यात्रा वृत्तांत >> सूटकेस में जिन्दगी सूटकेस में जिन्दगीहेमन्त द्विवेदी
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इस यात्रा संस्मरण में गाँव-कस्बे हैं, छोटे-छोटे शहर आत्मीयता से मौजूद है......
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कहने को तो ‘सूटकेस में जिन्दगी’ यात्रा संस्मरण है, जीवन में
आये छोटे बड़े पड़ावों, चीजों, जगहों, और प्यार भरे लोगों के ‘जीवन का यह एक छोटा सा इतिहास’’ भी है। इस यात्रा में गाँव-कस्बे हैं, छोटे-छोटे शहर आत्मीयता से मौजूद हैं। लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, अयोध्या भी है। आगरा, ग्वालियर और भिंड भी। मुरादाबाद, नैनीताल और अल्मोड़ा के होने की अपनी वजहें भी हैं। दिल्ली है, जहाँ सब कुछ जाकर खो जाता है। लेकिन लेखक का मन ज्यादा रमता है अंतरंग इलाहाबाद में, जो न सिर्फ पचास सालों से ज्यादा भारतीय राजनीति के केन्द्र में रहा
है, औसत उत्तर भारतीय युवा की आशा-निराशा का भी केन्द्र बना रहा है जहां
संगम है, कुम्भ में एक छात्रावासी का सोना-जागना है, विश्वविद्यालय की
धड़कने सुनायी पड़ रही हैं।
इस यात्रा में जीवन रूढ़ियाँ हैं, घिसी-पिटी परम्पराओं पर चोटें है और वह भी एक अजब खिलंदड़ेपन के साथ; इस दौरान परिवेश को अपनी पैनी नजर से टटोलने की भी प्रक्रिया चलती रहती है और इसी बहाने लेखक की खुद की बनाबट-बुनावट का उसके अपने बनने की प्रक्रिया का भी पता चलता है। आप बीती-जग बीती का जो वृतांत यहाँ है। उसकी पृष्ठभूमि में है वह दुनियाँ, जिसमें हम जी रहे हैं। जिन विकट मुश्किलों में हम घिरे हुये है।
इसके साथ ही, यथा स्थिति को बनाये रखने, बदलाव की प्रकिया को धीमा करने जैसी साजिसों की पड़ताल भी चलती रहती है।
हेमन्त द्विवेदी का मन कविता में ज्यादा रमता है। इसकी छापें यहाँ भी है और जो बात कहने की नहीं है वह यह कि सारी आसानियों-दुश्वारियों के बाद भी रहना इसी दुनिया में है। ‘‘मुझे तुम्हारा स्वर्ग नहीं चाहिये। मैं मनुष्य हो गया हूँ और धरती पर रहना चाहता हूँ।’’
इस यात्रा में जीवन रूढ़ियाँ हैं, घिसी-पिटी परम्पराओं पर चोटें है और वह भी एक अजब खिलंदड़ेपन के साथ; इस दौरान परिवेश को अपनी पैनी नजर से टटोलने की भी प्रक्रिया चलती रहती है और इसी बहाने लेखक की खुद की बनाबट-बुनावट का उसके अपने बनने की प्रक्रिया का भी पता चलता है। आप बीती-जग बीती का जो वृतांत यहाँ है। उसकी पृष्ठभूमि में है वह दुनियाँ, जिसमें हम जी रहे हैं। जिन विकट मुश्किलों में हम घिरे हुये है।
इसके साथ ही, यथा स्थिति को बनाये रखने, बदलाव की प्रकिया को धीमा करने जैसी साजिसों की पड़ताल भी चलती रहती है।
हेमन्त द्विवेदी का मन कविता में ज्यादा रमता है। इसकी छापें यहाँ भी है और जो बात कहने की नहीं है वह यह कि सारी आसानियों-दुश्वारियों के बाद भी रहना इसी दुनिया में है। ‘‘मुझे तुम्हारा स्वर्ग नहीं चाहिये। मैं मनुष्य हो गया हूँ और धरती पर रहना चाहता हूँ।’’
सूटकेस की ओर
हाल ही में मुम्बई से एक बन्धु ने एक बेशकीमती किताब भेजी-महामानव किताब
भेजी-महामानव राहुल की ‘विनय पिटक’, पढ़ते-पढ़ते जैसे
कहीं खो
गया। विशेष रूप से 07.07.1934 को ल्हासा (तिब्बत की राजधानी) में वह लिखते
हैं- ‘‘मज्झिम-निकाय को छपते वक्त, मैंने इसी वर्ष
विनय पटक
का अनुवाद करने की बात लिखी थी। अबकी बार संस्कृति ग्रंथों की खोज में
मुझे तिब्बत आना पड़ा। 27 दिनों यह अनुवाद पद्-मो-गड्-फ-रि, ग्यां-चे,
ल्हासा में किया गया।’’ ‘घुमक्कड़
शास्त्र’ के
रचयिता इस महारथी का लगभग सारा-जीवन घूमने फिरने, पढ़ने, लिखने, अनुवाद
करने, नई पीढ़ी को अपने ध्येय के प्रति समर्पित रहने की सीख देने में ही
कटा। उनके कार्य का मूल्यांकन पिछले कई दशकों से हो रहा है और अगले कई
दशकों तक होता रहेगा-इतना विशाद और विस्तृत है उनके कार्य का लेखा-जोखा।
काश कि हिन्दुस्तान की दस फीसदी जनसंख्या राहुल के इन्हीं पागल पैरों के
पीछे चल पड़ती।
राहुल ने सारा विश्व एक बड़े सूटकेस की भाँति था जिसमें वे स्वच्छन्दता से घूमते-फिरते थे, परन्तु कुछ लोगों के सूट केस का साइज छोटा भी होता है। जैसे कि मेरे सूटकेस का साइज बहुत छोटा है। अरसे पहले कहीं लिखा था मैंने-हैरान न हो/यह ‘मैं’ हूँ/छोटी-छोटी सुविधाओं की लानत से भरा/ दफ्तर की मेज पर रखा हुआ यह ‘मैं’ हूँ। मतलब ‘सूटकेस’ से था :
राहुल ने सारा विश्व एक बड़े सूटकेस की भाँति था जिसमें वे स्वच्छन्दता से घूमते-फिरते थे, परन्तु कुछ लोगों के सूट केस का साइज छोटा भी होता है। जैसे कि मेरे सूटकेस का साइज बहुत छोटा है। अरसे पहले कहीं लिखा था मैंने-हैरान न हो/यह ‘मैं’ हूँ/छोटी-छोटी सुविधाओं की लानत से भरा/ दफ्तर की मेज पर रखा हुआ यह ‘मैं’ हूँ। मतलब ‘सूटकेस’ से था :
यह है मेरी जिन्दगी
सूटकेस में बंद-दिल्ली से लखनऊ
विश्वास न हो तो आप ही इसे
खोलकर देख लें
साबुन, शीशा, कंघा, तौलिया
कविता की खाली डायरी
लाटरी का अखबार, पंचांग
अमेरिका, यूरोप के नक्शे
सूटकेस में बंद-दिल्ली से लखनऊ
विश्वास न हो तो आप ही इसे
खोलकर देख लें
साबुन, शीशा, कंघा, तौलिया
कविता की खाली डायरी
लाटरी का अखबार, पंचांग
अमेरिका, यूरोप के नक्शे
जी हाँ अब सफर जटिल इसलिए विशेषीकृत हो गया है। इससे हमारी भागमभाग भी है,
हमारा आलस्य भी। बंधनों को तोड़कर भाग जाने की स्वच्छन्द जिज्ञासा भी है,
अपने में ही सिमटे रहने की मजबूरी भी और जमाने का दबाव भी। इसीलिए सूटकेस
में भरकर भी आदमी उसमें समा नहीं सका :
अगर कुछ छूट गया है
तो मुझसे पूछिये-
यह भी ‘‘मैं’’ हूँ
जो इसमें समा नहीं सका।
तो मुझसे पूछिये-
यह भी ‘‘मैं’’ हूँ
जो इसमें समा नहीं सका।
आज भी सूटकेस की कथा लिख रहा हूँ जिसमें एक औसत आदमी नहीं समाया और भीतर
बंद होने की प्रक्रिया में कभी उसका एक हाथ बाहर झाँकता है, कभी एक पैर,
कभी सिर और और कभी समूचा वजूद ! इस यंत्रणा के बाद भी आदमी सूटकेस में बंद
होने को अभिशप्त है। इस बंदी के दरमियान वह सैकड़ों किलोमीटर यात्रा करता
है और बाहर निकलकर कसम खाता है कि आइन्दा ऐसी यात्रा नहीं करूँगा। परन्तु
यात्रा की विवशता के बीच कुछ ऐसे पड़ाव भी होते हैं, कुछ ऐसे प्यारे लोग
मिलते हैं, कुछ ऐसी चीजें देखने को मिलती है जिन्हें वह भूलना नहीं चाहता,
भूल नहीं सकता, भूला नहीं जा सकता। ये पड़ाव भी कदाचित्त यात्रा की थकान
को कुछ कम कर देते हैं और फिर से सूटकेस में औसत आदमी को बंद होने के लिए
प्रेरणा देते हैं, उसे ऊर्जा देते हैं। प्रस्तुत संस्मरण ऐसी ही यात्राओं
के दौरान आये पड़ावों, चीजों, प्यारे लोगों के जीवन का एक छोटा इतिहास है।
यह संस्मरण मेरे जीवन का इतिहास ही है, आइना नहीं। मैं अभी तक इतना हिम्मतवर नहीं कि अपनी कमजोरियों का ऐलान कर सकूँ। इसमें पूरे जीवन को मैंने एक दिवस की भाँति विभाजित किया है जैसे उषा, प्रत्यूष, पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, संध्या, रात्रि, मध्यरात्रि। यह यात्रा दो खंड़ों में है। इस खँड में केवल उषा, प्रत्यूष, पूर्वान्ह, मध्यान्ह का यात्रा विवरण ही दिया गया है, क्योंकि मेरा जीवन भी तो अभी पूरा नहीं हुआ है। मुझे आशा है कि जीवन के पूर्ण होने के ‘‘जस्ट बिफोर’’ इसका दूसरा खण्ड भी आपके हाथों में होगा।
मेरा विश्वास है, सूटकेस में भरे इन प्रतीकों, इन अनुभूतियों के आप भी कभी न कभी साक्षी हुए होंगे; यदि नहीं हुए तो मैं आपके और किताब के बीच से हटता हूँ, आप स्वयं भीतर जाकर साक्षात्कार कीजिए।
यह संस्मरण मेरे जीवन का इतिहास ही है, आइना नहीं। मैं अभी तक इतना हिम्मतवर नहीं कि अपनी कमजोरियों का ऐलान कर सकूँ। इसमें पूरे जीवन को मैंने एक दिवस की भाँति विभाजित किया है जैसे उषा, प्रत्यूष, पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, संध्या, रात्रि, मध्यरात्रि। यह यात्रा दो खंड़ों में है। इस खँड में केवल उषा, प्रत्यूष, पूर्वान्ह, मध्यान्ह का यात्रा विवरण ही दिया गया है, क्योंकि मेरा जीवन भी तो अभी पूरा नहीं हुआ है। मुझे आशा है कि जीवन के पूर्ण होने के ‘‘जस्ट बिफोर’’ इसका दूसरा खण्ड भी आपके हाथों में होगा।
मेरा विश्वास है, सूटकेस में भरे इन प्रतीकों, इन अनुभूतियों के आप भी कभी न कभी साक्षी हुए होंगे; यदि नहीं हुए तो मैं आपके और किताब के बीच से हटता हूँ, आप स्वयं भीतर जाकर साक्षात्कार कीजिए।
-हेमन्त द्विवेदी
प्रवेश
आपने अन्धेरी रात में मिल्की वे (आकाश गंगा) तो देखा ही होगा। जैसे चमकीली
मणिया और रत्न सूने अंधेरे आकाश के वृक्ष पर फैला दिये हों। आप जानते ही
होंगे जनाब कि हमारा सौरमण्डल इसी मिल्की वे का एक बहुत छोटा हिस्सा है।
वैज्ञानिक और खगोलविद् भी मिल्की वे की सभी परतों का रहस्य अभी नहीं समझ
पाये हैं, मगर मिल्की वे के नयनाभिराम आकर्षण से कोई बचा नहीं वैज्ञानिक
हो, कवि हो या आम आदमी। तभी तो प्रसिद्ध हिन्दी कवि व नाटककार जयशंकर
प्रसाद ने ‘‘कामायनी’’ में
लिखा-रात्रि प्रकृति
की खूबसूरत प्रेयसी है और जब वह प्रियतम से मिलने निकली, उसका वस्त्र फट
गया और उसमें से निकली चमकीली मणियों/रत्नों ने संसार को मोहित कर दिया।
पता नहीं महाकवि प्रसाद ने वाराणसी के किस कोने से रजनी को देखा होगा :
पगली हां संभाल ले,
कैसे छूट पड़ा तेरा आंचल
देख बिखरती है मणिराजी
अरी उठा बेसुध चंचल।
फटा हुआ था, नील वसन क्या
ओ यौवन की मतवाली,
देख अंकिचन जगत लूटता,
तेरी छवि भोली भाली।
कैसे छूट पड़ा तेरा आंचल
देख बिखरती है मणिराजी
अरी उठा बेसुध चंचल।
फटा हुआ था, नील वसन क्या
ओ यौवन की मतवाली,
देख अंकिचन जगत लूटता,
तेरी छवि भोली भाली।
-जयशंकर प्रसाद
सचमुच इतने बड़े ब्रह्माण्ड में अपना सौरमंडल में एक कण मात्र। खगोलविद्
कहते हैं अपने सौर्यमण्डल में एक तारा सूर्य, पृथ्वी समेत नौ ग्रह तथा इन
मिल्की वे की तुलना में हमारा अस्तित्व सचमुच नगण्य-सा है-न कुछ। पता नहीं
हम सब किस बात पर इतना घमण्ड करते हैं। अस्तित्व की नगण्यता का एहसास तब
और बढ़ जाता है, जब मालूम होता है, मिल्की वे अत्यधिक तीव्रता से गति कर
रहा है।
वह हर क्षण एक्सपैंड कर रहा है, उसमें हर समय विस्फोट होते हैं, तथा हर वक्त वहां नाना प्रकार की क्रियाएँ/ प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं। ऐसे में हमारा अस्तित्व चमत्कार सा ही है।
जबकि मिल्की वे प्रतिक्षण गति कर रहे है, तब हम गति करें, या सोते रहें-गतिमान रहेंगे ही। जी हाँ, गतिमान बने रहना हमारी विवशता है। इसीलिये कहा जाता है-जीवन है, तो गति है, यदि गति नहीं है, वहाँ जीवन का अस्तित्व ही नहीं। गति होगी, तो वहाँ स्वाभाविक क्रियायें/प्रतिक्रियायें जरूर होंगी। इस प्रकार जीवन संघर्ष से सीधे जुड़ जाता है। अस्तित्व के लिए जीवन संघर्ष की अनिवार्यता है। इसी से मानव की, उसकी महानता की, उसके कर्म की, सुगन्ध फूटती है।
तो जनाब, जब हमने इस दुनिया में कदम रख ही लिया तो निश्चय किया कि चलने से घबरायेंगे नहीं कि सिर्फ ‘‘वाकिंग’’ करेंगे, बल्कि दौड़ भी सकते हैं। साइकिल चला सकते हैं, मोटर ट्रेन में बैठ सकते हैं। गोया कि हम तैरना नहीं जानते, मगर मन में यह निश्चय जरूर है कि अगर कभी आवश्यकता हुई, तो हम पानी में तैरने जैसा कुछ तो कर ही सकते हैं। वैसे पोखर में, नदीं में, समन्दर से, हवा में तैरने के अलग-अलग मतलब हैं, इनमें डूबने के भी अलग-अलग परिणाम होते हैं।
चलना शुरू करते ही हम दौड़ने लगें। लेकिन दौड़ में एक खास किस्म का खतरा था। एक तो चाट-चपेट लगने का हमेशा खतरा बना रहता है, दूसरे 100 मीटर को कभी हम 10-11 सेकंड में नहीं दौड़ सके। मन निराश हो उठा और हम दौड़ से फिर वांकिग पर लौट आये। खतरे तो मोटर ट्रेन में भी बहुत है, परन्तु क्या करूं ? आदमी पैदा होने के पूर्व से मृत्यु होने के बाद तक खतरों से ही खेलता है। रेलों के सिगनल, कर्मचारी, गाड़ियाँ, इंजन, दिन में तो बहुत विश्वसनीय प्रतीत होता है। दिन में केवल मैले से सनी पटरियाँ देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि रेलवे के दर्जनों बार सफाई अभियान चलाया है। ऐसा ही अनुभव मोटरों का है। परन्तु हम तो शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति वाले भारत के आस्तिक नागरिक हैं- हम रामभरोसे हैं, देश को आदमी कम ईश्वर ज्यादे चलाता है, सो मोटर-रेलों से यात्रा करने में हमारी श्रद्धा में रत्ती भर कमी नहीं आई।
स्कूटर साइकिल से भी हम चले अगर मुझे तो यह सवारी बेसीकली अच्छी नहीं लगती है। इस सवारी पर गर्मी में प्यास, जाड़े में ठंडक, बारिश में भीगते मन को एक अदद मोहब्बत की बड़ी जरूरत होती है। साइकिल मुझे दुनिया की सबसे अच्छी सवारी लगती हैं। छोटी दूरी के लिए इसका कोई मुकाबला नहीं। इसने जितनी सेवा इन्सानियत की की है, उतनी किसी अन्य वाहन ने नहीं की। विश्व को सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार था-चक्र या पहिया और साइकिल उस पहिए का उत्कृष्ट उपयोग। जनसंख्या के बहुमत की सेवक है, यही साइकिल। इसके उपयोग से थोड़ा बहुत शारीरिक श्रम भी हो जाता है और अपना काम भी। तन्दरुस्ती रखती है। भारतीय गांवों के लिए यह बहुत उपयोगी सवारी है और छात्र, अध्यापक, सेवानिवृत्त सभी प्रकार की उम्र के लोगों की आवश्यकता भी।
हवाई जहाज की बात हमने नहीं लिखी क्योंकि क्या पता कोई प्लेन कब ‘‘हाईजैक’’ हो जाये, बीच आकाश में फट जाये, जैसा कि अभी एक अमेरिकी प्लेन फटा था और जिसके सभी ढाई सौ यात्री चिर निद्रालीन हो गये थे, या प्लेन के क्यू को बीच आकाश में खबर मिले कि प्लेन में एक शक्तिशाली बम रखा है, जो कुछ मिनटों में ही फटने वाला है, या आसमान में किसी दूसरे प्लेन से टकरा जाये क्योंकि अब तो एयरट्राफिक भी जाम होने लगा है। मतलब यह कि प्लेन में सवारी करना भाड़े में इतना ज्यादा पैसा देकर जीवन की संभावनाओं को कम करना है।
वह हर क्षण एक्सपैंड कर रहा है, उसमें हर समय विस्फोट होते हैं, तथा हर वक्त वहां नाना प्रकार की क्रियाएँ/ प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं। ऐसे में हमारा अस्तित्व चमत्कार सा ही है।
जबकि मिल्की वे प्रतिक्षण गति कर रहे है, तब हम गति करें, या सोते रहें-गतिमान रहेंगे ही। जी हाँ, गतिमान बने रहना हमारी विवशता है। इसीलिये कहा जाता है-जीवन है, तो गति है, यदि गति नहीं है, वहाँ जीवन का अस्तित्व ही नहीं। गति होगी, तो वहाँ स्वाभाविक क्रियायें/प्रतिक्रियायें जरूर होंगी। इस प्रकार जीवन संघर्ष से सीधे जुड़ जाता है। अस्तित्व के लिए जीवन संघर्ष की अनिवार्यता है। इसी से मानव की, उसकी महानता की, उसके कर्म की, सुगन्ध फूटती है।
तो जनाब, जब हमने इस दुनिया में कदम रख ही लिया तो निश्चय किया कि चलने से घबरायेंगे नहीं कि सिर्फ ‘‘वाकिंग’’ करेंगे, बल्कि दौड़ भी सकते हैं। साइकिल चला सकते हैं, मोटर ट्रेन में बैठ सकते हैं। गोया कि हम तैरना नहीं जानते, मगर मन में यह निश्चय जरूर है कि अगर कभी आवश्यकता हुई, तो हम पानी में तैरने जैसा कुछ तो कर ही सकते हैं। वैसे पोखर में, नदीं में, समन्दर से, हवा में तैरने के अलग-अलग मतलब हैं, इनमें डूबने के भी अलग-अलग परिणाम होते हैं।
चलना शुरू करते ही हम दौड़ने लगें। लेकिन दौड़ में एक खास किस्म का खतरा था। एक तो चाट-चपेट लगने का हमेशा खतरा बना रहता है, दूसरे 100 मीटर को कभी हम 10-11 सेकंड में नहीं दौड़ सके। मन निराश हो उठा और हम दौड़ से फिर वांकिग पर लौट आये। खतरे तो मोटर ट्रेन में भी बहुत है, परन्तु क्या करूं ? आदमी पैदा होने के पूर्व से मृत्यु होने के बाद तक खतरों से ही खेलता है। रेलों के सिगनल, कर्मचारी, गाड़ियाँ, इंजन, दिन में तो बहुत विश्वसनीय प्रतीत होता है। दिन में केवल मैले से सनी पटरियाँ देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि रेलवे के दर्जनों बार सफाई अभियान चलाया है। ऐसा ही अनुभव मोटरों का है। परन्तु हम तो शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति वाले भारत के आस्तिक नागरिक हैं- हम रामभरोसे हैं, देश को आदमी कम ईश्वर ज्यादे चलाता है, सो मोटर-रेलों से यात्रा करने में हमारी श्रद्धा में रत्ती भर कमी नहीं आई।
स्कूटर साइकिल से भी हम चले अगर मुझे तो यह सवारी बेसीकली अच्छी नहीं लगती है। इस सवारी पर गर्मी में प्यास, जाड़े में ठंडक, बारिश में भीगते मन को एक अदद मोहब्बत की बड़ी जरूरत होती है। साइकिल मुझे दुनिया की सबसे अच्छी सवारी लगती हैं। छोटी दूरी के लिए इसका कोई मुकाबला नहीं। इसने जितनी सेवा इन्सानियत की की है, उतनी किसी अन्य वाहन ने नहीं की। विश्व को सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार था-चक्र या पहिया और साइकिल उस पहिए का उत्कृष्ट उपयोग। जनसंख्या के बहुमत की सेवक है, यही साइकिल। इसके उपयोग से थोड़ा बहुत शारीरिक श्रम भी हो जाता है और अपना काम भी। तन्दरुस्ती रखती है। भारतीय गांवों के लिए यह बहुत उपयोगी सवारी है और छात्र, अध्यापक, सेवानिवृत्त सभी प्रकार की उम्र के लोगों की आवश्यकता भी।
हवाई जहाज की बात हमने नहीं लिखी क्योंकि क्या पता कोई प्लेन कब ‘‘हाईजैक’’ हो जाये, बीच आकाश में फट जाये, जैसा कि अभी एक अमेरिकी प्लेन फटा था और जिसके सभी ढाई सौ यात्री चिर निद्रालीन हो गये थे, या प्लेन के क्यू को बीच आकाश में खबर मिले कि प्लेन में एक शक्तिशाली बम रखा है, जो कुछ मिनटों में ही फटने वाला है, या आसमान में किसी दूसरे प्लेन से टकरा जाये क्योंकि अब तो एयरट्राफिक भी जाम होने लगा है। मतलब यह कि प्लेन में सवारी करना भाड़े में इतना ज्यादा पैसा देकर जीवन की संभावनाओं को कम करना है।
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