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नाटक-एकाँकी >> हानूश

हानूश

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2471
आईएसबीएन :9788126705405

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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।


ऐमिल : आज शाम क्या हुआ था?

जेकब : (तनिक झेंप जाता है) मैं लोहार की दुकान पर काम की तलाश में गया था। लोहार वहाँ पर नहीं था तो उसके कारिन्दों ने मुझे यहाँ भेज दिया। यह हानूश कुफ़्लसाज़ का घर है न?

ऐमिल : मगर तुम्हारी साँस क्यों फूल रही है? क्या कोई वारदात हुई है?

जेकब : मैं गली का मोड़ काट रहा था जब एक सरकारी अफ़सर ने घूरकर मेरी तरफ़ देखा। वह मुझसे कुछ पूछना चाहता था, मुझे ऐसा ही लगा। पर मैं डर गया। सरकारी अधिकारियों से मैं बहुत डरता हूँ। तीन साल जेलखाने में बिता चुका हूँ। इसलिए मैं नज़र बचाकर भाग खड़ा हुआ। दो गलियाँ लाँघकर मैंने पीछे देखा तो कोई नहीं था, कोई भी मेरा पीछा नहीं कर रहा था।

[ऐमिल और हानूश एक-दूसरे की तरफ़ देखते हैं।]

हानूश : (खिड़की की ओर जाकर बाहर देखते हुए) कोई नहीं। बाहर कोई नहीं।

ऐमिल : गाँव में क्या काम करते थे?

जेकब : गाँव में एक लोहार के पास काम करता था। वह घोड़ों के एड लगाता था और घोड़ागाड़ियों की मरम्मत करता था।

हानूश : कमानी भी बनाता था?

जेकब : जी, घोडागाड़ी के लिए कमानी भी बनती है।

हानूश : किस धातु की बनाता था?

जेकब : जी, लोहे में थोड़ा पीतल मिलाकर ही बनती है।

हानूश : सिर्फ़ लोहे की क्यों नहीं बनती?

जेकब : जी, सिर्फ लोहे की बनाओ तो बड़ी बोझल बनती है-उसमें लचक नहीं होती।

हानूश : और सिर्फ पीतल की क्यों नहीं बनाता था?

जेकब : सिर्फ़ पीतल की कमानी बनाओ तो बड़ी जल्दी टूट जाती है। कमानी तो ऐसी होनी चाहिए जो बोझ को बर्दाश्त करने पर लचक जाए, मगर टूटे नहीं। यह क्या बन रहा है?

ऐमिल : यह घड़ी बन रही है।

जेकब : घड़ी क्या?

ऐमिल : घड़ी, जो वक़्त बताती है। जानते हो, क्या होती है?

जेकब : जी नहीं।

ऐमिल : बस, यही घड़ी बन रही है। इसे मेरे दोस्त बना रहे हैं। यही इस घर में रहते हैं। इन्हीं का नाम हानूश है। मगर लोहार, जिससे तुम मिलने आए हो, यहाँ पर नहीं है। वह अभी-अभी यहाँ से गया है।

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