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जहाँ सब शहर नहीं होता

श्रीप्रकाश शुक्ल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2393
आईएसबीएन :00000

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यहाँ शहर महज एक शहर नहीं है। यह इतिहास भी है और भूगोल भी। यह स्मृति भी और यथार्थ भी। यह स्थिति भी है और परिवर्तन भी।

jahan sab shahar nahin hota

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘जहाँ अपना शहर नहीं होता’ संकलन में श्रीप्रकाश शुक्ल अपनी प्रौढ़ रचनाओं के साथ उपस्थित हैं जिसमें संदर्भ, संवाद और सवाल एक साथ मिलते हैं। यहाँ परिवर्तन के तर्क व स्थितियों की मार्मिकता दोनों मौजूद हैं जिसमें वे एक स्थित (सिचुएशन) में होकर दूसरे को रचे रहे होते हैं। इसका परिणाम ही है कि उनमें संवेदानात्मक स्थितियों व मिथकीय संदर्भों के साथ व्यक्तिगत स्पेस, इतिहास बोध, समयगत व सामयिक बोध तथा मनोवैज्ञानिक व दार्शनिक संदर्भ एक साथ मिलते हैं। यहाँ शहर महज एक शहर नहीं है। यह इतिहास भी है और भूगोल भी। यह स्मृति भी और यथार्थ भी। यह स्थिति भी है और परिवर्तन भी। यहाँ एक शहर भीतर है तो एक बाहर। कहीं-कहीं एक शहर के भीतर कई-कई शहर ! कहीं यह अपने वजूद का पैमाना भी है तो कहीं धारा के बीच भी अपनी धार को बनाए रखने की बेचैनी (फ़र्क़) कहीं शहर के बरअक्स, अवशिष्ट जगहों की तलाश है तो कहीं गहरा क्षयबोध।

 इस रूप में श्रीप्रकाश की कविताओं में चीज़ों को देखने का एक नया अंदाज़ है। कहीं ‘समयबोध’ कविता में ‘अपनी दुनियाँ की जितनी भी चीज़ें देखी गयी हैं/ सामने से नहीं/ पीछे से देखी हुई हैं’, जैसी पंक्तियों के रूप में मिलता है, तो कहीं पत्नी के प्रेम जैसे नितान्त नाजुक प्रसंगों के बीच भी अपने वजूद को अनदेखा नहीं किये जाने की बेचैनी से भी जुड़ता है (फ़र्क़)। कहीं ‘पानी व जल’ के फ़र्क़ को पकड़ा गया है (मकर संक्रान्ति).तो कहीं एक बूढ़े की उदासी को जीवन्त संदर्भों में उतारा गया है (भाग्य विधाता)। कहीं रूढ़ियों पर प्रहार है (राजयोग) तो कहीं पारम्परिक रूप से गंगाजल चढ़ाने के दृश्य को श्रमजल से जोड़कर देखा गया है (काँवरिये)। कहीं स्त्री संदर्भ से ‘पत्नी के मोद के बीच जैसे/ ठेहुँन का दर्द’ जैसी पंक्तियाँ हैं (पूजा) तो कहीं पिता के आर्थिक अभाव के कारण बेटियों के लगातार झंखार होते जाने की करुण कथा भी है (तीन बहनें)।

कुल मिलाकर श्रीप्रकाश की कविताएँ मनुष्य की छीजती मनुष्यता की बेचैनी से रची गयी समग्रताबोध की कविताएँ हैं। यहाँ आत्मीय संस्पर्श की गूँज के साथ हर वस्तु का एक तटस्थ चित्रण मिलता है। यह कवि को न केवल अर्थवान बनाता है बल्कि प्रासंगिक भी।



छोटे शहर में



उनका ख़त आता है
परेशानी की कोई वज़ह नहीं
बड़े काम होने को
छोटे शहर में ही होते हैं

बड़ी-बड़ी इमारतें
छोटे-छोटे लोगों द्वारा ही बनाई जाती हैं
छोटी-छोटी इमारतों के बनने की
कोई वज़ह नहीं होती

छोटे शहर में सब शहर नहीं होता
जहाँ सब शहर नहीं होता
बड़े शहर जैसा सब नहीं होता

जहाँ सब नहीं होता
वहाँ कुछ होना
न होना
कुछ नहीं होता

परेशानी की कोई वजह नहीं है
जैसे पानी, बिजली, दवा के न होने की
कोई वज़ह नहीं होती
छोटे शहर में।


भरोसा



मैं इस शहर में
कई बरष से
बस एक ही दुकान से
सामान लाता आया हूँ

मैंने जब दुकान बदलनी चाही
पुराने सामानों ने मुझे परेशान किया है
अपने भरोसे से।


स्थिति



कितना अजीब लगता है छोटे शहर में
पत्नी के साथ किसी दुकान पर चाट खाना
सब्जी खरीदना
या कि ब्यूटी पार्लर जाना
और खड़े रहना
ठीक दरवाज़े के बाहर
कि जाने कब पत्नी बाहर निकलें
और कहें कि घर चलिए
सीधे !

यह एक अजीब स्थिति है
कि हर चेहरा आपका देखा हुआ लगता है
कि हर क्षण बस यही आता है मन में
कि वहाँ से गुजरती कोई छात्रा
पूछ ही न दे
कि आप यहाँ क्या कर रहे हैं ?

या कि वहाँ ठहरकर कोई छात्र
पूछ ही न बैठे
कि गुरु जी बताइये
कहाँ छोड़ आऊँ ?


माप



कोई भी शहर
इतना छोटा नहीं होना चाहिए
कि कहीं भी खड़े होकर
आप मस्ती से चाय न पी सकें

शहर यदि शहर है
तो इतना छोटा नहीं ही होना चाहिए
कि किसी हलवाई की दुकान पर बैठे
पत्नी के मुँह में
जैसे ही एक बरफी डालें
किसी पड़ोसी महिला द्वारा धर लिये जायँ

या कि किसी सिनेमाघर के सामने खड़े हों
और कोई शिष्या उसमें से निकले
और अपने छोटे बच्चे से कहे
कि पैर छुओ इनका
पंद्रह साल पहले ये मेरे गुरुजी थे !

सब हो
सड़कें न हों, पानी न हो, स्कूल न हो, दवा न हो, हवा न हो...
किन्तु कोई भी शहर
इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए
कि अपनी माप के लिए बार-बार
आपको शहर से दूर जाना पड़े।


मकर संक्रांति



किताब अजीब होता है वह दिन
जहाँ एक ओर गंगा के जल में
मची होती है होड़
डुबकी की
बच्चे पतंगों को लूटने में व्यस्त रहते हैं

पता नहीं क्षितिज के किस कोने से
उठती हैं ये पतंगें
कि दिख ही जाती हैं
सबसे पहले बच्चों को
और जब तक लोग करते हैं हाँ। हाँ।
बच्चे लूट ही लेते हैं पतंगें
जिनमें अब महज़ कटे धागे होते हैं

बच्चे इन धागों को कतई पसंद नहीं करते
इन्हें छोड़ देते हैं घर वालों पर
चाहे जैसे वे इसका इस्तेमाल करें

उन्हें बहुत कम मतलब होता है गंगा के जल से
उन्हें बहुत मजा आता है अपनी गड़ही के पानी में
और यदि इस पर्व पर उन्हें
ढूढ़ी तिलवा और चिउरा न दिया जाय
तो निश्चय ही वे
गंगातट तक जाने से भी मना कर दें

उनकी तबीयत तो बस लगी रहती है उस आकाश में
जहाँ से उल्काओं की तरह गिरती हैं पतंगें
और बगैर किसी अपशकुन के
वे मुक्त होते हैं इस दुनिया में
जो उलझी रहती है हर वक़्त
पानी और जल के फ़र्क़ में।


संतुलन



वहाँ एक संतुलन था
संतुलन में भीड़ थी
भीड़ में बच्चा था
बच्चे में आँतें थीं
जहाँ एक संतुलन था

वहाँ एक बाँस था
एक रिम थी
एक डोरी थी
और इन सबसे अलग बजती
एक ढोलक थी
जहाँ एक संतुलन था

वहाँ सब कुछ था
और सब कुछ के बावजूद
बहुत कुछ नहीं था

वहाँ जो कुछ भी था
हवा का हवा में संतुलन था।


जीभ



दाँत का निकलवाना
महज़ एक क्रिया नहीं है
सौ रुपये जमा करके
किसी आपरेशन कक्ष में लेट जाने की

यह एक दुःखद प्रक्रिया है
जिसको सहन कर पाना कठिन है
और इससे भी कठिन है
सहन कर पाना
दाँत के न रहने का दुःख

आप में से जिस किसी के पास
एक दाँत न हो
वह इसे ठीक-ठीक समझ सकता है
कि कितनी दुःखी होती है
बेचारी जीभ
जब भूमण्डल का एक चक्कर लगाने के बाद
एक बार अवश्य ही
खाईं में गिरती है

जीभ महज़ एक स्वाद नहीं है मित्रो
बछड़ों को चाटती माँ है
कितना भयंकर लगता है
माँ को उसका घर
जब एक कमरा खाली होता है।


अचार



माँ ने भेजे हैं अचार
तरह तरह के अचार
किसिम किसिम के अचार
आम के अचार।

अचार में बहती हैं हवाएँ
हवाओं में उड़ती है धूल
धूल में लहराता है आँचल
आँचल में मेरा सिर

माँ को जाने कैसे पता था
सिर के बारे में
इसमें छिपे
जमीन की तरह उठे
विचार के बारे में
कि हर वक़्त इसे अगोरती रहती थी।

जितनी बार इन विचारों में काई लगी है
माँ फिसली है
और जितनी बार माँ फिसली है
उतनी बार
अचार से भुकड़ी की गंध आई है।


भाग्य विधाता



छः तगारी बालू और एक तगारी सीमेण्ट से बना यह
उच्च कुल प्रसरित प्रसाद
अपने एकांत में खड़ा है
जिसके तसलों में
उनके पसीने का अदहन सनसनाता है

यह जो इसकी फर्श है
इस पर ज़रा नंगे पाँव चलकर तो देखो
मन गिनगिना जायेगा
जैसे दुधिया रंग के चावल में
मिल गया हो कोई कीड़ा

वह देखो
उधर,
उस सड़क को देखो
जाने किस युग से चली आ रही है
जहाँ उसके काले काले अलकतरों के नीचे
सोखे गये रक्ताभ कण
दब पड़े हैं

ज़रा इनकी तरतीब दीवारों को खुरच कर तो देखो
कहीं न कहीं उनके बेतरतीब चेहरों का नक्शा भी होगा
भाग्य बिधाता !
जिसके नीचे उनके करड़ी की छाप भी मिलेगी
इसके भीतर हँसने की आवाज़ आती है
कुछ कुछ प्यार करने जैसी मद्धिम रोशनी जलती है
और इसके ठीक ऊपर बैठे हुए एक बूढ़े पर
बड़ी तरस आती है
जब वह नीचे झाँकता है।

उस समय वह निपट अकेला होता है
सिवाय नीचे बहती उस दुनिया के
जिसमें रोशनी है
हरियाली है
भरापूरा घर है
और नन्हीं सी
गौरैया जैसी फुदकती बच्ची है।



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