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रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना

बच्चन सिंह

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :459
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2399
आईएसबीएन :81-8031-043-4

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प्रस्तुत है रीति कालीन कवियों की प्रमुख प्रेम-पूर्ण कवितायें.....

Riti Kaleen Kaviyon Ki Prem Vyanjana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य का कोई काल-खंड अपने आप में स्वतन्त्र इकाई नहीं होता, उसका एक परिवर्तनमान नैरन्तर्य होता है, परम्परा होती है। रीतिकाल की मुख्यधारा पर, विशेषतः जिसे रीतिवद्ध कहा जाता है, आचार्य शुक्ल ने तीखी टिप्पणियाँ जड़ी हैं। शुक्ल जी की देखा-देखी उनके आलोचकों ने उसे प्रतिक्रियावादी साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया। कुछ अन्य लोगों ने उसकी प्रतिरक्षा में दलीलें खड़ी कीं। इसका फल यह हुआ कि रीतिकाव्य रीतिमुक्त काव्य का चित्र धुँधलके से ढँक गया। यदि इसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देश भाषा काव्य (भक्तिकाव्य) की परम्परा में देखा गया होता, आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से परखा गया होता, सामन्ती परिवेश के अन्तर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में लक्षित किया गया होता तो इस काल के क्लासिक का मूल्यांकन अधिक प्रमाणित प्रतीत होता। कहना न होगा इस काल को इसकी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है।

बदले हुए सामन्ती परिवेश में कविता का लक्ष्य ही बदल गया था। एक समय था, जब कहा गया-‘कीन्हे प्राकृतजन गुनगाना। सिर धुन गिरा लागि पछताना।’ ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सों काम। आवत-जात पनहियाँ टूटीं बिसरि गयो हरिनाम।’ एक समय आया, जब कहा जाने लगा-‘हुकुम पाइ जयसाहि कै....।’ ‘ठाकुर सो कवि भावत मोंहि जो राज्यसभा में बड़प्पन पावै/पंडित और प्रवीनन को जोई चित्त हरै सो पवित्त बनावै।’ इस चित्रवृत्ति का प्रभाव कविता पर पड़ना ही था। लेकिन इन कविताओं में प्रेम का  उदात्त और अनुदात्त, दोनों प्रकार का चित्रण है। इसकी परम्परा सूर के काव्य में ही मिल जाती है। प्रेम के प्रति कैसी बेचैनी घनानन्द, ठाकुर, बोधा में मिलती है, वैसी बेचैनी, मीरा को छोड़, समस्त भक्ति-काव्य में नहीं मिलेगी। सामाजिक नैतिकता, छन्द, अस्पृश्यता, आदि पर भी इसमें पहली बार प्रकाश डाला गया है।

बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, विशेषणों, शब्दार्थ के बदलावों के सन्दर्भ में भी प्रेम के विरोधात्मक आयामों को विवेचित किया गया है। भेष-भूषा ही प्रेम की भाषा है। इस पर अलग से विचार किया गया है। लोक में प्रचलित तीज, त्योहार, ऋतु-उत्सव, आदि जितने मनोयोगपूर्वक इस काल की कविताओं में वर्णित है, अन्यत्र नहीं मिलेगा। आधुनिक काव्य में लोकोत्सव-चित्रण की निरन्तर कमी होती जा रही है।
रीतिकालीन काव्य से बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है तो बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है।

रीतिकालीन कवियों की प्रेमव्यंजना को स्पष्ट करने के लिये प्राचीन भारतीय मान्यताओं तथा पाश्चात्य विचार पद्धतियों का पूरा उपयोग किया गया है। उसके विविध आयामों की विवेचना की साहित्य के अतिरिक्त मनोविज्ञान, प्राणि विज्ञान, समाजशास्त्र आदि नवीन ज्ञान-विज्ञान का यथोचित सन्निवेश भी किया गया है। ऐसा करने में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि सभी के प्रति एक समन्वयात्मक और संतुलनात्मक दृष्टि बनी रहे। इसका परिणाम यह हुआ है प्रेम के ऐंद्रिय पक्ष के साथ ही जीवन के अन्य सम्बन्धों में भी उनके स्वरूप को ऐसी विवेचना हो सकी है जो साहित्य मर्मज्ञों को मनःपूत हो सकेगी।  


गिरि तें ऊँचे रसिकमन बूड़े जहाँ हजार।
वहै सदा पसु नरन कौं प्रेम पयोधि पगार।।

बिहारी


प्रेम सों कहत कोऊ ठाकुर न ऐंठौ सुनि,
बैठो गड़ि गहरे, तौ पैठो प्रेम घर मैं।

-देव


अति सूधो सनेह की मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झझकैं कपटी जे निसाँक नहीं

-घनआनंद


कवि बोधा अनी घनी भेजहुँ ते चढ़ि तापै न चिरु डरावनो है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तलवार की धार पै धावनो है।।

-बोधा


प्रस्तावना



रीतिकाल (सं. 1700 सं. 1900) के अंतर्गत आनेवाले काव्यों में प्रेम के कई रूप दिखाई पड़ते हैं-रीति के ढाँचे में ढला हुआ प्रेम, स्वच्छन्द काव्य धारा का उन्मुक्त ऐकांतिक प्रेम, भक्त कवियों का भगवत् प्रेम, प्रेमाख्यानक काव्यों का आध्यात्मिक तथा लौकिक प्रेम और कतिपय संत कवियों का निर्गुण प्रेम।

पर इस काल की साहित्य रचना का प्रमुख प्रेरणास्रोत रीतिप्रवृत्ति ही है। इन रीति काव्यों में वर्णित प्रेम ही हमारा प्रधान विवेच्य रहा है। स्वच्छन्द काव्य धारा में जिस उन्मुक्त किन्तु एकनिष्ठ प्रेम का वर्णन हुआ है वह इस काल की गौण काव्य धारा है किन्तु उसके महत्त्व को देखते हुए उसका यथोचित् विवेचन किया गया है। इस काल के अंतर्गत आनेवाले भक्त कवियों का भगवत् प्रेम तथा प्रेमाख्यानक काव्यों के आध्यात्मिक और लौकिक प्रेम की विवेचना मुख्य प्रबन्ध में न करके अलग से दो भिन्न-भिन्न परिशिष्टों में की गई है, क्योंकि ये न तो इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति के अंतर्गत आते हैं और न काव्योत्कर्ष की दृष्टि से इनसे सम्बद्ध रचनाएँ ही विशेष महत्त्वपूर्ण कही जा सकती हैं। भीखा और धरणीधर जैसे संत कवियों का निर्गुण प्रेम भी इस काल की मुख्य प्रवृत्ति के अंतर्गत नहीं आता है। अपनी एकांत गतानुगतिकता के कारण उसका कोई महत्त्व भी है। इसलिये इस प्रबन्ध में उसे समाविष्ट नहीं किया गया है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास के अतिरिक्त रीतिकाव्यों की विषयवस्तु की गहराई में पैठकर उसकी अंतःप्रवृत्तियों की मौलिक ढंग से छानबीन डॉ. नगेन्द्र की ‘रीतिकाव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता’ में की गई है। इस ग्रन्थ में देव को केन्द्र बनाकर शुद्ध साहित्यिक (रस) दृष्टि से रीति कविता का विवेचन विश्लेषण किया गया है। पर प्रस्तुत प्रबन्ध विषय वस्तु और प्रतिपादन शैली-दोनों दृष्टियों से उपर्युक्त ग्रन्थ से भिन्न है। ऐसी स्थिति में इस प्रबन्ध की अपनी विशेषताएं हैं।
विषय वस्तु के चुनाव तथा प्रतिपादन शैली की दृष्टि से यह प्रबन्ध एक नया प्रयास है। प्रेमव्यंजना को केन्द्र में रखकर रीतिकाल का विवेचन यहाँ प्रथम बार किया गया है। प्रेम, श्रृंगार की अपेक्षा अधिक व्यापक शब्द है, यह अपनी व्याप्ति में श्रृंगार को समेट लेता है। श्रृंगार अभयनिष्ठ प्रेम का ही समावेश हो सकता है जबकि प्रेम अपनी विस्तृति में अनुभयनिष्ठ प्रेम को ही सन्निविष्ट कर लेता है। इस काल की कविताओं में विशेष रूप से रीति कविताओं में, प्रेम के जो विभिन्न आयाम (डाइमेंशन्स) दिखाई पड़े हैं उनका नई दृष्टि से मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है।

इस प्रयत्न की नवीनता और मौलिकता के स्पष्टीकरण के लिये प्रस्तुत प्रबन्ध के उन कतिपय सूत्रों का उल्लेख करना आवश्यक है, जो प्रतिपादन सम्बन्धी नवीन दृष्टि की सूचना देते हैं।
प्रारम्भ में ही रीतिकाव्यों के प्रेरणा स्रोतों और उनके प्रधान विवेच्यों के उद्घाटन के पूर्व जिस सामंतीय वातावरण का विश्लेषण किया गया है, उसका मेरी दृष्टि में विशेष महत्त्व है। इस वातावरण का वास्तविक स्वरूप उद्घाटित करने के लिये ऐतिहासिक आँकड़ों और घटनावलियों को न प्रस्तुत कर रीतिकाव्यों को ही आधार माना गया है। साहित्य में युग के प्रभावों को ढूँढ़ने के लिये यह पद्धति अधिक श्रेयस्कर और साहित्यिक प्रतीत होती है। इससे ऐतिहासिक घटना पुंजों और साहित्य पर पड़े उसके प्रभावों को अलग- अलग हो जाने का खतरा भी नहीं रहता।

 रीति काव्यों में प्राप्त संकेतों के आधार पर तत्कालीन सामंतीय जीवन, रसिकवर्ग नागरिक और ग्रामीण जीवन का भेद, रामसभा में बड़प्पन पाने की स्पृहा आदि का सम्यक् विवेचन विश्लेषण हुआ है। इनके आधार पर रीतिकवियों के प्रेम सम्बन्धी विशेष दृष्टिकोण के विवेचन और स्पष्टीकरण का प्रयत्न किया गया है। इस अध्याय में नायिका भेद सम्बन्धी कुछ ऐसे संस्कृत ग्रन्थों का प्रथम बार उल्लेख किया गया है जो निश्चित रूप से केशव और देव के नायिकोद के आधारभूत ग्रन्थ है। इसे प्रमाणित करने के लिये संस्कृत और हिन्दी के नायिका भेद सम्बन्धी लक्षणों के समानान्तर उदाहरण भी दिए गए हैं। इस प्रसंग में लेखक ने कुछ ऐसी बातों का प्रथम बार पता बताया है जो अब तक अज्ञात थीं।

प्रेम का स्वरूप’ अध्याय में प्रेम के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये कवियों, नाटककारों, मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों आदि के विचारों का यथाशक्ति संचय, यथार्थवादी विचारसरणियों का विश्लेषण किया गया है वे एक संतुलित निष्कर्ष पर पहुँचाने में पर्याप्त योग देती हैं। इनके आधार पर प्रेम और श्रृंगार रस की सूक्ष्म विभाजक रेखा को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यह तो सहृदय समालोचक ही कह सकते हैं कि यह प्रयत्न कितना सफल हुआ है किन्तु लेखक को इतना सन्तोष अवश्य है कि गतानुगतिकता से वह कुछ ऊपर उठ कर नए ढंग से अपनी बात कह सका है।

तृतीय अध्याय में रीतिकाव्यों में वर्णित प्रेम में यह देखने का प्रयत्न किया गया है कि उसमें शारीरिक आकर्षण, मानसिक आकर्षण और आध्यात्मिक आकर्षण का क्या स्वरूप है तथा इनमें से कौन-सा आकर्षण अधिक प्रमुख होकर सामने आया है। शारीरिक आकर्षण का विवेचन करते समय संतायन, कोलिन स्काट और हैवलाक एलिस के नारी और पुरुष सौन्दर्य के कतिपय परस्वरविरोधी विचारों का विश्लेषण करते हुए जिन नवीन निष्कषों पर पहुँचा गया है वे सम्भवतः नारी के सम्बन्ध में पुरुष और पुरुष के सम्बन्ध में नारी के दृष्टिकोण को स्पष्ट करने में अधिक सहायक सिद्ध हो सके हैं।

 देशकाल की सीमाओं से निर्धारित रूप के सम्बन्ध में पूर्व और पश्चिम के उच्चतम आदर्शों को तुलनात्मक दृष्टि से देखते हुए पूर्वीय सौन्दर्य के जिन आदर्शों को प्रतिष्ठापित किया है उन्हीं के आधार पर रीतिकवियों की नायिकाओं के सौन्दर्य निरूपणा का प्रयास किया गया है। नारी का रूप खड़ा करने के लिये भारतीय काव्यशास्त्रों में उपमानों की जो सूची दी गई है उनमें ये रीतिकवियों ने अधिकांश को ग्रहण किया है। कुछ प्रतियोग्य तत्कालीन वातावरण से भी लिए गए हैं। इनके विवेचन के साथ ही मनोवैज्ञानिक शब्दावली में नारी के अप्रधान यौन उपादानों (सेकेंडरी सेक्सुअल कैरेक्ट्स) के नाम से अभिहित होने वाले अंगों का जो विश्लेषण किया गया है वह तत्कालीन प्रेम सम्बन्धी दृष्टिकोण पर नया प्रकाश डालेगा ऐसी आशा है। मानसिक आकर्षण के अंतर्गत नारी की शालीनता की जो समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक विवेचना की गई है वह भी प्रयत्न की दृष्टि से नवीन है।

‘स्वच्छन्द काव्यधारा’ नामक अध्याय में इस काव्यधारा को रीतिकाव्य धारा से अलग करने वाली विशेषताओं को सूक्ष्मतापूर्वक परखने का प्रयत्न किया गया है। इस काव्यधारा में प्रेम सम्बन्धी नवीन मूल्यों की भी स्थापना की गई है।
‘रीतिकालीन नायिकाओं की वेषभूषा’ में वेषभूषा के आविर्भाव के मनोवैज्ञानिक कारणों का उल्लेख करते हुए मुख्यतः यह बतलाया गया है कि इसके धारण करने के मूल्य में आलंबन की क्या दृष्टि रहती है तथा इसके द्वारा आश्रय के मन में किस प्रकार प्रेमोद्दीपन होता है। रीतिकाव्यों में वर्णित वेषभूषा को उपर्युक्त दोनों दृष्टियों से परखने के साथ ही संस्कृत काव्य नाटकों में उल्लिखित वेषभूषा सम्बन्धी मान्यताओं, लोक में प्रचलित तत्सम्बन्धी धारणाओं तथा मनोवैज्ञानिक तथा प्राणिशास्त्रीय ग्रन्थों में निर्दिष्ट तद्विषयक सिद्धान्तों के यथा प्रसंग निर्देश से अपने निष्कर्षों को और भी पुष्ट किया गया है। इस काल की वेशभूषा को स्पष्ट करने के लिये यथावसर रीतिकालीन चित्रों का भी उल्लेख किया गया है। प्रेमोद्दीपन में कुछ विशिष्ट आवरणों का उपयोग जिन दृष्टियों से किया गया है, उनके उल्लेखन से इस अध्याय की मौलिकता और नवीनता और भी बढ़ गई है। इसी अध्याय में षोडश श्रृंगार का प्रसंग कई नवीन तथ्यों पर प्रकाश डालता है, जिसके सम्बन्ध में अभी तक प्रायः कुछ भी नहीं कहा गया था। वेषभूषा द्वारा प्रेम के स्पष्टीकरण का यह प्रयास हिन्दी के लिये कई दृष्टियों से नया ही है।

‘प्रेमचित्रण का नैतिक स्वर’ में मध्यवर्गीय कौटुंबिक नैतिकता, सामंतीय नैतिकता, तत्कालीन स्त्री-पुरुष की नैतिकता आदि की विवेचना करते समय स्थान-स्थान पर (विशेष रूप से स्वकीया के प्रसंग में) पूर्वीय और पाश्चात्य दृष्टिकोणों के भेद को भी ध्यान में रखा गया है। इस काल के रीतिकवियों ने सामंतीय उच्छृख्डलता को नैतिक सीमाओं में ले आने का प्रयास किया है। इससे साफ है कि उन्होंने प्रभुसत्ता सन्पन्न वर्ग की नैतिकता का येनकेन प्रकारेण समर्थन करना अपना ध्येय बना लिया था। अभिनव गुप्त की रसपरिपाक सम्बन्धी कुछ मान्यताओं का उल्लेख करते हुए यह दिखाने का यत्न किया गया है कि इस प्रकार प्रभुसत्ता सन्पन्न वर्ग की नैतिकता को बराबर वास्तविक नैतिकता का रूप देने का प्रयत्न होता रहा है। नायक-नायिका भेद के आधार पर भी तत्कालीन नैतिकता को समझने का नया प्रयत्न किया गया है।

‘प्रेमाभिव्यंजना की भाषा शैली’ में शब्दों के नए सम्बन्ध, शब्द ध्वनि, चित्रोपम विशेषण, मुहावरे, लोकोक्ति, लक्षित (डाइरेक्ट) उपलक्षित (फिगरेटिव इमेजरी) आदि द्वारा ठोस उद्धरणों के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए हैं। उपलक्षित चित्रयोजना (फिगरेटिव इमेजरी) द्वारा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से गृहीत अप्रस्तुतों के उद्धारणों के आधार पर रीतिकालीन कवियों के प्रेम सम्बन्धी जो निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए हैं वे कवियों की निजी विशेषताओं का भी उद्घाटन करते हैं। जिस उपलक्षित चित्र योजना का सन्निवेश इस अध्याय में किया गया है वह हिन्दी के लिये एकदम नवीन कही जा सकती है।

रीतिकालीन कवियों की प्रेमव्यंजना को स्पष्ट करने के लिये प्राचीन भारतीय मान्यताओं तथा पाश्चात्य विचार पद्धतियों का पूरा उपयोग किया गया है। उसके विविध आयामों की विवेचना में साहित्य के अतिरिक्त मनोविज्ञान, प्राणि विज्ञान, समाजशास्त्र आदि नवीन ज्ञान-विज्ञान का यथोचित सन्निवेश भी किया गया है। ऐसा करने में इस बात का ध्यान रखा गया है कि सभी के प्रति एक समन्वयात्मक और संतुलनात्मक दृष्टि बनी रहे। इसका परिणाम यह हुआ है प्रेम के ऐंद्रिय पक्ष के साथ ही जीवन के अन्य सम्बन्धों में भी उसके स्वरूप की ऐसी विवेचना हो सकी है जो साहित्य मर्मज्ञों को मनःपूत हो सकेगी।

इस प्रबन्ध की रचना में श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जो नवीन दृष्टि दी है तथा अशेष स्नेह संवलित आद्यंत जो निर्देशन किया है, उनके लिये औपचारिक कृतज्ञता प्रकाशित करना मेरी अंत-प्रेरणा के विरुद्ध है। सुप्रसिद्ध कलाविद् आदरणीय रायकृष्णदास जी ने भारत कला भवन के चित्रों द्वारा रीतिकालीन नायिकाओं की वेषभूषा को स्पष्ट करने में मेरी बड़ी सहायता की है। संस्कृत अलंकार शास्त्र तथा मनोविज्ञान सम्बन्धी कतिपय उलझनों को स्पष्ट करने में आदरणीय डॉ. नगेन्द्र के संकेतों का भी मैंने लाभ उठाया है। इन दोनों महानुभावों के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ।   


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