कविता संग्रह >> सन्धिनी सन्धिनीमहादेवी वर्मा
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गीत संग्रह...
Sandhini
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘सन्धिनी’ में मेरे कुछ गीत संग्रहीत हैं। काल-प्रवाह का वर्षों में फैला हुआ चौड़ पाट उन्हें एक दूसरे से दूर और दूरतम की स्थिति दे देता है। परन्तु मेरे विचार में उनकी स्थिति एक नदी-तट से प्रवाहित दीपों के समान है। दीपदान के दीपकों में कुछ, जल की कम गहरी मन्थरता के कारण उसी तट पर ठहर जाते हैं, कुछ समीर के झोंके से उत्पन्न तरंग-भंगिमा में पड़कर दूसरे तट की दिशा में बह चलते है और कुछ मझधार की तरंगाकुलता के साथ किसी अव्यक्त क्षितिज की ओर बढ़ते हैं। परन्तु दीपकों की इन सापेक्ष दूरियों पर दीपदान देने वाले की मंगलाशा सूक्ष्म अन्तरिक्ष-मण्डल के समान फैल कर उन्हें अपनी अलक्ष्य छाया में एक रखती है। मेरे गीतों पर भी मेरी एक आस्था की छाया है।
मनुष्य की आस्था की कसौटी काल का क्षण नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो काल पर मनुष्य का स्वनिर्मित सीमावरण है। वस्तुतः उनकी कसौटी क्षणों की अटूट संसृति से बना काल का अजस्त्र प्रवाह ही रहेगा।
‘सन्धिनी’ नाम साधना के क्षेत्र में सम्बन्ध रखने के कारण बिखरी अनुभूतियों की एकता का संकेत भी दे सकता है और व्यष्टिगत चेतना का समष्टिगत चेतना में संक्रमण भी व्यंजित कर सकेगा।
मनुष्य की आस्था की कसौटी काल का क्षण नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो काल पर मनुष्य का स्वनिर्मित सीमावरण है। वस्तुतः उनकी कसौटी क्षणों की अटूट संसृति से बना काल का अजस्त्र प्रवाह ही रहेगा।
‘सन्धिनी’ नाम साधना के क्षेत्र में सम्बन्ध रखने के कारण बिखरी अनुभूतियों की एकता का संकेत भी दे सकता है और व्यष्टिगत चेतना का समष्टिगत चेतना में संक्रमण भी व्यंजित कर सकेगा।
चिन्तन के क्षण
युग-बोध तथा काव्य-बोध
विश्व की समस्त रूपात्मक तथा जैवी विवृति अणु-परमाणु के विशेष संघटन का परिणाम है और इस संघटन की ऊर्जा की न्यूनाधिक मात्रा में ही जीवन के सचेतन, प्रसुप्त चेतन, अवचेतन आदि रूपों की स्थिति सम्भव है।
यह निष्कर्ष दर्शन का तार्किक सत्य ही नहीं, विज्ञान की अनुसन्धानिक उपलब्धि भी है।
मानव-जीवन में अणु-परमाणुओं की संघटन-ऊर्जा अत्यन्त रहस्यमय तथा जटिल-रूपों में परिवर्तित होती रहती है। मानव एक विशेष भौतिक परिवेश में ही नहीं, सचेतन परिवेश में भी विकास पाता है, अतः उसके जीवन का, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, स्थूल-सूक्ष्म, सरल-जटिल दो विपरीत छोरों की ओर आकर्षित रहना स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य कहा जाएगा।
गति या क्रियाशीलता जीवन का धर्म है, चाहे वह ऊर्ध्व हो, चाहे सम, चाहे अधः। और यह क्रियात्मक गतिशीलता किसी अन्य को स्पर्श किये बिना सम्भव नहीं होती। स्पर्श का परिणाम क्रिया-प्रतिक्रियात्मक होने के कारण वह अनन्त विविधता का सृजन करता चलता है।
जल की जलीयता विशेष प्राकृतिक संघटन की परिणति है और उनकी गति की क्रिया-प्रतिक्रिया से अनेक पर्स पर भिन्न तथा विपरीत रूपों का संघटन होता चलता है। उसके तरल स्पर्श से कठिन शिलाएँ कटकर कणों में परिवर्तित हो सकती हैं और कण-कण जुड़कर शिला का रूप पा सकते हैं।
मनुष्य का जीवन भी अन्तः-बाह्य परिवेशों से क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्पर्क स्थापित करता हुआ ही गतिशील है।
विशेष विकासक्रम में उसकी क्रियाशीलता इतनी जटिल और रहस्यमयी रही है कि एक-एक सहज प्रवृत्ति का प्रसार सहस्र-सहस्र अर्जित प्रवृतियों में हो गया है और अब एक को दूसरे से भिन्न भी एक विशेष शोध की अपेक्षा रखता है। जैसे एक वटवृक्ष की शाखाएँ आकाश की ओर चढ़ती हैं तथा धरती के अन्तराल में उतरती हैं, वैसे ही मानव की प्रवृत्तियां मूलतः एक होकर सर्वथा विपरीत दिशाओं में विकासात्मक प्रसार करती हैं।
प्राणिमात्र को अपने परिवेश का परिचय प्रकृतिदत्त कारणों (इन्द्रियों) द्वारा ही प्राप्त होता है, परन्तु यह भी सत्य है कि उसे अपने दोहरे परिवेश के दोहरे परिचय के लिए कोई ऐसी वृत्ति विशेष या कारण विशेष प्राप्त हैं, जो इन्द्रियों के समान प्रत्यक्ष नहीं।
मानवेतर जीवन में भी यह सहज वृत्ति उसकी आत्मरक्षात्मक गतिशीलता में निरन्तर सहायक रहती है। जो सहज वृत्ति शील के अभाव में भी उसके आगमन की पूर्व सूचना देकर कुछ पक्षियों को ऊष्ण भू-खण्डों में प्रवास की प्रेरणा देती है, जो प्रकृति की निःस्तब्धता में भी, आने वाली आँधी की चाप सुनाकर पशु-पक्षियों को आत्मरक्षा की ओर प्रेरित करती है, वह इन्द्रियों के समान प्रत्यक्ष नहीं है।
मानव पहुँचते-पहुँचते यह सहज चेतना कितनी गहराई और विस्तार पा गई होगी इसका अनुमान कठिन नहीं है। मनुष्य की दोहरी विकासात्मक गति केवल प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञान से सीमित नहीं हो सकती परिणामतः अपने अन्तः-बाह्य विकास के लिए उसे सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारणों का सहयोग लेना पड़ा, तो आश्चर्य नहीं।
अपने मनसी या भैतिक परिवेश की क्रिया-प्रतिक्रिया के ग्रहण-संप्रेषण के लिए उसके पास बुद्धि और हृदय की ऐसी रहस्यमयी वृत्तियाँ हैं, जो उसकी शारीरिक-मानसिक समस्त क्रियाशीलता को संचालित करते हुए भी अप्रत्यक्ष रहती हैं।
जीवन की क्रिया-प्रतिक्रिया-जनित किसी भी भौतिक या मानसिक स्थिति की सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति हृदय का धर्म है और उसका मूल्यांकन ज्ञान बुद्धि का अधिकार।
काव्य वास्तव में मानव के सुख-दुःखात्मक संवेदनों की ऐसी कथा है, जो उक्त संवेदनों को सम्पूर्ण परिवेश के साथ दूसरे की अनुभूति का विषय बना देती है। परन्तु यह ग्रहण-संप्रेषण बुद्धि के सहयोग की भी विशेष अपेक्षा रखता है। किसी विक्षिप्त व्यक्ति के सुख-दुःखात्मक संवेदन उसी रूप में अन्य व्यक्तियों की अनूभूति का विषय नहीं बन पाते, क्योंकि संवेदन की सारी तीव्रता के साथ भी उसका बौद्धिक विघटन संवदेन की संश्लिष्टता को विघटित कर देता है। परिणामतः उसके सुख-दुःख से वांछित तादात्म्य न होने के कारण श्रोता या दर्शन के हृदय में सर्वथा विपरीत भाव उदय हो जाते हैं, तथा उसके हँसने पर करुणा, रोने पर हास्य।
वस्तुतः काव्य, बुद्धि के आलोक में संवेदनाओं का संप्रेषण है। मानव के जितने सृजन हैं, कविता उनमें सबसे अधिक रहस्यमय सृजन है, जिसमें उसके अन्तःकरण का संगठन करने वाले सभी अवयव मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार एक साथ सामंजस्यपूर्ण स्थिति में कार्य करते हैं।
अन्तःकरण का संगठन करने वाले अवयवों में मन, जो कार्य की दृष्टि से उभयेन्द्रिय माना जाता है, समस्त संकल्प-विकल्पों का कारण है और संकल्प-विकल्प के अभाव में किसी प्रकार की क्रिया-प्रक्रिया सम्भव नहीं रहती। चित्त, धारणा या स्मृति से सम्बन्ध रखता है, जिसके संरक्षण के बिना बौद्धिक तथा संवेदनजन्य संस्कार पानी पर खींची लकीर के समान मिटते जाते हैं।
बुद्धि संकल्प-विकल्प की नाप-जोख और मूल्यांकन करने वाली निर्णयात्मक वृत्ति है, जो स्वयं सर्जनात्मिका न होने पर भी सर्जन तत्त्वों की रेखाओं को उद्भासित और इस प्रकार संचालित करती चलती है।
अहंकार द्वारा हमें ऐसा आत्मबोध प्राप्त होता है, जिसके अभाव में व्यक्ति-सत्ता और समष्टि-सत्ता में मानवीय आस्था सम्भव नहीं रहती।
अन्तःकरण की इन विभिन्न वृत्तियों के सम्मिलित निर्माण की विशेषता एक ऐसी सामंजस्यपूर्ण स्थिति पर निर्भर रहती, जो सामान्य नहीं कही जा सकती यह स्थिति जितनी पूर्ण होगी, उसका निर्माण उतना ही जीवन को सब ओर से स्पर्श करने वाला और युग-युगान्तरगामी होगा।
काव्य की पूर्णता में अनेक पूर्वरागों का संस्कार प्रतिफलित होता रहता है।
पारदर्शी शीशे के अनेक आवरणों में से हम एक ही वस्तु को एक साथ समीप और दूर देखते हैं। बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति काव्य-बोध की है। समय के पारदर्शी स्तरों में मानव के संवेदात्मक संस्कार इस प्रकार प्रतिफलित होते रहते हैं कि अखण्ड-काल से युग विशेष को पृथक करने वाली दृष्टि ही उन्हें जोड़ने लगती है।
वस्तुत: अखण्ड समय को हमने अपने संवेगों के अविर्भाव-तिरोभाव से नापा है और अपने घटित वृत्तों में विभाजित किया है। जो घटित हो चुका है; वह अतीत है, जो घटित हो रहा है, वह वर्तमान है और जिसके घटित होने का हमें अनुमान है, वह भविष्य है।
परन्तु काव्य-दृष्टि, समय की खण्डश: स्थिति को अपनी सीमा नहीं मानती। वह एक संवेदन से चलकर संवेदन-संसृति के चरम बिन्दु तक पहुँच जाती है। नदी-तट के एक छोर पर बैठकर हम यदि उसके जल में हाथ डुबोते हैं, तो वह सम्पूर्ण नदी का स्पर्श है, जल के अंशविशेष का नहीं।
काव्य का सत्य युग विशेष को स्पर्श करके ही युग-युगान्तर को छू लेता है, अत: उसकी सार्थकता के लिए समय का अखण्ड विस्तार अनिवार्य ही रहेगा।
यदि एक उग्र मनोविकार, युगविशेष में जीवित एक ही मानव में उत्पन्न और तिरोहित हुआ है, तो काव्य के लिए न वह भीषण है, न उग्र। इसी प्रकार यदि एक कोमल मनोविकार युगविशेष में किसी एक व्यक्ति में सीमित रहा हो, तो वह काव्य के लिए आकर्षण नहीं रखता।
वस्तुत: काव्य के लिए ही संवेदन, वे ही मनोविकार महत्त्व रखते हैं, जो जीवन की युग-युगान्तर दीर्घ यात्रा में नव-नव रूपों में परिवर्तित और संस्कृत होते चले आ रहे हैं।
मनोविकारों का वाहक ही नहीं, संस्कारक भी होने के कारण काव्य, युगविशेष में सीमित नहीं हो पाता। कोई ऐसा मानवीय संवेदन या कोई ऐसी मानसिक या बौद्धिक विकास-पद्धति संभव नहीं, जो अपने पूर्व रूप या भावी परिणति के साथ मध्यस्थिति न रखती हो। जो मध्यस्थिति को स्वीकृति देता है, वह उसकी पूर्वापर स्थितियों को भी स्वीकृति देने के लिए बाध्य है।
इसके विपरीत युग-बोध विशेष समय-खण्ड में सीमित रहकर ही अपना परिचय देने में समर्थ है।
युग-बोध के लिए तात्कालिक सीमाएँ अनिवार्य हैं, परन्तु, काव्य-बोध की सार्थकता उसकी बन्धन मुक्ति में ही रहती है।
इसका यह तात्पर्य नहीं कि काव्य युग-बोध से शून्य रहता है। एक विशेष युग और विशेष परिवेश में जीवित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी ही परिस्थितियों से प्रभावित और संचालित होता है। उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया, ग्रहण-संप्रेषण भी अपने परिवेश में ही संभव है, परन्तु उसकी यह युग-सीमित क्रियाशीलता जीवन के व्यापक विस्तार में भी स्थिति रखती है। धरती की आर्द्र हरीतिमा में खिला फूल धरती के सिकता-विस्तार में भी खिला है।
अन्तर केवल उस दृष्टि में है जो विस्तार को नाप नहीं पाती। काव्यदृष्टि किसी वस्तु या घटना को पूर्वापर संबंधों में रखकर देखता है, अत: उसके निकट युगविशेष की अभिव्यक्तियाँ अतीत और अनागत युगों के सत्य को भी व्यक्ति करने में समर्थ हैं। किसी भी युग की घटना, किसी भी युग का संवेदन कवि के लिए त्याज्य नहीं होता, क्योंकि वह उसके माध्यम से अपने युग-सत्य को कालातीत विराट् सत्य से जोड़कर उसे नूतन रूप में अवतरित करने की क्षमता रखता है। राम की कथा हर युग में काव्य का विषय रहा है, परन्तु युग-सत्य के साथ उसे जो रूप मिलता रहा है, वह सर्वथा नवीन है। सामान्य जीवन में भी एक वृत्त या घटना, कहने वालों की मानसिक स्थितियों के अनुसार कितने भिन्न रूप पा लेती हैं, यह नित्य अनुभव का विषय है।
कवि का मानसिक गठन तथा उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया, अधिक व्यापक फलक पर स्थिति रखती है, अत: उसका काव्य व्यक्तिगत रुचि मात्र नहीं रह जाता।
यह निष्कर्ष दर्शन का तार्किक सत्य ही नहीं, विज्ञान की अनुसन्धानिक उपलब्धि भी है।
मानव-जीवन में अणु-परमाणुओं की संघटन-ऊर्जा अत्यन्त रहस्यमय तथा जटिल-रूपों में परिवर्तित होती रहती है। मानव एक विशेष भौतिक परिवेश में ही नहीं, सचेतन परिवेश में भी विकास पाता है, अतः उसके जीवन का, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, स्थूल-सूक्ष्म, सरल-जटिल दो विपरीत छोरों की ओर आकर्षित रहना स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य कहा जाएगा।
गति या क्रियाशीलता जीवन का धर्म है, चाहे वह ऊर्ध्व हो, चाहे सम, चाहे अधः। और यह क्रियात्मक गतिशीलता किसी अन्य को स्पर्श किये बिना सम्भव नहीं होती। स्पर्श का परिणाम क्रिया-प्रतिक्रियात्मक होने के कारण वह अनन्त विविधता का सृजन करता चलता है।
जल की जलीयता विशेष प्राकृतिक संघटन की परिणति है और उनकी गति की क्रिया-प्रतिक्रिया से अनेक पर्स पर भिन्न तथा विपरीत रूपों का संघटन होता चलता है। उसके तरल स्पर्श से कठिन शिलाएँ कटकर कणों में परिवर्तित हो सकती हैं और कण-कण जुड़कर शिला का रूप पा सकते हैं।
मनुष्य का जीवन भी अन्तः-बाह्य परिवेशों से क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्पर्क स्थापित करता हुआ ही गतिशील है।
विशेष विकासक्रम में उसकी क्रियाशीलता इतनी जटिल और रहस्यमयी रही है कि एक-एक सहज प्रवृत्ति का प्रसार सहस्र-सहस्र अर्जित प्रवृतियों में हो गया है और अब एक को दूसरे से भिन्न भी एक विशेष शोध की अपेक्षा रखता है। जैसे एक वटवृक्ष की शाखाएँ आकाश की ओर चढ़ती हैं तथा धरती के अन्तराल में उतरती हैं, वैसे ही मानव की प्रवृत्तियां मूलतः एक होकर सर्वथा विपरीत दिशाओं में विकासात्मक प्रसार करती हैं।
प्राणिमात्र को अपने परिवेश का परिचय प्रकृतिदत्त कारणों (इन्द्रियों) द्वारा ही प्राप्त होता है, परन्तु यह भी सत्य है कि उसे अपने दोहरे परिवेश के दोहरे परिचय के लिए कोई ऐसी वृत्ति विशेष या कारण विशेष प्राप्त हैं, जो इन्द्रियों के समान प्रत्यक्ष नहीं।
मानवेतर जीवन में भी यह सहज वृत्ति उसकी आत्मरक्षात्मक गतिशीलता में निरन्तर सहायक रहती है। जो सहज वृत्ति शील के अभाव में भी उसके आगमन की पूर्व सूचना देकर कुछ पक्षियों को ऊष्ण भू-खण्डों में प्रवास की प्रेरणा देती है, जो प्रकृति की निःस्तब्धता में भी, आने वाली आँधी की चाप सुनाकर पशु-पक्षियों को आत्मरक्षा की ओर प्रेरित करती है, वह इन्द्रियों के समान प्रत्यक्ष नहीं है।
मानव पहुँचते-पहुँचते यह सहज चेतना कितनी गहराई और विस्तार पा गई होगी इसका अनुमान कठिन नहीं है। मनुष्य की दोहरी विकासात्मक गति केवल प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञान से सीमित नहीं हो सकती परिणामतः अपने अन्तः-बाह्य विकास के लिए उसे सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारणों का सहयोग लेना पड़ा, तो आश्चर्य नहीं।
अपने मनसी या भैतिक परिवेश की क्रिया-प्रतिक्रिया के ग्रहण-संप्रेषण के लिए उसके पास बुद्धि और हृदय की ऐसी रहस्यमयी वृत्तियाँ हैं, जो उसकी शारीरिक-मानसिक समस्त क्रियाशीलता को संचालित करते हुए भी अप्रत्यक्ष रहती हैं।
जीवन की क्रिया-प्रतिक्रिया-जनित किसी भी भौतिक या मानसिक स्थिति की सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति हृदय का धर्म है और उसका मूल्यांकन ज्ञान बुद्धि का अधिकार।
काव्य वास्तव में मानव के सुख-दुःखात्मक संवेदनों की ऐसी कथा है, जो उक्त संवेदनों को सम्पूर्ण परिवेश के साथ दूसरे की अनुभूति का विषय बना देती है। परन्तु यह ग्रहण-संप्रेषण बुद्धि के सहयोग की भी विशेष अपेक्षा रखता है। किसी विक्षिप्त व्यक्ति के सुख-दुःखात्मक संवेदन उसी रूप में अन्य व्यक्तियों की अनूभूति का विषय नहीं बन पाते, क्योंकि संवेदन की सारी तीव्रता के साथ भी उसका बौद्धिक विघटन संवदेन की संश्लिष्टता को विघटित कर देता है। परिणामतः उसके सुख-दुःख से वांछित तादात्म्य न होने के कारण श्रोता या दर्शन के हृदय में सर्वथा विपरीत भाव उदय हो जाते हैं, तथा उसके हँसने पर करुणा, रोने पर हास्य।
वस्तुतः काव्य, बुद्धि के आलोक में संवेदनाओं का संप्रेषण है। मानव के जितने सृजन हैं, कविता उनमें सबसे अधिक रहस्यमय सृजन है, जिसमें उसके अन्तःकरण का संगठन करने वाले सभी अवयव मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार एक साथ सामंजस्यपूर्ण स्थिति में कार्य करते हैं।
अन्तःकरण का संगठन करने वाले अवयवों में मन, जो कार्य की दृष्टि से उभयेन्द्रिय माना जाता है, समस्त संकल्प-विकल्पों का कारण है और संकल्प-विकल्प के अभाव में किसी प्रकार की क्रिया-प्रक्रिया सम्भव नहीं रहती। चित्त, धारणा या स्मृति से सम्बन्ध रखता है, जिसके संरक्षण के बिना बौद्धिक तथा संवेदनजन्य संस्कार पानी पर खींची लकीर के समान मिटते जाते हैं।
बुद्धि संकल्प-विकल्प की नाप-जोख और मूल्यांकन करने वाली निर्णयात्मक वृत्ति है, जो स्वयं सर्जनात्मिका न होने पर भी सर्जन तत्त्वों की रेखाओं को उद्भासित और इस प्रकार संचालित करती चलती है।
अहंकार द्वारा हमें ऐसा आत्मबोध प्राप्त होता है, जिसके अभाव में व्यक्ति-सत्ता और समष्टि-सत्ता में मानवीय आस्था सम्भव नहीं रहती।
अन्तःकरण की इन विभिन्न वृत्तियों के सम्मिलित निर्माण की विशेषता एक ऐसी सामंजस्यपूर्ण स्थिति पर निर्भर रहती, जो सामान्य नहीं कही जा सकती यह स्थिति जितनी पूर्ण होगी, उसका निर्माण उतना ही जीवन को सब ओर से स्पर्श करने वाला और युग-युगान्तरगामी होगा।
काव्य की पूर्णता में अनेक पूर्वरागों का संस्कार प्रतिफलित होता रहता है।
पारदर्शी शीशे के अनेक आवरणों में से हम एक ही वस्तु को एक साथ समीप और दूर देखते हैं। बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति काव्य-बोध की है। समय के पारदर्शी स्तरों में मानव के संवेदात्मक संस्कार इस प्रकार प्रतिफलित होते रहते हैं कि अखण्ड-काल से युग विशेष को पृथक करने वाली दृष्टि ही उन्हें जोड़ने लगती है।
वस्तुत: अखण्ड समय को हमने अपने संवेगों के अविर्भाव-तिरोभाव से नापा है और अपने घटित वृत्तों में विभाजित किया है। जो घटित हो चुका है; वह अतीत है, जो घटित हो रहा है, वह वर्तमान है और जिसके घटित होने का हमें अनुमान है, वह भविष्य है।
परन्तु काव्य-दृष्टि, समय की खण्डश: स्थिति को अपनी सीमा नहीं मानती। वह एक संवेदन से चलकर संवेदन-संसृति के चरम बिन्दु तक पहुँच जाती है। नदी-तट के एक छोर पर बैठकर हम यदि उसके जल में हाथ डुबोते हैं, तो वह सम्पूर्ण नदी का स्पर्श है, जल के अंशविशेष का नहीं।
काव्य का सत्य युग विशेष को स्पर्श करके ही युग-युगान्तर को छू लेता है, अत: उसकी सार्थकता के लिए समय का अखण्ड विस्तार अनिवार्य ही रहेगा।
यदि एक उग्र मनोविकार, युगविशेष में जीवित एक ही मानव में उत्पन्न और तिरोहित हुआ है, तो काव्य के लिए न वह भीषण है, न उग्र। इसी प्रकार यदि एक कोमल मनोविकार युगविशेष में किसी एक व्यक्ति में सीमित रहा हो, तो वह काव्य के लिए आकर्षण नहीं रखता।
वस्तुत: काव्य के लिए ही संवेदन, वे ही मनोविकार महत्त्व रखते हैं, जो जीवन की युग-युगान्तर दीर्घ यात्रा में नव-नव रूपों में परिवर्तित और संस्कृत होते चले आ रहे हैं।
मनोविकारों का वाहक ही नहीं, संस्कारक भी होने के कारण काव्य, युगविशेष में सीमित नहीं हो पाता। कोई ऐसा मानवीय संवेदन या कोई ऐसी मानसिक या बौद्धिक विकास-पद्धति संभव नहीं, जो अपने पूर्व रूप या भावी परिणति के साथ मध्यस्थिति न रखती हो। जो मध्यस्थिति को स्वीकृति देता है, वह उसकी पूर्वापर स्थितियों को भी स्वीकृति देने के लिए बाध्य है।
इसके विपरीत युग-बोध विशेष समय-खण्ड में सीमित रहकर ही अपना परिचय देने में समर्थ है।
युग-बोध के लिए तात्कालिक सीमाएँ अनिवार्य हैं, परन्तु, काव्य-बोध की सार्थकता उसकी बन्धन मुक्ति में ही रहती है।
इसका यह तात्पर्य नहीं कि काव्य युग-बोध से शून्य रहता है। एक विशेष युग और विशेष परिवेश में जीवित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी ही परिस्थितियों से प्रभावित और संचालित होता है। उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया, ग्रहण-संप्रेषण भी अपने परिवेश में ही संभव है, परन्तु उसकी यह युग-सीमित क्रियाशीलता जीवन के व्यापक विस्तार में भी स्थिति रखती है। धरती की आर्द्र हरीतिमा में खिला फूल धरती के सिकता-विस्तार में भी खिला है।
अन्तर केवल उस दृष्टि में है जो विस्तार को नाप नहीं पाती। काव्यदृष्टि किसी वस्तु या घटना को पूर्वापर संबंधों में रखकर देखता है, अत: उसके निकट युगविशेष की अभिव्यक्तियाँ अतीत और अनागत युगों के सत्य को भी व्यक्ति करने में समर्थ हैं। किसी भी युग की घटना, किसी भी युग का संवेदन कवि के लिए त्याज्य नहीं होता, क्योंकि वह उसके माध्यम से अपने युग-सत्य को कालातीत विराट् सत्य से जोड़कर उसे नूतन रूप में अवतरित करने की क्षमता रखता है। राम की कथा हर युग में काव्य का विषय रहा है, परन्तु युग-सत्य के साथ उसे जो रूप मिलता रहा है, वह सर्वथा नवीन है। सामान्य जीवन में भी एक वृत्त या घटना, कहने वालों की मानसिक स्थितियों के अनुसार कितने भिन्न रूप पा लेती हैं, यह नित्य अनुभव का विषय है।
कवि का मानसिक गठन तथा उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया, अधिक व्यापक फलक पर स्थिति रखती है, अत: उसका काव्य व्यक्तिगत रुचि मात्र नहीं रह जाता।
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