नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
अधिकारी : ज़िन्दगी में जितना आराम बढ़ता जाए उतना ही सुख कम होता है, क्योंकि
मेहनत कम होती जाती है।
हानूश : बेशक!
अधिकारी : तो तुम तैयार हो?
हानूश : जी, मैं हाज़िर हूँ।
ऐमिल : (हानूश से) जो कुछ मैंने कहा है, ध्यान में रखना। सोच-समझकर जवाब देना।
पादरी : घबराना नहीं हानूश! मैं भी वहाँ रहूँगा। तुम्हें घबराने की कोई ज़रूरत
नहीं है।
कात्या : तुम कुछ मत माँगना। जो महाराज दें, वही बहुत है। हमारी हालत उनसे छिपी
नहीं है।
[अधिकारी आगे-आगे जाता है; पीछे हानूश, ऐमिल, पादरी बाहर जाते हैं।
यान्का : (खिड़की में से देखकर) नीचे भीड़ इकट्ठी हो गई है। लोग बापू को देखने के लिए खड़े हैं। गाड़ी को घेरकर खड़े हैं। हाय, कितना अच्छा लगता है! मैं भी नीचे जाऊँगी।
[कात्या कमरे के बीचोबीच खड़ी रहती है। फिर घूमकर देव-प्रतिमा के सामने जाकर सिर नवाती है और छाती पर सलीब का निशान बनाती है। नीचे से तालियाँ पीटने की आवाज़ आती है। बाहर से चलते पहियों की आवाज़ आने लगती है।
[पर्दा गिरता है।]
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