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सम्पूर्ण सूरसागर- खण्ड 4

किशोरी लाल गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :700
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2411
आईएसबीएन :81-8031-040-x

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इस खण्ड में दशम स्कन्ध पूर्वाद्ध की वृन्दावन लीला, मथुरा लीला, गोपी विरह है...

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Sampoorn Soorsagar(4) Lokbharti Tika

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चतुर्थ खण्ड में ग्यारह सौ पद हैं। इसमें दशम स्कन्ध पूर्वाद्ध की वृंदावन लीला, मथुरा लीला एवं गोपी विरह है।

पनघट लीला

1086/2017 राग बिलावल

हरि त्रिलोक-पति पूरनकामी। घट-घट व्यापक अंतरजामी।।
ब्रज-जुवतिनि कौ हेत बिचारयौ। यमुना कैं तट खेल पसारयौ।।
काहू की गगरी ढरकावैं। काहूँ की इँडुरी फटकावैं।।
काहू की गागरि धरि फोरैं। काहू के चित्त चितवत चोरैं।।
या बिधि सबके मनहिं मनावैं। ‘सूरस्याम’ गति कोउ न पावैं।।

हरि तीनों लोकों के स्वामी हैं। वे निष्काम हैं, कामना रहित हैं, वे हर एक के हृदय में समाये हुए हैं और सबके मन की बात जान लेनेवाले हैं। उन्होंने ब्रज की नव-युवतियों का अपने प्रति जो अनुराग देखा, तो उन्होंने जमुना के किनारे एक नया खेल ही प्रारम्भ कर दिया। ब्रज की नवेलियाँ जमुना जी में पानी भरने ही जातीं थी। वहाँ वह किसी भी भरी गगरी उलटकर उसका पानी गिरा देने लगे, किसी की बेंडुली (इँडुरी) उठाकर दूर फेंक देने लगे, किसी का मिट्टी का घड़ा उठाकर पटक देने और फोड़ देने लगे, किसी का चित्त ही अपनी चितवन से चुराने लगे। इस प्रकार वे सब की मनोकामना पूरी करने लगे। श्याम के भेद को कोई नहीं जानता।

1087/2018 राग अड़ाना

हौं गई जमुन-जल साँवरे सौं मोही।
केसरी की खौरि, कुसुम की दाम अभिराम, कनक-दुलरि कंठ, पीतांबर खोही।
नान्ही बँदनि मैं, ठाढ़ौ गावै मीठी तान, मैं तौ लालन की छबि, नैंकहू न जोही।
‘सूरस्याम’ मुरि मुसुक्यानि, छबि अँखियानि रही, हौं न जान्यौ री, कहाँ ही और कोही।

एक गोपी दूसरी गोपी से कह रही है- मैं आज जमुना जी जल लेने गई थी। वहाँ मैंने साँवले सलोने किसन कन्हैया को देख और मैं उन पर मोहित हो गई, लुभा गई। वे माथे पर केसर का आड़ा टीका लगाए हुए थे। उनके गले में सुमनों की सुंदर माला थी। सोने की दो लर की सिकड़ी भी उनके कंठ में पड़ी हुई थी। उनके सिर पर पीताम्बर की घोंघी थी। नन्हीं नन्हीं बूँदें पड़ रही थीं। उस हलकी झड़ी में खड़े वह मीठी तान में गाए जा रहे थे। कन्हैया लाल की-सी सुंदरता मैंने अन्यत्र कहीं भी नहीं देखी। वह सुंदरता तो दूर रही, उसका एक अंश भी मुझे कहीं और नहीं देखने को मिला। श्याम के मुड़कर मुसकराने की छवि मेरी आँखों में बस गई हैं। उस समय मुझे इतना भी ज्ञान नहीं रह गया था कि मैं कौन थी और कहाँ थी।

1088/2019 राग अड़ाना

चटकीलौ पट लपटानौ कटि पर, बंसीवट जमुना कै तट, राजत नगर नट।
मुकुट की लटक, मटक भृकुटी की लोल, कुंडल चटक, आछी सुबरन की लकुट।
उर सौहे बनमाल, कर टेके द्रुम डाल, टेढ़े-ठाढ़े नंदलाल, सोभा भई घट-घट।
सूरदास-प्रभु की बानक देखैं गोपी ग्वाल, निपट निकट, पट आवै सोंधे की लपट।।

जमुना के किनारे, वंशी-वट के नीचे, नटनागर कृष्ण विराजमान थे। उनकी कमर से चटकदार पीतांबर लिपटा हुआ था। उनके सिर पर मोर-पंख का मुकुट थोड़ा झुका हुआ था। वह अपनी भौंहें मटकाए जा रहे थे। उनके कानों के कुंडल हिल रहे थे। उनके कानों के कुंडल उठ-उठ हिल रहे थे। उनके हाथ में बड़ी अच्छी सोने की लठिया थी। उनके वक्ष पर वनमाला सुशोभित हो रही थी। वे पेड़ की एक डाली का सहारा लिए टेढ़े-मेढ़े खड़े थे। हर देखने वाले के हृदय में उनकी वह छवि समाई जा रही थी। उनके वस्त्रों से सुगंध की लपट-सी निकली आ रही थी, लहर-सी उठती आ रही थी। गोपी और ग्वाल सभी प्रभु की इस वेश-भूषा को बहुत निकट से देखे जा रहे थे।

1089/2020 राग सुघरई

मृदु मुरली की तान सुनावै, इहि बिधि कान्ह रिझावै।
नटवर-वेष बनाए ठाढ़ौ, बन-मृग निकट बुलावै।
ऐसौ को जो जाइ जमुन तैं, जल भरि घर लै आवै।
मोर-मुकुट, कुंडल, बनमाला, पीतांबर फहरावै।
एक अंग सोभा अवलोकत, लोचन जल भरि आवै।
‘सूरस्याम’ के अंग-अंग-प्रति, कोटि काम-छबि छावै।।

कन्हैया मुरली की मधुर तान सुना, सुनाकर सभी को रिझाए ले रहे हैं। वे नटनागर का वेष बनाए हुए खड़े हैं और वन के हिरनों को भी अपनी बाँसुरी की तान सुनाकर अपने पास बुलाए ले रहे हैं। ऐसी कौन है, जो जमुना के किनारे जाकर पानी भर कर घर ला सके। या तो वह वहीं ठगी-सी खड़ी रह जायगी या फिर इस डर से कि कन्हैया मेरी गागरी फोड़ देंगे जल लुढ़का देंगे, वह वहाँ जाने का साहस ही नहीं जुटा पाएगी। वे सिर पर मोर पंख का मुकुट, कानों में स्वर्ण-कुंडल और गले में वनमाला धारण किए हुए हैं और उनका पीतांबर हवा के झोंके से हिलता जा रहा है, फहराता जा रहा है। उनके एक भी अंग की शोभा को देखकर आँखों में प्रेम के, हर्ष के आँसू भर आते हैं। श्यामा के तो एक-एक अंग पर करोड़ों कामदेवों की छवि छाई हुई है।

1090/2021 राग पूर्बी

पनघट रोके रहत कन्हाई।
जमुना-जल कोउ भरन पावै, देखत हीं फिरि जाई।
तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई, आपुन रहे छपाई।
तट ठाढ़े जे सखा संग के, तिनकौं लियौ बुलाई।
बैठारयौ ग्वालनि कौं द्रुम-तर, आपन फिरि-फिरि देखत।
बड़ी बार भई कोउ न आई, ‘सूरस्याम’ मन लेखत।।


कन्हैया पनघट रोके खड़े रहते हैं। कोई भी गोपी जल भरने नहीं पाती। जो जल लाने के लिए जाती भी हैं, वे पनघट पर कन्हैया को खड़ा देखकर घर वापस चली जाती हैं। तब कन्हैया ने एक उपाय सोच निकाला। वे स्वयं तो छिप गए और उनके साथी जो यमुना-तट पर खड़े थे, उन सबको अपने पास बुला लिया। उन्होंने ग्वाल-सखाओं को एक वृक्ष के नीचे बैठा दिया और स्वयं उझक-उझक कर, सिर उठा-उठाकर, देखने लगे कि कोई गोपी आ रही है कि नहीं। श्याम मन में विचार करते जा रहे हैं कि बहुत देर हो गई, अभी तक कोई गोपी नहीं आई।

1091/2022 राग देवगंधार

जुवति इक आवति देखी स्याम।
द्रुम कैं ओट रहे हरि आपुन, जमुना-तट गई बाम।
जल हलोरि गागरि भरि नागरि, जबहीं सीस उठायौ ।
घर कौं चली, जाई ता पाछैं, सिर तैं घट ढरकायौ।
चतुर ग्वालि कर गह्यौ स्याम कौ, कनक-लकुटिया पाई।
औरनि सौं करि रहे अचगरी, मोसौं लगत कन्हाई।
गागरि लै हँसि देत ग्वारि-कर, रीतौ घट नहिं लैहौं।
‘सूरस्याम’ ह्याँ आनि देहु भरि, तबहि लकुट कर दैहौं।।

 श्याम ने एक युवती को आते देखा। वे स्वयं तो पेड़ की ओट में छिप गए। वह सुंदरी यमुना के किनारे पनघट पर चली गई। उस नागरी ने घड़े से जल को हिलकोरा, उसमें पीछे से जाकर कन्हैया ने उसके सिर पर रखे घड़े के पानी को गिरा दिया। उस चतुर ग्वालिनी ने श्याम को अपने हाथों से पकड़ लिया। उसकी पकड़ में श्याम की वह सोने की छड़ी आ गई। वह बोली-‘कन्हैया, तुम औरों से नटखटी करते ही थे, अब मुझसे भी शरारत करने लगे हो।’ तब हँसकर कन्हैया ने रीती गगरी उठाकर उसे दे देना चाहा, जिससे वह उनकी सोने की लाठी लौटा दे। पर वह ग्वालिनी भी बड़ी चंट थी। उसने कहा-मैं खाली, छूछी गागरी नहीं लूँगी। जाओ, जमुना जी का जल भर कर ला दो, तभी मैं तुम्हारी छड़ी तुम्हें लौटाऊँगी।

1092/2023 राग कल्यान

घट मेरौ दबहीं भरि दैहो, लकुटी तबहीं देहौं।
कहा भयौ जौ नंद बड़े, वृषभान-आन न डरैहौं।
एक गाँव इक ठावँ बास, तुम कैहौ, क्यौं मैं सैहौं ?
‘सूरस्याम’ मैं तुम न डरैहौं, ज्वाब स्वाल कौ दैहों।।


गोपी बोली-तुम मेरी गगरी में जमुना जल भरकर मुझे ला दो, तभी मैं तुम्हारी लठिया तुम्हें वापस दूँगी। क्या हुआ जो तुम नंद जैसे बड़े बाप के बेटे हो, मैं भी अपने बाप वृषभानु की शपथ खाकर कहे देती हूँ कि मुझे नंद का कोई डर नहीं है। हमारा तुम्हारा एक ही गाँव है। एक ही स्थान पर हमारा रहन-सहन है। तुम शरारत करोगे और मैं सह लूँगी ? ऐसा कभी न होगा। श्याम मैं तुमसे डरूँगी नहीं। डरूँगी नहीं। तुम्हारे सवाल का जवाब मैं दूँगी ही दूँगी। पीछे नहीं हटूँगी। तुमने अपने को क्या समझ रखा है। तुम सेर, तो मैं सवा सेर।

1093/2024 राग कल्यान

घट भरि देहु लकुट तब दैहौं।
हौंहूँ बड़े महर की बेटी, तुम सौं नहीं डरैहौं।
मेरी कनक-लकुटिया दै री, मैं भरि दैहों नीर।
बिसरि गई सुधि ता दिन की तोहिं, हरे सबनि के चीर।
यह बानी सुनि ग्वारि बिबस भई, तनकी सुधि बिसराई।
‘सूर’ लकुट कर गिरत न जानी, स्याम ठगौरी लाई।


गोपी बोली-पहले तुम मेरी गगरी भर लाओ, फिर मैं तुम्हारी यह छड़ी दे दूँगी। तुम बड़े नंद महर के बेटे हो, तो मैं भी बड़े वृषभानु महर की बेटी हूँ। मैं तुमसे जरा भी डरूँगी नहीं, हटूँगी नहीं। मुझे किसी छोटे-मोटे ऐसे-वैसे अहीर की बेटी समझने की भूल मत करना।
तब कन्हैया ने कहा-मेरी सोने की लकुट लौटा दे, मैं तेरा पानी भर दूँगा। क्या तुम उस दिन की बात भूल गई हो, जब मैंने तुम सबके के चीर हर लिए थे। (आज फिर मैं तुम्हारा चीर हर लूँगा)।
कन्हैया की यह बात सुनकर ग्वालिनी लाचार हो गई। उसे अपने तन-बदन की सुधि नहीं रह गई। उसके हाथ से वह स्वर्ण-लकुट स्वत: गिर गई। श्याम ने उस पर अपनी मोहिनी चला दी थी।

1094/2025 राग हमीर

घट भरि दियौ स्याम उठाइ।
नैंकु तन की सुधि न ताकौं, चली ब्रज-समुहाइ।
स्याम सुंदर नैन-भीतर, रहे आनि समाइ।
जहाँ-जहँ भरि दृष्टि देखै, तहाँ-तहाँ कन्हाइ।
उतहिं तैं इक सखी आई, कहति कहा भुलाई।
‘सूर’ अबहीं हँसत आई, चली कहा गँवाइ।।

श्याम ने गागरी ले जाकर जमुना जल भर लिया। और लाकर उस गोपी के सर पर उठाकर रख भी दिया। गोपी को अपने देह की जरा भी सुधि नहीं रह गई थी, वह विदेह हो गई थी। फिर भी वह ब्रज की ओर चल पड़ी। श्यामसुंदर तो उसकी आँखों में समा गए थे। वह जहाँ-जहाँ भी आँख उठाकर देखती थी, उसे वहाँ-वहाँ कन्हैया ही दिखाई पड़ते थे। इसी बीच उसकी एक सखी आ निकली। उसने कहा-क्या तू अपनी कोई अनमोल चीज कहीं भूला आई है। अभी-अभी तो तू हँसती खेलती जमुना जल के लिए गई थी, अब तू लौटते समय ऐसी गुम-सुम क्यों हो गई है ? तूने अपना क्या खो दिया है ? बोल न !

1095/2026 राग टोड़ी

री हौं स्याम मोहिनी घाली।
अबहिं गई जल भरन अकेली, हरि-चितवनि उर साली।
कहा कहौं कुछ कहत न आवै, लगी मरम की भाली।
‘सूरदास’ प्रभु मन हरि लीन्हौ, बिबस भई हौं आली।।

उस गोपी ने उत्तर दिया-अरी सखी, मैं तो श्याम की मोहिनी से मारी गई हूँ। श्याम की मोहिनी ने मुझे बरबाद कर दिया है। अभी-अभी मैं अकेले ही जमुना जल भरने गई थी कि हरि की चितवन मेरा हृदय विद्ध कर दिया। क्या कहूँ, कुछ कहते नहीं बनता। मुझे मर्मवेधी बरछी लग गई है। हरि ने मेरा मन हर लिया है। हे सखी, मैं लाचार हो गई हूँ और अब अपने बस में नहीं हूँ।


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