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रात का रिपोर्टर

निर्मल वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2461
आईएसबीएन :9788126340934

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वे दिन, लाल टीन की छत और एक चिथड़ा सुख जैसी कालजयी कृतियों के बाद उनका उपन्यास रात का रिपोर्टर सम्भवतः आपातकाल के दिनों को लेकर लिखा गया हिन्दी में पहला उपन्यास है

Rat ka riporter

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निर्मल वर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्हें अपने जीवन-काल में ही अपनी कृतियों को ‘क्लासिक’ बनते देखने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रायः सभी आलोचक इस बात पर सहमत हैं कि हिन्दी की वर्तमान कहानी दिशा को एक निर्णायक मोड़ पर देने का उन्हें श्रेय है।
वे दिन, लाल टीन की छत और एक चिथड़ा सुख जैसी कालजयी कृतियों के बाद उनका उपन्यास रात का रिपोर्टर सम्भवतः आपातकाल के दिनों को लेकर लिखा गया हिन्दी में पहला उपन्यास है। और, उनके कथा-लेखन में नये मोड़ का सूचक है।

उपन्यास का कथा-नायक रिशी यहाँ एक ऐसे पत्रकार के रूप में सामने है, जिसका आंतरिक संकट उसके बाह्य सामाजिक यथार्थ से उपजा है...हालात ने उसे जैसे अस्वस्थ और शंकालू बना दिया है। उसके चारों ओर अँधेरे का साम्राज्य है और उसका अन्तर्जगत भी उसकी जद में है। ऐसे में यदि वह अपने इर्द-गिर्द के अँधेरे को भी जाँचने परखने की कोशिश करता है, तो स्वंय भी उसकी कसौटी पर होता है।
वस्तुतः यह एक ऐसी कथाकृति है, जो बुद्धिजीवी की चेतना पर पड़ने वाले युगीन दबावों को रेखांकित करती है और उन्हें उसके व्यवहार में घटित होते हुए दिखाता है। इससे गुजरते हुए हम जिस माहौल से गुजरते हैं, वह चाहे हमारे अनुभव से बाहर हो या हम उससे बाहर हों, लेकिन वह हमारी दुनिया की आजादी के बुनियादी सवालों से परे नहीं है।

 

रात का रिपोर्टर 

1

टेलीफोन-बूथ के शीशे से बाहर वह दिखाई दी- एक छोटी-सी लड़की साइकिल के पिचके टायर को पेड़ की एक सूखी शाख से हाँकते हुए ले जा रही थी। टायर कभी आगे निकल जाता तो वह भागते हुए उसे पकड़ लेती, कभी वह आगे निकल जाती और टायर का रबड़ कोलतार की चिपचिपाती सड़क पर अटक जाता, लड़खड़ाकर गिर जाता, वह पीछे मुड़कर उसे दुबारा उठाती, सीधा करती, अपनी शाख हवा में घुमाती और वह मरियल मेमने-सा फिर आगे-आगे लुढ़कता जाता।

फोन कान से चिपका था, आँखें लड़की पर; धूप के सुनहरी धब्बे बूथ के शीशे पर चमचमा रहे थे। ‘हलो हलो...’ वह कुछ बेताब होकर चिल्लाया। फोन के भीतर की घुर्र-घुर्र में दूसरी तरफ की आवाज कुछ इसी तरह अटक जाती थी, जैसे बच्ची का टायर। उसके हाथ के पसीने में फोन चिपचिपा रहा था-‘हलो राय साहब सुनिए, यह मैं हूँ’ ! उसने जल्दी से फोन दूसरे कान में लगाया और धीरज की साँस ली, ‘जी हैँ, मैंने इसलिए फोन किया था कि आज मैं देर से आऊँगा जी हाँ, पहली किश्त अपने साथ ले आऊँगा...जी नहीं, घर में सब ठीक हैं; माँ, उनके बारे में क्या ? वह हँसने लगा, ‘नहीं जी, उन्हें कुछ नहीं हुआ।’ राय साहब की ह्यूमर माँ के आसपास घूमती थी। वे सोचते थे, माँ एक बहाना है, एक फैंटेसी, जिसकी आड़ में वह उनसे मिलना टालता रहता था। उन्हें कभी विश्वास नहीं होता था कि अधेड़ उम्र के रिपोर्टरों की बूढ़ी माएँ हो सकती हैं। ठीक है, दफ्तर आऊँगा, तो बात होगी। नहीं, अभी नहीं मैं, टेलीफोन बूथ से बोल रहा हूँ, दूसरे लोग इंतजार में खड़े हैं।...उसने फोन को जल्दी से रख दिया; राय साहब की आवाज बीच में ही कट गई, आधी इधर; आधी उधर, वे शायद अब भी कुछ कह रहे थे, लेकिन वह बूथ के दरवाजे को धकेलकर बाहर निकल आया था।

लड़की पहिए का टायर घुमाते हुए बहुत दूर निकल गई थी। हवा में उसकी फ्रॉक गुब्बारे की तरह फूल गई थी, जिसके नीचे दो नंगी टाँगे सितंबर की रोशनी में चमक रही थीं। फिर वह एक सँकरी लेन की तरफ मुड़ी एक पल पीछे मुड़कर उसकी ओर देखा, टहनी को हवा में घुमाया और पलक झिपाते ही छिप गई।
वह ठीक उस ठिकाने को देखता रहा, जहाँ बच्ची लोप हुई थी। नई दिल्ली के इस हिस्से में अक्सर ऐसा होता था; कोई एक क्षण के लिए दिखाई देता था-साइकिल चलाता हुआ कोई क्लर्क, रेंगता हुआ ठेला, रिरियाता हुआ कोई भिखारी। इससे पहले कि आँख उन तक पहुँचे, वे अंतर्धान हो जाते थे, कोई गली उन्हें निगल लेती...और सड़क पहले सी सुनसान और निस्पंद पड़ी रहती, जैसे वहाँ किसी तरह की घटना या दुर्घटना होना असंभव हो...

शायद इसलिए उन्होंने यह जगह चुनी थी; खाली और खुली सड़क जहाँ कोई उन पर संदेह नहीं कर सकता था। हम यहाँ मिलेंगे टेलीफोन बूथ के आगे। ठीक इसी वक्त...’’ उन्होंने घड़ी देखी, फिर उससे कहा, ‘‘आप भी अपनी घड़ी देखिए।’’ ग्यारह बजने में पाँच मिनिट बाकी थे, ‘‘बस ठीक ग्यारह बजे...मैं कार में बैठा रहूँगा, आप चुपचाप दरवाजा खोलकर भीतर आ जाइएगा...’’

वह चले गए; उसी तरह लोप हो गए, जैसे अभी कुछ देर पहले वह बच्ची आँखों से ओझल हो गई थी।
यह कल हुआ था। तब से पूरे चौबीस घंटे का राउंड लगाकर धरती इसी जगह आ पहुँची थी, जहाँ वह अब खड़ा था। वह बैठा क्यों नहीं रहा ? क्यों वह एक इशारे से डरे हुए कुत्ते की तरह उनके पीछे-पीछे चला आया ? अपनी हड़बड़ाहट में वह ठीक से उस आदमी को पहचान भी नहीं पाया, जो चुपचाप लायब्रेरी के भीतर उसकी कुर्सी के पीछे आकर खड़ा हो गया था। उसकी लंबी आदमकद छाया तिरछी होकर उसकी नोटबुक के सफेद कागज पर गिर रही थी। उसने डेस्क से सिर उठाया, तो उनका मृदु स्वर सुनाई दिया, ‘‘माफ कीजिए, मैं आपको डिस्टर्ब कर रहा हूँ। क्या आप दो मिनिट के लिए बाहर आ सकते हैं ?’’

पहले क्षण खयाल आया-यह आदमी उन लोगों में होगा, जो अखबार में उसके रिपोर्ताज या रिपोर्टे पढ़कर कभी-कभी उससे मिलने आ जाते थे, लेकिन वे अधिकतर बाहर, छोटे कस्बों से आए लुटे-पिटे पत्रकार होते थे, बेरोजगार किस्म के फ्रीलांसर जो दिन भर अखबार के दफ्तरों के चक्कर लगाते थे और शाम को प्रेस क्लब में मुफ्त की बियर के लालच में अपने किसी मित्र की राह टोहते थे...किंतु जो सज्जन उसके सामने खड़े थे, उन्होंने टाई और सूट पहन रखा था, लंबा और भारी जिस्म, संपन्न, भरा पूरा चेहरा और एक शालीन, हल्के से संकोच में खुली मुस्कराहट, जिसमें एक अजीब-सी औपचारिक दूरी थी; क्या उनकी यह मुस्कराहट थी, जिसने उसे संशय में डाल दिया था ? किंतु लायब्रेरी में कोई प्रश्न पूछना असंभव था। वह जल्दी-जल्दी अपने डेस्क पर बिखरे कागज पत्तर समेटने लगा कि अचानक उसे अपने कंधे पर उनका स्पर्श महसूस हुआ-यह सब यहीं रहने दीजिए, मुझे आपसे सिर्फ एक मिनिट के लिए मिलना है, मैं बाहर खड़ा हूं।’’
वे बाहर चले गए, लायब्रेरी के लॉन पर एक पेड़ की छाया तले खड़े हो गए, पेड़ की ही तरह तटस्थ और उदासीन अब उनके चेहरे पर कोई मुस्कराहट नहीं थी।

‘‘आपने शायद मुझे नहीं पहचाना ?’’
लायब्रेरी के बाहर खुली रोशनी में पहली बार उनका चेहरा ध्यान से देखा। कहीं देखा जरूर है, किसी सुदूर स्मृति का दरवाजा थोड़ा सा खुला, जिसके बाहर एक शाम निकल आई, एक घर, एक मंद बुझी हुई घड़ी...
‘‘अनूप भाई के साथ तो नहीं ?’’

‘‘जरा धीरे बोलिए’’, उन्होंने चारों तरफ देखा। फिर बहुत ही धीमी आवाज में बोले, ‘‘हाँ वहीं उन्हीं के घर।’’
यह शुरुआत थी, सरसराते पेड़ के नीचे आतंक का एक चमचमाता चकत्ता उनके बीच चला आया। डर के आने के कितने गोपनीय रास्ते हैं, लेकिन जब वह सचमुच आता है, तो सब रास्ते अपने आप बंद हो जाते हैं, सिर्फ वह रह जाता है-कैंसर के कीटाणु की तरह जिसके आगे मरीज की सब छोटी बीमारियाँ अचानक खत्म हो जाती हैं। अस्पताल में उसकी पत्नी की दहशत जैसे दीवार लाँघकर यहाँ चली आई थी, पेड़ के नीचे, सितंबर की छाया में, जहाँ वह उसके सामने खड़े थे...वे कुछ आगे झुक आए बिल्कुल उसके मुँह के पास जहाँ उनकी साँस उसके चेहरे को छू रही थी।

‘‘मुझे आपसे कुछ कहना था...’’ उनका स्वर बिल्कुल शांत और ठंडा था, ‘‘मैं कल यहाँ इसी वक्त आऊँगा, यहाँ लायब्रेरी में नहीं वहाँ सड़क पर टेलीफोन बूथ के आगे।’’ उन्होंने चलते-चलते कहा, ‘‘आप किसी से कहिएगा नहीं कि मैं आपसे मिला हूँ।’’

उसने सिर उठाया तो देखा, वहाँ कोई नहीं था, जैसे उसके कानों में फँसे, फुसफुसाते शब्द कहीं और से आए थे...उन्होंने कब लॉन पार किया, कब बजरी की सड़क पर आए, कब गेट के बाहर चले गए, उसे कुछ भी पता नहीं चला।
वह टेलीफोन-बूथ के बाहर आया, तो पीछे एक अजीब घुर्र-घुर्र की-सी आवाज सुनाई दी। हठात् पीछे मुड़ा तो देखा कि वह जल्दी में टेलीफोन को चोगे में न रखकर स्टूल पर छोड़ आया था और इस डर से कि कहीं राय साहब की आवाज उसे दुबारा न पकड़ ले, खट से उसने चोगे को खोखल में घुसा दिया। किंतु जब वह बूथ के बाहर आया, तो उसने पाया कि रिरियाने की घुर्र-घुर्र फोन से नहीं, उसके भीतर से आ रही थी। अगर दिन खामोश हो, सड़क खाली हो, रात की जमी हुई नींद आँखों के पपोटों पर चुनचुना रही हो तो ऐसे में भीतर धमनियों की खड़खड़ाहट कानों में सुनाई देती है; हम दरवाजा खोलते हैं, और खट से एक परची हमारे हाथ में आ जाती है, पता नहीं, बेचारी देह कितने संदेशे इन परचियों पर लिखकर हमारे पास छोड़ जाती है। हम घड़ी देखते हैं, बार-बार थूक से मुँह गीला करते हैं, अभी आए नहीं ?

 ग्यारह की घड़ी पास सरकती जाती है और हमें लगता है, वह हमारे डर को छूकर बहुत आगे निकल गई। डरो नहीं-वह अपने गुप्त कोड में कहती है-तुम्हारे चेहरे का खून और बगलों में टपकता पसीना, कनपटियों पर घुर्राती झनझनाहट ये मैं हूँ, तुम इनसे अलग रहो, बाहर देखते रहो; तुम्हें कुछ नहीं हो सकता। लेकिन तभी उसने देखा कि कोई उसके मुर्दा हाथ को खींच रहा है। वह धक्का खाकर एक दो कदम आगे घिसटता चला गया। पटरी के नीचे गाड़ी के इंजन की धीमी घुरघुराहट उसके पीछे-पीछे चल रही थी...कौन हैं, आप कौन हैं ? इससे पहले कि वह चिल्लाए, कार की खिड़की खुल गई। एक हाथ ने इसे भीतर खींच लिया, जैसे वह कोई बंडल हो, सीमेंट का बोरा, जिसे बाहर से उठाकर भीतर टिका दिया गया है। ‘‘आप भी अजीब हैं, मैं इतनी देर से हॉर्न बजा रहा हूँ और आप ऐसे खड़े थे, जैसे वे कुछ आगे कहते कि हठात रुक गए। वे विंडस्क्रीन के आईने से उसे देख रहे थे। एक हल्के धक्के से गाड़ी आगे बढ़ी तो उनकी आवाज सुनाई दी, ‘‘मैं कुछ लेट हो गया। आप क्या काफी देर से खड़े थे ?’’ उनके चेहरे पर वही मुस्कान थी, जो कल उसने लायब्रेरी में देखी थी-पकी हुई, शांत, उदासीन। उसने रूमाल से माथे के पसीने को पोंछा, दिल की धुक धुकी कुछ पटरी पर लगी, तो कहा, ‘‘मैं कुछ जल्दी आ गया था। मुझे एक फोन करना था।’’

उन्होंने कोई जिज्ञासा नहीं जताई, शायद उसकी बात भी नहीं सुनी। उनका ध्यान सड़क पर था, हालाँकि वह लगभग खाली पड़ी थी। उन्होंने वही कलवाला सलेटी रंग का सूट पहन रखा था और ब्राउन रंग की ऊनी टाई-स्टीयरिंग व्हील पर उनके सधे साँवले हाथ एक सर्जन के हाथ दिखाई देते थे, जो क्लोरोफॉर्म देने के बजाय सिर्फ अपनी मुस्कराहट के सहारे बुरी से बुरी चीड़-फाड़ कर लेता है। वह अब निश्चित था; इस आदमी के हाथों में जो एक विश्वास था, उसकी गर्मी में वह निश्चल बैठा था। वह उसे अपनी कार में कहीं क्यों न ले जाएँ, वह कोई विरोध नहीं करेगा-ऐन मौके पर वह अपनी देह के डर को बाहर फेंक सकता था। वह उनके साथ कहीं भी जा सकता था।

वे ज्यादा दूर नहीं गए। फिरोजशाह रोड और कर्जन रोड के ‘ट्रेफिक टापू’ से आगे निकलकर उनकी गाड़ी केंनिग रोड पर मुड़ गई। वहाँ पीली सफेदी में पुते सरकारी बँगले थे, जिनके फाटकों पर आग में सुलगती हुई वुगनबेलिया की लतरें लहरांती थीं। दूसरी तरफ नौकरों, जमादारों और धोबियों के आउट-हाउस क्वार्टर थे। वह अचानक एक सँकरी गली में मुड़ गए..कुछ दूर तक गाड़ी हिचकिचाती हुई रेंगती रही, फिर एक नाले की तरफ ढुलकने लगी और जब बिल्कुल गढ़हे के पास आ गई, तो अपने आप रुक गई, मानो उसे यहीं आना था...यहीं रुकना था।
‘‘हियर वी आर...यहाँ हम चैन से कुछ बातचीत कर सकते हैं।’’
उन्होंने जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया, ‘‘आप लेंगे ?’’
‘‘नहीं, आप लीजिए। मेरे पास है...’’

उन्होंने ध्यान से उसकी ओर देखा, ‘‘आपको बुरा तो नहीं लगा...कल मैं आपको लायब्रेरी से घसीट लाया और आज यहाँ, इस जगह ?’’ वह धीरे-से हँसे दिए, लेकिन उसी हँसी में एक हल्की-सी थकान थी, और एक अजीब-सी खिजलाहट भी, जैसे वह जल्दी से जल्दी अपनी जिम्मेवारी से छुटकारा पा लेना चाहते थे, ‘‘सच पूछिए, तो इन दिनों कोई जगह खतरे से खाली नहीं है, इसलिए मैं आपको यहाँ ले आया।’’ उन्होंने धीरे से कहा।
‘‘मैं समझा नहीं...खतरा कैसा ?’’
‘‘मैं पिछले कई दिनों से आपसे मिलना चाहता था...लेकिन आप शायद कहीं बाहर थे ?’’
‘‘जी ?’’
‘‘आप दिल्ली से बाहर थे ?’’

‘‘आपको कैसे मालूम ?’’ वह अचानक उनकी गिरफ्त से छूटना चाहता था...एक अंधे क्रोध ने इसे पकड़ लिया, ‘‘मुझे मालूम नहीं, आप मुझसे क्या चाहते हैं ?’’
‘‘कुछ भी नहीं...’’ उनका स्वर एकदम रुखा और भावहीन हो आया, ‘‘आप चाहें, तो मैं आपको वापिस लायब्रेरी छोड़ आता हूँ।’’
वह उन्हें निढाल-सा होकर देखता रहा-कौन है यह शख्स, जिसका नाम भी मझे नहीं मालूम ? लेकिन मैं इनके साथ यहाँ अकेला चला आया हूँ। क्रोध की जगह एक पस्त, पथराई हुई, पीछे हटती हुई, पशुवत् आत्म रक्षा की भावना चली आई...


 

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