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अनोखा प्रेम

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2552
आईएसबीएन :8181130006

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जीवन की कठोर वास्तविकता को यह कथा जितने खुले रूप में दर्शन कराती है, उसे पढ़कर पाठक का मन जीवन की कड़वी सच्चाई का सच्चा अनुभव करता है।

Anokha Prem - A hindi book by Ashapurna Devi - अनोखा प्रेम- आशापूर्णा देवी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कृति की कथा वस्तु जितनी हृदयग्राही और मार्मिक है, उतनी ही हृदय विदारक। जीवन की गति एक शीशे की तरह टूट कर टुकड़ों में बिखर जाती है तो जीवन का कितना भयंकर रूप प्रकट होता है, यही इस कथा की भावधारा है। यह कहानी मानव करूणा की जीती जागती तस्वीर है। जीवन की कठोर वास्तविकता को यह कथा जितने खुले रूप में दर्शन कराती है, उसे पढ़कर पाठक का मन जीवन की कड़वी सच्चाई का सच्चा अनुभव करता है। इस पुस्तक का अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक योगेन्द्र चौधरी ने किया है। अनुवादक ने इस कृति की भाषा को सुन्दर एवं अलंकृत बनाने का भरसक प्रयत्न किया है। इतना ही नहीं, इसमें माँ आशापूर्णा के मन के भावों की पूर्ण रूप से रक्षा की गई है, जिससे आप इसको पढकर मूल रचनाओं के समान ही आनन्द पा सकेंगे। निष्कर्ष रूप में मेरी यही मान्यता है कि यह कृति संकेत रूप में समाज नवनिर्वाण के लिए उपादेय सिद्ध होगी।

अनोखा प्रेम

1

रात्रि का समय था। आकाश पर बादल छाए हुए थे और चन्द्रदेव कृष्ण-पट को उलट-पलटकर भूमि की ओर देख रहे थे।
स्यालकोट (अब पाकिस्तान में) के धारीवाल मुहल्ले में सरदार अमीरसिंह का एक बहुत बड़ा मकान था। कहते हैं उस पर डेढ़-दो लाख रुपये खर्च हुए थे और तीन वर्ष तक बनता रहा था। परन्तु उसमें रहना किसी के भाग्य में न लिखा था। अमीरसिंह जिस दिन उस मकान में जाकर रहे, उसी रात को उनकी हत्या हो गई। दूसरे दिन मकान उजाड़ था। नौकर-चाकर भाग चुके थे, औऱ अमीरसिंह की वृद्धा पत्नी एक कोठरी में बँधी हुई पाई गई थी। उसने बताया कि यहाँ भूत-प्रेतों का वास है। अमीरसिंह को उन्होंने मारा है। यह सुनकर एक मनचला बुधराम नामी तरुण आगे निकला। उसने अपने चार लठबन्द साथियों को साथ लिया और मकान में चला गया। परन्तु दूसरे दिन वे पाँचों मुर्दा पाए गए। उस दिन के पश्चात किसी को साहस नहीं हुआ कि उस मकान में जाकर बसे। वृद्धा अमीरसिंह के शोक में मर गई, तरुण बालक शामसिंह ब्रह्मा को चला गया। रात तो रात दिन को भी किसी को साहस ही न पड़ता था कि उस भूत-भवन के निकट फटक जाए। यदि कोई अपरिचित या परदेशी उसके पास से होकर निकलता, तो लोग चिल्लाते--‘‘अरे ! बचकर रह, क्यों मौत को बुला रहा है ?’’

एक रात की बात है, उसी भूत-भवन में दो मनुष्य मिले। एक लड़का था, एक कन्या। लड़के की आयु चौबीस वर्ष की थी और कन्या की पन्द्रह वर्ष की। लड़के का नाम बृजलाल था, कन्या का नाम भागवन्ती। बृजलाल ने कहा--‘‘भागवन्ती ! तुम्हें इस मकान में डर नहीं लगा ?’’
भागवन्ती ने उत्तर दिया--‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’
भागवन्ती उत्तर न दे सकी ; चुपचाप वृजलाल के मुँह को देखने लगी। वृजलाल भी भागवन्ती की ओर देखने लगा। जो शब्द जिह्वा ने न कहे वे भागवन्ती के नेत्रों ने कह दिए, वृजलाल समझ गया। मतलब साफ था--‘जहाँ तुम हो, वहाँ मेरे लिए डर नहीं।’
वृजलाल मुस्कराया। भागवन्ती ने लज्जा से ग्रीवा मोड़ ली और भूमि की ओर निहारने लगी।
बृजलाल ने कहा--‘‘भागवन्ती ! मैं कल प्रातःकाल लाहौर जा रहा हूँ, यही कहने आया था।’’
भागवन्ती का चेहरा पीला पड़ गया। उसकी वही दशा हुई जो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने का समाचार पाकर विद्यार्थी की होती है। उसका गुलाब के समान खिला हुआ चेहरा कपास के फूल की नाईं पीला हो गया, आँखों में आँसू आ गए, रोते-रोते बोली--‘‘क्या सचमुच ?’’
‘‘हाँ, सचमुच।’’
‘‘फैसला हो गया ?’’
‘‘हाँ, हो गया।’’

भागवन्ती भूमि पर बैठ गई और रोने लगी। बृजलाल को यह देखकर बड़ा कष्ट हुआ। वे भूमि पर बैठ गए और भागवन्ती के कन्धे पर हाथ धरकर बोले, ‘‘शान्त हो, हमारे लिए जीवन-भर रोना ही लिखा है।’’
जिस प्रकार बकरे को काटते हुए एक घाव के पीछे दूसरा घाव लगता और वह पीड़ा से कराह उठता है, उसी प्रकार भागवन्ती चीख उठी और फूट-फूटकर रोने लगी। एकदम उसका रोना थम गया। वह दृढ़ता और धैर्य के साथ बृजलाल के निकट आई और बोली--‘‘तुम मिले थे ?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘फिर उन्होंने क्या उत्तर दिया ?’’
बृजलाल ने ठण्डी साँस ली और कहा--‘‘उनका उत्तर था, कि यह असम्भव है।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर मैंने कहा कि आपका फैसला एक भारी अन्याय है। दो मनुष्यों के जीवन और मृत्यु का पश्न है, इस पर अधिक विचार की आवश्यकता है। यह सुनकर वे बहुत क्रुद्ध हुए औऱ बोले--‘‘दुम दबाकर भाग जाओ, नहीं तो नौकर से जूते मरवाकर निकलवाँ दूँगा।’’
भागवन्ती फिर रोने लगी। बृजलाल से जो व्यवहार उसके पिता ने किया था, उसे सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ, मानो यह व्यवहार उसने बृजलाल से स्वयं किया है। इसी कारण वह दोबारा रोने लगी। बृजलाल ने यह देखकर कहा--‘‘भागवन्ती ! शान्त हो।’’

भागवन्ती रोते-रोते बोली--‘‘मैं कैसी पापिन हूँ, मेरे कारण तुम्हें इतना लज्जित होना पड़ा।’’
बृजलाल ने कहा--‘‘नहीं, अपने कारण। अच्छा होता यदि हम एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जीवन-यात्रा को पूरा करने के योग्य हो जाते। मुझे तुमसे प्रेम है और तुम मुझसे प्रेम करती हो, बड़े सुख से जीवन कटता। परन्तु अब तो यह सब व्यर्थ है। सारे प्रयत्न निष्फल और सब उपाय निरर्थक हो गए हैं। और अब यह वह समय है ; जबकि हमें एक-दूसरे को भूलकर अलग हो जाना चाहिए।’’
भागवन्ती ने धीरता से उत्तर दिया--‘‘सूर्य पश्चिम से उदय हो सकता है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘आग में शीतलता हो सकती है ?
‘‘नहीं।’’
‘‘तो फिर स्त्री के ह्रदय में अंकित हुआ चित्र कैसे मिट सकता है ? जिस भावना को मैं बालकपन से लेकर आज तक पालती रही हूँ, उसे घास की तरह कैसे उखाड़कर बाहर फेक सकती हूँ ?—जिस स्वप्न को मैं दिन-रात देखा करती थी, उसे कैसे भूल सकती हूँ !’’
बृजलाल के सामने इस प्रकार की बातचीत भागवन्ती ने आज तक न की थी। वे सुनकर सन्नाटे में आ गए और कुछ देर पीछे बोले--‘‘यह ठीक है, परन्तु हमारा विवाह नहीं हो सकता है। जाति-पाँति की जो भयानक खाड़ी हमारे मध्य में उपस्थित है, उसके कारण हम पति-पत्नी नहीं बन सकते। अब भलाई इसी में है कि हम एक-दूसरे से न मिलें ! छुट्टियों में यहाँ आने का विचार था, अब न आऊँगा। कोई बहाना बनाकर वहीं रह जाऊँगा। अब मैं जाता हूँ, तुम भी जाओ।’’
यह कहकर बृजलाल तेजी के साथ बाहर निकल गए। भागवन्ती दीवार में चित्रित मूर्ति की भाँति अचल और अडोल बैठी रह गई।

दो

 

बृजलाल चले गए, तो भागवन्ती का दिल टूट-सा गया और वह सिसक-सिसककर रोने लगी। संसार उसकी आँखों में अँधेरा हो गया और उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो प्रलय होने लगा है। उसका बृजलाल से अगाध प्रेम था, और तब से था जब वह प्रेम का नाम भी न जानती थी। सहवास और स्वतन्त्रता से आपस में मिलने-जुलने के कारण प्रेम का रंग गाढ़ा हो चुका था। यद्यपि बृजलाल ब्राह्मण था और भागवन्ती खत्री पिता की कन्या थी। तथापि भागवन्ती का पिता जयकिशन स्वतन्त्र और उदार विचारों का मनुष्य था, इसलिए दोनों को आशा था कि, उनके प्रेमपथ में वह काँटा बनकर कभी खड़ा न होगा। वे इस विचार में मग्न थे, और उनका प्रेम दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा था, कि दुर्भाग्य से एक रुकावट ने सिर निकाला।

जयकिशन का चाचा रामदास बड़ा धनाढ़्य मनुष्य था। उसके पास दो लाख के लगभग सम्पत्ति थी, परन्तु कोई सन्तान न थी। उसकी स्त्री को मरे दस वर्ष हो चुके थे, और क्योंकि उसकी आयु पचास वर्ष से ऊपर हो चुकी थी, इसलिए उसने और विवाह नहीं किया। जयकिशन ही उसकी सम्पत्ति का अकेला अधिकारी होने वाला था, इसलिए वह उसके साथ अतिशय स्नेह करता था। बृजलाल और भागवन्ती के दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए प्रेम को देखकर जयकिशन ने उनके विवाह का विचार किया, तो रामदास को आग लग गई। उसने जयकिशन से साफ-साफ कह दिया कि यदि भागवन्ती का विवाह जाति से बाहर हुआ तो मैं अपनी सम्पत्ति में से तुम्हें एक कौड़ी तक न दूँगा। जयकिशन ने अनेक युक्तियों से उसे समझाना चाहा, परन्तु रामदास ने सुना-अनसुना कर दिया और अपने हठ पर तुला रहा।

फूल के साथ काँटा है। तेजोमय के दिन के साथ अँधेरी रात्रि है। चन्द्र के शुभ्र और ज्योत्स्नामय मुखमण्डल में भी कलंक है। जयकिशन यों तो बड़े ही भद्र और सज्जन पुरुष थे, परन्तु उनमें भी एक दोष था। वे लोभी बड़े थे। दृढ़ दुर्ग तोड़ना हो तो दूरदर्शी मनुष्य निर्बल स्थान पर आक्रमण करता है। रामदास ने भी जयकिशन के निर्बल स्थान पर ध्यान दिया।
यह नियम है कि मनुष्य एकबारगी नहीं गिरता। जयकिशन ने भी बहुत दिनों तक लक्ष्मीदेवी की मनोहर प्रेरणा के साथ संग्राम किया। भलाई और बुराई का युद्ध हुआ। अन्त में भलाई पर बुराई ने विजय प्राप्त की, औऱ रुपये ने संसार के अन्य पदार्थों की भाँति सुबुद्धि और भलाई जैसी वस्तुओं को भी खरीद लिया। जयकिशन लक्ष्मीदेवी के बलि मन्दिर पर अपनी नवयुवती कन्या की भेंट चढ़ाने को कटिबद्ध हो गए।

भागवन्ती को जब इसका ज्ञान हुआ तो पाँवों तले से मि्टटी निकल गई। पहले तो उसे विश्वास ही न हुआ, परन्तु वास्तविक बाता का ज्ञान होने पर उसका ह्रदय काँप गया और हाथों के तोते उड़ गए। इधर बृजलाल नौकर होकर लाहौर जा रहे थे। भागवन्ती ने उनसे कहा--‘‘जरा खड़े-खड़े पिताजी से बातचीत करते जाना, ताकि मामला साफ हो जाए। क्योंकि दो-चार दिनों से मैं कुछ बेठिकाने की बातें सुन रही हूँ।’’

बृजलाल भोलेभाले मनुष्य थे। सीधे जयकिशन के पास चले गए और उनसे स्पष्ट शब्दों में उत्तर माँगा।
जयकिशन के नेत्रों पर माया का पर्दा पड़ा हुआ था। उन्होंने कठोर शब्दों के साथ इन्कार कर दिया। इतने पर ही बस नहीं हूई, बल्कि दो-चार गालियाँ देकर उन्हें अपमान के साथ मकान के बाहर निकलवा दिया।

बृजलाल को इससे बड़ा दुःख हुआ। और जब रात को भागवन्ती को अपनी भेंट का परिणाम सुनाया, तो प्रगट में तो वे शान्त थे और भागवन्ती को आश्वासन दे रहे थे, परन्तु ह्रदय क्रोध से उछल रहा था। बृजलाल के चले जाने पर, कुछ देर तो भागवन्ती फूट-फूटकर रोती रही, फिर उठकर मकान में गई और धड़ाम से चारपाई पर गिरकर रोने लगी। रोते-रोते उसे झपकी आ गई। बारह बजे के लगभग उसकी आँख खुली तो उसने सुना, कि साथ के कमरे में माता-पिता बड़ी व्यग्रता से बातचीत कर रहे हैं। यद्यपि यह बातचीत बड़ी धीरे-धीरे हो रही थी, परन्तु रात्रि का समय होने से एक-एक शब्द सुनाई देता था। किवाड़ में एक छिद्र था, उसे बन्द करवा देने को भागवन्ती ने कई बार अपने पिता से कहा था, परन्तु पिता ने अपने आलस्य से उसे ज्यों-का-त्यों छोड़ रखा था। इस समय वही छिद्र काम आया। भागवन्ती ने अपने कान उसके पास लगा दिए।

माँ ने उत्तर दिया--‘‘यह आपकी भूल है। मुझे तो भय है कि लड़की जोश में आकर कुछ कर न बैठे !’’
‘‘छिः ! छिः ! स्त्रियों में भला यह साहस कहाँ ? तुम ही कहो सारी सम्पत्ति से हाथ धो बैठें ?’’
‘‘यह भी तो कहने का साहस नहीं होता। रुपया थोड़ा नहीं, दो-ढाई लाख है। और संसार जानता है कि एक-एक पैसा लहू निचोड़कर मिलता है।’’
‘‘बिलकुल ठीक, और यह रकम ऐसी छोटी नहीं कि मूर्ख कन्या के हठ पर निछावर की जाए।’’
‘‘फिर क्या करोगे ?’’
‘‘दीनानाथ को जानती हो ?’’
‘‘कौन दीनानाथ ?’’
‘‘राय संसार चन्द ई. ए. सी. का पुत्र।’’
‘‘हाँ, वह गोरा-सा नवयुवक, लम्बा कद, दुबला शरीर।’’
‘‘बस वही, बी. ए. में पढ़ता है। बड़ा बुद्धिमान है। सच्चरित्रता और योग्यता में बृजलाल से कुछ बढ़कर ही होगा।’’
‘यह तो न कह।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मन से पूछो। आज से पन्द्रह दिन पहले आपने यही बात कुछ और प्रकार से कही थी और बृजलाल के स्थान पर दीनानाथ और दीनानाथ के स्थान पर बृजलाल का नाम लिया था।’’
जयकिशन अप्रसन्न होकर बोले--‘‘अच्छा जाने दो, अब तो यही बात पक्की हुई। संसारचन्द से आज मिला था। उन्होंने यह नाता स्वीकार कर लिया है। मेरा विचार है, कि इस मास के अन्त में भागवन्ती के हाथ पीले कर दूँ।’’ भागवन्ती और न सुन सकी। क्रुद्ध सर्पिणी की भाँति ग्रीवा उठाकर बाहर निकल गई।

तीन

 

भागवन्ती की एक सहेली थी, पार्वती। अमृतसर से कोई तो भागवन्ती से मिलने को जी चाहा। दूसरे दिन सवेरे ही उठकर उसके पास आई, औऱ बोली--‘‘कहो बहन ! क्या हाल है ?’’
भागवन्ती ने दुःखी मन से उत्तर दिया--‘‘बहुत बुरा।’’ पार्वती को इस उत्तर की आशा न थी। भौंचक्की होकर पूछने लगी--‘‘क्यों ?’’
भागवन्ती ने उत्तर न दिया—चुपचाप रोने लगी।
पार्वती ने दोनों हाथ भागवन्ती के गले में डाल दिए औऱ कहा--‘‘रोती क्यों हो मेरी बहन, क्या तुमको किसी ने कुछ कहा है ?’’
भागवन्ती ने इस पर भी कुछ न कहा, परन्तु नेत्र उसी प्रकार आँसू बहाते रहे।
पार्वती ने फिर पूछा--‘‘मेरी रानी बहन ! बताओ तो सही तुम उदास क्यों हो ?’’

भागवन्ती फिर चुप रही। आँखों से गंगा-यमुना बहाती रही। यह देखकर पार्वती के ह्रदय पर बहुत चोट लगी। वह समझ गई कि भागवन्ती पर अवश्य कोई-न-कोई विपत्ति टूट पड़ी है, नहीं तो इस प्रकार व्याकुल होकर आँसू बहाने पर न उतर आती। भागवन्ती की प्रकृति बड़ी धीर और दृढ़ थी। उसे दुःख के अथाह समुद्र में डूबी हुई देखकर पार्वती का ह्रदय काँप गया। परन्तु इसके साथ ही उसे भागवन्ती पर क्रोध भी आया, कि वह मुझसे बोलती क्यों नहीं। दुःख-दर्द सखी-सहेलियों के आगे न रखेगी, तो और किसके आगे रखेगी। इस विचार से उसके अन्दर आत्म-गौरव का भाव जागृत हो उठा, और वह उठकर वापस जाने को उद्यत हो गई।

भागवन्ती ने यह देखा तो रोती हुई पीछे गई और उसका आँचल पकड़कर बोली--‘‘बहन मुझे क्षमा करो, मेरा मन वश में नहीं है।’’
‘‘पार्वती ने कहा--‘‘यही तो पूछती हूँ कि क्यों ?’’
‘‘अन्दर चलो।’’
‘‘बताओगी ?’’
‘‘बताऊँगी क्यों नहीं, जो दुःख मेरे ह्रदय को पीड़ित कर रहा है, उसे बाहर क्यों न निकालूँगी ? तुम जो मेरे दुःख-सुख की संगिनी हो, उसके आगे अपने दिल के दुःख क्यों न रोऊँगी ? जो मेरे दुःख की कथा सुनने को इतनी छटपटा रही है, उसे अपनी राम-कहानी क्यों न सुनाऊँगी ? जो बात कल बच्चा-बच्चा जान जाएगा, वह आज तुम्हारे आगे क्यों न रखूँगी ?’’
पार्वती इतनी लम्बी भूमिका सुनकर डर गई, कि बात बड़ी भयानक-सी जान पड़ती है। चुपचाप भागवन्ती के साथ कमरे में चली गई। भागवन्ती ने दरवाजा बन्द कर लिया औऱ बोली--‘‘अब पूछ लो।’’
‘‘तुम उदास क्यों हो ?’’
‘‘मेरा विवाह निकट है।’’
‘‘विवाह किसके साथ ? भाई बृजलाल के साथ ?’’
‘‘यह होता तो रोना काहे का था। उसके साथ विवाह होने पर मैं दुःखी क्यों होने लगी थी ?’’
‘‘फिर किसके साथ ?’’
किसी के साथ हो, उनके सिवाय मेरे लिए सारे संसार के पुरुष एक से हैं।’’

पार्वती भागवन्ती और बृजलाल के प्रेम से भली-भाँति परिचित थी। उसे कई बार दोनों की बातें सुनने का अवसर मिला था और देख चुकी थी, कि विधाता ने भागवन्ती और बृजलाल को केवल एक-दूसरे के लिए ही बनाया है। दोनों साधारण स्वभाव के थे, दोनों मिलनसार थे, दोनों हठी थे, और दोनों जब किसी बात पर अड़ जाते थे तो सारे संसार की शक्तियाँ इकट्ठी होकर भी उन्हें उससे हटा नहीं सकती थीं। एक बार भागवन्ती ने कहा था कि बृजलाल से विवाह न हुआ तो ब्रह्मा चलकर आए, तब भी किसी दूसरे के साथ मेरा विवाह नहीं हो सकता। किसी दूसरे के मुख से यह शब्द निकलते तो साधारण बात थी, परन्तु भागवन्ती के मुख से इन शब्दों के निकलने का अर्थ साफ था कि वह अपने वचन पर दृढ़ रहेगी। पार्वती को यह बात याद आ गई औऱ वह समझ गई कि भागवन्ती किसी भयंकर चेष्टा में लग रही है। वह यह भी जानती थी कि भागवन्ती के पिता ने यह ठान लिया है, कि भागवन्ती का विवाह बृजलाल के साथ ही होगा। वे बृजलाल से बड़ा स्नेह रखते थे और उनके प्रफुल्ल बदन, उनकी मुस्कराती हुई आँखें, उनके सुडौल और गठीले शरीर, उनके शुद्ध ह्रदय और उनकी प्रबल मानसिक शक्ति ने उनके ह्रदय पर अपना चित्र अंकित कर दिया था। वह कभी स्वप्न में भी यह खयाल न कर सकती थी कि वे भागवन्ती को ब्रजलाल के अतिरिक्त किसी दूसरे को सौंपने को तैयार हो सकते हैं। अब अकस्मात् यह बात सुनकर जिस प्रकार कोई अपने प्यारे की मृत्यु की खबर पाकर चकित रह जाता है, उसी प्रकार पार्वती विस्मित रह गई औऱ सोचने लगी, कि भागवन्ती के पिता की बुद्धि पर पत्थर क्यों पड़ गए कि वह हाथ आए हुए हीरे को छोड़कर कंकरों में भटक रहे हैं। तथापि वह मन के भावों को दबाकर प्रकट में हँसी--‘‘मैंने समझा था कि तुम्हारी कोई बहुमूल्य वस्तु खो गई है ?’’

भागवन्ती ने उत्तर दिया, ‘‘यही तो हुआ है बहन।’’
‘‘तुम्हारा क्या था जो जाता रहा, तुम्हारे पास क्या था जो नहीं रहा, मोती—जवाहर-- नीलम ?’’
‘‘न मोती, न जवाहर, न नीलम, परन्तु इन सबसे बहुमूल्य। ह्रदय का हीरा।’’
‘‘फिर ढूँढ़ती क्यों नहीं ? खोज क्यों नहीं करती, रोने से ह्रदय का हीरा मिल तो नहीं जाएगा ?’’
‘‘तुम ही न ढूँढ़ दो ?’’
‘‘जान पड़ता है, उसके बिना तुम्हारी आँखें देख ही नहीं सकतीं। यदि .ही बात है, मैं ही तुम्हारा काम कर देती हूँ। परन्तु मुझे क्या दोगी ? लालच के बिना कोई भी मनुष्य कान नहीं करता। मैं भी तो मनुष्य ही हूँ।’’
‘‘तुम जो कहोगी मैं तुम्हें वह दूँगी।’’ ‘‘मैं पीछे का हिसाब नहीं पढ़ी, पहले पक्का कर लेना अच्छा। भारतीयों में यह रोग है, पहले तो व्यवहार में लजाते हैं, पीछे झगड़ा करते समय नहीं लजाते। इसलिए वही उचित है कि पहले निर्णय कर लो। व्यवहार में लज्जा कैसी ?’’
भागवन्ती ने मन से नहीं, होठों से मुस्कराते हुए कहा--‘‘अच्छा, क्यो लोगी ?’’ ‘‘जो ढूँढ़कर लाऊँगी दे देना।’’ जो दुःखी होता है, घड़ी-भर के लिए वह भी प्रसन्न हो जाता है। जिसका अंग-अंग रोग ने जकड़ रखा हो, किसी समय वह भी अपने आपको नीरोग समझने लगता है। जिसके घर में खाने को रोटी नहीं होती, कभी-कभी वह भी अपने आपको धनवान समझ लेता है। यही दशा भागवन्ती की हुई। वह निरन्तर कई दिन से दुःख से जल रही थी, यह उपहास सुनकर जोर से हँस पड़ी और कहने लगी--‘‘मुझे यह भी स्वीकार है।’’
पार्वती ने कहा--‘‘चलो फैसला हुआ। मै अभी खोज करती हूँ, पर स्मरण रखना बृजलाल की बात भूल न जाना ?’’
पाठक विचार करेंगे कि पार्वती बहुत चालाक लड़की है। लेखक का भी यही विचार है।

चार

 

पार्वती ने हमारे उपन्यास में एक विशेष भाग लिया है। इसलिए उसके सम्बन्ध में जो कुछ कहना है, वह आरम्भ में ही कह देना उचित है। पीछे लोग ऐसे विषय की ओर ध्यान नहीं देते।

अमृतसर में एक धनाढ्य पुरुष रहता था, नाम शामलाल, आयु पचास वर्ष के लगभग, आचारहीन। बचपन में उसने बहुत तंग दिन देखे थे। परन्तु अब घर पर हाथी झूमता था। मकानों और दुकानों की गिनती न थी। दिन-रात शराब में चूर रहता था और रुपया-पैसा मिट्टी के समान लुटाता था। सच्चे मित्र समझाते थे। कल्याण का मार्ग दिखाते थे, परन्तु वह किसी की परवाह न करता था और जिस पथ पर चल रहा था उधर सरपट दौड़ता गया।

पार्वती उसकी थी, भलाई की मूर्ति और अन्यन्त बुद्धिमती। पिता की कुचालों को देखती तो जल-भुनकर कोयला हो जाती, परन्तु कुछ कर-धर न सकती। एक-आध बार उसने कुछ कहना चाहा परन्तु पिता ने सुना-अनसुना कर दिया। बेचारी को फिर साहस ही न पड़ा।

शामलाल जितना गुराचारी था, पार्वती उतनी ही सुशील थी। उसकी शर्मीली आँखें, लज्जालु चेहरे से, उसके ह्रदय की पवित्रता साफ झलकती थी।

स्यालकोट में उसका नाना रहता था। वहाँ एक विवाह के अवसर पर उसकी भागवन्ती से भेंट हुई। भागवन्ती पढ़ी-लिखी कन्या थी। वह सभ्यता से बोलती, आदर से बात करती थी। पार्वती उस पर रीझ गई औऱ दोनों में बहनापा पड़ गया। उनकी पहली भेंट आज से दो वर्ष पहले हुई थी। इतने समय में उनका स्नेह बहुत बढ़ चुका था।
अब कथा की ओऱ चलिए।

भागवन्ती से विदा होकर पार्वती उस रसोई-घर में गई, जहाँ जयकिशन भोजन जीम रहे थे और उनकी पत्नी पंखा कर रही थी। पार्वती ने हाथ जोड़कर दोनों को प्रणाम किया और चुपचाप खड़ी हो गई। पति-पत्नी ने आशीर्वाद दिया और पूछा--‘‘कहो बेटी ! अच्छी तो हो ?‘‘जी हाँ, परमात्मा की कृपा है।’’
‘‘तुम्हारे पिताजी का क्या हाल है ?’’

पार्वती का चेहरा लज्जा से तमतमा गया, तथापि उसने सिर झुकाकर उत्तर दिया--‘वे अपने रंग में मस्त हैं।’’
जयकिशन बोले--‘‘बेटी ! उनको तुम ही समझाओ, वे कब तक आँखों पर पट्टी बाँधे ऐसे विनाशकारी मार्गों पर दौड़ते रहेंगे। उनकी दशा देख-देखकर तो कलेजा फटता है।’’
पार्वती ने उत्तर दिया--‘‘पाप की पट्टी खोलने के लिए तो बलवान हाथों की आवश्यकता है, मैं अबला क्या कर सकती हूँ ?’’
जयकिशन की पत्नी बोली--‘‘बेटी ! बैठ क्यों नहीं जाती ?’’
पार्वती चुपचाप बैठ गई।

जयकिशन भोजन जीम रहे थे और लक्ष्मी पंखा कर रही थी। जल की आवश्यकता हुई तो गिलास ढूँढ़ना पड़ा। लक्ष्मी नाम को तो लक्ष्मी थी, परन्तु घर के काम-काज की उसे तनिक भी समझ न थी। उसने अपनी लापरवाहियों से कई बार घी के टीन नष्ट कर दिए थे। कई बार जेवर खो चुकी थी। कई बार दर्जी को कपड़ा सीने के लिए देकर वापस लेना भूल गई थी। जयकिशन इन बातों पर बहुत कुढ़ते थे परन्तु लक्ष्मी का स्वभाव न बदल सका।
नौकर किसी काम से बाहर गया हुआ था। पार्वती ने उठकर साथ के कमरे से गिलास ढूँढ़ निकाला और जल से भरकर जयकिशन के सामने रख दिया। परन्तु स्वयं फिर भी कुछ ढूँढ़ती रही। जयकिशन ने पूछा--‘‘बेटी ! क्या ढूँढ़ती हो ?’’
पार्वती ने उत्तर दिया--‘‘बहन भागवन्ती की कोई वस्तु खो गई है, उसे खोज रही हूँ।’’
‘‘क्या कोई पुस्तक ?’’
‘‘नहीं, ह्रदय की प्रसन्नता।’’
जयकिशन ताड़ गए कि पार्वती किसी विशेष प्रयोजन से यहाँ आई है। खाँसकर बोले--‘‘वह तो प्रसन्न ही है।’’पार्वती ने सिर हिलाकर उत्तर दिया--‘‘नहीं।’’
‘‘अभी मैंने उसके खिलखिलाकर हँसने का शब्द सुना था। क्या जो दुःखी होता है वह इस प्रकार हँसा भी करता है ? क्या जिसका मन बुझा होता है उसके होठ भी हँसते हैं ?’’
‘‘अर्थात् उसकी हँसी से आपने यह परिणाम निकाला कि उसका मन प्रसन्न है ?’’
‘‘बिलकुल ठीक है।’’

‘‘परन्तु ऐसा समझना भूल है। उतनी ही भूल है, जितनी कि कुछ भारतीयों को बड़े भोज और दावतों में सम्मिलित होते देखकर, विदेशी मनुष्यों का यह परिणाम निकाल लेना भूल है कि भारत धनाढ्य देश है। वे भी सारे भारत को छोड़कर कुछ एक मनुष्यों को देखते हैं। यदि रात्रि के समय सारे देश में घूमकर देखें कि कितने पेट खाली हैं और कितने कंठ शुष्क पड़े हैं, तो अपनी सम्पत्ति बदल लें। इसी प्रकार आपने भी क्षणिक हँसी को सुनकर यह समझ लिया है कि भागवन्ती प्रसन्न है। यदि आप अपने दिन रात के बाकी समय में उसके ठण्डे श्वास और अश्रु-परिलुप्त नेत्र देख लें, तो अपनी सम्मति बदल लें।’’
जयकिशन ने पूछा--‘‘परन्तु यह क्यों ?’’
पार्वती ने धीर भाव से उत्तर दिया--‘‘आप मेरे पिता के समान हैं। आपसे क्या कहूँ, हाँ (लक्ष्मी की ओर संकेत करके) इनसे सब कुछ कह सकती हूँ।’’
जयकिशन समझ गए कि हिन्दू कन्या ऐसी बातें पुरुष के सम्मुख साफ-साफ नहीं कर सकती। इसलिए बाहर निकल गए और लक्ष्मी तथा पार्वती अकेली रह गईं।

लक्ष्मी बोली—‘‘पार्वती बेटी ! साफ-साफ कहो तो मैं समझूँ, मुझमें तुम्हारे जितना ज्ञान तो है नहीं, कि पहेलियाँ बूझ लूँ।’’
‘‘नहीं, मैं जो कुछ कहूँगी साफ-साफ कहूँगी। पहले बताइए कि बहन भागवन्ती के विवाह का निर्णय हो गया ?’’
‘‘हाँ, हो गया।’’
‘‘किसके साथ ?’’
‘‘डिप्टी संसारचन्द को जानती हो ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘उसके लड़के दीनानाथ के साथ।’’
‘‘पार्वती ने माथे पर हाथ मारकर कहा--‘‘माताजी ? क्या कर रही हो, बृजलाल के साथ जो विवाह की बात हुई थी, वह क्या हुई ?’’
‘‘वह अब नहीं रही।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यह घर अच्छा है।’’
‘‘क्या प्रतिष्ठा में ?’’
‘‘नहीं, धन-दौलत में।’’
‘‘क्या धन ही सब कुछ है ?’’
‘‘नहीं—धन भी कुछ है।’’
‘‘परन्तु बृजलाल भी तो सर्वथा निर्धन नहीं ?’’
‘‘नहीं, पर दीनानाथ के सामने...’’

‘‘---निस्सन्देह थोड़े गरीब हैं, यह मैं मानती हूँ। परन्तु दीनानाथ के यहाँ जाकर भागवन्ती कभी प्रसन्न न होगी। भागवन्ती ने स्वयं को बृजलाल को अर्पण कर रखा है। बृजलाल भागवन्ती पर निछावर हो रहे हैं। दोनों का विवाह होने से ही उनको सुख मिल सकता है, अन्यथा उनका विनाश अवश्यम्भावी है। इधर भागवन्ती रो रही है, उधर बृजलाल रो रहे होंगे। क्या उन दोनों का आपको कुछ ध्यान नहीं ?’’
लक्ष्मी ने ठण्डी साँस भरकर कहा--‘‘बेटी ! मेरे वश की बात नहीं है और जाति भी नहीं मिलती है ?’’
‘‘जाति ! जाति का तो पहले ही निर्णय हो चुका है। पिताजी स्वतन्त्र विचार के मनुष्य हैं, व्याख्यान दिया करते हैं। आप स्त्री समाज की प्रधान हैं। फिर यह प्रश्न क्यों ?
‘‘यह प्रश्न हमने नहीं, उनके चाचा ने उठाया है। वे कहते हैं कि यदि जाति से बाहर विवाह किया गया तो सम्पत्ति में से एक कौड़ी तक न देंगे।’’
‘‘अर्थात् यह सारा झगड़ा सम्पत्ति का है ?’’
‘‘हाँ, इसके अतिरिक्त औऱ क्या कहा जा सकता है।’’
‘‘तो आपने सब बात पक्की कर ली है ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘अब कुछ नहीं हो सकता ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘बिलकुल ?’’
‘‘हाँ बिलकुल, क्योंकि शगुन भी भेज दिया गया है ?’’
‘‘परन्तु भागवन्ती इस विवाह पर प्रसन्न नहीं है।’’
‘‘न हो, उसे पूछता कौन है ?’’

पार्वती विस्मित-सी होकर बोली--‘‘उसके विवाह के विषय में उससे न पूछोगी तो और किससे पूछोगी ?’’
लक्ष्मी ने उत्तर दिया--‘‘पढ़ी हुई कन्याओं में यही दोष है कि वह बड़ी निर्लज्ज हो जाती हैं। हमने पुराना समय देखा है। लड़कियाँ अपने विवाह की बात तक न करती थीं। परन्तु अब तो...’’
पार्वती ने बात काटकर कहा--‘‘क्या यह ठीक था ? लड़कियों की अनुमति के बिना उनके गले पर छुरा फेर देना अन्याय नहीं तो क्या है ?’’

‘‘हुआ करे। माता-पिता को अधिकार है।’’
‘‘ढिठाई क्षमा करें, आप भूल में हैं। माता-पिता यदि यह जानते हुए भी कि इस नाते से हमारी लड़की प्रसन्न न होगी, केवल अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए नाता जोड़ देते हैं, तो वे माता-पिता नहीं, कसाई हैं। आप जानते हैं कि भागवन्ती का बृजलाल से प्रेम है। आप यह भी जानते हैं कि भागवन्ती हठीली लड़की है। आप यह भी जानते हैं कि जात-पाँत हिन्दू जाति की उन्नति में बाधा है। आप यह भी जानते हैं कि भागवन्ती को इस विवाह से प्रसन्नता न होगी परन्तु फिर भी केवल चाचाजी की सम्पत्ति के लिए असहाय कन्या की हत्या कर रही हो, क्या यह अन्याय नहीं है ? माताजी ! आपके अन्दर स्त्रियों का ह्रदय है। आपके अन्दर भी वह प्रेम का भाव है कि जो नारियों के ह्रदय में स्वभाव से होता है। मैं आपके उस ह्रदय से प्रार्थना करती हूँ कि आप इस बात पर फिर ध्यान दें। चाँदी और सोने के ढेर पर अपनी कन्या के जीवन को न्यौछावर न करें। चाचाजी हठ के लिए न्याय और दया को तिलांजलि न दें। लोभ में फँसकर बेचारी लड़की की आयु नष्ट न करो, नारी हो तो नारियों का ह्रदय टटोलो, वहाँ धन की नहीं, प्रेम की पिपासा है। स्त्रियों ने प्रेम के सामने लाखों को पाँव से ठुकराया है। फिर क्या स्त्री को स्त्री न समझेगी ?’’

इस ह्रदय-बेधक वक्तव्य को सुनकर लक्ष्मी के नेत्रों से आँसू छलक पड़े।
रोते-रोते बोली--‘‘बेटा ! क्या करूँ, वह नहीं मानते। धन के लोभ में वे सब कुछ करने को उद्यत हैं।’’
‘‘आप उनसे एक बार फिर कहें, सम्भव है मान जाएँ।’’
‘‘अच्छा,’’कहकर लक्ष्मी ने अपने स्वामी पास गई। परन्तु परिणाम कुछ न निकला। जयकिशन अपनी बात पर तुले रहे। पार्वती निराश वापस आई।

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