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बाघ दुहने का कौशल

रमण कुमार सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :106
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2447
आईएसबीएन :81-267-1048-9

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बाघ दुहने का कौशल की रचनाएँ हमें उस सरल और मासूम संसार में ले जाती हैं जो वास्तविकता में टूट रहा है लेकिन हमारे स्वप्नों में साबुत है।

Bagh Duhne ka Kaushal a hindi book by Raman Kumar Singh - रमण कुमार सिंह - बाघ दुहने का कौशल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी की समकालीन कविता में कुछ समय से आये बदलाव अभी ठीक से परिभाषित नहीं किये गये हैं लेकिन यह निर्निवाद है कि वह पिछली काव्य-पीढ़ियों से आगे की, जीवन के ज्यादा विस्तारों को देखती-पहचानती हुई कविता है। अपने पूर्वज कवियों का विवेक उसके अनुभव संसार में उपस्थित है लेकिन उसकी संवेदना बिल्कुल नयी और अपनी है। इस संवेदना में यह जानने की बेचैनी है कि समाज मानव सम्बन्ध और राजनीति में हमने क्या-क्या खोया है कौन-सी दुनियाएँ हमसे छूट गयी हैं और हमारी मूलभूमि का, हमारी स्थानीयता का क्या हाल है। आश्चर्य नहीं कि युवा कवि रमण कुमार सिंह अपने पहले कविता-संग्रह बाघ दुहने का कौशल की ज्यादातर कविताओं में बार-बार उस जीवन को जाँचते-परखते लौटते हैं जो हमारे पीछे रह गया है और जिसकी जर्जरता और उदासी हमारा पीछा करती रहती है। एक सहज गँवई यथार्थ और उसका जादू जो अब हमारा अतीत है और हमारे सामने फैले शहरी निम्नमध्यवर्गीय यथार्थ के आपसी तनाव भी इन कविताओं की अन्तर्वस्तु बनाते हैं और उस ‘लुटेरे समय’ की छवियाँ उभारते हैं जो ‘दादी की लोरियों’ और ‘बुजुर्गों की लाठी’ से लेकर’ आकाश की नीलिमा’ तक को छीन रहा है और जिसके प्रति विरोध दर्ज करना ज़रूरी है अन्यथा वह हमारी अभिव्यक्ति को भी नष्ट कर दे सकता है।


रमण कुमार सिंह की कविताओं में हमारे लोकजीवन का जर्जरित होता स्वरूप बहुत शिद्दत से व्यक्त हुआ है। वे एक तरफ उस संसार की बची-खुची चीजों, परम्पराओं और सम्बन्धों को कविता की स्थायी स्मृति की तरह बचा लेना चाहते हैं तो दूसरी तरफ उस युवक की बेचैनी के पास भी जाते हैं जो लोक में प्रवेश करते बाजार, टूटती चौपाल और डरावने हो रहे पनघट और राजनीति के सत्ता-समीकरणों का साक्षी है और इस यथार्थ को बदल पाने में असमर्थ है। ‘गुजरे हुए बाबा से संवाद’ इसी तरह की एक मार्मिक कविता है जिसमें आज की पीढ़ी का एक प्रतिनिधि अपने पूर्वज को ग्रामीण-संस्कृति का मौजूदा हाल सुनाते हुए उस सपने के बारे में पूछता है जिसे देखते-देखते वे अन्तः सो गये थे। गौरतलब यह है कि यथार्थ बदल रहा है लेकिन स्वप्न भी जीवित है। दरअसल रमण की कविता उम्मीद और नाउम्मीद के बीच कई तरह के रिश्तों की पहचान का दस्तावेज़ है और कई बार ‘देस-परदेस’ को भी इसी रूप में पहचानते हैं।

बाघ दुहने का कौशल की रचनाएँ हमें उस सरल और मासूम संसार में ले जाती हैं जो वास्तविकता में टूट रहा है लेकिन हमारे स्वप्नों में साबुत है। भाषा की ताज़गी और शिल्प की लोक-लय के साथ गँवई-शहरी जीवन के विकल रूप रमण की कविताओं के केन्द्रीय बयान हैं जिनमें संवेदना की स्थानिकता का संगीत भी सुनाई देता है।


हमें करना चाहिए था टूटकर किसी से प्रेम
झमाझम बारिश में भीगना चाहिए था
बिना किसी छतरी की उम्मीद किए
शिखर को छूने के लिए
लेना चाहिए था पहाड़ पर चढ़ने का जोखिम
हंगामा न सही, खुद को खड़ा करना चाहिए था
अन्याय और शोषण के खिलाफ

मगर अफसोस
ऐसा कुछ भी नहीं किया हमने

बरसों किताबों से जूझने के बाद
बिना कोई जीत हासिल किए
अपने आप से उकताए हुए हम
प्रेक्षागृह में बैठकर देखते हैं
प्रेम का नाटक
नायक के हेयर स्टाइल व चश्मे
और नायिका के पारदर्शी कपड़ों पर
बहस करते हैं घंटों लगातार
देर रात व्यवस्था को गाली देते हुए
लौटते हैं घर
और खाकर सो जाते हैं।


-इसी पुस्तक से


जब मिले थे हम


वह सूखे पत्तों का मौसम नहीं था, मीता
जब मिले थे हम

हवा सरसराती थी तो बज उठता था संगीत
कलियाँ खोल देती थीं अपनी पंखुड़ियाँ
लता और पेड़ की तरह लिपट जाते थे हम
हँसी थी आँसू थे दुख था और
खुशियाँ थीं छलकती हुईं

हम लड़ते-झगड़ते भी थे कभी
तो चाँद से करते थे एक दूसरे की शिकायत
फूलों से पूछते थे उदासी का सबब
छुपम-छुपई का खेल खेलते थे अक्सर
और ढूँढ़ लेने पर मिलते थे ऐसे
जैसे मिल हों बरसों बाद

मृत्यु थी कहीं दूर डराती हुई
हम रोज सूरज से माँग लेते थे
एक दिन उम्र और

किसी नियम में नहीं बँधा था जीवन
चाँद से गपशप करते और सूरज को हथेली पर
लिये घूमते थे हम

भरोसे के खम्भे पर उम्मीद की छत डालकर बनाया हमने घर
और बसाया अपना अड़ोस-पड़ोस
अड़ोस-पड़ोस से माँग-बाँट कर चल जाता था काम
एक घर के चूल्हे से आग जलती थी पूरे कुनबे में
और एक के घर जन्मा बच्चा होता था
पड़ोसियों का भी लाडला

फिर आए पंडित-पुरोहित राजा मंत्री और सिपाही
उन्होंने बनाई नैतिकताएँ और नियमों की किताब
फिर हममें से ही किसी को घोषित किया चोर
और खेलने लगे चोर-सिपाही

हालाँकि ऐसा कुछ नहीं सोचा था हमने शुरू में

नियम बने तो नियमों को तोड़ने का सिलसिला भी हुआ शुरू
नैतिकताएँ बनीं तो अनैतिकता भी

हालाँकि विकल्पहीन नहीं रहे हम कभी
मगर सुविधाओं के शामियाने में मनाते रहे उत्सव
और खुशफहमी की मार झेलते गए
हमने चुप रहना सीखा और
तोता बनने में ही भलाई समझी

मीता, हम ही थे जिन्होंने नंगी बेटियों को
बताया सुन्दर और पहनाया ताज
हमने ही रचा ऐसा वीभत्व नया सौन्दर्यशास्त्र
हमने ही जलाया बच्चों, औरतों और स्कूलों को
हम ही थे जो करते रहे तिकड़म और प्रपंच
और हम ही खेलते रहे खून की होली

इस तरह नफरत हिंसा और अपराध बने
हमारे सामाजिक पर्यावरण का हिस्सा

आपसी लेन-देन के बदले हमने
शुरू किया व्यापार
और धीरे-धीरे बेचने लगे बहुत कुछ अन्ततः हमने अपनी आत्मा भी बेच डाली
और बन गए खांटी उपभोक्ता

मगर ऐसा कहाँ सोचा था हमने शुरू में
जब मिले थे हम, मीता
सूखे पत्तों का मौसम तो
नहीं ही था जीवन
और ऐसा होना भी तो नहीं चाहिए था


घर : एक आदिम कथा

 


अक्सर मेरे जेहन में कौंध जाती है एक स्त्री
जिसने शायद किसी अनजाने भय से
काँपकर की होगी पहले-पहल
घर जैसी किसी सुरक्षित जगह ही कल्पना

क्या पता उसके भय में
सिर्फ बनैले पशु ही नहीं
शामिल रहे होंगे कुछ नर-भेड़िये भी
जो छीन लेना चाहते होंगे
उससे उसकी खुशी

हो सकता है वह करती होगी किसी से प्रेम
और बचाकर रखना चाहती होगी
दुनिया की नजरों से उसे
प्रेम करने वाली वह स्त्री
नहीं चाहती होगी किसी का दखल
अपने सपनों के एकान्त में

तो क्या प्रेम के दुश्मन तब भी हुआ करते थे
जब ठीक-ठीक शुरू भी नहीं हुई थी
यह सभ्यता !

उसे कहाँ पता होगा कि जंगल से
घर की ओर बढ़ा उसका यह कदम
एक दिन जंगल में ही गुम हो जाएगा !
एकांत कैसा भी हो अन्तरंग और मधुर
अन्ततः काट देता है अपने परिवेश से
यह कहाँ सोचा होगा उस भोली स्त्री ने !

उसे रही होगी एक ऐसी जगह की चाहना
जहाँ ठहरकर कर सके वह
अपने प्रिय का इन्तजार
और उसका प्रिय लेकर आए
मुट्ठी भर बहार

जब उसने की होगी।
घर जैसी किसी आत्मीय जगह की कल्पना
एक खिड़की के बारे में जरूर सोचा होगा उसने
एक नदी, कुछ पेड़
जरूर शामिल रहे होंगे उसकी सोच में
सोचा होगा उसने एक दरवाजे के बारे में भी
जहाँ से निकलकर एक रास्ता
जाता होगा दुनिया की तरफ
लेकिन उसने कहाँ सोचा होगा कि
इन दरवाजों के भीतर
एक दिन घुटकर रह जाएगी उसकी आत्मा
और अपनी पहचान से भी
खारिज कर दी जाएगी वह

घर बनाने और बसाने के दौरान
हवा, पानी, फूल, चिड़िया और
मौसम के बारे में सोचते हुए
सोचा होगा उसने एक फूल-सी हँसीवाले
बच्चे के बारे में भी
कितना गर्व और कितनी खुशी हुई होगी उसे
यह शब्दों में दर्ज कर पाना असम्भव है
यह भी हो सकता है कि
घर की कल्पना पहले-पहल
किसी स्त्री ने नहीं बल्कि काम से लौटे
किसी बेहद थके पुरुष ने की होगी
जिसे रही होगी शिद्दत से किसी आत्मीय छाँह की तलाश
लेकिन इतना तो तय है कि उसकी कल्पना में
जरूर शामिल रही होगी कोई न कोई स्त्री !


एक युवक की बेचैनी

 


रात की पूरी नीरवता के बीच
आधी-अधूरी करवटें बदलता
एक युवक
बेचैन है बिल्कुल
धीरे-धीरे अपना सब कुछ खोते देखकर

हताश और लगभग पराजित-सा युवक
बाजार बनते जा रहे
घरों के कारण बेचैन है।
वह बेचैन है हाथों के काम के लिए
खुशामदी चरित्र और
हारे हुए व्यक्तित्व के लिए
बेचैन है वह
अपने सपनों को साकार करने के लिए

युवक की बेचैनी में छिपा है
पृथ्वी पर आनेवाली
करोड़ों संतानों के लिए शोक

विद्यापति और भिखारी ठाकुर की विरासत के लिए
टूटती चौपाल और
डरावनी होती जा रही पनघट के लिए
बेचैन है हमारे गाँव का वह युवक

एक युवक बरसों से
युवक की तरह बेचैनी में उबल रहा है
और ऊपर बैठे लोगों के बीच
मतों के समीकरण पर चल रहा है विमर्श
जिसमें नहीं है शामिल
उसकी बेचैनी


गुजरे हुए बाबा से संवाद

 


बाबा, तुम तो कहते थे न कि बदलने चाहिए गाँव के हालात
फिर तुम क्यों सो गए गाँव के बदलने का सपना देखते-देखते
देखो तो जरा, कितना कुछ बदल गया है अपना गाँव
कई लोग कट गए रातोंरात पेड़ों की तरह
सबसे पहले गाँव की चौपाल उजड़ी
फिर खत्म हुआ साझा हुक्का-पानी
संवेदना की वह गहरी नदी रेत में तब्दील हो गई
जो कभी बहती थी गाँव के बीचोंबीच

कई घरों की पुश्तैनी आजीविका खत्म हो गई
कई घर टूटकर शहर की भीड़ में खो गए
लोगों ने एक दूसरे पर भरोसा करना छोड़ दिया
और बनते गए अजनबी

एक दिन पूरी तरह संवाद खत्म हो गया
और खत्म हो गई आत्मीयता
बुजुर्गों ने बेटा खोया
गाँव ने नौजवान
हमने अपनी पहचान खोई
और खो दिया ईमान
कई प्रेमिकाओं के प्रेमी खो गए इस बीच
धीरे-धीरे रिश्ते नाते भी लगने लगे फालतू
परिंदों ने छोडा आँगन आना
कुँवारियों ने छोड़ दिया पनघट की तरफ जाना
इस तरह हमने बहुत कुछ खोया
गाँव में अब बची हुई है
क्षत-विक्षत सामाजिकता
व्यथित मन
उपेक्षित बचपन
टूटे स्कूल
गलियों में घूमते नर-भेड़िये
शोर करती मशीनें
पनियाई आँखों वाली औरतें
और संताप करते चालीस साल के कुछ बूढ़े

लेकिन फिर भी हताश नहीं हुआ हूँ मैं
क्योंकि उदास नहीं है उर्वर धरती, बहती नदियाँ
बिन पगार के पहरा देनेवाले कुत्ते
और निश्चय ही निराश नहीं है वह औरत
जिसकी गोद में कुनमुना रहा है शिशु

 

त्रासदी

 


सभ्यता के विकास के साथ-साथ
जब पढ़ने लगीं जरूरतें
दो हाथ कम पड़ने लगे
काम को पूरा करने के लिए
आदमी ने विज्ञान की बाँहें थाम
बनाईं कई-कई मशीनें

फिर होने लगा वर्षों का काम दिनों में
घर-घर पसरती चली गईं मशीनें
मशीनों से ही होने लगा हर काम
आदमी हो गया बेकाम

मशीनों के बीच काम करते-करते
आदमी बन गया मशीन
आदमी कहलाने लगा सफल
और उसकी आँखों से झरने लगे
आँसू टप...टप !


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