नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
शेवचेक : (पर्चा उठाए हुए आगे आता है) हुजूर।
महाराज : क्या है?
शेवचेक : हुजूर, आपकी दया से दस्तकारों-सौदागरों का कारोबार बढ़ रहा है।
दिसावर के साथ तिज़ारत भी बढ़ रही है। यह सब आपकी दया से। लेकिन दरबार में
अभी तक सौदागरों-दस्तकारों का एक भी नुमाइंदा नहीं है।
महाराज : क्या मतलब?
शेवचेक : हुजूर, तिज़ारत की बदौलत देश की दौलत बढ़ रही है। अब, जब आपके दरबार
में हम हाज़िर रह सकेंगे तो आपको हमारी ज़रूरतों का पता रहेगा-हम अपने महाराज
के सामने...
हुसाक : हुजूर, आज दस्तकारों की बदौलत देश मालामाल हो रहा है। हुजूर के दरबार
में हमारे नुमाइंदे मौजूद होंगे तो आपको ही हमारे काम-काज का इल्म रहेगा। और
हुजूर ख़ुद हमारी तकलीफ़ों पर गौर फरमा सकेंगे। इस वक़्त अपने महाराज तक
पहुँचना हमारे लिए नामुमकिन हो रहा है।
महाराज : (सिर हिलाते हैं। लाट पादरी की ओर देखते हैं) बेशक! इस तजवीज़ पर भी
हम गौर करेंगे।
[महामन्त्री उठकर महाराज के कान में कुछ कहता है। महाराज सिर हिलाते हैं।]
तुम कितने नुमाइंदे चाहते हो? कितने दस्तकार-जमातों के नुमाइंदों को दरबार
में रखा जाए?
शेवचेक : कम-से-कम आठ नुमाइंदे हों, हुजूर। हमारे यहाँ दस्तकारों की सोलह
जमाते हैं। दो जमातों के पीछे एक नुमाइंदा तो होना ही चाहिए।
महाराज : गौर किया जाएगा।
हुसाक : हुजूर, क्या इसके लिए फिर दरख्वास्त करना होगा?
महाराज : गौर किया जाएगा। तुम दस्तकार लोग इतने उतावले क्यों हो रहे हो?
नगरपालिका पर घड़ी लगाने में भी उतावले, और अब दरबार में नुमाइंदगी के लिए भी
उतावले। हर बात वक़्त माँगती है। हम गौर करेंगे। (सहसा क्रुद्ध हो उठते हैं।)
किसकी इजाज़त से तुमने यहाँ पर घड़ी को लगा दिया है? हमें इसकी इत्तला क्यों
नहीं दी गई? दस्तकार हमसे छिपकर काम करने लगे हैं। यह हमारी रियासत है। यहाँ
हमारा हुक्म चलता है। हमारी इजाज़त के बिना कोई काम नहीं किया जा सकता।
दस्तकार सरकश हो रहे हैं। हम इसकी इजाज़त नहीं देंगे।
[चुप्पी, सन्नाटा। दस्तकार गर्दन झुकाए खड़े हैं।]
हुसाक : जैसा महाराज फ़रमाएँगे।
महाराज : (फिर हानूश की तरफ़ देखकर मुस्कुराते हैं) अच्छा, यह बताओ, यह घड़ी
तुमने क्या सोचकर बनाई थी?
हानूश : हुजूर, बचपन से ही मुझे घड़ी बनाने का शौक़ था। (फिर सहसा याद करके)
हुजूर, यह घड़ी मैंने बनाई है-महाराज के राज्य की शान बढ़ाने के लिए, अपने
महाराज की ख़ुशी के लिए, महाराज के क़दमों पर अपनी नाचीज़ ईजाद भेंट करने के
लिए, महाराज की इस राजधानी की रौनक बढ़ाने के लिए।...
महाराज : (खुश होकर महामन्त्री से) हम ख़ुश हुए। इसे एक हज़ार (सोने की
मोहरे) दे दिए जाएँ। इसका महीना बाँध दो और यह घड़ी की देखभाल किया करे। आज
से इस आदमी का रुतबा एक दरबारी का रुतबा होगा। यह हमारे दरबार में बैठा
करेगा। (हुसाक से) लो, तुम्हारे एक आदमी को दरबार में नुमाइंदगी मिल गई।
[हॉल में खुशी और हैरानी की हलकी-हलकी आवाजें]
हुसाक : हुजूर, आपकी मेहरबानी से नगरपालिका पर घड़ी लग गई है। इससे देश को
बड़ा लाभ होगा, हुजूर का नाम रौशन होगा। हुजूर...
महाराज : कहो, रुक क्यों गए?
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