बहुभागीय पुस्तकें >> सम्पूर्ण सूरसागर- खण्ड 3 सम्पूर्ण सूरसागर- खण्ड 3किशोरी लाल गुप्त
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इस खण्ड में स्कन्ध 1-9 एवं दशम स्कन्ध पूर्वाद्ध की गोकुल लीला के 1100 पद हैं
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस तृतीय खण्ड में उस सूरदास की लेखनी का चित्रण है जो चन्द्रबरदाई के
वंशज हैं। इनकी तीन कृतियाँ हैं-द्वादश स्कन्धात्मक सूरसागर, साहित्य
लहरी, सूरसागर सारावली।
द्वादश स्कन्धात्मक सूरसागर तीन खंडों में हैं। यह इस ग्रंथ के तृतीय, चतुर्थ तथा पाँचवें खंड में दिया जा रहा है।
तृतीय खंड में ग्यारह सौ पद है। इस खंड में स्कन्ध 1-9 एवं दशम स्कन्ध पूर्वाद्ध की गोकुल लीला है।
द्वादश स्कन्धात्मक सूरसागर तीन खंडों में हैं। यह इस ग्रंथ के तृतीय, चतुर्थ तथा पाँचवें खंड में दिया जा रहा है।
तृतीय खंड में ग्यारह सौ पद है। इस खंड में स्कन्ध 1-9 एवं दशम स्कन्ध पूर्वाद्ध की गोकुल लीला है।
समर्पण
सूर ग्रन्थावली के संपादक मंडल में मुझे सस्नेह स्थान देनेवाले, सूरसागर
के प्रथम संस्करण ‘साहित्य लहरी’ को रीति-ग्रन्थ के
रूप में
अध्ययन करने की मुझे प्रेरणा देने वाले, ‘सूरसागर’
2-9 एवं
11, 12 स्कंध को अष्टछापी सूरदास की रचना न मानने वाले, अभिनव भरत, गुरुवर
पं. सीताराम चतुर्वेदी के कर कमलों में सादर समर्पित।
सफाई
श्रावण शुक्ल सप्तमी सं. 2041 वि. (अगस्त, 1984 ई.) को प्रयोग हिन्दी
साहित्य सम्मेलन में तुलसी जयंती की अध्यक्षता करने के लिए पधारे गुरुवर
आचार्य पं. सीताराम जी चतुर्वेदी ने कहा कि तुम हिन्दी कविता का इतिहास
लिख रहे हो, जब सूर पर लिखने लगो, तब साहित्य लहरी पर रीतिग्रंथ की दृष्टि
से सम्यक् विचार कर लेना।
अक्टूबर, 1984 में मैंने साहित्य लहरी और नवंबर 1984 में सूर सरावली का पूर्ण अध्ययन किया और मैं भी डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के चालीस वर्ष पूर्व निकाले गए निष्कर्ष से पूर्णत: सहमत हो गया कि ये दोनों ग्रंथ प्रसिद्ध अष्टछाप महाकवि सूर की रचनाएँ नहीं हैं। मेरे कारण दूसरे थे और एकदम नए थे। मैंने यह भी निष्कर्ष निकाला कि ये दोनों रचनाएँ अकबरी दरबार के गायक रामदास ग्वालियरी के पुत्र सूरदास (नवीन) की रचनाएँ हैं। यह सूरदास नवीन अखबारी नवीन के गायक थे। ये लोग ग्वालियर के रहने वाले थे और प्रसिद्ध कवि चंदवरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। सूर नवीन गो. गोकुलनाथ ‘वल्लभ’ के शिष्य सं. 1667 में हुए थे और इन्होंने संवत् 1677 में साहित्य लहरी की रचना की थी।
दिसम्बर 1984 में मैं अपने द्वितीय पुत्र डॉ. रवीन्द्र गुप्त के यहाँ मोठ (झाँसी) चला गया। वहाँ से 16 दिसम्बर 84 को उरई आया और उरई के हिन्दी सेवियों की सभा में मैंने सूर पर अपने विचार प्रकट करते हुए इस नवीन सामग्री का प्राकट्य अपर जनों पर पहली बार किया। यहीं मेरे मन में दो सूरसागरों की बात भी कौंध गई, यद्यपि इसका प्रकाशन मैंने वहाँ नहीं किया। इसकी घोषणा मैंने साकेत महाविद्यालय फैजाबाद में सम्पन्न आचार्य रामचन्द्र जन्मशती महोत्सव के अवसर पर जनवरी 1985 में वहाँ समवेत साहित्यकार मित्रों एवं विद्वानों से की।
जनवरी 1985 में ही, कल्पवास करते समय, प्रयाग में, मैंने दोनों सूरसागरों के विश्लेषण में जुट गया। यह कार्य मार्च 1985 में प्राय: सम्पूर्ण हो गया था और तब से बहुत दिनों तक उसी रूप में पड़ा रह गया था।
इसी बीच सूर और सूर नवीन संबंधी मेरी समस्त शोध ‘महाकवि सूर और सूर नवीन’ नाम से हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद द्वारा जून 1991 में प्रकाशित हो गई।
4 जनवरी 1992 को प्रयाग में एक प्रकाशक ने अष्टछापी सूर कृत सूरसागर के प्रकाशन पर विचार करने की बात की। तब मैं इस समस्त सामग्री को पूर्णता प्रदान करने में लग गया। पहले मेरा विचार था कि अष्टछापी सूर के सूरसागर को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए दशम् स्कंध पूर्वार्द्ध वाले सूरसागर के एक दो प्राचीन हस्तलेखों का भी उपयोग करूँगा। ऐसे हस्तलेख हैं भी। पर वे मेरे लिए दुर्लभ हैं और अब शरीर भी निशुल्क होता जा रहा है। अत: पूर्व संकलित सम्पादित सामग्री को ही पूर्णता प्रदान कर संतोष ग्रहण कर रहा हूँ और आशा कर रहा हूँ कि भविष्य में सूर का कोई शोधी सुधी अध्येता इस कार्य को सम्पन्न करेगा।
प्रयाग से तो अष्टछापी सूर के सूरसागर का प्रकाशन नहीं हो सका; पर इधर 18 फरवरी 1996 को काशी में हिन्दी प्रचारक प्रतिष्ठान के स्वामी श्री कृष्णचन्द्र बेरी से मेरी दोनों सूरसागरों के प्रकाशन के संबंध में बात हुई। बेरी जी इधर पिछले कई वर्षों से सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की सस्ती ग्रंथावलियाँ निकाल रहे हैं। उन्होंने इस ग्रंथावली योजना में दोनों सूरसागरों को निकालने को पुण्य कार्य समझा।
मैंने सूरसागरों के विश्लेषण का कार्य जनवरी 1985 में प्रारम्भ किया था। तब मेरे सामने दो ही सूरसागर थे- काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाला संस्करण और पंडित सीताराम चतुर्वेदी वाला ‘सूरग्रंथावली’ का सटीक संस्करण। अब मेरे सामने लखनऊ एवं मुम्बई वाले सूरसागर भी हैं। मैंने इन दोनों सूरसागरों का पुनरावलोकन के समय उपयोग कर लिया है और इसके बहुत अच्छे परिणाम भी निकले हैं। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात रही है कि कृष्णानंदन व्यासदेव रागसागर द्वारा प्रकाशित कलकत्ता के सूरसागर (सं. 1899 वि.) उसी के प्रतिरूप लखनऊ के सूरसागर (1920 वि.) का उपयोग न तो राधाकृष्ण दास के मुम्बइया सूरसागर में, न सभा के सूरसागर में, न चतुर्वेदी जी की सूर ग्रंथावली में हुआ है। इसमें सैकड़ों नए पद हैं, जो बाद के सूरसागरों में नहीं है। बेरी जी का विचार था कि दोनों सूरसागर एक साथ प्रेस में चले जायें। पर प्रेस ने राय दी कि यह ठीक न होगा, इतने घोर श्रम से जो पृथककरण किया गया है, प्रेस में एक साथ छपने से उनका घालमेल हो जा सकता है और सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है। दोनों सूरसागरों में पहले का ड्योढ़ा है। इसलिए पहले द्वादश स्कंधात्मक सूरसागर ही प्रकाशित हो रहा है।
पहले विचार था कि केवल मूल पाठ प्रस्तुत कर दिया जाय और इस पृथक्करण पर सूर के विद्वानों की प्रतिक्रिया जान ली जाय। पर गुरुवर पंडित सीताराम जी का आग्रह हुआ कि इस ग्रंथ का प्रकाशन टीका के सहित किया जाय। टीका से ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ जायेगी। आर्थिक पक्ष पर विचार आवश्यक था। अत: मैं इसे अ-टीक ही प्रकाशित करा देना चाहता था। पर 8 सितम्बर 1996 को बेरी जी ने भी इस पर टीका लिख देने का आग्रह किया। उसी समय आचार्य चतुर्वेदी जी अपने ज्येष्ठ पुत्र के त्रयोदशाह में मुजफ्फर नगर से काशी आए हुए थे। उनसे मिलकर उनके पूर्व आग्रह को मानते हुए मैंने टीका लिखना प्रारम्भ कर दिया।
अब स्कंधात्मक सूरसागर तीन जिल्दों में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रस्तुत प्रथम खण्ड में प्रथम स्कंध से लेकर नवम् स्कंध एवं दशम् पूर्वार्द्ध की गोकुल लीला तथा वृन्दावन लीला के कुछ अंश कुल 1084 पद जा रहे हैं। द्वितीय खण्ड में शेष वृन्दावन लीला पद 1985 से 2387 तक रहेंगे। तीसरे खण्ड में दशम् स्कन्ध के पूर्वार्द्ध की मथुरा लीला, गोपी विरह और भ्रमरगीत, दशम् स्कन्ध उत्तारार्द्ध, स्कंध 11, 12 एवं सूरसागर में संकलित कुछ लघु ग्रंथ रहेंगे।
टीका लिखते समय चतुर्वेदी जी की सूर ग्रंथावली मेरे समक्ष बराबर रही है। अर्थ लेखन में मैंने इससे पूरा-पूरा लाभ उठाया है। जहाँ सहमत नहीं हो सका हूँ, वहाँ मैंने अपनी दृष्टि से अर्थ किया है। टीका लिखते समय मैंने कुछ और भी संग्रह ग्रंथों की टीकाओं का अवलोकन किया है और उनसे लाभ भी उठाया है।
स्कन्धात्मक सूरसागर के प्रथम खण्ड के प्रकाशन के अवसर पर मैं दो व्यक्तियों का विशेष आभार मानता हूँ। एक तो हैं अभिनव भरत आचार्य पंडित सीताराम जी चतुर्वेदी, जिनकी प्रेरणा से मैंने साहित्य-लहरी पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से अध्ययन किया और उसी सूत्र के सहारे सूरसागरों का यह वृहत्कार्य सम्पन्न हुआ। धन्यवाद के दूसरे पात्र हैं मेरे पुराने प्रकाशक, हिन्दी प्रचारक प्रतिष्ठान के स्वामी श्री कृष्णचन्द्र बेरी, जिनके सत्संकल्प से इस महान साहित्यिक अनुष्ठान का समारंभ सुचारु रूप से होने जा रहा है।
इस समय मुझे गुरुवर स्वर्गीय पंडित विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र का स्मरण हो आ रहा है, जो मेरे समस्त शोधकार्य पर परम प्रमुदित हो उठा करते थे और जिन्होंने स्वयं भी सूरसागर की टीका लिखनी प्रारम्भ की थी, जो अपूर्ण ही रह गई और प्रकाशित नहीं हो पाई।
आशा करता हूँ सूर के अध्येता दोनों सूरसागरों के इस पृथक्करण एवं टीका को पसंद करेंगे।
अक्टूबर, 1984 में मैंने साहित्य लहरी और नवंबर 1984 में सूर सरावली का पूर्ण अध्ययन किया और मैं भी डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के चालीस वर्ष पूर्व निकाले गए निष्कर्ष से पूर्णत: सहमत हो गया कि ये दोनों ग्रंथ प्रसिद्ध अष्टछाप महाकवि सूर की रचनाएँ नहीं हैं। मेरे कारण दूसरे थे और एकदम नए थे। मैंने यह भी निष्कर्ष निकाला कि ये दोनों रचनाएँ अकबरी दरबार के गायक रामदास ग्वालियरी के पुत्र सूरदास (नवीन) की रचनाएँ हैं। यह सूरदास नवीन अखबारी नवीन के गायक थे। ये लोग ग्वालियर के रहने वाले थे और प्रसिद्ध कवि चंदवरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। सूर नवीन गो. गोकुलनाथ ‘वल्लभ’ के शिष्य सं. 1667 में हुए थे और इन्होंने संवत् 1677 में साहित्य लहरी की रचना की थी।
दिसम्बर 1984 में मैं अपने द्वितीय पुत्र डॉ. रवीन्द्र गुप्त के यहाँ मोठ (झाँसी) चला गया। वहाँ से 16 दिसम्बर 84 को उरई आया और उरई के हिन्दी सेवियों की सभा में मैंने सूर पर अपने विचार प्रकट करते हुए इस नवीन सामग्री का प्राकट्य अपर जनों पर पहली बार किया। यहीं मेरे मन में दो सूरसागरों की बात भी कौंध गई, यद्यपि इसका प्रकाशन मैंने वहाँ नहीं किया। इसकी घोषणा मैंने साकेत महाविद्यालय फैजाबाद में सम्पन्न आचार्य रामचन्द्र जन्मशती महोत्सव के अवसर पर जनवरी 1985 में वहाँ समवेत साहित्यकार मित्रों एवं विद्वानों से की।
जनवरी 1985 में ही, कल्पवास करते समय, प्रयाग में, मैंने दोनों सूरसागरों के विश्लेषण में जुट गया। यह कार्य मार्च 1985 में प्राय: सम्पूर्ण हो गया था और तब से बहुत दिनों तक उसी रूप में पड़ा रह गया था।
इसी बीच सूर और सूर नवीन संबंधी मेरी समस्त शोध ‘महाकवि सूर और सूर नवीन’ नाम से हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद द्वारा जून 1991 में प्रकाशित हो गई।
4 जनवरी 1992 को प्रयाग में एक प्रकाशक ने अष्टछापी सूर कृत सूरसागर के प्रकाशन पर विचार करने की बात की। तब मैं इस समस्त सामग्री को पूर्णता प्रदान करने में लग गया। पहले मेरा विचार था कि अष्टछापी सूर के सूरसागर को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए दशम् स्कंध पूर्वार्द्ध वाले सूरसागर के एक दो प्राचीन हस्तलेखों का भी उपयोग करूँगा। ऐसे हस्तलेख हैं भी। पर वे मेरे लिए दुर्लभ हैं और अब शरीर भी निशुल्क होता जा रहा है। अत: पूर्व संकलित सम्पादित सामग्री को ही पूर्णता प्रदान कर संतोष ग्रहण कर रहा हूँ और आशा कर रहा हूँ कि भविष्य में सूर का कोई शोधी सुधी अध्येता इस कार्य को सम्पन्न करेगा।
प्रयाग से तो अष्टछापी सूर के सूरसागर का प्रकाशन नहीं हो सका; पर इधर 18 फरवरी 1996 को काशी में हिन्दी प्रचारक प्रतिष्ठान के स्वामी श्री कृष्णचन्द्र बेरी से मेरी दोनों सूरसागरों के प्रकाशन के संबंध में बात हुई। बेरी जी इधर पिछले कई वर्षों से सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की सस्ती ग्रंथावलियाँ निकाल रहे हैं। उन्होंने इस ग्रंथावली योजना में दोनों सूरसागरों को निकालने को पुण्य कार्य समझा।
मैंने सूरसागरों के विश्लेषण का कार्य जनवरी 1985 में प्रारम्भ किया था। तब मेरे सामने दो ही सूरसागर थे- काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाला संस्करण और पंडित सीताराम चतुर्वेदी वाला ‘सूरग्रंथावली’ का सटीक संस्करण। अब मेरे सामने लखनऊ एवं मुम्बई वाले सूरसागर भी हैं। मैंने इन दोनों सूरसागरों का पुनरावलोकन के समय उपयोग कर लिया है और इसके बहुत अच्छे परिणाम भी निकले हैं। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात रही है कि कृष्णानंदन व्यासदेव रागसागर द्वारा प्रकाशित कलकत्ता के सूरसागर (सं. 1899 वि.) उसी के प्रतिरूप लखनऊ के सूरसागर (1920 वि.) का उपयोग न तो राधाकृष्ण दास के मुम्बइया सूरसागर में, न सभा के सूरसागर में, न चतुर्वेदी जी की सूर ग्रंथावली में हुआ है। इसमें सैकड़ों नए पद हैं, जो बाद के सूरसागरों में नहीं है। बेरी जी का विचार था कि दोनों सूरसागर एक साथ प्रेस में चले जायें। पर प्रेस ने राय दी कि यह ठीक न होगा, इतने घोर श्रम से जो पृथककरण किया गया है, प्रेस में एक साथ छपने से उनका घालमेल हो जा सकता है और सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है। दोनों सूरसागरों में पहले का ड्योढ़ा है। इसलिए पहले द्वादश स्कंधात्मक सूरसागर ही प्रकाशित हो रहा है।
पहले विचार था कि केवल मूल पाठ प्रस्तुत कर दिया जाय और इस पृथक्करण पर सूर के विद्वानों की प्रतिक्रिया जान ली जाय। पर गुरुवर पंडित सीताराम जी का आग्रह हुआ कि इस ग्रंथ का प्रकाशन टीका के सहित किया जाय। टीका से ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ जायेगी। आर्थिक पक्ष पर विचार आवश्यक था। अत: मैं इसे अ-टीक ही प्रकाशित करा देना चाहता था। पर 8 सितम्बर 1996 को बेरी जी ने भी इस पर टीका लिख देने का आग्रह किया। उसी समय आचार्य चतुर्वेदी जी अपने ज्येष्ठ पुत्र के त्रयोदशाह में मुजफ्फर नगर से काशी आए हुए थे। उनसे मिलकर उनके पूर्व आग्रह को मानते हुए मैंने टीका लिखना प्रारम्भ कर दिया।
अब स्कंधात्मक सूरसागर तीन जिल्दों में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रस्तुत प्रथम खण्ड में प्रथम स्कंध से लेकर नवम् स्कंध एवं दशम् पूर्वार्द्ध की गोकुल लीला तथा वृन्दावन लीला के कुछ अंश कुल 1084 पद जा रहे हैं। द्वितीय खण्ड में शेष वृन्दावन लीला पद 1985 से 2387 तक रहेंगे। तीसरे खण्ड में दशम् स्कन्ध के पूर्वार्द्ध की मथुरा लीला, गोपी विरह और भ्रमरगीत, दशम् स्कन्ध उत्तारार्द्ध, स्कंध 11, 12 एवं सूरसागर में संकलित कुछ लघु ग्रंथ रहेंगे।
टीका लिखते समय चतुर्वेदी जी की सूर ग्रंथावली मेरे समक्ष बराबर रही है। अर्थ लेखन में मैंने इससे पूरा-पूरा लाभ उठाया है। जहाँ सहमत नहीं हो सका हूँ, वहाँ मैंने अपनी दृष्टि से अर्थ किया है। टीका लिखते समय मैंने कुछ और भी संग्रह ग्रंथों की टीकाओं का अवलोकन किया है और उनसे लाभ भी उठाया है।
स्कन्धात्मक सूरसागर के प्रथम खण्ड के प्रकाशन के अवसर पर मैं दो व्यक्तियों का विशेष आभार मानता हूँ। एक तो हैं अभिनव भरत आचार्य पंडित सीताराम जी चतुर्वेदी, जिनकी प्रेरणा से मैंने साहित्य-लहरी पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से अध्ययन किया और उसी सूत्र के सहारे सूरसागरों का यह वृहत्कार्य सम्पन्न हुआ। धन्यवाद के दूसरे पात्र हैं मेरे पुराने प्रकाशक, हिन्दी प्रचारक प्रतिष्ठान के स्वामी श्री कृष्णचन्द्र बेरी, जिनके सत्संकल्प से इस महान साहित्यिक अनुष्ठान का समारंभ सुचारु रूप से होने जा रहा है।
इस समय मुझे गुरुवर स्वर्गीय पंडित विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र का स्मरण हो आ रहा है, जो मेरे समस्त शोधकार्य पर परम प्रमुदित हो उठा करते थे और जिन्होंने स्वयं भी सूरसागर की टीका लिखनी प्रारम्भ की थी, जो अपूर्ण ही रह गई और प्रकाशित नहीं हो पाई।
आशा करता हूँ सूर के अध्येता दोनों सूरसागरों के इस पृथक्करण एवं टीका को पसंद करेंगे।
सुधवै, भदोही
गंगा दशहरा सं. 2054
15 जून, 1997
गंगा दशहरा सं. 2054
15 जून, 1997
किशोरी लाल गुप्त
एम.ए.,पी-एच.डी.,डी.लिट्.
साहित्य वाचस्पति
एम.ए.,पी-एच.डी.,डी.लिट्.
साहित्य वाचस्पति
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