वह मातृभक्ति के प्रति समर्पित हो और चूहे तक के हाथ में सदा लड्डू रहे, इसके लिए कृतसंकल्प हो।
गणेशजी, मुझे आपको यह लिखते हुए बहुत दु:ख हो रहा है कि हर वर्ष हम आपकी पूजा-अर्चना तो बड़ी धूमधाम से करते हैं परंतु आपके आदर्श बिलकुल नहीं अपनाते। हमारे गणयनाक आपकी कसौटी पर पूरी तरह खरे नहीं हैं। वे गणदेवता होकर प्रथम पूज्य तो होना चाहते हैं, इसके लिए वे एड़ी-चोटी का पसीना भी एक कर डालते हैं; परंतु खुद लड्डू ढकोसते हुए बेचारे चूहों के पेट की उन्हें कोई चिंता नहीं है। कान बंद हैं उनके। नाक का कहीं अता-पता नहीं है। विद्या और विवेक से कभी उनका वास्ता नहीं रहा। मातृभक्ति के संस्कार उनमें नहीं हैं। बावजूद उनकी यही चाहत है कि गणनायक के रूप में उन्हें सदा प्रतिष्ठा मिलती रहे।
शेष यहाँ सब कुशल-मंगल है। आप वहाँ स्वर्ग में बैठे सोचते होंगे कि संसार के सबसे बड़े गणतांत्रिक देश ने अब तक बहुत प्रगति कर ली होगी। तो इस संदर्भ में मुझे यही कहना है कि हम श्री गणेशाय नम: से चले थे और गोबर गणेश तक पहुँचे।
तिलकजी चाहते थे कि भारत का गणनायक आपके समान विघ्न-विनाशक हो। अब यदि विघ्नहीन रहें तो जीने का क्या मजा ! इसलिए हमारे नये नेताओं ने रोज नई समस्याएँ पैदा कीं। आजादी के बाद देश ने इतनी प्रगति की कि आज देश में समस्याओं की दलदल है। चारों ओर समस्याएँ-ही-समस्याएँ, विघ्न-ही-विघ्न। नेता प्रसन्न हैं। पुरानी पीढ़ी की परिकल्पना थी कि देश का गणनायक विघ्न-विनाशक हो। हमने विघ्न पैदा करनेवाले गणनायक बनाए। यह प्रगति है।
आप गणदेवता हैं। आपको अपने गणों के दु:खों की, तकलीफों की बहुत चिंता रहती है। आप खुद दु:खी रहकर अपने गणों का दु:ख दूर करते हैं। हमने तसवीरों में, मूर्तियों में साफ-साफ देखा है कि आपके हाथ में लड्डू हो, न हो, परंतु आपके वाहन चूहे के हाथ में लड्डू जरूर होता है। चूहा आखिरी प्राणी है। आपको उसकी चिंता है। समाज के अंतिम प्राणी को जब तक लड्डू न मिल जाए, आप भोजन ग्रहण नहीं करते। यह आदर्श है गणदेवता का। हमारे गणदेवता दूसरी तरह से सोचते हैं। उन्हें पहले अपनी चिंता है। समाज का आखिरी आदमी भूखा है, नंगा है और फटेहाल है; परंतु उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं। ज्यादा हुआ तो वे अपने पुत्रों, सालों और रिश्तेदारों के लिए लड्डू की व्यवस्था जरूर कर देते हैं। आजादी के बाद देश में लड्डुओं का बँटवारा ऊपर-ही-ऊपर हो रहा है। आखिरी आदमी ‘चूहा’ दु:खी है, परेशान है। वह टुकुर-टुकुर आशा भरी निगाहों से अपने गणेशजी को, जिन्हें वह सदा अपनी पीठ पर लादे रहता है, देख रहा है। उधर गणेशजी भूखे चूहे की पीठ पर लदे बड़े मजे से मोतीचूर के तर लड्डू उड़ाए जा रहे हैं।
गणेशजी, आप बुद्धि और विवेक के धनी हैं। हमारे गणनायक को भी वैसा ही होना चाहिए था; परंतु वे इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें पढ़ने-लिखने का समय ही नहीं मिलता। यों भी अब देश में राज करने के लिए बुद्धि और विवेक की जरूरत नहीं रही। अब जरूरत है तिकड़म की, गुटबाजी और वोट बैंक की। इसलिए हमारे गणदेवता बुद्धि और विवेक को बलाए ताक रखकर रात-दिन वोटों की चिंता में लगे रहते हैं। वोट उनके हैं तो वे गणपति हैं। वोट दूसरे के हो जाएँगे तो वह गणपति हो जाएगा। बुद्धि और विवेक का धनी कोई गणेश आज शिखर पर दिखाई नहीं देता।
गणेशजी, आपकी नाक बहुत लंबी है। हर गणनायक की होनी चाहिए। नाक बहुत संवेदनशील होती है। नाक की घ्राण शक्ति से हमें हर खतरे का पूर्वाभास हो जाता है। नाक हमें तुरंत बता देती है कि आगे ऐसा है, या वैसा है। इसलिए नाक का परिपुष्ट होना जरूरी है। नाक मान-सम्मान का प्रतीक है। नाक है तो सबकुछ है। जिसकी नाक ही कट गई उसके पास फिर क्या बचा ! इसलिए हमने लंबी नाक वाले गणेशजी को प्रथम वंदनीय माना। इधर बिना नाकवाले लोगों की संख्या बढ़ी है। कुछ लोग सुबह गणेशजी की पूजा करते हैं। खेलों में नाक कटवाने की परंपरा हमारी पुरानी है। कभी फुटबॉल में तो कभी हॉकी में हम अपनी नाक कटवाते रहते हैं। ओलंपिक खेलों से लौटकर तो हमें अपने चेहरों को टटोलकर देखना होता है कि कहीं नाक का निशान भी बचा है कि वह भी मिट गया। नाक कटवाने की दिशा में हमने कीर्तिमान स्थापित किया है। आजकल नए-नए घोटालों के समाचार आ रहे हैं। जिन्हें हम लंबी नाकवाला समझते थे पता चला, वे तो बहुत पहले ही कटा चुके हैं। इधर नकली नाक से काम चला रहे थे। आजकल लंबी नाकवाले को देखकर यह भ्रम होता है कि कहीं इसकी नकली तो नहीं है।
गणेशजी, आपको यह लिखते हुए मुझे बेहद दु:ख हो रहा है कि आपके देश में, जहाँ नाक की महिमा में चार चाँद लगाए थे वहाँ अब नाक की प्रतिष्ठा बिलकुल कम हो गई है। हमारे गणनायक अब बिना नाक के सुखपूर्वक जी रहे हैं।
गणेशजी, आपके कान बड़े हैं। दूर किसी भी कोने में कोई दु:खी रोता है, कराहता है या चीखता है तो आपके कान उसकी आवाज तुरंत सुन लेते हैं। आपके कान सजग हैं, संवेदनशील हैं; दु:खी और पीड़ित जन की पुकार वे तत्काल सुनते हैं। गणनायक के कान यदि बड़े न हों तो वह अपने देश के करोड़ों दलितों, पीड़ितों और दुखियों की पुकार कैसे सुन पाएगा। आजकल कान में रुई डालने का फैशन है। हमारे गणनायक अपने कानों में रुई घुसेड़े जनता की समस्याएँ सुनते हैं। एक बड़े नेता कान में मशीन लगाते हैं। पिछले दिनों कर्मचारियों का एक डेलीगेशन अपनी समस्याओं के लिए उनसे मिलने गया। उन्होंने बड़े प्रेम से बैठाया। चाय भी पिलाई। फिर कान की मशीन निकालकर टेबल पर रखते हुए बोले, ‘कहिए, आपकी क्या समस्या है ?’
बड़े कान हों तो उनपर जूँ रेंग सकती है। जूँ को रेंगने के लिए भी तो कुछ जगह चाहिए। जिनके कान पिद्दी-से हैं उनपर भला क्या जूँ रेंगेगी ! अधिकांश लोगों के कान तो यों ही बहुत छोटे हैं, फिर उनमें वर्षों से मैल जमा हुआ है। वे अपनी बीवी की समस्याएँ नहीं सुन पाते तो देश की समस्याएँ क्या सुनेंगे। कुछ लोग, जो अपने कानों में कड़वा तेल डाले रहते हैं, उलटा सुनते हैं। उनसे कहो कि फलाँ जगह बाढ़ आ गई है तो वे अपने चहेते अफसरों को सूखा राहत फंड का इंचार्ज बनाकर वहाँ भेज देते हैं।
गणेशजी, आप तो अपने कानों से दीन-दुखियों की बातें सुनते थे। हमारे गणनायक अपनी प्रशंसा, अफवाहें एवं विरोधियों की आलोचना के सिवा और कुछ नहीं सुनते।
गणेशजी, आपके जैसा मातृभक्त संसार में और कौन मिलेगा। माता की आज्ञा पालने के लिए आप अपने पिता महादेव से भिड़ गए। सिर कटा दिया, परंतु आपने मातृ आज्ञा का उल्लंघन न होने दिया। आप जननी के परम सेवक हैं। भारत माता की सेवा के लिए हमें ऐसे ही जननायक चाहिए। ‘सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर झुका सकते नहीं।’ परंतु हमारे ही देश में रक्षा सौदों में घपले उजागर हुए। हमारे जननायकों ने खुशी-खुशी मातृभूमि का बँटवारा स्वीकार कर लिया था।
जब सारे देवता ब्रह्मांड की परिक्रमा करने के लिए दौड़ रहे थे तब आपने माता-पिता की परिक्रमा करके प्रथम पूज्य होने का अधिकार पाया। हमारे नेता प्रथम पूज्य तो होना चाहते हैं, परंतु अपने माँ-बाप का अपमान करके। पिछले दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए कुछ नेताओं की प्रतिकूल टिप्पणियाँ समाचारपत्रों में छपीं। कुछ ने तो उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहे जाने पर अपना विरोध व्यक्त किया। इस प्रकार गणनायक माता-पिता से नहीं, सिर्फ अपने आपसे प्रेम करते हैं।
आजाद भारत के नव गणतंत्र के लिए गणदेवता का प्रतीक चुना गया था। ऋद्धि-सिद्धि अगल-बगल हों; लंबी नाक, लंबे कानवाला, विद्या और विवेक का धनी हमारा गणनायक हो; वह मातृभक्ति के प्रति समर्पित हो और चूहे तक के हाथ में सदा लड्डू रहे, इसके लिए कृतसंकल्प हो।
गणेशजी, मुझे आपको यह लिखते हुए बहुत दु:ख हो रहा है कि हर वर्ष हम आपकी पूजा-अर्चना तो बड़ी धूमधाम से करते हैं परंतु आपके आदर्श बिलकुल नहीं अपनाते। हमारे गणयनाक आपकी कसौटी पर पूरी तरह खरे नहीं हैं। वे गणदेवता होकर प्रथम पूज्य तो होना चाहते हैं, इसके लिए वे एड़ी-चोटी का पसीना भी एक कर डालते हैं; परंतु खुद लड्डू ढकोसते हुए बेचारे चूहों के पेट की उन्हें कोई चिंता नहीं है। कान बंद हैं उनके। नाक का कहीं अता-पता नहीं है। विद्या और विवेक से कभी उनका वास्ता नहीं रहा। मातृभक्ति के संस्कार उनमें नहीं हैं। बावजूद उनकी यही चाहत है कि गणनायक के रूप में उन्हें सदा प्रतिष्ठा मिलती रहे।
शेष यहाँ सब कुशल-मंगल है। आप वहाँ स्वर्ग में बैठे सोचते होंगे कि संसार के सबसे बड़े गणतांत्रिक देश ने अब तक बहुत प्रगति कर ली होगी। तो इस संदर्भ में मुझे यही कहना है कि हम श्री गणेशाय नम: से चले थे और गोबर गणेश तक पहुँचे।
-आपका एक भक्त
पृथ्वी शांति: वनस्पतय: शांति: ओषधय: शांति:
वैदिक युग में लोग प्रार्थना करते थे, आधुनिक
युग में कर्म करते हैं। यह
कर्मप्रधान युग कहा गया है, इसलिए सब लोग कर्म करते हैं और कर्म के सिवा
कुछ नहीं करते। अब जैसे पुरातन प्रार्थना को ही लें-पृथ्वी शांति:। वैदिक
ऋषि चाहते रहे होंगे कि पृथ्वी पर सर्वत्र शांति रहे। हम लोग पृथ्वी को ही
शांत कर देने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। दुनिया के सभी देशों ने मिलकर
इतने घातक हथियार बना लिये हैं कि इस पृथ्वी को यदि सात बार मिटाना पड़े
तो उनके पास पर्याप्त साधन हैं। एक-दो-तीन बार में यदि पृथ्वी किसी प्रकार
बच जाए तो सात बार मिटाने के उन्नत साधनों से पृथ्वी की चिंदी न बचेगी।
पृथ्वी शांति:।
द्वितीय विश्वयुद्ध में हमने पृथ्वी के कुछ हिस्सों को मिटाकर अच्छी सफलता पाई। उस प्रयोग से प्रेरणा लेकर कई देश आगे आए। अब तो छोटे-छोटे पिद्दी-से देशों ने भी बड़े-बड़े परमाणु हथियार बना लिये हैं।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सुदूर अंतरिक्ष में कहीं जीवन हो सकता है। अभी सिर्फ अनुमान है। निश्चित नहीं है कि अंतरिक्ष में जीवन कहाँ है। तो इतने विशाल अंतरिक्ष में सिर्फ पृथ्वी पर ही जीवन रहे, यह ठीक बात नहीं है। प्रकृति-विरोधी है यह। जब सब ग्रह खाली और उजाड़ हैं तब पृथ्वी पर ही जीवन क्यों ? इसलिए पृथ्वीवासियों ने पृथ्वी को मिटाने के पूरे इंतजाम कर लिये हैं। जब तक दूसरे ग्रहों की भाँति पृथ्वी भी पूरी तरह उजाड़ और ऊसर नहीं हो जाती, हम चैन से नहीं बैठेंगे।
पृथ्वी को शांत करने की दिशा में हमने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। सबसे पहले तो हमने अबाध गति से उत्खनन करते हुए पृथ्वी की कोख खाली कर दी। कई क्षेत्रों में हमने मरुस्थल का विकास किया। मरुस्थल हमारे लिए बहुत जरूरी हैं, वरना हम अपने परमाणु बमों का परीक्षण कहाँ करेंगे। उपजाऊ जमीनें मिटाकर जंगलों का सफाया करके और समुद्र को पीछे ढकेलकर हमने कंक्रीट की बस्तियाँ स्थापित कर दीं। पृथ्वी के भीतर से हमने अच्छी चीजें बाहर निकालकर उसमें परमाणु कचरा, प्लास्टिक अवशेष और तमाम तरह की गंदगी भर दी। अपना सारा उच्छिष्ट हमने पृथ्वी के भीतर भर दिया। पृथ्वी शांति:।
नदियों का स्वच्छ जल हमसे देखा न गया। पहाड़ों से निकलकर, मैदानों में इठलाकर, मचलकर बहती नदियों की अल्हड़ता हमें बरदाश्त न हुई। हमने उसके रास्ते में रोड़े अटकाए। उन्हें रोका और गंदा किया। शहर भर की नालियों के द्वार हमने अपनी नदियों में खोल दिए। कारखानों की गंदगी नदियों में और हवा में घोलकर हम गर्वित हुए। यह औद्योगिक क्रांति है। इस प्रकार जल, हवा और धरती का सत्यानास करने की दिशा में हमने पर्याप्त प्रगति की। पुराने ऋषि-मुनि तो सिर्फ प्रार्थनाएँ गाते थे-पृथ्वी शांति:। हमने सचमुच अब पृथ्वी को पूरी तरह शांत करने की व्यवस्था कर ली है।
वनस्पतय: शांति:। पेड़-पौधे, वनस्पति और जंगल-इनको काटने से बड़े फायदे हैं। जीवन के लिए सबसे जरूरी चीज है-फर्नीचर। घर में सोफा न हो, कुरसी-मेज और डाइनिंग टेबल न हो तो जीवन व्यर्थ है। जमीन पर बैठकर खाना खाना आदिम युग की परंपरा है। कुछ लोग आज भी उसी युग में जी रहे हैं। वे पिछड़े हुए हैं। बिना डाइनिंग टेबल पर रखकर खाए मॉर्डन आदमी का पेट नहीं भरता। इसलिए आधुनिक होना है तो काटो जंगल और बनाओ डाइनिंग टेबल।
जंगलों का सफाया करने से हमारे कई काम सहज निपट जाते हैं। एक तो आबादी के लिए बढ़िया भूखंड उपलब्ध होते हैं, जिनके दाम आजकल आसमान छू रहे हैं और दूसरे, इमारती लकड़ी तो जैसे सोने की छड़ है। बड़े-बड़े होटल बनाने हैं, बहुमंजिली इमारतों का निर्माण होना है, नए-नए ऑफिस खुलने हैं। अब जंगल न काटेंगे तो इन सबके लिए उपयोगी लकड़ी कहाँ से लाएँगे ?
यत्र-तत्र बिखरी हरियाली और वनस्पतियों का आखिर करेंगे क्या ? हमें तो लंबी-चौड़ी बस्तियाँ बनानी हैं। इसके लिए ये वनस्पतियाँ और हरियाली मिटानी पड़े तो इसमें हर्ज ही क्या है ! ये लो, बहुत हाय-तौबा करते हो आप तो एक ठो नेशनल पार्क भी बनाए देते हैं। एक-दो ठो बस्ती के बीचोबीच बाग-बगीचा भी लगाए देते हैं। बस, हो गया न पर्यावरण का कल्याण। अब मत चिल्लाना।
इस प्रकार हमने ‘वनस्पतय: शांति:’ को भी भरपूर सार्थक किया और आगे भी करते रहेंगे।
अब रही ओषधि की बात, तो इस क्षेत्र में हमारी सफलता के परचम दसों दिशाओं में अक्षत फहरा रहे हैं। पुरातनकाल में जरा सी बीमारी के लिए महीनों ओषधि का सेवन करना पड़ता था। ओषधि बनाना भी उस समय बहुत कठिन और श्रमसाध्य कार्य था। ला रहे हैं जंगल से किसी पेड़ की छाल। उसे धूप में सुखाया जा रहा है, पीसा जा रहा है, कपड़े से छाना जा रहा है। फिर उसमें इसी प्रकार से कूट-पीसकर तैयार किए गए दूसरे पदार्थ मिलाए जा रहे हैं। तब कहीं जाकर बनती किसी मामूली से रोग की ओषधि। अब उसके सेवन के लिए ढूँढ़ों शुद्ध शहद। यह ओषधि निर्माण से ज्यादा कठिन काम है। हमारी एलोपैथी ने इन सब ओषधियों को अच्छी तरह शांत कर दिया। अब तो एक टेबलेट पानी के साथ गटको और रोग-मुक्त। भले ही कुछ दिनों बाद आपको चार प्रकार के नए रोग और हो जाएँ। फिर खाइए दूसरे प्रकार की टेबलेटें। इन चार प्रकार के रोगों से निबटकर और नए रोगों को बुलाइए। इस प्रकार आप जीवन भर टेबलेट खाते हुए सुखी रहिए।
ओषधि निर्माण के क्षेत्र में हमने रासायनिक क्रांति कर दी। पेड़-पौधों, पत्तों और उनकी जड़ों के जटिल जाल से हमने ओषधि विज्ञान को मुक्ति दिलाई। अब तो बस कृत्रिम तरीके से बनाए गए रसायन हैं। उन्हें अलग-अलग अनुपात में मिलाइए और दवा तैयार। इस प्रकार की दवाओं से जो सबसे ज्यादा लाभ हुआ वह है नए और नित पैदा होते जा रहे रोगों की जानकारी। पहले क्या था, दो-चार प्रकार की बीमारियाँ और उनकी एक-दो प्रकार की ओषधियाँ, बस। इधर रोगों की फेहरिस्त देखिए, रात भर गिनते रह जाएँगे। रोगों की संख्या से बीस गुना ज्यादा उनकी दवाइयाँ उपलब्ध हैं। दवाइयों की संख्या वैसे भी ज्यादा होनी ही चाहिए, क्योंकि किसी मामूली से रोग में भी दस प्रकार की दवाइयाँ लेते रहना आज सहज बात है। इस प्रकार पुराने ओषधि विज्ञान को शांत करके हमने नए रासायनिक तरीकों से दवा बनाने के क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति की है। ओषधय: शांति:।
तो मित्रो, पुरातनकाल के लोग पृथ्वी शांति:, वनस्पतय: शांति: एवं ओषधय: शांति: की प्रार्थनाएँ भर करते रहे। हमने सचमुच इन चीजों को बहुत हद तक शांत कर दिया। हमारा यह प्रगतिसूचक रंगारंग कार्यक्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि हम स्वयं पूरी तरह अशांत नहीं हो जाते।
द्वितीय विश्वयुद्ध में हमने पृथ्वी के कुछ हिस्सों को मिटाकर अच्छी सफलता पाई। उस प्रयोग से प्रेरणा लेकर कई देश आगे आए। अब तो छोटे-छोटे पिद्दी-से देशों ने भी बड़े-बड़े परमाणु हथियार बना लिये हैं।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सुदूर अंतरिक्ष में कहीं जीवन हो सकता है। अभी सिर्फ अनुमान है। निश्चित नहीं है कि अंतरिक्ष में जीवन कहाँ है। तो इतने विशाल अंतरिक्ष में सिर्फ पृथ्वी पर ही जीवन रहे, यह ठीक बात नहीं है। प्रकृति-विरोधी है यह। जब सब ग्रह खाली और उजाड़ हैं तब पृथ्वी पर ही जीवन क्यों ? इसलिए पृथ्वीवासियों ने पृथ्वी को मिटाने के पूरे इंतजाम कर लिये हैं। जब तक दूसरे ग्रहों की भाँति पृथ्वी भी पूरी तरह उजाड़ और ऊसर नहीं हो जाती, हम चैन से नहीं बैठेंगे।
पृथ्वी को शांत करने की दिशा में हमने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। सबसे पहले तो हमने अबाध गति से उत्खनन करते हुए पृथ्वी की कोख खाली कर दी। कई क्षेत्रों में हमने मरुस्थल का विकास किया। मरुस्थल हमारे लिए बहुत जरूरी हैं, वरना हम अपने परमाणु बमों का परीक्षण कहाँ करेंगे। उपजाऊ जमीनें मिटाकर जंगलों का सफाया करके और समुद्र को पीछे ढकेलकर हमने कंक्रीट की बस्तियाँ स्थापित कर दीं। पृथ्वी के भीतर से हमने अच्छी चीजें बाहर निकालकर उसमें परमाणु कचरा, प्लास्टिक अवशेष और तमाम तरह की गंदगी भर दी। अपना सारा उच्छिष्ट हमने पृथ्वी के भीतर भर दिया। पृथ्वी शांति:।
नदियों का स्वच्छ जल हमसे देखा न गया। पहाड़ों से निकलकर, मैदानों में इठलाकर, मचलकर बहती नदियों की अल्हड़ता हमें बरदाश्त न हुई। हमने उसके रास्ते में रोड़े अटकाए। उन्हें रोका और गंदा किया। शहर भर की नालियों के द्वार हमने अपनी नदियों में खोल दिए। कारखानों की गंदगी नदियों में और हवा में घोलकर हम गर्वित हुए। यह औद्योगिक क्रांति है। इस प्रकार जल, हवा और धरती का सत्यानास करने की दिशा में हमने पर्याप्त प्रगति की। पुराने ऋषि-मुनि तो सिर्फ प्रार्थनाएँ गाते थे-पृथ्वी शांति:। हमने सचमुच अब पृथ्वी को पूरी तरह शांत करने की व्यवस्था कर ली है।
वनस्पतय: शांति:। पेड़-पौधे, वनस्पति और जंगल-इनको काटने से बड़े फायदे हैं। जीवन के लिए सबसे जरूरी चीज है-फर्नीचर। घर में सोफा न हो, कुरसी-मेज और डाइनिंग टेबल न हो तो जीवन व्यर्थ है। जमीन पर बैठकर खाना खाना आदिम युग की परंपरा है। कुछ लोग आज भी उसी युग में जी रहे हैं। वे पिछड़े हुए हैं। बिना डाइनिंग टेबल पर रखकर खाए मॉर्डन आदमी का पेट नहीं भरता। इसलिए आधुनिक होना है तो काटो जंगल और बनाओ डाइनिंग टेबल।
जंगलों का सफाया करने से हमारे कई काम सहज निपट जाते हैं। एक तो आबादी के लिए बढ़िया भूखंड उपलब्ध होते हैं, जिनके दाम आजकल आसमान छू रहे हैं और दूसरे, इमारती लकड़ी तो जैसे सोने की छड़ है। बड़े-बड़े होटल बनाने हैं, बहुमंजिली इमारतों का निर्माण होना है, नए-नए ऑफिस खुलने हैं। अब जंगल न काटेंगे तो इन सबके लिए उपयोगी लकड़ी कहाँ से लाएँगे ?
यत्र-तत्र बिखरी हरियाली और वनस्पतियों का आखिर करेंगे क्या ? हमें तो लंबी-चौड़ी बस्तियाँ बनानी हैं। इसके लिए ये वनस्पतियाँ और हरियाली मिटानी पड़े तो इसमें हर्ज ही क्या है ! ये लो, बहुत हाय-तौबा करते हो आप तो एक ठो नेशनल पार्क भी बनाए देते हैं। एक-दो ठो बस्ती के बीचोबीच बाग-बगीचा भी लगाए देते हैं। बस, हो गया न पर्यावरण का कल्याण। अब मत चिल्लाना।
इस प्रकार हमने ‘वनस्पतय: शांति:’ को भी भरपूर सार्थक किया और आगे भी करते रहेंगे।
अब रही ओषधि की बात, तो इस क्षेत्र में हमारी सफलता के परचम दसों दिशाओं में अक्षत फहरा रहे हैं। पुरातनकाल में जरा सी बीमारी के लिए महीनों ओषधि का सेवन करना पड़ता था। ओषधि बनाना भी उस समय बहुत कठिन और श्रमसाध्य कार्य था। ला रहे हैं जंगल से किसी पेड़ की छाल। उसे धूप में सुखाया जा रहा है, पीसा जा रहा है, कपड़े से छाना जा रहा है। फिर उसमें इसी प्रकार से कूट-पीसकर तैयार किए गए दूसरे पदार्थ मिलाए जा रहे हैं। तब कहीं जाकर बनती किसी मामूली से रोग की ओषधि। अब उसके सेवन के लिए ढूँढ़ों शुद्ध शहद। यह ओषधि निर्माण से ज्यादा कठिन काम है। हमारी एलोपैथी ने इन सब ओषधियों को अच्छी तरह शांत कर दिया। अब तो एक टेबलेट पानी के साथ गटको और रोग-मुक्त। भले ही कुछ दिनों बाद आपको चार प्रकार के नए रोग और हो जाएँ। फिर खाइए दूसरे प्रकार की टेबलेटें। इन चार प्रकार के रोगों से निबटकर और नए रोगों को बुलाइए। इस प्रकार आप जीवन भर टेबलेट खाते हुए सुखी रहिए।
ओषधि निर्माण के क्षेत्र में हमने रासायनिक क्रांति कर दी। पेड़-पौधों, पत्तों और उनकी जड़ों के जटिल जाल से हमने ओषधि विज्ञान को मुक्ति दिलाई। अब तो बस कृत्रिम तरीके से बनाए गए रसायन हैं। उन्हें अलग-अलग अनुपात में मिलाइए और दवा तैयार। इस प्रकार की दवाओं से जो सबसे ज्यादा लाभ हुआ वह है नए और नित पैदा होते जा रहे रोगों की जानकारी। पहले क्या था, दो-चार प्रकार की बीमारियाँ और उनकी एक-दो प्रकार की ओषधियाँ, बस। इधर रोगों की फेहरिस्त देखिए, रात भर गिनते रह जाएँगे। रोगों की संख्या से बीस गुना ज्यादा उनकी दवाइयाँ उपलब्ध हैं। दवाइयों की संख्या वैसे भी ज्यादा होनी ही चाहिए, क्योंकि किसी मामूली से रोग में भी दस प्रकार की दवाइयाँ लेते रहना आज सहज बात है। इस प्रकार पुराने ओषधि विज्ञान को शांत करके हमने नए रासायनिक तरीकों से दवा बनाने के क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति की है। ओषधय: शांति:।
तो मित्रो, पुरातनकाल के लोग पृथ्वी शांति:, वनस्पतय: शांति: एवं ओषधय: शांति: की प्रार्थनाएँ भर करते रहे। हमने सचमुच इन चीजों को बहुत हद तक शांत कर दिया। हमारा यह प्रगतिसूचक रंगारंग कार्यक्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि हम स्वयं पूरी तरह अशांत नहीं हो जाते।
दूध की लाज
सब जानते हैं कि दूध स्वास्थ्य के लिए अत्यंत
लाभदायक है; परंतु आजकल यह
व्यापार के क्षेत्र में बहुत लाभप्रद सिद्ध हो रहा है। दूध में पानी
मिलाने की बात अब पुरानी हो गई है। घटिया तकनीक है यह। जब हर क्षेत्र में
विकास हो गया तब दूध में वही पानी मिलाने की घिसी-पिटी परंपरा कायम क्यों
रहे। इसमें भी विकास होना चाहिए। आखिर कब तक हमारे ग्वाले दूध में सिर्फ
पानी ही मिलाकर संतोष करते रहेंगे। आखिर उन्हें भी तो अगली सदी में जाना
है। यह पिछड़ापन व्यापार जगत् के हमारे महान् वैज्ञानिकों से न देखा गया।
उन्होंने कठिन परिश्रम करके इस क्षेत्र में एक नई तकनीक विकसित कर ली है।
बधाई !
जिस प्रकार भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, स्वास्थ्य एवं अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में रात-दिन कड़ी मेहनत करते हुए हमारे वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार करते रहते हैं उसी प्रकार मिलावट के क्षेत्र में भी वे किसी से पीछे नहीं हैं। घी में चरबी, मसालों में घोड़ों की लीद और अनाज में कंकड़ आदि मिलाने की उपलब्धियाँ पुरानी हैं। इधर हमारे मिलावट वैज्ञानिकों ने कृत्रिम दूध बना लिया है। इसपर हमें गर्व है।
एक बार एक भारतीय लेखक का संस्मरण मैंने पढ़ा था। वह यूरोप के किसी छोटे से देश में एक मित्र के यहाँ मेहमान हुए। रात्रि भोजन के पश्चात् उन्हें दूध पीने की आदत थी। अपने मेजबान मित्र को उन्होंने अपनी इच्छा बताई। उस विदेशी मेजबान मित्र ने निवेदन किया-‘भाई, कोई जूस ले लें। ला देता हूँ। कृपया दूध न माँगें।’
‘क्यों, ऐसी क्या बात है ? आपके देश में क्या दूध नहीं मिलता ?’ भारतीय मित्र ने आश्चर्यचकित हो पूछा।
‘दूध हमारे देश में मिलता है; परंतु इधर कुछ वर्षों से देश में दूध के उत्पादन में कमी आई है। इसलिए हमारी सरकार ने अठारह वर्ष से ऊपर की उम्रवालों से दूध न पीने की अपील की है, ताकि हमारे देश के बच्चों को उनका जरूरी पौष्टिक आहार दूध पर्याप्त मात्रा में मिल सके। इसलिए हम बड़ी उम्र के लोग फलों का रस या अन्य पौष्टिक आहार लेकर अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं।’ विदेशी मेजबान मित्र ने कहा।
भारतीय मित्र के लिए दूध न मिलने का यह कारण चौंकानेवाला था।
हमारे देश में बहुत आबादी है, इसलिए हमें नई पीढ़ी की कतई चिंता नहीं है। रेडियो और दूरदर्शन रोज अलापते हैं-हर मिनट में एक बच्चा। अब इतने बच्चों के लिए क्या हम दूध पीना छोड़ दें। हमारे देश में आएदिन बहुत सारे बच्चे कुपोषण से मरते हैं। लेकिन देश का कोई नागरिक दूध पीना नहीं छोड़ता। छोड़ना भी नहीं चाहिए; क्योंकि हमारी मान्यता है कि जीवन-मरण तो भगवान् के हाथ में है। और ये जो हाथ भर गहरे गिलास में दूध भरकर, उसमें मलाई डालकर हम छान रहे हैं, यह हमारे कर्मों का फल है। पिछले जन्म में हमने अच्छे कर्म किए थे, इसिलए इस जन्म में दूध-मलाई छान रहे हैं। ‘हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ।’ कहते हैं, कभी इस देश में दूध की नदियाँ बहती थीं। किस काल में बहती थीं, मुझे ठीक-ठीक पता नहीं है; परंतु इतना पक्का है कि यहाँ दूध की नदियाँ जरूर बहती थीं। हाँ, द्वापर में वृन्दावन की गोपिकाएँ दूध बेचने मथुरा जाया करती थीं, इसका उल्लेख हमारे धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। वे दूध में मिलावट करती थीं। कृष्ण को जब मालूम हुआ कि वृंदावन की ग्वालिनें यमुना नदी में नहाने का बहाना करके घाट पर जाती हैं और वहाँ निर्वस्त्र हो नहाने के अलावा दूध में पानी मिलाने का कार्य भी संपन्न करती हैं तो कृष्ण ने एक दिन चीर-हरण करके और लगातार कई दिनों तक ग्वालिनों की मटकियाँ फोड़-फोड़कर यह प्रथा बंद करवाई थी। कृष्ण के बाद कलियुग में ग्वालिनों की वह परंपरा दूधवाले भैयों ने सहर्ष अपना ली। वे सुबह-सुबह म्यूनिसपैल्टी के नल के नीचे अधनंगे नहाते हैं, फिर लगे हाथ दो बालटी पानी अपने दूध के बरतनों में भी उड़ेल देते हैं। कभी कृष्ण ने दूध में पानी मिलाने की परंपरा ग्वालिनों की मटकियाँ फोड़कर बंद कराई थी; कलियुग में ये काम सेनेटरी इंस्पेक्टर के सुपुर्द है। इस विभाग के कर्मठ और मुस्तैद कर्मचारी तोड़-फोड़ का घटिया काम नहीं करते। वे जोड़-तोड़ का बढ़िया काम करते हैं। दूधवाले लोगों से उनकी दोस्ती है। दोनों एक-दूसरे का खयाल रखते हैं। दोस्ती का तकाजा है। इधर बहुत दिन हो गए थे दूध में पानी मिलाते। कब तक हमारे दूधवाले प्यारे भैया वही घिसा-पिटा सदियों पुराना तरीका इस्तेमाल करते। ये क्रांति का युग है। आजकल हर क्षेत्र में क्रांति हो रही है। फैशन में क्रांति-नंगापन, शिक्षा में क्रांति-बेरोजगारी, जनसेवा और राष्ट्रभक्ति में क्रांति-भ्रष्टाचार।
ऐसे ही देश में दुग्ध क्रांति- नकली दूध का निर्माण। कुछ कास्टिक सोडा, कुछ नए-पुराने रसायन और कुछ जाने क्या-क्या-सबको मिलाकर और मशीन द्वारा फेंट दिया। लो, हो गया कृत्रिम दूध तैयार। सस्ता, सुंदर और टिकाऊ। मात्र दो रुपये किलो। इस दो रुपए किलो के सफेद दूध को दस रुपए से लेकर पंद्रह रुपए और अठारह रुपए किलो तक बेचना है। धड़ाधड़ बिक रहा है, बे रोक-टोक बिक रहा है। हमारा नया आविष्कार है यह। इसका स्वागत तो होना ही चाहिए। कुछ सिरफिरे डॉक्टरों का कहना है कि इस प्रकार के कृत्रिम दूध के सेवन से कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ गया है तथा कई अन्य प्रकार की बीमारियाँ भी हो सकती हैं। डॉक्टर ये नहीं जानते कि मुनाफे के सामने सब बीमारियाँ ओछी होती हैं। मुनाफे से बड़ा भी भला कोई स्वास्थ्य होता है ! पानी मिला-मिलाकर पुरखों ने जीवन भर दूध बेचा; परंतु वे उतना न कमा पाए जितना हमने इस कृत्रिम दूध को बेचकर साल भर में कमा लिया। यह उपलब्धि क्या कम है ! उद्योगपतियों ने अपनी फैक्टरियों द्वारा हवा में जहर घोल दिया, कल-कारखानों का सारा उच्छिष्ट जीवनदायिनी नदियों में सरेआम मिलाया जा रहा है। अनाज से लेकर सब्जियों तक के उत्पादन में रासायनिक खादों का विष रोज-रोज मिलाया जा रहा है। इसे कोई कुछ नहीं कहता। इसे उपलब्धि निरूपित किया जाता है। हमने मटके भर दूध में दो-चार किलो नकली दूध क्या मिला दिया कि आप लोग हाथ धोकर पीछे ही पड़ गए। ‘बाबूजी, आप तो समझदार हैं। बुद्धिजीवी हैं आप। आपई समझाओ न इस जनता को कि नकली दूध का निर्माण तो हमारे राष्ट्र के लिए एक उपलब्धि है। एक तो वैसई इस देश की जनसंख्या की लगातार बढ़त पर हमारा कोई अंकुश रहा नहीं। ऐसी दशा में आपई बताओ भला कि पूरे देश को हम असली दूध कहाँ से लाकर पिलाएँ ? अपनी जान दे दें, तबई आपको शांति मिलेगी ?’ मैंने कहा, ‘भैये, तुम तनिक भी चिंता न करो। ये देश बहुत महान् है। बड़े-बड़े घोटाले इस देश ने पचा लिये और कहीं कुछ नहीं हुआ। तुम्हारा ये नकली दूध तो यों ही पच जाएगा। इस देश का हाजमा बहुत अच्छा है।’ नकली दूध का निर्माण हमारे देश में सफलतापूर्वक होने लगा है, यह समाचार पढ़कर सचमुच मन प्रसन्न हो गया। हमने देश की नई पीढ़ी को बकवास शिक्षा दी, बेरोजगारी दी, घटिया भोजन दिया, भ्रष्टाचार की नई तरकीबें दीं। इससे हमारा मन न भरा। शिशुओं की तरफ भी हमें ध्यान देना था, हमने दिया। आएदिन लोग कुपोषण का बहुत हल्ला करते रहते थे। हमारे कान भी यह सब सुनते-सुनते पक गए थे। दूध तो हमारे पास है नहीं, दूध की नदियोंवाले किस्से जरूर हैं। आप कहोगे कि किस्से-कहानियों से कहीं पेट भरता है ! इसलिए देश के नवजात शिशुओं को हमने एक ठोस उपहार दिया-नकली दूध। सस्ता, सुन्दर और नई बीमारियों से युक्त। एक चीज होती है, ‘दूध की लाज’। इसकी बड़ी महिमा है। कहते हैं कि दूध की लाज बचाने के लिए लोग अपनी जान तक दे देते थे। क्या आपको नहीं लगता कि आज फिर देश में दूध की लाज खतरे में है ?
जिस प्रकार भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, स्वास्थ्य एवं अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में रात-दिन कड़ी मेहनत करते हुए हमारे वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार करते रहते हैं उसी प्रकार मिलावट के क्षेत्र में भी वे किसी से पीछे नहीं हैं। घी में चरबी, मसालों में घोड़ों की लीद और अनाज में कंकड़ आदि मिलाने की उपलब्धियाँ पुरानी हैं। इधर हमारे मिलावट वैज्ञानिकों ने कृत्रिम दूध बना लिया है। इसपर हमें गर्व है।
एक बार एक भारतीय लेखक का संस्मरण मैंने पढ़ा था। वह यूरोप के किसी छोटे से देश में एक मित्र के यहाँ मेहमान हुए। रात्रि भोजन के पश्चात् उन्हें दूध पीने की आदत थी। अपने मेजबान मित्र को उन्होंने अपनी इच्छा बताई। उस विदेशी मेजबान मित्र ने निवेदन किया-‘भाई, कोई जूस ले लें। ला देता हूँ। कृपया दूध न माँगें।’
‘क्यों, ऐसी क्या बात है ? आपके देश में क्या दूध नहीं मिलता ?’ भारतीय मित्र ने आश्चर्यचकित हो पूछा।
‘दूध हमारे देश में मिलता है; परंतु इधर कुछ वर्षों से देश में दूध के उत्पादन में कमी आई है। इसलिए हमारी सरकार ने अठारह वर्ष से ऊपर की उम्रवालों से दूध न पीने की अपील की है, ताकि हमारे देश के बच्चों को उनका जरूरी पौष्टिक आहार दूध पर्याप्त मात्रा में मिल सके। इसलिए हम बड़ी उम्र के लोग फलों का रस या अन्य पौष्टिक आहार लेकर अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं।’ विदेशी मेजबान मित्र ने कहा।
भारतीय मित्र के लिए दूध न मिलने का यह कारण चौंकानेवाला था।
हमारे देश में बहुत आबादी है, इसलिए हमें नई पीढ़ी की कतई चिंता नहीं है। रेडियो और दूरदर्शन रोज अलापते हैं-हर मिनट में एक बच्चा। अब इतने बच्चों के लिए क्या हम दूध पीना छोड़ दें। हमारे देश में आएदिन बहुत सारे बच्चे कुपोषण से मरते हैं। लेकिन देश का कोई नागरिक दूध पीना नहीं छोड़ता। छोड़ना भी नहीं चाहिए; क्योंकि हमारी मान्यता है कि जीवन-मरण तो भगवान् के हाथ में है। और ये जो हाथ भर गहरे गिलास में दूध भरकर, उसमें मलाई डालकर हम छान रहे हैं, यह हमारे कर्मों का फल है। पिछले जन्म में हमने अच्छे कर्म किए थे, इसिलए इस जन्म में दूध-मलाई छान रहे हैं। ‘हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ।’ कहते हैं, कभी इस देश में दूध की नदियाँ बहती थीं। किस काल में बहती थीं, मुझे ठीक-ठीक पता नहीं है; परंतु इतना पक्का है कि यहाँ दूध की नदियाँ जरूर बहती थीं। हाँ, द्वापर में वृन्दावन की गोपिकाएँ दूध बेचने मथुरा जाया करती थीं, इसका उल्लेख हमारे धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। वे दूध में मिलावट करती थीं। कृष्ण को जब मालूम हुआ कि वृंदावन की ग्वालिनें यमुना नदी में नहाने का बहाना करके घाट पर जाती हैं और वहाँ निर्वस्त्र हो नहाने के अलावा दूध में पानी मिलाने का कार्य भी संपन्न करती हैं तो कृष्ण ने एक दिन चीर-हरण करके और लगातार कई दिनों तक ग्वालिनों की मटकियाँ फोड़-फोड़कर यह प्रथा बंद करवाई थी। कृष्ण के बाद कलियुग में ग्वालिनों की वह परंपरा दूधवाले भैयों ने सहर्ष अपना ली। वे सुबह-सुबह म्यूनिसपैल्टी के नल के नीचे अधनंगे नहाते हैं, फिर लगे हाथ दो बालटी पानी अपने दूध के बरतनों में भी उड़ेल देते हैं। कभी कृष्ण ने दूध में पानी मिलाने की परंपरा ग्वालिनों की मटकियाँ फोड़कर बंद कराई थी; कलियुग में ये काम सेनेटरी इंस्पेक्टर के सुपुर्द है। इस विभाग के कर्मठ और मुस्तैद कर्मचारी तोड़-फोड़ का घटिया काम नहीं करते। वे जोड़-तोड़ का बढ़िया काम करते हैं। दूधवाले लोगों से उनकी दोस्ती है। दोनों एक-दूसरे का खयाल रखते हैं। दोस्ती का तकाजा है। इधर बहुत दिन हो गए थे दूध में पानी मिलाते। कब तक हमारे दूधवाले प्यारे भैया वही घिसा-पिटा सदियों पुराना तरीका इस्तेमाल करते। ये क्रांति का युग है। आजकल हर क्षेत्र में क्रांति हो रही है। फैशन में क्रांति-नंगापन, शिक्षा में क्रांति-बेरोजगारी, जनसेवा और राष्ट्रभक्ति में क्रांति-भ्रष्टाचार।
ऐसे ही देश में दुग्ध क्रांति- नकली दूध का निर्माण। कुछ कास्टिक सोडा, कुछ नए-पुराने रसायन और कुछ जाने क्या-क्या-सबको मिलाकर और मशीन द्वारा फेंट दिया। लो, हो गया कृत्रिम दूध तैयार। सस्ता, सुंदर और टिकाऊ। मात्र दो रुपये किलो। इस दो रुपए किलो के सफेद दूध को दस रुपए से लेकर पंद्रह रुपए और अठारह रुपए किलो तक बेचना है। धड़ाधड़ बिक रहा है, बे रोक-टोक बिक रहा है। हमारा नया आविष्कार है यह। इसका स्वागत तो होना ही चाहिए। कुछ सिरफिरे डॉक्टरों का कहना है कि इस प्रकार के कृत्रिम दूध के सेवन से कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ गया है तथा कई अन्य प्रकार की बीमारियाँ भी हो सकती हैं। डॉक्टर ये नहीं जानते कि मुनाफे के सामने सब बीमारियाँ ओछी होती हैं। मुनाफे से बड़ा भी भला कोई स्वास्थ्य होता है ! पानी मिला-मिलाकर पुरखों ने जीवन भर दूध बेचा; परंतु वे उतना न कमा पाए जितना हमने इस कृत्रिम दूध को बेचकर साल भर में कमा लिया। यह उपलब्धि क्या कम है ! उद्योगपतियों ने अपनी फैक्टरियों द्वारा हवा में जहर घोल दिया, कल-कारखानों का सारा उच्छिष्ट जीवनदायिनी नदियों में सरेआम मिलाया जा रहा है। अनाज से लेकर सब्जियों तक के उत्पादन में रासायनिक खादों का विष रोज-रोज मिलाया जा रहा है। इसे कोई कुछ नहीं कहता। इसे उपलब्धि निरूपित किया जाता है। हमने मटके भर दूध में दो-चार किलो नकली दूध क्या मिला दिया कि आप लोग हाथ धोकर पीछे ही पड़ गए। ‘बाबूजी, आप तो समझदार हैं। बुद्धिजीवी हैं आप। आपई समझाओ न इस जनता को कि नकली दूध का निर्माण तो हमारे राष्ट्र के लिए एक उपलब्धि है। एक तो वैसई इस देश की जनसंख्या की लगातार बढ़त पर हमारा कोई अंकुश रहा नहीं। ऐसी दशा में आपई बताओ भला कि पूरे देश को हम असली दूध कहाँ से लाकर पिलाएँ ? अपनी जान दे दें, तबई आपको शांति मिलेगी ?’ मैंने कहा, ‘भैये, तुम तनिक भी चिंता न करो। ये देश बहुत महान् है। बड़े-बड़े घोटाले इस देश ने पचा लिये और कहीं कुछ नहीं हुआ। तुम्हारा ये नकली दूध तो यों ही पच जाएगा। इस देश का हाजमा बहुत अच्छा है।’ नकली दूध का निर्माण हमारे देश में सफलतापूर्वक होने लगा है, यह समाचार पढ़कर सचमुच मन प्रसन्न हो गया। हमने देश की नई पीढ़ी को बकवास शिक्षा दी, बेरोजगारी दी, घटिया भोजन दिया, भ्रष्टाचार की नई तरकीबें दीं। इससे हमारा मन न भरा। शिशुओं की तरफ भी हमें ध्यान देना था, हमने दिया। आएदिन लोग कुपोषण का बहुत हल्ला करते रहते थे। हमारे कान भी यह सब सुनते-सुनते पक गए थे। दूध तो हमारे पास है नहीं, दूध की नदियोंवाले किस्से जरूर हैं। आप कहोगे कि किस्से-कहानियों से कहीं पेट भरता है ! इसलिए देश के नवजात शिशुओं को हमने एक ठोस उपहार दिया-नकली दूध। सस्ता, सुन्दर और नई बीमारियों से युक्त। एक चीज होती है, ‘दूध की लाज’। इसकी बड़ी महिमा है। कहते हैं कि दूध की लाज बचाने के लिए लोग अपनी जान तक दे देते थे। क्या आपको नहीं लगता कि आज फिर देश में दूध की लाज खतरे में है ?
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