लोगों की राय

सांस्कृतिक >> एकदा नैमिषारण्ये

एकदा नैमिषारण्ये

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :340
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2409
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

277 पाठक हैं

पुरानी दुनिया में भारत के महत्वपूर्ण स्थान और विश्वव्यापी मानव संस्कृति की रसभीनी छटा लहराने वाला, भारतीय साहित्य में अपने रंग का अकेला यह उपन्यास आपके हाथों में है...

Ekda naimisharanye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह साहित्य कथा उस भावनात्मक आन्दोलन से जुड़ी है जिसने पहली बार भारत की सभी जातियों के उत्तम विचार और संस्कार लेकर तथा ब्राह्मण और श्रमण धर्म का उचित समन्वय करके समूचे भारत को वह एकता प्रदान की जिसके सही और गलत प्रभावों से यह देश आज तक बँधा हुआ है।
पुरानी दुनिया में भारत के महत्वपूर्ण स्थान और विश्वव्यापी मानव संस्कृति की रसभीनी छटा लहराने वाला, भारतीय साहित्य में अपने रंग का अकेला यह उपन्यास आपके हाथों में है। उपन्यास का पहला पृष्ठ पढ़ना आरम्भ कीजिए और और फिर अन्तिम पृष्ठ पूरा पढ़े बिना इसे छोड़ नहीं सकेंगे। कुषाणों और यूनानियों की दासता से त्रस्त और विखण्डित भारत के पुनः संगठित होकर एक सशक्त औऱ समृद्ध देश बनाने की यह प्रेरणा-दायक, रंगारंग भारतीय छवियों से भरपूर, यह रोचक राष्ट्र-कथा पढ़कर आपको आज के भारत की समस्याओं पर गहराई से विचार करने की स्फूर्ति मिलेगी।

अपनी बात


सन् 45 में दो फ़िल्मों के संवाद लिखने के वास्ते मद्रास गया था। लगभग पाँच महीने वहाँ रहा। मेरी वह दक्षिण भारत की यात्रा मेरे दो उपन्यासों से ऐसी जुड़ गई है कि उसे भूल नहीं सकता। उन्हीं दिनों में श्रद्वेय पंतजी और बंधुवर श्री नरेन्द्र शर्मा के साथ श्री अरविन्द के दर्शनार्थ पांडिचेरी जाने पर मुझे एक सोने-जवाहरात का दलाल मिला, जिसके हाव-भाव और बातें देख-सुनकर मुझे अपने नगर के ऐसे ही दलालों की याद आई। बोली-बानियों जैसे अनेक अन्तर देखते हुए भी मुझे भारतीय जन की एकरूपता के ही अधिक दर्शन हुए। ‘बूँद और समुद्र’ उपन्यास का नाम और कथावस्तु वहीं सूझी।  इसी के आसपास किसी समय मद्रास के एक मन्दिर में दर्शन करने गया। मण्डप में एक पुराणवाचक तमिल भाषा में कथा सुना रहे थे। और उनके कथा कहने के ढंग में मुझे फिर अपने यहाँ के कथावाचकों जैसे ही लटके दिखलाई दिये। मौज में आकर थोड़ी देर के लिए वहीं ख़ड़ा हो गया। पुराणवाचक महोदय ने ‘एकदा नैमिषाण्यत्तिल....कहा तो मेरे मन में अपनेपन की एक फुरफुरी-सी दौड़ गई। लगा कि हमारी गोमती नदी के तट पर राष्ट्रीय महत्व सुनाये गये थे। ‘बूँद और समुद्र’ की विषयवस्तु सामाजिक होने के कारण जल्द ही अपना पकाव पा गई, पर नैमिष के संबंध में केवल यह प्रश्न ही अरसे तक मन में उठता रहा कि अयोध्या, काशी, प्रयाग, हरद्वार और मथुरा जैसे सरनाम तीर्थों को छोड़कर सूत-शौनकादि ने सारे पुराण आखिर वहाँ क्यों बाँचे ? यह चौरासी हजार संतों का मेला किसने आयोजित किया था ?

 इसके कई बरस बाद डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल लिखित ‘अहंकार युगीन भारत’ में भारशिवों और वाकाटकों के शासन काल में एक महान् सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन चलाये जाने की बात पढ़कर फिर नैमिषारण्य के 84000 संतों वाले मेले की याद आई। सोचा, हो न हो यह मेला उसी समय जुड़ा होगा। बात को ऐतिहासिकता का कुछ सहारा मिला, तो वह क्रमशः ज़ोर पकड़ती गई। सबेरे नहाते समय पढे़ जाने वाले ‘गंगा बड़ी गोदावरी कि तीरथ बड़े प्रयाग’ या ‘गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी गण्डकी’ अथवा ‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांच ह्यवंतिका’ जैसे सप्त नदियों और सप्त पुरियों के श्लोक, जो तब तक अनगिनत बार अनेक धार्मिक लोगों से सुने थे, सहसा एक नया राष्ट्रीय अर्थबोध लेकर सामने आये। विष्णुपुपराण का भारत गीत ‘गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे’ पढ़कर तो मेरी यह धारणा पक्की हो गई कि चौरासी हज़ार संतों का पौराणिक सेमिनार कोरा धार्मिक तमाशा या गप नहीं है, इसके पीछे राष्ट्रीय महत्व का कुछ इतिहास भी है ! मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक-जब तक मिलने पर हम बंधुवर डॉ. रामविलास शर्मा के कान खाने लगे। डॉक्टर ने एक बार कहा कि जब इतना बखानते हो तो लिख क्यों नहीं डालते, पर तब लिखने लायक मन ने बानक नहीं बन पाये थे। हाँ, लिखने के लिए आग्रह अधिक बढ़ गया। संयोग से उन्हीं दिनों के आसपास स्व० जवाहरलाल नेहरू ने भावनात्मक एकता का नारा बुलन्द किया।

 इससे नैमिष की कथा यूनिवर्सिटी के संबंध में मेरे विचारों को और भी अधिक स्फूर्ति मिली। खैर,‘अमृत और विष’ उपन्यास लिखकर पूरा करने के बाद मैंने इसी काम को हाथ में उठाया एक बार नये सिरे से महाभारत, भागवतपुराणादि पढ़े। इसी प्रसंग में डोनाल्ड मैकेंज़ी द्वारा लिखित और सम्पादित विश्व के विभिन्न देशों की पुराण कथायें भी पढ़ीं। उसके मिस्र तथा असीमिया-बैबिलोनिया वाले खण्डों में विशेष रूप से मेरे मन में अनेक भारतीय देवी-देवताओं और पुराण कथाओं के अन्तर्राष्ट्रीय नाते उजागर कर दिये। यह जानकर कि आर्य सभ्यता और संस्कृति केवल भारत की ही बपौती नहीं, वरन् उसका संबंध सोवियत यूनियन, मध्य-एशिया, मिस्र, ईराक़, ईरान और योरोप के कतिपय भागों से भी है, मैं इतिहास ग्रंथों अध्ययन करने लगा। इंद्र मध्य एशिया से लेकर भारत तक के आर्यों का मुखिया नज़र आया। ‘इन-दुर इन-दर, इन-थोर’ महाराज की पाँच हज़ार बरस, पुरानी एशियायी मूर्ति के दर्शन।

चित्र में किये। मेसोपोतामिया के पुरोहित-राजा गुडेया या गुडिया और अपने राजा गाधि, विश्वविजेता राजा सगर और ईराक के सर्गोन महान्, किश नरेश उकुसी या अक्षक के बेटे बकुस या बेकस, निमि और टंटन तथा अपने इक्ष्वाकुतनय विकुक्षि निमि और दण्डक में एकता दिखलाई देने लगी। हमारे पुराणों में वर्णित महाप्रलय की कथा ईसाइयों और मुसलमानों के पुराणों से मिलती-जुलती है पर्शिया के इतिहास में जाना कि पुरातत्ववेत्ताओं ने महाप्रलय की भूमि का एक भाग वहाँ प्राचीन ‘सूसा’ नगरी के पास खोद निकाला है। कोसंबी की पुस्तक से पता चला कि यम उर्फ़ यिम से संबंधित सात हजार वर्ष पुराना स्थान उज्बेकिस्तान की खुदाई में निकाला है। आज़रबैजान का मूल नाम अत्रिपत्तन है और वहाँ हिंदुओं की बड़ी ज्वालामाई का मन्दिर है। इनमें बहुत-सी बातों पर इतिहासकारों में मतैक्य है और बहुत-सी अब तक शाब्दिक पटा-बनेठियों का करण बनी हुई हैं। बहरहाल इस पढा़ई से जहाँ एक ओर मन का दायरा छोटे से बड़ा हुआ, वहाँ ही दूसरी ओर यह सवाल भी जागा कि जिन आर्य राजे-महाराजों ने यहाँ कभी राज नहीं किया उन्हें भी भारतीय बनाने का उपक्रम आखिर क्यों किया गया। पुराण रचना और भारतीय राष्ट्रीयता का क्या संबंध है ? आर्य सभ्यता बाहर से भारत में आई या भारत से बाहर फैली ? इस तरह के कई प्रश्न परेशान करने लगे।

यह ‘आर्य’ समस्या अठारहवीं शताब्दी के अंतिम काल में उपजी थी। सर विलियम जोन्स ने पहली बार यह बात उठाई कि संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, जर्मन और कैल्टिक भाषाओं में बड़ा साम्य है, इसलिए आर्यों का मूल निवास स्थान भारतवर्ष है। यहीं से आर्य लोग विश्व भर में फैले। इस बात को कुछ अन्य विद्वानों ने नकारा। किसी ने ईरान, किसी ने एशिया-माइनर को आर्यों की मूलभूमि बतलाया। कई विद्वान आर्यों की आदि भूमि को लेकर योरोप की वकालत करने लगे। लोकमान्य तिलक ने उत्तरी ध्रुव को वेदों की आदिभूमि बतलाया। पंडितों की धमाचौक में हम जैसे अनाड़ियों के सिर गुनाह बेलज्ज़त फूटना मामूली-सी बात है। लेकिन हम अपने आपको चूँकी यथासाध्य सतर्कता से आगे बढ़ा ले जाना चाहते थे इसलिए लिखने की जल्दबाजी में न पड़े; थम कर बातों को तौलते रहे। भाषा विज्ञान और मानस-शास्त्र की मदद भी ली। यूरोप के कुछ भागों और आर्मीनिया का आर्य चौड़ी खोपड़ी वाला है तथा कुर्दिस्तान का आर्य लम्बी खोपड़ी वाला। भाषा की दृष्टि से यह सभी आर्य-भाषा परिवार के हैं। इसलिये आर्य कोई जाति का कबीला न होकर एक सभ्यता का नाम है और उसका पारस्परिक आदान-प्रदान दोनों ओर से हुआ है। भारतीय संस्कृति का सबकुछ भारत देश में ही नहीं उपजा, बहुत कुछ का उदगम स्त्रोत भारत के बाहर भी है।

इसी तरह बाहर वालों ने भी अपनी संस्कृतियों में भारत के बहुत-से संस्कार ग्रहण किये हैं। इतिहासकार विल ड्यूरेंट के अनुसार ‘आर्य’ शब्द मितन्नियों की एक शाखा ‘हर्री’ का ही बिगड़ा या सुधरा हुआ रूप है। उनके अनुसार यह शब्द कश्यप सागर के तट और उसके आस-पास अथवा वहाँ से चलकर इधर-उधर बस जानेवाले लोगों के लिए व्यवहृय होता था। मितन्नी, हिट्टी, भेद, पर्शियन और वैदिक हिन्दू अर्थात् इंडो-यूरोपियन लोगों की पूर्वी शाखा के लोग ही मुख्यता; आर्य कहलाये। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘मध्य एशिया के इतिहास’ में दो ‘आर्यनेम वैजो’ का उल्लेख किया है। आर्यनेम वैजो अर्थात् आर्यों का घर वर्तमान कज़ाकस्तान और किर्गिज़स्तान के कुछ भागों से लेकर ताजिकिस्तान और बल्ख़ तक फैला हुआ था। इनमें भी कोई उत्तर वाले भाग को असली आर्य भूमि  मानते हैं और कोई दक्षिण वाले हिस्से को। एक तीसरा हिस्सा हमारे संकल्प मंत्र ‘जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशांतर्गते’ में भी झांकने लगता है। यह भारत खण्ड का आर्यावर्त दूसरी शती ई० पू० पतंजलि के काल में केवल किष्किन्धा तक ही फैला था। किष्किन्धा को लेकर भी विद्वानों में मारामारी है, कोई उसे उत्तर प्रदेशीय गोरखपुर के पास का खोखोंद मानते हैं और कोई कर्णाटकस्थ, रामायण प्रसिद्ध किष्किन्धा को। बहरहाल यह सिद्ध है कि पूरा भारतवर्ष पहले आर्यावर्त नहीं कहलाता था और यह भी सिद्घ है कि उत्तरी भारत से लेकर क़ज़ाकस्तान तक का भू भाग ‘आर्यनेम वैजो’ अथवा आर्यावर्त था।

हमारे पौराणिक वर्णनों के अनुसार सुमेरू के उत्तर में उत्तर कुरु और देवकुरु नामक पावन भूखंड थे और उसके दक्षिण में भरतखण्ड। सुमेरु को याद ‘सोने के पहाड़’ अर्थात् अल्ताई का ही पुराना मान लिया जाए तो आर्यनेम वैजो से आर्यावर्त तक का जुगराफ़िया सटीक बैठ जाता है। इसमें भी जिस भू-क्षेत्र में सभ्यता का प्रारंभिक विकास हुआ वह मध्य एशिया का दक्षिणी भाग ही था। नव पाषाण काल से लेकर ताम्रयुग तक स्थायी बस्तियाँ इसी हिस्से में बसीं। विश्व सभ्यता में ताम्रयुग, या कहूँ कि विज्ञान-युग लाने वाली उम्मा की खान, बल्ख़ या वाह्लीक के पास, यानी भारत खंड में थी। संक्षेप में भारतखण्डवालों ने ही सभ्यता को जन्म दिया और उत्तरकुरु-देवकुरु वाले घुमंतू कबीलों से उनका संघर्ष ताम्रयुग और उसके बाद वाले दिनों में निरंतर होता रहा। उत्तर के घुमंतू कबीले आते और उनमें से कुछ वहाँ के शासकों को खदेड़कर आप बस जाते थे। इसी क्रम में जातियों की उत्पत्ति तथा संस्कृतियों का आपस में घुलना-मिलना बराबर बढ़ता गया। मध्य एशिया में जो जातियाँ उजडीं, उनमें से बहुत-सी भारत में आ बसीं। उन्होंने यहाँ के लोगों को खदेडा, दास बनाया या अपने में मिला लिया। यह क्रम सदियों चला। नवागंतुक आर्यों और पुराने आर्यों में खूब-खूब कटा जुज्झ हुए, यहाँ तक कि बहुत समय बाद जो लोग मुसलमान बन कर आये थे वे भी अधिकांश में आर्य थे, भले ही हमने उन आक्रमणकारियों को म्लेच्छ और अनार्य घोषित किया हो।

मानवशास्त्रियों ने भारत में नीग्रिटो, प्रोटो-आस्ट्रोलायड, भूमध्य-सागरीय, मंगोल किरात और काकेशियन ‘इंडो-आर्य’ तत्त्वों का सम्मिश्रण हुआ बखाना है। काले नीग्रिटो लोग हड्डी-पत्थरों के अनगढ़ हथियार बना लेते थे। पुरा निर्माण और बट पूजा भी इन्हीं के संस्कार माने जाते हैं। डॉ० डी० एन० मजुमदार का ख़याल है कि यह लोग भारत के मूल निवासी थे, लेकिन कुछ लोग इन्हें भी भारत से आया हुआ बतलाते हैं। जिन्हें आदि द्रविड़, आग्नेय, निषाद प्रोटो-आस्ट्रोलायड कहा जाता है वह नीग्रिटो लोगों से अधिक अच्छे पत्थर के औजार बना लेते थे। इसके अतिरिक्त चाक से बर्तन बनाना, खेती आदि करना भी वे जानते थे। डॉ० मजुमदार विंध्य पर्वत के पूर्वी भाग में बसी संथाल, मुंडा, भूमिज, बिरहोर, असुर, अगर, कोरवा आदि प्रजातियों को प्रोटो-आस्ट्रोलायड बतलाते हैं। श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या का कथन है कि इन्हीं लोगों ने वाण, लकुट, शाल्मली, गज, तांबूल, कदली, कृकवाक, बैतगन (बैंगन); पूर्ण चंद्र के लिए राका और नवचंद्र के लिए कुहू आदि शब्द का संस्कृत भाषा को दिये। कच्छप अवतार इन्हीं आग्नेयों की कल्पना है। नाग, मगर, बन्दर आदि की पूजा भी इन्हीं से चली। सुनीति बाबू ‘गंगा’ शब्द को भी इन्हीं का मानते हैं। उनका कथन है कि भारत को लेकर चीन तक गंगा से मिलते-जुलते शब्द आग्नेय परिवार के ही हैं। इस तथ्य के प्रकाश में कथा सरित्सागर में उशीनर गिरि से गंगा खोदकर बहानेवाला कनखल का कांचनपात नामक दिग्गज भी शायद इसी परिवार का व्यक्ति सिद्ध  हो।

भूमध्यसागरी द्रविड़ या भूरी जाति के लोगों ने शिव-उमा आदि पत्थर के देवी-देवता, उपासना पद्धति, नैवेद्य-अर्पण, सिंदूर घंटा-घड़ियाल, धूप-दीप, नाचना, गाना, देवभोग वितरण आदि के चलन चलाये । नार्डिक-काकेशीय-एल्पाइन अथवा इंडोआर्यन नामों से विख्यात लोगों का धर्मग्रंथ वेद और देवता इन्द्र, वरुण, पूषा, नासत्य, अग्नि, सोम आदि थे। तथा यज्ञ इनका कर्म-काण्ड था। भाषाशास्त्रियों का कहना है कि भारत की वर्तमान संस्कृति का प्रभाव केवल 25% ही बाकी 75%  अवैदिक है।

नैमिष आन्दोलन को ही मैंने वर्तमान भारतीय या हिन्दी संस्कृति का निर्माण करने वाला माना है। वेद, पुनर्जन्म, कर्मकाण्डवाद, उपासनावाद, ज्ञानमार्ग आदि का अंतिम रूप से समन्वय नैमिषारण्य में ही हुआ। अवतारवाद रूपी जादू की लक़ड़ी घुमाकर पसरस्पर विरोधी संस्कृतियों को घुला-मिलाकर, अनेकता में एकता स्थापित करने वाली संस्कृति का उदय नैमिषारण्य में हुआ, और यह काम मुख्यता एक राष्ट्रीय दृष्टि से ही किया गया था। कूर्म, मत्स्य, वराह, वामन, नृसिंहादि अलग-अलग कई-देवतों को मनानेवाली, आपसी जय-पराजयों से उत्पन्न ऊँच-नीचपन भरी और अपने आपको सबसे निराला मानने वाली छोटी-ब़ड़ी गणतांत्रिक जातियाँ-प्रजातियाँ आपस में मारकाट मचातीं और प्रबल शत्रुओं के आक्रमणों से पिस-पिस जाती थीं। इनकी फूट से सारा देश तबाह होता था। हर एक अपने देवता को बड़ा और दूसरे देवों को छोटा मानकर एक दूसरे के लिए घृणा का प्रचार करता था। भारत की दो मुख्य सांस्कृतिक धारायें ब्राह्मण और श्रमण आपस में कहीं मिल ही नहीं पाती थीं। ब्राह्मण संस्कृति वेदों को अपौरुषेय मानती थी और चार वर्ण, चार आश्रम, पशु बलि, यज्ञादि में विश्वास करती थी। श्रवण परंपरा में यज्ञ-यगादि कर्मकाण्ड के बजाय आत्मविद्या की महिमा थी। आत्मचिंतन, संयम, समभाव, सत्य, अहिंसा, तप, दान, उपवास, संन्यास आदि श्रमण संस्कृति की विशेषतायें हैं। नैमिष-छाप महाभारत पुराणादि में इन दोनों ही सांस्कृतिक धाराओं का संगम है। ब्राह्मणों का एक वर्ग जो उपनिषद् उपासना, ब्रह्मयज्ञ, वाग्यज्ञ, मनोयज्ञ तथा कर्मयज्ञ को, आग में घी, बकरे और जौ-धान आदि डालकर स्वाहा-स्वाहा चिल्लानेवाली यज्ञ विधि से कहीं अधिक श्रेष्ठ मानता था, उसी ने श्रमण संस्कृति को वेद परंपरा से आवश्यकतानुकूल जोड़कर एक नया रूप दे दिया। यह ब्राह्मण, यूनानी स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित उस मदान्ध-धर्मान्ध सत्तालोलुप वर्ग का नहीं था, जो स्त्रियों और शूद्रों को वेदाधिकार नहीं देते थे, धोखे से भी वेदमंत्र सुन लेने पर जो शूद्रों के कान में गर्म सीसा पिघलाते अथवा जीभ काट लेते थे। यह ब्राह्मण संभवताः आरण्यकों का ब्राह्मण था, जो सिकंदरों की उपेक्षा करता था; भागवत् धर्मी था दलित-दीन दुर्बलों, साधुजनों का हिमायती था।

प्रस्तुत उपन्यास मेरी  इन्हीं सब वैचीरिक हलचलों से उपजी कल्पनाओं का कथा-समुच्चय है। मैं इन सब चित्रों की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता। अपने मन से मैंने इसे भारतवर्ष के एक काल विशेष का रेखाचित्र ही माना है। फिर भी इतना अवश्य कह सकता हूँ कि नैमिष-आन्दोलन की भावनात्मक एकता वाली समन्वयकारिणी नीति को मैंने पूर्ण निष्ठा के साथ यथामति जानने और यथाशक्ति उजागर करने का प्रयत्न किया है।

महाभारत और गीता के रचनाकाल के सम्बन्ध में एक सफाई देना आवश्यक है। वर्तमान महाभारत को श्री सुकठणकर ने भार्गवों द्वारा रचित बतलाया है। वैद्य महोदय ने ‘महाभारत मीमांसा’ में ‘जय’ ग्रंथ को व्यास रचित बतलाया था। सुकठणकर ने काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में अपने अकाट्य  तर्कों से वैद्य महाशय का सौतिवाला अनुमान रद्द कर दिया;  उन्होंने कहा कि सौति कथा बाँचते भर ही थे। दामोदर धर्मानन्द कोसंबी भी सुकठणकर के समर्थक हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल ने पाणिनी की अष्टाध्यायी में भारत और महाभारत दोनों ही संहिताओं का मौजूद होना बतलाया जाता है। बाद में भारतसंहिता तो एकदम से लुप्त हो गई है और महाभारत की प्रतियाँ घटती-बढ़ती श्लोक संख्या के साथ मिलती रहीं। वैद्य महाभारत का रचना-काल अशोक का जमाना मानते हैं कुछ विद्वान् उसे शुंगकालीन मानते हैं; कुछ ईस्वी सन् की तीसरी चौथी शताब्दियों तक उसमें संशोधनों का क्रम बाँधते हैं। मैंने गणेशजी द्वारा लिखे जाने की बात पकड़कर उसे गिरागुरु गणपति नाग के काल में लिखा जाना मानकर ही अपनी कथा की कल्पना की है। इसी तरह डॉ० कोसंबी ने गीता की रचना का काल समुद्रगुप्त का उदयकाल ही माना है। उनके तर्क मुझे जमें। साथ ही ‘सर्वोंपनिषदों गावो दोग्धा गोपालनन्दनः, वाली गीत महिमा से भी यह लगा कि गीता बाद में ही रची गई होगी। तिथियों के संबंध में विद्वानों के तमाम मतभेदों के बावदूद श्रीकृष्ण उपनिषद् काल से कम-से-कम एक हज़ार वर्ष पहले  पैदा हुए होंगे, फिर वे उपानिषदों को गाय बनाकर कैसे दुह सकते थे। यह काव्य उन्हीं के किसी अनन्य भक्त कवि-दार्शनिक ने अवश्य ही बाद में जन को कर्मयोग की ओर प्रेरित करने के लिए रचा होगा।

इस उपन्यास के बहाने से मेरा मन पठन और मनन में खूब रमा, इसलिए समय सुख से बीता। इसे लिखने के लिये वेद, पुराण, विलड्यूरेण्ड, डोनाल्ड-मेकेंजी, वैडल, फ्रेज़र कोसंबी, सुमन शर्मा, भगवद्दत्त शर्मा, काशीप्रसाद जायसवाल, वासुदेवशरण अग्रवाल मोतीचंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, केतकर, रामविलास शर्मा आदि श्रेष्ठ विद्वानों के प्रसिद्ध ग्रंथों का आभार बार-बार मानकर भी, मैं सन् 24 की ‘माधुरी’ में प्रकाशित आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लेख ‘गोस्वामी तुलसीदास और लोकधर्म’ के प्रति भी अपनी श्रद्धा प्रकट करता हूँ। उस लेख के पहले पैराग्राफ ने मेरे मन में अवरुद्ध इस पुस्तक का मूल ढाँचा अचानक खोल दिया था।
पुस्तक नवंबर, सन् ’67 में, गोकुलपुरा, आगरे में आरंभ होकर, 31 जनवरी सन 71 को नैमिषारण्ये के श्रीगौड़ीय मठ में पूरी हुई। इसका प्रारंभिक भाग गणेशशंकर त्रिपाठी को बोलकर लिखाया और अंतिम कुछ परिच्छेदों को छोड़कर बाकी उपन्यास भगवतप्रसाद पाण्डेय को।

अंत में अपने नैमिष प्रवास की व्यवस्था कर देने के लिये सीतापुर के श्रद्धेय डॉ० नवलबिहारी मिश्र तथा नैमिष में अपनी देख-रेख के लिए श्री परमहंस गौड़ीय मठ के भावुक संस्यासियों, वैद्य धर्मचन्द्र हसीजा, चि० रामेश्वप्रसाद वर्मा आदि सभी गुरुजनों, प्रियजनों का हृयद के आभार मानता हूँ। प्रूफ संशोधन आदरणीय बंधु श्री देवीदयाल चतुर्वेदी ‘मस्त ने किया। बंधुवर श्री ज्ञानचंद्र जैन अनेक पुस्तकालयों से मेरी इच्छित पुस्तकें बराबर लाते रहे। इन लोगों का आभार मेरे लिये सहज नहीं है।

अमृतलाल नागर

1


‘‘अरी मैया तेरे पायँ लागूँ मोकूँ क्षमा करदे, जाइबे दे। मेरो बड़ो अकाज ह्यै रह्यै है। नारायण तेरो अपार मंगल  करेंगे।’’
 लेकिन हाथ में साँट लेकर खडी़ हुई हट्टीकट्टी लंबी-तड़ंगी तुलसी मैया की पुजारिन, महर्षि नारद की इस गिड़गिड़ाहट भरी चिरौरी पर पत्थर से बोल मारती हुई बोलीः ‘‘मैंने तुमसे एक बार कह दीनी म्हाराज, दस बार कह दीनी के चबड़-चबड़ अब बन्द करो अपनी, जामें कछु लाभ नायँ धरो-अरी मौड़ियों, खड़ी-खड़ी म्हौ का देखो हौ मेरो, छीनो इनकी बीना और खड़ाऊँ। और जो ये न पहरें चोली घँघरिया तो मार-मार के इनको भुरतो बनाय डारो के हाल।’’
पन्द्रह गोरी-साँवली कलाइयाँ हवा में कोड़े लहकाते हुए लचकने लगीं। नारदजी सबके हाथ जोड़ने लगे कहाः ‘‘अरे पहरूँ हूँ पहरूँ हूँ, मेरी मैयो, मेरी मैयो की मैयो। मोपै साँटे मती बरसैयो, मेरे रोम-रोम में नारायण वासुदेव का निवास है। विन्हें चोट लग जाएगी। मैं तिहारी सबकी हा हा खाऊँ, चिरौरी करूँ, पैयाँ परूँ।’’

परंतु दो-चार करारे कोड़े उनकी देह पर बरस ही गये। नारद की चिरौरियों से वे सोलहों तुलसी-वृन्दाएँ, विशेष रूप से मुख्य पुजारिन एक क्षण के लिए भी पसीजने को तैयार न थीं पिछले दो बसंत बीत गये। पुरुष उनके इलाके में आया ही न था। पुजारिन सुहाग सुख की भूखी थीं। वह नारद को मुक्त करने की  बात तक सुनने को तैयार न थी। काम वृन्दावन के इस पोखर में स्नान करती हुई नग्न वृन्दाओं को देख लेने वाले पुरुष को फिर स्त्री बनकर ही रहना पड़ता है। पहले किसी काल में वृन्दाएँ सामूहिक रूप से ऐसे पुरुष को एक वसन्त ऋतु से दूसरी वसन्त ऋतु तक पति रूप से भजती थीं। फिर उससे सन्तान पा लेने के बाद वे उसका वध कर दिया करती थीं। उनका मुंड धरती में गाड़कर उस पर तुलसी का बिरवा बो दिया करती थी। मुख्य पुजारिन ने ऋतुमती होने तक विधवाओं की तरह वे शोक के दिन बिताती थीं। तीर्थ में स्नान करने के बाद वे विधवा से फिर क्वारी हो जाया करती थीं। लेकिन अब इस प्रथा में इतना परिवर्तन अवश्य आ गया था कि वह पुरुष की पति रूप में सेवा करने की बजाय वे उससे दासवत् पूरे वर्ष भर अपनी सेवा कराती थीं। पुजारिन का उस पर विशेष अधिकार रहता था। पूर्ण पितृ-सत्तात्मक समाज से अपने इलाके में घुस जाने वाले नर को दण्डस्वरूप नारी के वेष में रखकर वे उसके अहम को अपने अंकुश में रखती थीं। अंधेरे में नारी-वृन्द पुजारिन के आदेशानुसार उस बन्दी पुरुष का उपभोग तो करता था, पर उसे नग्न देख लेना उसके लिए घोर पाप था –और उस पाप का दण्ड था मरण-स्त्री का नहीं पुरुष का। ‘‘यह पुरुरवा और उर्वशी के काल से होता चला आया है। कोई आज की रीति तो है नहीं।’’ यह उनका सीधा तर्क था।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book