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स्वदेश संगीत

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2515
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है स्वदेश-संगीत काव्य-संग्रह...

Swadesh Sangeet

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

गुप्तजी की स्वदेश-सम्बन्धी फुटकर कविताओं का यह संग्रह प्रकाशित किया जाता है। इनमें से अधिकांश कविताएँ भिन्न-भिन्न पत्रों में प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ ऐसी भी हैं जो अब तक कहीं नहीं छपीं।
ये कविताएँ समय-समय पर लिखी गई हैं। अतएव कुछ कविताएँ एक कालीन होने पर भी ऐतिहासिक महत्त्व रखती हैं।
आशा है भारत-भारती के समान यह पुस्तक भी हिन्दी प्रेमियों द्वारा अपनाई जायेगी।
प्रकाशक

श्रीगणेशायनमः

स्वदेश-संगीत

निवेदन


राम, तुम्हें यह देश न भूले,
धाम-धरा-धन जाय भले ही,
यह अपना उद्देश्य न भूले।
निज भाषा, निज भाव न भूले,
निज भूषा, निज वेश न भूले।
प्रभो, तुम्हें भी सिन्धु पार से
सीता का सन्देश न भूले।


विनय



आवें ईश ! ऐसे योग—
हिल मिल तुम्हारी ओर होवें अग्रसर हम लोग।।
जिन दिव्य भावों का करें अनुभव तथा उपयोग—
उनको स्वभाषा में भरें हम सब करें जो भोग।।
विज्ञान के हित, ज्ञान के हित सब करें उद्योग।
स्वच्छन्द परमानन्द पावें मेट कर भव-रोग।।


प्रार्थना



दयानिधे, निज दया दिखा कर
एक वार फिर हमें जगा दो।
धर्म्म-नीति की रीति सिखा कर
प्रीति-दान कर भीर्ति भगा दो।।

समय-सिन्धु चंचल है भारी,
कर्णधार, हो कृपा तुम्हारी;
भार-भरी है तरी हमारी,
एक वार ही न डगमगा दो।।
ह्रास मिटे अब, फिर विकास हो;
सभी गुणों का स्थिर निवास हो;
रुचिर शान्ति का चिर विलास हो;
विश्व-प्रेम में हमें पगा दो।।

राम-रूप का शील-सत्व दो,
सेतुबन्ध-रचना-महत्त्व दो;
श्याम-रूप का रास-तत्व दो,
कुरुक्षेत्र का सु-गीत गा दो।।

ज्ञान-मार्ग की बात बता दो;
कर्म-मार्ग का पूर्ण पता दो;
काल-चक्र की चाल जता दो;
भक्ति-मार्ग में हमें लगा दो।।

फूट फैल कर फूट रही है;
उद्यमता सिर कूट रही है;
और अलसता लूट रही है;
न आप से ही हमें ठगा दो।।

रहे न यह जड़ता जीवन में;
जागरुकता हो जन जन में;
तन में बल, साहस हो मन में;
नई ज्योतियाँ सु जगमगा दो।।

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