विविध उपन्यास >> कुरु कुरु स्वाहा कुरु कुरु स्वाहामनोहर श्याम जोशी
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प्रस्तुत है एक हास्यप्रद उपन्यास
KURU KURU SWAHA - A hindi book of satire by Manohar Shyam Joshi
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नाम बेढब, शैली बेडौल कथानक बेपेंदे का। कुल मिलाकर बेजोड़ बकवास। अब यह पाठक पर है कि ‘बकवास’ को ‘एब्सर्ड’ का पर्याय माने या न माने।
पहले शॉट से लेकर फाइनल फ्रीज तक यह एक कॉमेडी है, लेकिन इसी के एक पात्र के शब्दों में ‘‘एइसा कॉमेडी कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य।’’
उपन्यास का नायक है मनोहर श्याम जोशी, जो इस उपन्यास के लेखक मनोहर श्याम जोशी के अनुसार सर्वथा कल्पित पात्र है। यह नायक तिमंजिला है। पहली मंजिल में बसा है मनोहर-श्रद्धालु-भावुक किशोर। दूसरी मंजिल में ‘जोशीजी’ नामक इण्टेलेक्चुअल और तीसरी में दुनियादार श्रद्धालु ‘मैं’ जो इस कथा को सुना रहा हैं।
नायिका है पहुँचेली-एक अनाम और अबूझ पहेली, जो इस तिमंजिला नायक को धराशायी करने के लिए ही अवतरित हुई है। नायक-नायिका के चारों ओर है बम्बई का बुद्धिजीवी और अपराधजीवी जगत।
कुरु-कुरु स्वाहा में कई-कई कथानक होते हुए भी कोई कथानक नहीं है, भाषा और शिल्प के कई-कई तेवर होते हुए भी कोई तेवर नहीं हैं, आधुनिकता और परम्परा की तमाम अनुगूँजे होते हुए भी कहीं कोई वादी संवादी स्वर नहीं है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जो स्वयं को नकारता ही चला जाता है।
यह मजाक है, या तमाम मजाकों का मजाक, इसका निर्णय हर पाठक, अपनी श्रद्धा और अपनी मनःस्थिति के अनुसार करेगा। बहुत ही सरल ढंग से जटिल और बहुत ही जटिल ढंग से सरल यह कथाकृति सुधी पाठकों के लिए विनोद, विस्मय और विवाद की पर्याप्त सामग्री जुटाएगी।
पहले शॉट से लेकर फाइनल फ्रीज तक यह एक कॉमेडी है, लेकिन इसी के एक पात्र के शब्दों में ‘‘एइसा कॉमेडी कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य।’’
उपन्यास का नायक है मनोहर श्याम जोशी, जो इस उपन्यास के लेखक मनोहर श्याम जोशी के अनुसार सर्वथा कल्पित पात्र है। यह नायक तिमंजिला है। पहली मंजिल में बसा है मनोहर-श्रद्धालु-भावुक किशोर। दूसरी मंजिल में ‘जोशीजी’ नामक इण्टेलेक्चुअल और तीसरी में दुनियादार श्रद्धालु ‘मैं’ जो इस कथा को सुना रहा हैं।
नायिका है पहुँचेली-एक अनाम और अबूझ पहेली, जो इस तिमंजिला नायक को धराशायी करने के लिए ही अवतरित हुई है। नायक-नायिका के चारों ओर है बम्बई का बुद्धिजीवी और अपराधजीवी जगत।
कुरु-कुरु स्वाहा में कई-कई कथानक होते हुए भी कोई कथानक नहीं है, भाषा और शिल्प के कई-कई तेवर होते हुए भी कोई तेवर नहीं हैं, आधुनिकता और परम्परा की तमाम अनुगूँजे होते हुए भी कहीं कोई वादी संवादी स्वर नहीं है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जो स्वयं को नकारता ही चला जाता है।
यह मजाक है, या तमाम मजाकों का मजाक, इसका निर्णय हर पाठक, अपनी श्रद्धा और अपनी मनःस्थिति के अनुसार करेगा। बहुत ही सरल ढंग से जटिल और बहुत ही जटिल ढंग से सरल यह कथाकृति सुधी पाठकों के लिए विनोद, विस्मय और विवाद की पर्याप्त सामग्री जुटाएगी।
चलती का नाम चालू
सबसे पहले एक नाचीज-से दलाल का जिक्र करना जरूरी होगा क्योंकि उस बहुत-ही पहुँची हुई चीज की ओर सबसे पहले मेरा ध्यान उसी ने खींचा था।
दलाल का नाम था बाबू। उसका अब कोई अपना हल्का था, न कोई खास माल। आदत से मजबूर वह साँझ-ढले चौपाटी आ जाया करता ताकि कहीं रौनक-तलाशती आँखें दीखें तो वह ‘मदत पाहिजे ?’ वाली मुद्रा में प्रस्तुत हो जाए।
तो इस बाबू ने एक दिन मैरीन ड्राइव में मेरी जिज्ञासु दृष्टि की अपने ही ढंग से व्याख्या करने के बाद पहले मुझसे माचिस माँगी और फिर सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए सेवा-भाव से पूछा, ‘‘तफरी होने का ?’’
मेरा अकेलापन उन दिनों बहैसियत पत्रकार वेश्यावृत्ति अनौपचारिक अनुसंधान कर रहा था। लिहाजा वास्तव में मैंने सुना। फिर अनुभवी होने का नाटक करते हुए कहा, ‘‘इदर तो सब बंडल तफरी। उदर वर्ली में कहीं कोई एंग्लों-इंडियन बाई चलाई है नवाँ फिलाट, उसका पता तुम कूँ ?’’
बाबू ने सिर खुजलाया, ‘कौन बाई, नाव काय उसका ?’’
बाबू को कुछ और ध्वस्त करने के लिए मैंने इस दलाल से सुनी बात, उस दलाल पर दे मारने का अपना नुस्खा फिर आजमाया, ‘‘ए जो फिल्मों में काम कर चुका मरैठी छोकरी; करमाइकल रोड में धन्धा सरू किया, उसकू जानता तुम ? जिसका दलाल पवनपुलवाला बंगाली का दोस्त डिसिल्वा ?’’
‘‘नेंई, इन दोन अब्बी मेरा ध्यान में नहीं। लेकिन पत्ता कर देंगा। अक्खा दलाल लोक बाबू का सगिर्द।’’
‘दलालों के दलाल’ बाबू के अहम को चढ़ाने-गिराने के खेल में मुझे लुत्फ आने लगा। अनुसन्धान की कोई-कोई शाम मैं चौपाटी के नाम कर देता है, ‘‘पान-सिगरेट –नाश्ता-पानी’ बाबू को करवाता, और धन्धे के विभिन्न पहलुओं का उसके साथ फोकट में नजारा करता। मैं बारबार उससे कहता रहता कि जिस तरह का माल अपन को दरकार ओ बाबूइच दिलवा सकता। लेकिन बाबू जिस भी माल से परिचय कराता या जिसका भी पता देता, मैं उसे पूर्व-परिचित बता देता अथवा घटिया।
बाबू दुःखी रहने लगा कि वह ‘दलालों का दलाल’ इस दोस्त-ग्राहक के लिए कोई माल-सा-माल तजवीज कर नहीं पा रहा है। जब भी मैं उससे मिलता वह एक अनुसन्धान के आधार पर कोई प्रस्ताव पेश करता। मिसाल के लिए बाबू कहता, ‘‘प्रार्थना समाज में बिल्कुल नवाँ घरेलू छोकरी, सेठ ! अब्बी किसका साथ बैठा नहीं। उसकू रुपया का जरूरत। दिन का टैम ही आयेंगा। पचास रुपया लेंगा। बोलो होने का ?’’
मैं कहता, ‘‘एइसा छोकरी लोक ही ए धन्धा खोटा किएला है बाबू उस्ताद ! काय का नवाँ, काय का घरेलू ? साला रात कू पाँच लेनावाला छोकरी हमसे दिन में पचास ले जाएगा।’’
बाबू प्रतिरोध करता, छोकरी का फोटो दिखाता, उसकी कुटनी एक श्वेतकेशा गु़जरात से मिलवाता, पर सब बेकार। मैं उसके धन्धे पर धौल जमाते हुए कहता, ‘‘छोड़ो यार, अपन इदर तफरी के लिए नहीं, अपना यार बाबू से मिलने आता है, क्या ।’’
बाबू को ऐसे अस्वीकार से उतना खिसियाया दुःख होने लगा जितना कि बढ़िया हड्डी ढूँढ़कर ड्राइंग-रूम में मालिक को दिखाने पहुँचे पालतू कुत्ते को मालकिन की दुत्कार से होता होगा। तो उसने अन्ततः कोई भी सीधा प्रस्ताव रखना बन्द कर दिया। शायद वह समझ गया था कि इस सेठ को माल-वाल मांगता नहीं। या शायद उसने मान लिया था कि यह सेठ स्वयं ‘दलालों का दलाल’ है, इसे मैं क्या माल दिखाऊँगा !
अब बाबू बस कभी-कभी किसी आती-जाती की ओर इशारा करके पूछता, ‘‘इस कू जानता तू ?’’ और मैं भी कभी-कभी उससे किसी के सम्बन्ध में ऐसा ही प्रश्न कर दिलचस्प खेल का रूप ले लिया। रेलिंग पर टिके हुए, धुएँ के छल्ले छोड़ते या पान चबाते हुए, मैं और बाबू आती-जाती ‘हलकत’ को देखते और किसी की ओर भी इशारा करके पूछते, ‘‘बोल, ये चालू माल कि नहीं ?’’
एक दिन यही खेल चल रहा था कि सामने टैक्सी रुकी और उसमें से अभिजात सौन्दर्यवाली एक परिपक्व और परिष्कृत स्त्री उतरी। तम्बाकू-पान की पीक समेत बाबू बुदबुदाया, ‘‘बोल सेठ, टाक्सी से जो उतरा ओ पन टाक्सी कि नहीं।’’
मैंने निश्चयात्मक स्वर में कहा, ‘‘नहीं।’’
बाबू ने पीक थूकी और हँसकर कहा, ‘‘तुम हारा; ये साला टाक्सी। बाबू एक-एक को जानता इस शहर में।’’
मैंने कहा, ‘‘जानते हो तो मिलवाओ उस्ताद !’’
अब बाबू ढीला पड़ा, ‘‘उसमें थोड़ा मुस्कल। बहुतीच म्हणजे पहुँचेली चीज, क्या ! इसका गाहक लोक बँधेला। दलाल लोक कू पास नहीं आने देती। समझा ?’’
मैंने कहा, ‘‘बंडल रहे हो उस्ताद !’’
‘‘बंडल हम कब्बी मारा हो तो बताओ।’’, बाबू ने खिन्न होकर कहा, ‘‘ए टाक्सी है, गुजरात सायड का।’’
मैंने चुटकी ली, ‘‘इस टाक्सी का नम्बर काय ? इस कू आल-रूट लाइसेंस है कि नहीं ?’’
इस मजाक से बाबू कुछ और दुःखी हुआ, ‘‘हम बाप का कसम खाकर कहता, यह साला टाक्सी है। इदर जब भी आती चौपाटी में, एक बूढ़ा पारसी सेठ का साथ जाती, एतना बड़ा मस्त हवाई जहाज गाड़ी में। ’’
मुस्कुराता रहा। बाबू इस अविश्वास से दुःखी होता रहा। फिर अपने मैले-फटे कोट को झाड़ते हुए उसने एलान किया, ‘‘एक ट्राय मारकर देखता हूँ सेठ ! तुम रोजा बाई को जानता जिसका कोलाबा में फिलाट, वह बतलाया मुझे इसका रेट एक हज्जार रुपया बोले ! आलतू-फालतू जगा में या किसी का घर में भी नेई जायेगा-क्या। सिर्फ फस्ट क्लास होटेल में। साथ खायेंगा-पियेंगा, बात करेंगा और ठीक तीन घंटा में वापस चला जायेंगा-क्या। और बोले इसकू छोकरा-फोकरा नेई मँगता-कोई बूढ़ा सरीफ आदमी होय तोइ जायेंगा। ऊपर-ऊपर का काम, पूरा दाम, क्या !’’
‘‘अपन तो बूढ़ा है नहीं उस्ताद।’’, मैंने कहा, ‘‘कहो तो सफेद बालवानी विग लेकर आऊँ।’’
‘‘बाबू कू कोन घासलेट मत समझना हो।’’, अब उस्ताद दुःखी नहीं, नाराज था, ‘‘खीसा में एक हजार इसका होए, चार-सौ होटेल, खाना-पीना और दारू का तभी एइसा गम्मतबाजी करने का बाबू से। फोकट का मजाक ठीक नहीं क्या।’’
एक हजार रुपया, मैं सोच-सोचकर मुस्कुराया। आधुनिक भारतीय चिन्तन का जादुई आँकड़ा नं एक। ड्राइंग फोर फिगर सैलेरी ! और ‘थाऊ’ गोया ‘थाउजेंड’ का लाड़-भरा घरेलू नाम। मुझे याद आयी जीजा की वह उक्ति-‘भाऊ तू थाऊ वाल भौ छै, नै ?’’ रुपया हजार माहवारवाला हुआ कि नहीं भैया ? मैं नहीं हुआ था तब तक ! हो भी चुका होता सारे महीने का वेतन किसी के यौवन पर न्यौछावर तो कर नहीं पाता !
‘‘मेरे खीसे की परवाह तू मत कर उस्ताद।’’ मैंने पूरे आश्वासन से कहा, ‘‘और जब तू बीच में होगा तो अपने को कुछ तो डिसकाउंट दिलवाएगा।’’
बीबू ने कोट फिर झाड़ा, कमीज का मैलै कालर खींचा, टूटी हुई कोल्हापुरी पाँवों में ठीक-से जमाई और मुर्गे की चाल उस पहुँचेली चीज के पास पहुँचा। उससे नमस्ते की।
पहुँचेली की निगाह एकबारगी उसके खोपड़े पर बचे हुए चन्द फूसीदार खिचड़ी बालों से लेकर, टूटी हुई कोल्हापुरी तक चली गई और बाबू धरती फटने का इन्तजार करने लगा। उसकी खुशकिस्मती से तभी एक इम्पाला दौड़ते हुए रेले से अलग हटकर किनारे लगी। उसका पीछे का दरवाजा खुला, पहुँचेली के नाक-कान के हीरे कार के भीतर की रोशनी में झमके, दरवाजा बन्द होने से पहले भीतर बैठे एक बूढे़ पारसी का लगभग हड्डी-हड्डी गम्भीर चेहरा दिखाई दिया और फिर कार चली गई।
बाबू लौटकर आया और बोला, ‘‘उसका बँधेला गाहक पारसी सेठ आ गया, नेंई तो तुम्हारा सौदा करा देता’’
‘‘फिर कभी सही’’, मैंने उसे सान्त्वना दी, ‘‘अभी तो हमें-तुम्हें और उसे बहुत जिन्दा रहना है। वह पारसी सेठ ही चन्द दिनों का मेहमान नजर आया, क्या।’’
बाबू और मैं, दोनों हँसे। हँसते-हँसाते उस श्वेतकेशा गुजरातन के पास गए जो ‘घरेलू माल’ लेकर अपने परिचित ग्राहकों के साथ नितान्त पारिवारिक भंगिता में गोला बनाकर चौपाटी में बैठी रहती थी। हमने इधर चौपाटी में नए-नए आए एक अन्य ‘परिवार’ की चर्चा की जिसमें एक अदद ‘बाप’ और दो उपकिशोरी बेटियाँ थीं। श्वेतकेशा के एक ग्राहक ने आपबीती का हवाला देकर बताया कि इन छोकरी को यह दलाल बढ़िया होटेल का फेमिली केबिन में ही ले जाना। उदर ये साली आइसक्रीम-वाइसक्रीम खूब खाती। थोड़ा कीस-वीस करने देती। लेकिन तुम जास्ती आगल बढ़ेगा तो एक बोलेगी, अंकल प्लीज ! दूसरा बोलेगी, अंकल, मैं शोर करेगी, अपना डैडी को बुला लेगी अभी। डैडी साला बाहर बैठकर चा पीता रहता। खाली चिमनी देखने-छूने का पचास रुपया देवे तो कोई गेल्वा देवे। मैं तो दुबारा गया नहीं कभी।
श्वेतरकेशा बताने लगी कि बाद में यह ‘बाप’ धमकाना डराने का चक्कर भी चलाता है। इसी तरह धन्धे का गोरखधन्धा समझने-देखने में आधा घंटा और जाया करके मैं गेस्ट हाउस लौट आया जहाँ उन दिनों मैं दो बुजुर्गों के साथ एक बड़े कमरे का साझीदार था। अगले सुबह-सुबह मेरे दफ्तर (फिल्म-प्रभात, भारत सरकार) में चीन के हमले के बाद थोक में बनाई गई प्रेरणाप्रद डाक्यूमेंटरी में से एक का हिन्दी संस्करण रिकार्ड होना था और मुझे हिन्दी भाष्य को काट-छाँटकर ‘टाइट’ करना था ताकि ‘सीधी रिकार्डिंग’ में अंग्रेजी भाष्य के हिसाब से सम्पादित प्रिंट के साथ उसके ‘सिंक’ गोया ‘साम्य’ में नाड़ी-भेद न हो जाए सुसरा।
जहाँ तक एक झलक देखी हुई उस पहुँचेली चीज का सवाल था, मैं उसके बारे में कुछ भी सोचना नहीं चाहता था। वह अपने लिए ‘आउट ऑफ कोर्स’ थी। ‘आउट ऑफ कोर्स’ थ्योरी हबीब-उल्लास हास्टल, लखनऊ अनवर्स्टी में सन् 1949 में बन्ने मियाँ ने प्रतिपादित की थी। इसमें कहा गया है कि जो ताल्बे-इम्तहाने-जिन्दगी में कोर्स, और कोर्स 000 हैं। बन्ने मियाँ ने इस थ्योरी को इश्किया मामलों पर भी लागू किया था और बताया था कि उन्हीं जवाँमर्दों के बिस्तर गरम हो पाते तो हैं जो सबसे पहले यह देखते हैं कि कौन लुगाई मुकद्दर बनानेवाले ने अपने सिलेबस में रखी है, कौन नहीं ? ‘आउट ऑफ कोर्स’ लुगाई को पढ़ने में वक्त जाया होता है, नींद हराम होती है, सेहत खराब होती है, सेहत खराब होती है, पैसा बरबाद होता है और सारी दौ़ड़-धूप के बाद हाथ वही लगता है, समझे ना।
तो साहब, मैं इस पहुँचेली चीज के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता था, और खासकर उस नाजुक मौके पर जबकि राष्ट्र से मुझे कई जरूरी बातें कहनी थीं, सरकारी भोंपू पर। ‘अस्त्रों के लिए आभूषण दो’ उर्फ ‘गोल्ड फॉर गन्स’ और ‘आवाज दो हम एक हैं, ‘द काल फॉर यूनिटी’ लेकिन, अब तो कहूँ आपसे ? वैसे आप तो अपने फ्रेंड हैं, कह देने से शरम भी क्यों करूँ ?
मैं साहब, मैं ही नहीं हूँ। इस काया में, जिसे मनोहर श्याम जोशी वल्द प्रेमवल्लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्ली अल्मोड़ा, हाल मुकाम दिल्ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए हैं। एक हैं जोशीजी, लेखक-वेखक हैं, समझे ना, ईडिय़ट-ईडियट-टाइप। मैं तो साहब रोटी-रोजी के लिए अनुवाद करता हूँ कभी-कभी। जोशीली, इंडियन अलाँ या इंडियन फलाँ बन जाने के चक्कर में सतत अनुवादक हैं। बहुत प्रेमपूर्वक घोटा लगाते हैं पश्चिमी साहित्य का अंग्रेजी में, और फिर हिन्दी में लिखते हैं कुछ-न-कुछ, अपने अराध्य ओरिजनल अलाँ या फलाँ के इस्टाइल में कि कोई फिर इनका साहित्य अंग्रेजी में अनुवाद करे और ओरिजनल अलाँ-फलाँ से दाद दिलाए इन्हें। दिक्कत यह है कि पढ़-लिखकर इनके लिए साहित्य क्या, ससुरा जीवन तक मौलिक नहीं रह गया। जब देखो गुरु यही कहते हैं कि सन्दर्भः वह पुस्तक, सन्दर्भः वह नाटक, सन्दर्भ वह फिल्म। गोया किताबें इनके लिए जिन्दगी हो गई हैं और जिन्दगी इनकी ससुरी किताबी हो चली है। अब आप देखिए, मामूली समझदारी की बात है अगर लुगाई आपके सामने है, आपको उसे पटाना है और इस सिलसिले में कहना है कुछ, तो कहिए और छुट्टी कीजिए।, चाहे महमूदाबाद हॉस्टल के राजा भैयावाली शैली में सीधे पूछ लीजिए, ‘सिस्टम, चालू हो कि नहीं ?’’
(सम्बोधन का औचित्य यह है कि यदि न हो, तो अपन राखी बँधवाने को राजी हैं)। चाहे मेस्टन हॉस्टल के वसन्त तिवारी की तरह डायलॉग मार जाइए कि आप हमें इतना-इतना क्यों सता रही हैं ? चलिए यह सब भी आपको नापसन्द हो तो आधुनिक साहित्य ही बोल दीजिए कि तुम्हारे बिना अधूरा हूँ मैं। लेकिन अपने जोशीजी का यह कि पहले समझेंगे-बताएँगे कि यह फलाँ उपन्यास या फलाँ सिनेमा की फलाँ ‘सिचुएशन’ है वड़चो। ऐसा-ऐसा इन सिचुएशनों’ में गोया के कहा जा चुका है ऑलरेडी। और जोशीजी को कुछ अनोखा कहना है, समझे ना साहब, ‘यूनीक’, ताकि भले ही यह साली सिचुएशन इस सृष्टि में तीन अरब तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख तीन हजार, तीन सौ तैंतीसवीं बार ‘रिपीट’ हो रही, इनका अनुभव, समझे ना साहब, यूनीक हो !
उस जमाने में जोशीजी की एक ही मुख्तसर-सी ख्वाहिश हुआ करती थी साहब कि हिन्दी गद्य में एक ठो ‘वार एंड पीस’ और गद्य में एक ठो ‘वेस्टलैंड’ दे जाएँ। उन्हें बहुत अफसोस हुआ करता था कि उनके साथी साहित्यिक, वे प्रयागवासी रहे हों या प्रागवासी, अपनी आकांक्षा के आकाश को लॉरेंस डयूरेल के गद्य और रिल्के के पद्य से ऊपर उठा ही नहीं पाए बेचारे। जब मैंने बम्बई में डॉक्यूमेंटरी बनाने के सरकारी महकमें में नियुक्त होने के बाद फिल्मी दुनिया में घुस जाने का चक्कर चलाया तब जोशीजी ने एक अदद और आकांक्षा पाल ली, ‘स्वीट डिकेडेंस’ उर्फ ‘मीठी सड़ाँल’ की फिल्म बनाने की, समझे ना, वहीं कि कुछ अमीर किस्म के लोग-लुगाई दो-एकम्-एकवाले घटिया-से चक्कर चला रहे हैं आपस में।
किस्सा कोताह यह कि जोशीजी को, जो पढ़े मेरे साथ वहीं गोबर मिट्टी इस्कूल अजमेर और लखनऊ अनलर्स्टी में है लेकिन जिन्हें खुशफहमी है कि सोरबोर्न से स्नातकोत्तर शिक्षा पाए हुए हैं, इस एक अदद जनाना की एक झलक में दो सम्भावनाएँ दिखाई दीं। पहली यह कि यह पहुँचेली पतुरिया एक अदद पात्रा है, एक अदद ‘वार एंड पीस, लिख सकने वाले पहुँचेले उपन्यासकार की तलाश में। दूसरी यह कि उपरोक्त पतुरिया, ‘मीठी सड़ाँध’ वाली फिल्म की मिठास भी हो सकती है।
यह हुए जोशीजी, इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर। जोशीजी वाली भाषा में यह मनोहर ‘इंफेंटाइल’ हैं, समझे ना ! पौने पाँच साल तक अपनी माँ का दूध पीते रहे साहब। अप्रत्याशित रूप से एक छोटी बहन के आ जाने पर जब उन्हें ‘बुबूआ’ छोड़ना पड़ा तब माँ के पेट के एक तिल पर अँगुली रखकर ही सुख सपनों को प्राप्त हो सके। परिचय के लिए मेरे खयाल से यही तथ्य पर्याप्त हो इतना और कह दूँ कि कर्मकांडियों के परिवार में जन्म लेने के कारण इन्हें खुशफहमी यह रही है कि नैमिषारण्य के स्नातक हैं। बचपन में ही अनाथ हो जाने के बाद इन गोया ऋषियों ने ही लालन-पालन किया। एक आंगरिस हैं साहब, गोत्र आदि-पुरुष, उनकी इन पर कुछ खास ही अनुकम्पा रही।
तो दीर्घायु भूयात मनोहर को यह पतुरिया अतीव सुमनोहरा प्रतीत हुई साहब ! संसार की सुन्दरतम स्त्री। सुन्दरतम वह थी, इसमें शको-शुबहा की कतई गुंजाइश नहीं। आपने भी देखा होता तो सहमत होते कि चीज निहायत ही पटाखा थी। लेकिन जिस ससुरे को ‘थाऊ’ भी न मिल रहे माहवार उसके लिए आनन-फानन ‘थाऊ’ खड़े कर लेने वाली यह औरत ‘आउट ऑफ कोर्स’ ही मानी जा सकती थी।
मगर साहब ठीक ही कहा है कहनेवालों ने, लौंड़ों की यारी, गदहे की सवारी। तो इन दो लौंड़ों को रूमानियत ने करा दिया मुझे सवार खब्त के गदहे पर, और खब्त भी ससुरा एक ऐसी खातून का जो गोया खस्ता कचौरी नहीं थी।
यह कहानी उसी खब्त की है। वाकया है शहर बम्बई का, जो भारत के पश्चमी सिरे पर स्थिति एक महानगर है सिनेमाई सपनों का। दौर है’ 62-63 का। जोशीजी की बिरादरी में जिसे कहते हैं। साठोत्तरी। गोया जोशीजी और साथी बदस्तूर कॉफी के प्याले पीकर कहकहे लगा रहे थे लेकिन कुछ सपाट, कुछ नासाज, कुछ नाउम्मीद हुए जा रहे थे अब उनके यह कहकहे। जोशीजी का वही फिकरा यहाँ उद्धत कर देना काफी हो। शायद जो उन्होंने अपने मित्र मोहन राकेश के साथ एक दोपहर बीयर पीते हुए कहा, जाहिर है अंग्रेजी में, ‘कोई बात ऐसी नहीं जिसकी आशा नहीं जिसकी आशा-आशंका की जाए-और तो और, दूसरे चीनी हमले तक की।’ गालिबन वही ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती’ वाला गालिबाना मूड था जोशीजी का और उसमें ससुरी यह सूरत नजर आई !
मुझे साहब इस तरह की शहीदाना इंटेलेक्चुअलता से सख्त कोफ्त होती है। उस दौर में दूसरे भलेमानसों की तरह मैं भी कई भली-भली आशाएँ सँजाऐ हुए था। मिसाल के लिए यह कि मुझे एक ठो एडिटरी मिल जाए। कोई बड़ा प्रोड्यूसर मुझसे फिल्म लिखवा ले। कोई ऐसा चमत्कारी चक्कर चले कि मैं इस काबिल बनूँ कि मस्त हवाई इम्पाला गाड़ी में चढ़ सकूँ। मैंने कहा भी जोशीजी से कि हुजूर इम्पाला की सवारी करने वालों से ही इस पाए के खब्ते-खातून की सवारी सघ पाती है।
लेकिन वह माने नहीं ‘पैसा या प्यार’ वाले मेरे सरकार ! उन्होंने बाबू से बराबर पूछताछ की। बाबू कुछ और जानता होता तो बताता। यों अक्सर वह कह देता, ‘देखो उस गाड़ी में गई अभी।’ कोई दो हफ्ते बाद जब एक दिन जोशीजी चौपाटी पहुँचे तब बाबू लपककर उनकी ओर आया और बोला, ‘‘पहुँचेली बाई को अभी देखा मैं।’’ जोशीजी ने व्यग्रता से पूछा, ‘‘कहाँ ?’’ बाबू बोला, ‘‘फोकट में नहीं बताएँगा।’’ जोशीजी ने उसे दो रुपए देकर यह सूचना प्राप्त की कि पहुँचेली बाई हैंगिंग गार्डन में खड़ेली होती। जोशीजी टैक्सी पकड़कर ये जा, वो जा !
दलाल का नाम था बाबू। उसका अब कोई अपना हल्का था, न कोई खास माल। आदत से मजबूर वह साँझ-ढले चौपाटी आ जाया करता ताकि कहीं रौनक-तलाशती आँखें दीखें तो वह ‘मदत पाहिजे ?’ वाली मुद्रा में प्रस्तुत हो जाए।
तो इस बाबू ने एक दिन मैरीन ड्राइव में मेरी जिज्ञासु दृष्टि की अपने ही ढंग से व्याख्या करने के बाद पहले मुझसे माचिस माँगी और फिर सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए सेवा-भाव से पूछा, ‘‘तफरी होने का ?’’
मेरा अकेलापन उन दिनों बहैसियत पत्रकार वेश्यावृत्ति अनौपचारिक अनुसंधान कर रहा था। लिहाजा वास्तव में मैंने सुना। फिर अनुभवी होने का नाटक करते हुए कहा, ‘‘इदर तो सब बंडल तफरी। उदर वर्ली में कहीं कोई एंग्लों-इंडियन बाई चलाई है नवाँ फिलाट, उसका पता तुम कूँ ?’’
बाबू ने सिर खुजलाया, ‘कौन बाई, नाव काय उसका ?’’
बाबू को कुछ और ध्वस्त करने के लिए मैंने इस दलाल से सुनी बात, उस दलाल पर दे मारने का अपना नुस्खा फिर आजमाया, ‘‘ए जो फिल्मों में काम कर चुका मरैठी छोकरी; करमाइकल रोड में धन्धा सरू किया, उसकू जानता तुम ? जिसका दलाल पवनपुलवाला बंगाली का दोस्त डिसिल्वा ?’’
‘‘नेंई, इन दोन अब्बी मेरा ध्यान में नहीं। लेकिन पत्ता कर देंगा। अक्खा दलाल लोक बाबू का सगिर्द।’’
‘दलालों के दलाल’ बाबू के अहम को चढ़ाने-गिराने के खेल में मुझे लुत्फ आने लगा। अनुसन्धान की कोई-कोई शाम मैं चौपाटी के नाम कर देता है, ‘‘पान-सिगरेट –नाश्ता-पानी’ बाबू को करवाता, और धन्धे के विभिन्न पहलुओं का उसके साथ फोकट में नजारा करता। मैं बारबार उससे कहता रहता कि जिस तरह का माल अपन को दरकार ओ बाबूइच दिलवा सकता। लेकिन बाबू जिस भी माल से परिचय कराता या जिसका भी पता देता, मैं उसे पूर्व-परिचित बता देता अथवा घटिया।
बाबू दुःखी रहने लगा कि वह ‘दलालों का दलाल’ इस दोस्त-ग्राहक के लिए कोई माल-सा-माल तजवीज कर नहीं पा रहा है। जब भी मैं उससे मिलता वह एक अनुसन्धान के आधार पर कोई प्रस्ताव पेश करता। मिसाल के लिए बाबू कहता, ‘‘प्रार्थना समाज में बिल्कुल नवाँ घरेलू छोकरी, सेठ ! अब्बी किसका साथ बैठा नहीं। उसकू रुपया का जरूरत। दिन का टैम ही आयेंगा। पचास रुपया लेंगा। बोलो होने का ?’’
मैं कहता, ‘‘एइसा छोकरी लोक ही ए धन्धा खोटा किएला है बाबू उस्ताद ! काय का नवाँ, काय का घरेलू ? साला रात कू पाँच लेनावाला छोकरी हमसे दिन में पचास ले जाएगा।’’
बाबू प्रतिरोध करता, छोकरी का फोटो दिखाता, उसकी कुटनी एक श्वेतकेशा गु़जरात से मिलवाता, पर सब बेकार। मैं उसके धन्धे पर धौल जमाते हुए कहता, ‘‘छोड़ो यार, अपन इदर तफरी के लिए नहीं, अपना यार बाबू से मिलने आता है, क्या ।’’
बाबू को ऐसे अस्वीकार से उतना खिसियाया दुःख होने लगा जितना कि बढ़िया हड्डी ढूँढ़कर ड्राइंग-रूम में मालिक को दिखाने पहुँचे पालतू कुत्ते को मालकिन की दुत्कार से होता होगा। तो उसने अन्ततः कोई भी सीधा प्रस्ताव रखना बन्द कर दिया। शायद वह समझ गया था कि इस सेठ को माल-वाल मांगता नहीं। या शायद उसने मान लिया था कि यह सेठ स्वयं ‘दलालों का दलाल’ है, इसे मैं क्या माल दिखाऊँगा !
अब बाबू बस कभी-कभी किसी आती-जाती की ओर इशारा करके पूछता, ‘‘इस कू जानता तू ?’’ और मैं भी कभी-कभी उससे किसी के सम्बन्ध में ऐसा ही प्रश्न कर दिलचस्प खेल का रूप ले लिया। रेलिंग पर टिके हुए, धुएँ के छल्ले छोड़ते या पान चबाते हुए, मैं और बाबू आती-जाती ‘हलकत’ को देखते और किसी की ओर भी इशारा करके पूछते, ‘‘बोल, ये चालू माल कि नहीं ?’’
एक दिन यही खेल चल रहा था कि सामने टैक्सी रुकी और उसमें से अभिजात सौन्दर्यवाली एक परिपक्व और परिष्कृत स्त्री उतरी। तम्बाकू-पान की पीक समेत बाबू बुदबुदाया, ‘‘बोल सेठ, टाक्सी से जो उतरा ओ पन टाक्सी कि नहीं।’’
मैंने निश्चयात्मक स्वर में कहा, ‘‘नहीं।’’
बाबू ने पीक थूकी और हँसकर कहा, ‘‘तुम हारा; ये साला टाक्सी। बाबू एक-एक को जानता इस शहर में।’’
मैंने कहा, ‘‘जानते हो तो मिलवाओ उस्ताद !’’
अब बाबू ढीला पड़ा, ‘‘उसमें थोड़ा मुस्कल। बहुतीच म्हणजे पहुँचेली चीज, क्या ! इसका गाहक लोक बँधेला। दलाल लोक कू पास नहीं आने देती। समझा ?’’
मैंने कहा, ‘‘बंडल रहे हो उस्ताद !’’
‘‘बंडल हम कब्बी मारा हो तो बताओ।’’, बाबू ने खिन्न होकर कहा, ‘‘ए टाक्सी है, गुजरात सायड का।’’
मैंने चुटकी ली, ‘‘इस टाक्सी का नम्बर काय ? इस कू आल-रूट लाइसेंस है कि नहीं ?’’
इस मजाक से बाबू कुछ और दुःखी हुआ, ‘‘हम बाप का कसम खाकर कहता, यह साला टाक्सी है। इदर जब भी आती चौपाटी में, एक बूढ़ा पारसी सेठ का साथ जाती, एतना बड़ा मस्त हवाई जहाज गाड़ी में। ’’
मुस्कुराता रहा। बाबू इस अविश्वास से दुःखी होता रहा। फिर अपने मैले-फटे कोट को झाड़ते हुए उसने एलान किया, ‘‘एक ट्राय मारकर देखता हूँ सेठ ! तुम रोजा बाई को जानता जिसका कोलाबा में फिलाट, वह बतलाया मुझे इसका रेट एक हज्जार रुपया बोले ! आलतू-फालतू जगा में या किसी का घर में भी नेई जायेगा-क्या। सिर्फ फस्ट क्लास होटेल में। साथ खायेंगा-पियेंगा, बात करेंगा और ठीक तीन घंटा में वापस चला जायेंगा-क्या। और बोले इसकू छोकरा-फोकरा नेई मँगता-कोई बूढ़ा सरीफ आदमी होय तोइ जायेंगा। ऊपर-ऊपर का काम, पूरा दाम, क्या !’’
‘‘अपन तो बूढ़ा है नहीं उस्ताद।’’, मैंने कहा, ‘‘कहो तो सफेद बालवानी विग लेकर आऊँ।’’
‘‘बाबू कू कोन घासलेट मत समझना हो।’’, अब उस्ताद दुःखी नहीं, नाराज था, ‘‘खीसा में एक हजार इसका होए, चार-सौ होटेल, खाना-पीना और दारू का तभी एइसा गम्मतबाजी करने का बाबू से। फोकट का मजाक ठीक नहीं क्या।’’
एक हजार रुपया, मैं सोच-सोचकर मुस्कुराया। आधुनिक भारतीय चिन्तन का जादुई आँकड़ा नं एक। ड्राइंग फोर फिगर सैलेरी ! और ‘थाऊ’ गोया ‘थाउजेंड’ का लाड़-भरा घरेलू नाम। मुझे याद आयी जीजा की वह उक्ति-‘भाऊ तू थाऊ वाल भौ छै, नै ?’’ रुपया हजार माहवारवाला हुआ कि नहीं भैया ? मैं नहीं हुआ था तब तक ! हो भी चुका होता सारे महीने का वेतन किसी के यौवन पर न्यौछावर तो कर नहीं पाता !
‘‘मेरे खीसे की परवाह तू मत कर उस्ताद।’’ मैंने पूरे आश्वासन से कहा, ‘‘और जब तू बीच में होगा तो अपने को कुछ तो डिसकाउंट दिलवाएगा।’’
बीबू ने कोट फिर झाड़ा, कमीज का मैलै कालर खींचा, टूटी हुई कोल्हापुरी पाँवों में ठीक-से जमाई और मुर्गे की चाल उस पहुँचेली चीज के पास पहुँचा। उससे नमस्ते की।
पहुँचेली की निगाह एकबारगी उसके खोपड़े पर बचे हुए चन्द फूसीदार खिचड़ी बालों से लेकर, टूटी हुई कोल्हापुरी तक चली गई और बाबू धरती फटने का इन्तजार करने लगा। उसकी खुशकिस्मती से तभी एक इम्पाला दौड़ते हुए रेले से अलग हटकर किनारे लगी। उसका पीछे का दरवाजा खुला, पहुँचेली के नाक-कान के हीरे कार के भीतर की रोशनी में झमके, दरवाजा बन्द होने से पहले भीतर बैठे एक बूढे़ पारसी का लगभग हड्डी-हड्डी गम्भीर चेहरा दिखाई दिया और फिर कार चली गई।
बाबू लौटकर आया और बोला, ‘‘उसका बँधेला गाहक पारसी सेठ आ गया, नेंई तो तुम्हारा सौदा करा देता’’
‘‘फिर कभी सही’’, मैंने उसे सान्त्वना दी, ‘‘अभी तो हमें-तुम्हें और उसे बहुत जिन्दा रहना है। वह पारसी सेठ ही चन्द दिनों का मेहमान नजर आया, क्या।’’
बाबू और मैं, दोनों हँसे। हँसते-हँसाते उस श्वेतकेशा गुजरातन के पास गए जो ‘घरेलू माल’ लेकर अपने परिचित ग्राहकों के साथ नितान्त पारिवारिक भंगिता में गोला बनाकर चौपाटी में बैठी रहती थी। हमने इधर चौपाटी में नए-नए आए एक अन्य ‘परिवार’ की चर्चा की जिसमें एक अदद ‘बाप’ और दो उपकिशोरी बेटियाँ थीं। श्वेतकेशा के एक ग्राहक ने आपबीती का हवाला देकर बताया कि इन छोकरी को यह दलाल बढ़िया होटेल का फेमिली केबिन में ही ले जाना। उदर ये साली आइसक्रीम-वाइसक्रीम खूब खाती। थोड़ा कीस-वीस करने देती। लेकिन तुम जास्ती आगल बढ़ेगा तो एक बोलेगी, अंकल प्लीज ! दूसरा बोलेगी, अंकल, मैं शोर करेगी, अपना डैडी को बुला लेगी अभी। डैडी साला बाहर बैठकर चा पीता रहता। खाली चिमनी देखने-छूने का पचास रुपया देवे तो कोई गेल्वा देवे। मैं तो दुबारा गया नहीं कभी।
श्वेतरकेशा बताने लगी कि बाद में यह ‘बाप’ धमकाना डराने का चक्कर भी चलाता है। इसी तरह धन्धे का गोरखधन्धा समझने-देखने में आधा घंटा और जाया करके मैं गेस्ट हाउस लौट आया जहाँ उन दिनों मैं दो बुजुर्गों के साथ एक बड़े कमरे का साझीदार था। अगले सुबह-सुबह मेरे दफ्तर (फिल्म-प्रभात, भारत सरकार) में चीन के हमले के बाद थोक में बनाई गई प्रेरणाप्रद डाक्यूमेंटरी में से एक का हिन्दी संस्करण रिकार्ड होना था और मुझे हिन्दी भाष्य को काट-छाँटकर ‘टाइट’ करना था ताकि ‘सीधी रिकार्डिंग’ में अंग्रेजी भाष्य के हिसाब से सम्पादित प्रिंट के साथ उसके ‘सिंक’ गोया ‘साम्य’ में नाड़ी-भेद न हो जाए सुसरा।
जहाँ तक एक झलक देखी हुई उस पहुँचेली चीज का सवाल था, मैं उसके बारे में कुछ भी सोचना नहीं चाहता था। वह अपने लिए ‘आउट ऑफ कोर्स’ थी। ‘आउट ऑफ कोर्स’ थ्योरी हबीब-उल्लास हास्टल, लखनऊ अनवर्स्टी में सन् 1949 में बन्ने मियाँ ने प्रतिपादित की थी। इसमें कहा गया है कि जो ताल्बे-इम्तहाने-जिन्दगी में कोर्स, और कोर्स 000 हैं। बन्ने मियाँ ने इस थ्योरी को इश्किया मामलों पर भी लागू किया था और बताया था कि उन्हीं जवाँमर्दों के बिस्तर गरम हो पाते तो हैं जो सबसे पहले यह देखते हैं कि कौन लुगाई मुकद्दर बनानेवाले ने अपने सिलेबस में रखी है, कौन नहीं ? ‘आउट ऑफ कोर्स’ लुगाई को पढ़ने में वक्त जाया होता है, नींद हराम होती है, सेहत खराब होती है, सेहत खराब होती है, पैसा बरबाद होता है और सारी दौ़ड़-धूप के बाद हाथ वही लगता है, समझे ना।
तो साहब, मैं इस पहुँचेली चीज के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता था, और खासकर उस नाजुक मौके पर जबकि राष्ट्र से मुझे कई जरूरी बातें कहनी थीं, सरकारी भोंपू पर। ‘अस्त्रों के लिए आभूषण दो’ उर्फ ‘गोल्ड फॉर गन्स’ और ‘आवाज दो हम एक हैं, ‘द काल फॉर यूनिटी’ लेकिन, अब तो कहूँ आपसे ? वैसे आप तो अपने फ्रेंड हैं, कह देने से शरम भी क्यों करूँ ?
मैं साहब, मैं ही नहीं हूँ। इस काया में, जिसे मनोहर श्याम जोशी वल्द प्रेमवल्लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्ली अल्मोड़ा, हाल मुकाम दिल्ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए हैं। एक हैं जोशीजी, लेखक-वेखक हैं, समझे ना, ईडिय़ट-ईडियट-टाइप। मैं तो साहब रोटी-रोजी के लिए अनुवाद करता हूँ कभी-कभी। जोशीली, इंडियन अलाँ या इंडियन फलाँ बन जाने के चक्कर में सतत अनुवादक हैं। बहुत प्रेमपूर्वक घोटा लगाते हैं पश्चिमी साहित्य का अंग्रेजी में, और फिर हिन्दी में लिखते हैं कुछ-न-कुछ, अपने अराध्य ओरिजनल अलाँ या फलाँ के इस्टाइल में कि कोई फिर इनका साहित्य अंग्रेजी में अनुवाद करे और ओरिजनल अलाँ-फलाँ से दाद दिलाए इन्हें। दिक्कत यह है कि पढ़-लिखकर इनके लिए साहित्य क्या, ससुरा जीवन तक मौलिक नहीं रह गया। जब देखो गुरु यही कहते हैं कि सन्दर्भः वह पुस्तक, सन्दर्भः वह नाटक, सन्दर्भ वह फिल्म। गोया किताबें इनके लिए जिन्दगी हो गई हैं और जिन्दगी इनकी ससुरी किताबी हो चली है। अब आप देखिए, मामूली समझदारी की बात है अगर लुगाई आपके सामने है, आपको उसे पटाना है और इस सिलसिले में कहना है कुछ, तो कहिए और छुट्टी कीजिए।, चाहे महमूदाबाद हॉस्टल के राजा भैयावाली शैली में सीधे पूछ लीजिए, ‘सिस्टम, चालू हो कि नहीं ?’’
(सम्बोधन का औचित्य यह है कि यदि न हो, तो अपन राखी बँधवाने को राजी हैं)। चाहे मेस्टन हॉस्टल के वसन्त तिवारी की तरह डायलॉग मार जाइए कि आप हमें इतना-इतना क्यों सता रही हैं ? चलिए यह सब भी आपको नापसन्द हो तो आधुनिक साहित्य ही बोल दीजिए कि तुम्हारे बिना अधूरा हूँ मैं। लेकिन अपने जोशीजी का यह कि पहले समझेंगे-बताएँगे कि यह फलाँ उपन्यास या फलाँ सिनेमा की फलाँ ‘सिचुएशन’ है वड़चो। ऐसा-ऐसा इन सिचुएशनों’ में गोया के कहा जा चुका है ऑलरेडी। और जोशीजी को कुछ अनोखा कहना है, समझे ना साहब, ‘यूनीक’, ताकि भले ही यह साली सिचुएशन इस सृष्टि में तीन अरब तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख तीन हजार, तीन सौ तैंतीसवीं बार ‘रिपीट’ हो रही, इनका अनुभव, समझे ना साहब, यूनीक हो !
उस जमाने में जोशीजी की एक ही मुख्तसर-सी ख्वाहिश हुआ करती थी साहब कि हिन्दी गद्य में एक ठो ‘वार एंड पीस’ और गद्य में एक ठो ‘वेस्टलैंड’ दे जाएँ। उन्हें बहुत अफसोस हुआ करता था कि उनके साथी साहित्यिक, वे प्रयागवासी रहे हों या प्रागवासी, अपनी आकांक्षा के आकाश को लॉरेंस डयूरेल के गद्य और रिल्के के पद्य से ऊपर उठा ही नहीं पाए बेचारे। जब मैंने बम्बई में डॉक्यूमेंटरी बनाने के सरकारी महकमें में नियुक्त होने के बाद फिल्मी दुनिया में घुस जाने का चक्कर चलाया तब जोशीजी ने एक अदद और आकांक्षा पाल ली, ‘स्वीट डिकेडेंस’ उर्फ ‘मीठी सड़ाँल’ की फिल्म बनाने की, समझे ना, वहीं कि कुछ अमीर किस्म के लोग-लुगाई दो-एकम्-एकवाले घटिया-से चक्कर चला रहे हैं आपस में।
किस्सा कोताह यह कि जोशीजी को, जो पढ़े मेरे साथ वहीं गोबर मिट्टी इस्कूल अजमेर और लखनऊ अनलर्स्टी में है लेकिन जिन्हें खुशफहमी है कि सोरबोर्न से स्नातकोत्तर शिक्षा पाए हुए हैं, इस एक अदद जनाना की एक झलक में दो सम्भावनाएँ दिखाई दीं। पहली यह कि यह पहुँचेली पतुरिया एक अदद पात्रा है, एक अदद ‘वार एंड पीस, लिख सकने वाले पहुँचेले उपन्यासकार की तलाश में। दूसरी यह कि उपरोक्त पतुरिया, ‘मीठी सड़ाँध’ वाली फिल्म की मिठास भी हो सकती है।
यह हुए जोशीजी, इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर। जोशीजी वाली भाषा में यह मनोहर ‘इंफेंटाइल’ हैं, समझे ना ! पौने पाँच साल तक अपनी माँ का दूध पीते रहे साहब। अप्रत्याशित रूप से एक छोटी बहन के आ जाने पर जब उन्हें ‘बुबूआ’ छोड़ना पड़ा तब माँ के पेट के एक तिल पर अँगुली रखकर ही सुख सपनों को प्राप्त हो सके। परिचय के लिए मेरे खयाल से यही तथ्य पर्याप्त हो इतना और कह दूँ कि कर्मकांडियों के परिवार में जन्म लेने के कारण इन्हें खुशफहमी यह रही है कि नैमिषारण्य के स्नातक हैं। बचपन में ही अनाथ हो जाने के बाद इन गोया ऋषियों ने ही लालन-पालन किया। एक आंगरिस हैं साहब, गोत्र आदि-पुरुष, उनकी इन पर कुछ खास ही अनुकम्पा रही।
तो दीर्घायु भूयात मनोहर को यह पतुरिया अतीव सुमनोहरा प्रतीत हुई साहब ! संसार की सुन्दरतम स्त्री। सुन्दरतम वह थी, इसमें शको-शुबहा की कतई गुंजाइश नहीं। आपने भी देखा होता तो सहमत होते कि चीज निहायत ही पटाखा थी। लेकिन जिस ससुरे को ‘थाऊ’ भी न मिल रहे माहवार उसके लिए आनन-फानन ‘थाऊ’ खड़े कर लेने वाली यह औरत ‘आउट ऑफ कोर्स’ ही मानी जा सकती थी।
मगर साहब ठीक ही कहा है कहनेवालों ने, लौंड़ों की यारी, गदहे की सवारी। तो इन दो लौंड़ों को रूमानियत ने करा दिया मुझे सवार खब्त के गदहे पर, और खब्त भी ससुरा एक ऐसी खातून का जो गोया खस्ता कचौरी नहीं थी।
यह कहानी उसी खब्त की है। वाकया है शहर बम्बई का, जो भारत के पश्चमी सिरे पर स्थिति एक महानगर है सिनेमाई सपनों का। दौर है’ 62-63 का। जोशीजी की बिरादरी में जिसे कहते हैं। साठोत्तरी। गोया जोशीजी और साथी बदस्तूर कॉफी के प्याले पीकर कहकहे लगा रहे थे लेकिन कुछ सपाट, कुछ नासाज, कुछ नाउम्मीद हुए जा रहे थे अब उनके यह कहकहे। जोशीजी का वही फिकरा यहाँ उद्धत कर देना काफी हो। शायद जो उन्होंने अपने मित्र मोहन राकेश के साथ एक दोपहर बीयर पीते हुए कहा, जाहिर है अंग्रेजी में, ‘कोई बात ऐसी नहीं जिसकी आशा नहीं जिसकी आशा-आशंका की जाए-और तो और, दूसरे चीनी हमले तक की।’ गालिबन वही ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती’ वाला गालिबाना मूड था जोशीजी का और उसमें ससुरी यह सूरत नजर आई !
मुझे साहब इस तरह की शहीदाना इंटेलेक्चुअलता से सख्त कोफ्त होती है। उस दौर में दूसरे भलेमानसों की तरह मैं भी कई भली-भली आशाएँ सँजाऐ हुए था। मिसाल के लिए यह कि मुझे एक ठो एडिटरी मिल जाए। कोई बड़ा प्रोड्यूसर मुझसे फिल्म लिखवा ले। कोई ऐसा चमत्कारी चक्कर चले कि मैं इस काबिल बनूँ कि मस्त हवाई इम्पाला गाड़ी में चढ़ सकूँ। मैंने कहा भी जोशीजी से कि हुजूर इम्पाला की सवारी करने वालों से ही इस पाए के खब्ते-खातून की सवारी सघ पाती है।
लेकिन वह माने नहीं ‘पैसा या प्यार’ वाले मेरे सरकार ! उन्होंने बाबू से बराबर पूछताछ की। बाबू कुछ और जानता होता तो बताता। यों अक्सर वह कह देता, ‘देखो उस गाड़ी में गई अभी।’ कोई दो हफ्ते बाद जब एक दिन जोशीजी चौपाटी पहुँचे तब बाबू लपककर उनकी ओर आया और बोला, ‘‘पहुँचेली बाई को अभी देखा मैं।’’ जोशीजी ने व्यग्रता से पूछा, ‘‘कहाँ ?’’ बाबू बोला, ‘‘फोकट में नहीं बताएँगा।’’ जोशीजी ने उसे दो रुपए देकर यह सूचना प्राप्त की कि पहुँचेली बाई हैंगिंग गार्डन में खड़ेली होती। जोशीजी टैक्सी पकड़कर ये जा, वो जा !
एनो मीनिंग सूँ
हैगिंग गार्डन की एक पगडंडी की रेंलिग पर झुकी हुई खाड़ी थी। वह। अभिसार भंगिंमा, समझे ना ! उल्टे हुए नागाडों-से नितम्बों से लेकर सावन की घटनाओं-से उसके खुले केशों तक एक सरपट निगाह डाली मैंने। पिछवारे से ही पहचान गया। अगवाड़ा-पिछवाड़ा सब गोया उसका अपने ही ढंग का था, यूनीक ! मैं उसके पास आकर उसकी भंगिमा में खड़ा हो गया। जमकर उसे घूरा। लेकिन साहब कोई रिएक्शन शॉट नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं। मनोहर कहने लगा, शून्य की साक्षिणी है यह। अब इसका मतलब वही जाने। जोशीजी कह रहे थे कि इस तरह किसी अपरिचित की एकान्त-व्यथा को घूरना, हरकते-नाशायस्ता है, अनसॉफेस्टिटेड !
मैंने अभिनेता राजकुमार की तरह मानीखेज ‘पाज’ और ‘स्ट्रेस’ देकर एक बात कही गोया हवाओं के नाम, जिसके इन्तजार में कोई खड़ी है, वह आज आयेगा नहीं।’
मुझे विश्वास था कि यह डायलॉग उसका ध्यान खींचेगा। खास तौर पर इसलिए कि मनोहर की करुण दीवान मार्का ‘पापी पपीहा’ आवाज में यह कहा गया था। लेकिन उसके कानों के पर्दों पर जो भी हरकत हुई हो, चेहरे पर बहरहाल कुछ नहीं हुई।
तो मैं रेलिंग से हटा। पगडंडी चढ़कर, ऊपर घास में ऐसी जगह चुनकर बैठ गया जहाँ से उस पर निगाह रख सकूँ। कोई पन्द्रह मिनट तक वह खड़ी रही, फिर निराश कदमों से लौटती मेरे पास से गुजर गई।
मैं पीछा करने के लिए उठने ही वाला था कि वह मुड़ी। मुझे देखती हुई कुछ सोचती रही। फिर जैसे किसी फैसले पर पहुँचकर मेरे पास वह इस इत्मीनान से बैठ गई मानो बरसों की पहचान हो।
‘‘एनो मीनिंग सूँ ?, उसने पूछा।
‘‘जी ? आप किससे मुखातिब हैं ?’’ राजकुमार बोले। ‘‘इस समय तो आप ही मेरे समने बैठे हुए हैं।’’, उसने कहा, ‘‘या कि मेरी नजरों को धोखा हो रहा है ?’’
‘‘धोखा खाएँ आपके आशिकों की नजरें !’’, राजकुमार बोले, ‘‘मुझसे क्या जानना चाह रही थीं आप ?’’
‘‘यही कि क्या उसने आपको भेजा है कि जाकर बता दो नहीं आऊँगा ?’’
रकीब की नामवरी और हम करें।’’, राजकुमार मुस्कराया, ‘‘जी नहीं, उसने कुछ नहीं कहा, हमने ही जान लिया कि कोई जान नहीं है उसकी आशिकी में !’’
मैंने अभिनेता राजकुमार की तरह मानीखेज ‘पाज’ और ‘स्ट्रेस’ देकर एक बात कही गोया हवाओं के नाम, जिसके इन्तजार में कोई खड़ी है, वह आज आयेगा नहीं।’
मुझे विश्वास था कि यह डायलॉग उसका ध्यान खींचेगा। खास तौर पर इसलिए कि मनोहर की करुण दीवान मार्का ‘पापी पपीहा’ आवाज में यह कहा गया था। लेकिन उसके कानों के पर्दों पर जो भी हरकत हुई हो, चेहरे पर बहरहाल कुछ नहीं हुई।
तो मैं रेलिंग से हटा। पगडंडी चढ़कर, ऊपर घास में ऐसी जगह चुनकर बैठ गया जहाँ से उस पर निगाह रख सकूँ। कोई पन्द्रह मिनट तक वह खड़ी रही, फिर निराश कदमों से लौटती मेरे पास से गुजर गई।
मैं पीछा करने के लिए उठने ही वाला था कि वह मुड़ी। मुझे देखती हुई कुछ सोचती रही। फिर जैसे किसी फैसले पर पहुँचकर मेरे पास वह इस इत्मीनान से बैठ गई मानो बरसों की पहचान हो।
‘‘एनो मीनिंग सूँ ?, उसने पूछा।
‘‘जी ? आप किससे मुखातिब हैं ?’’ राजकुमार बोले। ‘‘इस समय तो आप ही मेरे समने बैठे हुए हैं।’’, उसने कहा, ‘‘या कि मेरी नजरों को धोखा हो रहा है ?’’
‘‘धोखा खाएँ आपके आशिकों की नजरें !’’, राजकुमार बोले, ‘‘मुझसे क्या जानना चाह रही थीं आप ?’’
‘‘यही कि क्या उसने आपको भेजा है कि जाकर बता दो नहीं आऊँगा ?’’
रकीब की नामवरी और हम करें।’’, राजकुमार मुस्कराया, ‘‘जी नहीं, उसने कुछ नहीं कहा, हमने ही जान लिया कि कोई जान नहीं है उसकी आशिकी में !’’
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